सेंट स्टीफंज कॉलेज के प्रिंसिपल ने
सिद्धू की दाखिले की दरख़ास्त ठुकरा दी क्योंकि दाखिले तो दो महीने पहले खत्म हो
चुके! सिद्धू घबराया नहीं. सीधा यूनिवर्सिटी के
रजिस्ट्रार के पास
पहुंचा. मदद मांगी. रजिस्ट्रार
ने कहा,’ वापस सेंट स्टीफंज कॉलेज जाओ. प्रिंसिपल को कहो, मुझे
टेलीफोन फोन करे. यह बात सुनकर सिद्धू लौटकर कॉलेज की तरफ चल पडा. रास्ते में उसको
एक एम. ए. हिंदी का छात्र मिल गया. उसने सलाह दी. एम. ए. इंग्लिश करने के लिए
रामजस कॉलेज को सबसे बढ़िया माना जाता है. रामजस का प्रिंसिपल आप भी अंग्रेजी पढ़ाता
है.
इस वक्त के रामजस कॉलेज और तब के रामजस
कॉलेज में बहुत फर्क था. सिद्धू ने अपना रास्ता बदल लिया. वह उलटी जानिब चल पड़ा.
रामजस कॉलेज पहुंच गया. प्रिंसिपल बी.बी गुप्ता को मिला. प्रिंसिपल ने सिद्धू की
काबलियत झट पहचान ली. सिद्धू को कहा, दाखिले के 250 रुपए जमा करा दे. पर सिद्धू के
पास इतनी रकम थी नहीं. उसके पास 15 रुपए थे. प्रिंसिपल गुप्ता ने कैशियर को कहा, ‘इससे
सिर्फ 9 रुपए ले लो. आज दाख़िले का आख़िरी दिन है. दाख़िले की जरुरी रस्म पूरी कर लो.
बाकी की फीस यह बाद में दे देगा. होशियारपुर लौटने के वास्ते छह रुपए इसके पास
रहने दे. हॉस्टल में इसके वास्ते कमरा भी अलोट करवा दे.’
-डॉ सी.डी वर्मा
अमरीकन साहित्य के बारे में 1966 में एक
सेमीनार हुआ. सिद्धू ने इसमें वाल्टविटमन पर पेपर पेश किया. अमरीकन प्रोफेसर
क्रिस्टी ने इस पेपर को सेमीनार में पेश हुए सभी पर्चों में से बेहतरीन कहा. डॉ
सरूप सिंह ने, जो उस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग के मुखिया थे,
सिद्धू की भरपूर प्रंशसा की. और तुरंत ही फुलब्राइट स्कालरशिप पर उसके अमरीका जाने
का प्रबंध कर दिया. विसकानसिन यूनिवर्सिटी ने उसको अपनी यूनिवर्सिटी से भी
अंग्रेजी की एम. ए करने के लिए कहा. उसने परीक्षा दी और यूनिवर्सिटी में से अव्वल
रहा. पौने तीन साल में वो एम. ए और डॉक्टरेट दोनों
हासिल करके, डेढ़ महीना यूरोप की सैर करके, वापस हंसराज कॉलेज आ पहुंचा.
-डॉ कुलदीप सिंह धीर
जब मैं डॉ सिद्धू से इनामों-सम्मानों की
बात करने लगा, तो वह बीच में ही टोकर बोला: इनाम-सम्मान बड़े मिले हैं, पर मैं
तुम्हें ‘बाबा बंतू’ की बात सुनाता हूं. ‘बाबा बंतू’ पंजाब यूनिवर्सिटी की बी.ए.
क्लास में लगा हुआ है. मैं नवां शहर गया. अपने एक मित्र के पास ठहरा, जो कॉलेज में
पढ़ाता था. जब मैंने ‘बाबा बंतू’ के प्रभाव के बारे में पूछा, वह कहने लगा: नहीं
रीस ‘बाबा बंतू की. ‘बाबा बंतू’ की जात-बरादरी के लड़के-लड़कियां शेर बने बैठे हैं
कि उनके बाबा दा की नीच समझी जाने वाली बोली में लिखी किताब भी उनको कोर्स में
पढ़ाई जा सकती है! मुझे ‘बंतू’ के पुत्र-पौत्रों ने अपना कहा. मैं सदियों तक उनका
कर्जदार रहूंगा. डॉ सिद्धू का गला भर आया. और आंखें खुशी के आंसुओं से भर गईं.
उसका पक्के रंग वाला चेहरा स्वाभिमान से ज्वलंत था.
-डॉ अजित सिंह
सिद्धू बड़ी प्यारी शरारतें करता है. (
सयाना बंदा शरारती होता है और शरारती बंदा सयाना होता है. और ऐसे बंदे जिंदगी में
सफल होते हुए देखे जाते हैं.) अक्सर लेखक किसी मुश्किल में फंसने के डर के मारे
अपनी पुस्तक के आगे यह नोट लिख देते हैं कि ‘ इस नाटक या नावल के पात्र और घटनाएं
फर्जी हैं. अगर किसी का नाम किसी पात्र के नाम से मेल खा जाए, तो यह सिर्फ संयोग
ही होगा.’
इसके उलट, सिद्धू अपनी हर रचना के शुरू
में अक्सर दिलचस्प नोट लिख देता है: ‘इस ड्रामे के अंदर वाले बंदों के नाम और
घटनाएं सच्ची हैं. हर बंदे को लेखक पर मुकदमा करने की पूरी छूट है.’ एक स्थान पर
वह लिखता है,’ इस ड्रामे की घटनाएं सही और सच्ची हैं. पिटाई से बचने की खातिर,
लेखक ने कुछ एक बंदों के नाम उलटे-सीधे कर दिए हैं.’
-जगदीश कौशल
प्रश्न- कोई अपूर्ण रही ख्वाहिश?
उत्तर- सिर्फ दो ख्वाहिशें पूरी नहीं
हुईं. एक तो दिन बड़ा छोटा होता है. मैं ज्यादा काम और ज्यादा आनंद लेना चाहता हूं.
दूसरा, मेरा ब्याह हेमा मालिनी से नहीं हो सका.
-रोजाना जगवाणी, जालंधर
[सभी झांकियां 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र' नामक
किताब से लिए गए हैं. जिसे संपादित रवि तनेजा जी ने किया है और छापा 'श्री प्रकाशन' ने
है. बाकी की झांकियों के लिए आप किताब पढ़ सकते हैं. ]