Thursday, September 12, 2024

मेरी निम्मो

 

कोई-कोई फिल्म प्यार-सी मीठी, प्रेमिका-सी सुंदर और बच्चे-सी मासूम होती है. कुछ ऐसी ही मीठी,सुंदर और मासूम फिल्म है 'मेरी निम्मो'. यूं तो इस फिल्म की कहानी एक छोटे से गांव में जन्मी प्रेम की साधारण-सी कहानी है लेकिन यह साधारणता ही इस फिल्म की खूबसूरती है.इस सादी कहानी में गांव के एक नाबालिग लड़के 'हेमू' को एक बालिग लड़की 'निम्मो' से 'वैसा' वाला नहीं 'वो' वाला प्यार हो जाता है. फिल्म 'वैसे वाले प्यार' से शुरू होकर 'वो वाले प्यार' तक चलती है. और आखिर में गांव के एक बाहरी मोड़ से होकर एक दूसरे ही मोड़ को मुड़कर खत्म जाती है. बस इतनी-सी कहानी है इस फिल्म की. परंतु इस फिल्म में 'वैसे' और 'वो' वाले प्यार के बीच जो खट्टा-मीठा घटता है वो दिल को छू लेता है. ऐसा लगता है कि आप मासूमियत की नदी में रुक-रूककर डूबकी लगा रहे हैं. डूबकी से जो आनंद मिल रहा है. वो अद्भूत है. आपको इस फिल्म में गांव के खाली पड़े खेतों में क्रिकेट खेलने से पहले टॉस के लिए सूखे-गिले का इस्तेमाल करते बच्चे नजर आ जाएंगे. गांव की किसी गली के नुक्कड़ पर बच्चे पिठ्ठू खेलते दिख जाएंगे. गांव की एक सीधी गली में कुत्ते से डरता मेरे जैसा एक बच्चा मिल जाएगा. गांव के एक बड़े से घर से कोई लड़की लोकगीत 'झटपट डोलिया उठाओ रे कहरवा' गाते हुए मिल जाएगी. गांव में आई शहरी बारात में कोई शहरी 'एक्स्चुसे मी' कहता हुआ मिल जाएगा. फिल्म के इस गांव में घूमते हुए आपको कुछ ना कुछ अवश्य मिल जाएगा. जैसे मुझे ये सब मिला. आखिर में जब आप इस फिल्म को देखकर उठेंगे तो आपकी झोली खाली नहीं अलग-अलग एहसासों से भारी होगी. और ये एहसास ही मेरी निम्मोफिल्म की जान हैं.

नोट- फोटो गूगल से.

Tuesday, March 12, 2024

बचपन का दोस्त और बचपन की यादें

कभी कोई दोस्त अचानक से वर्षों बाद याद आ जाता है. याद आने के बाद मिलने या बात करने की तलब बेहद ज्यादा हो जाती है. लेकिन आपके पास ना उसका फोन नंबर होता है. और ना ही उसके घर का पता. बस तब आप मायूस होकर उसके साथ बिताए पुराने दिनों को याद करने लग जाते हैं.

खैर यह दोस्ती उन दिनों की है, जब सुबह-सुबह गली में दही ले लो दहीकी आवाज लगाते दही बेचने वाले आया करते थे. उनके सिर पर कपड़े की इंडी जैसी कुछ हुआ करती थी. और उसके ऊपर पतले कपड़े से ढकी दही की हांडी. अब तो याद भी नहीं कि दही कितने रूपए किलो मिला करती थी. लेकिन दही बेहद स्वादिष्ट हुआ करती थी. उसके स्वाद का कारण दही का मिट्टी की हांडी में जमना हुआ करता था.

फिर भरी दोपहरी में कुल्फी वालेघंटी बजाते हुए अपनी रेहड़ी लेकर आते थे, उनकी रेहड़ी में कुल्फी के पास एक लोहे की चरखी लगी होती थी. जिसके बीच में अंक लिखे होते थे. बच्चे लोग उसे घूमाते थे. और कोई-कोई बच्चा ऐसे घुमाता था कि दो-दो कुल्फी पा जाता था. और कोई एक आध तीन भी पा जाता था. और मेरे जैसा तो हमेशा बस एक ही कुल्फी पाता था.

उसी भरी दोपहरी में गली के नुक्कड़ पर एक भूस की टाल पर ताशखेलने वालों का मजमा भी लगा रहता था. वहां अक्सर ताश का गेम 'सीप' खेला जाता था लेकिन कभी-कभी दहला पकड़ भी खेला जाता था. ताश के 'सीप' के खेल में हम भी कभी-कभी हाथ आजमा लिया करते थे.

खैर मैं बात दोस्त की कर रहा था. मुझे इस वक्त उसकी शादी से जुड़ी एक घटना की याद आ रही है. हल्की वाली सर्दियों में दोस्त की शादी थी. कैमरा वाला करना उनके लिए संभव नहीं था. लेकिन शादी की फोटो याद के लिए हो जाएं तो ये भी हम दोनों की इच्छा थी. इसलिए कैमरे की तलाश शुरू हुई कि किसी दोस्त के पास कोई छोटा-मोटा कैमरा हो तो उसे शादी में ले जाया जाए. खैर हमारे एक किराएदार थे. वे एक बैंक में काम करते थे. और वे उत्तराखंड के थे. उनके पास कैमरा था. वो भी रील वाला. तब रील वाले कैमरे ही हुआ करते थे ज्यादातर. लेकिन वे कैमरामैन नहीं बनना चाहते थे. तब आपां दोस्त के लिए कैमरामैन बन गए थे.  बात बस इतनी-सी नहीं है. जो बात मैं बताना चाहता हूं वो दूसरी है.

खैर फिर क्या था शादी के दिन नए कपड़े पहनकर आपां कैमरामैन हो गए. बारात लुटियंस दिल्ली में किसी एमपी के घर के पीछे बने घरों में जानी थी. कैमरे की रील सीमित मात्रा में खरीदी गई थीं. तो फोटो भी हमारे द्वारा भी कम लिए जा रहे थे. शायद तीन-चार रील ही खरीदी गई थीं. और उस वक्त एक रील में 32-36 के करीब फोटो आती थीं. लेकिन जब फेरे के समय की बारी आई तो रील कम पड़ गईं. जहां तक मुझे याद है बस एक रील ही बची थी. तब मैंने यह बात दोस्त को बताई और कहा कि अब मैं क्या करूं? अब तो रील भी खरीदी नहीं जा सकती. क्योंकि उन दिनों उस लुटियंस इलाके में कोई दुकान भी नहीं थी. तब उसने कहा था, जो तुझे करना है वो तू कर ले. और फिर फेरों के वक्त जिसे देखो वही कहे कि मेरी फोटो ले लो दूल्हे के साथ. मैं फोटो लेने से मना कर दूं या अनदेखा कर दूं तो लोग गुस्से से देखने लगें. या गुस्सा हो जाएं. तभी मुझे ख्याल आया कि ऐसा करता हूं कि खाली फ़्लैश मार देता हूं. किसे पता चलेगा कि फोटो ली है कि नहीं. और ट्रिक काम कर गई. फिर फेरे के समय जो फोटो जरुरी लगती उसकी फोटो ले लेता था वरना तो फ़्लैश से काम चला लेता था. लेकिन तभी कोई महिला फेरों के बीच ही बोली, ' यो कैमरा वाला हमारी फोटो नहीं लेता खाली फ़्लैश मारे है बस.' और मेरी पोल खुल गई. आजतक पता नहीं यह पोल खुली तो कैसे खुली. फिर बाद में ही लड़कों वालों की तरफ से बताया गया कि ये कोई कैमरा वाला नहीं है ये तो दूल्हे का दोस्त है!!

खैर अब यहां ना वो दोस्त है. ना ही अब यहां वो दही वाले या कुल्फी वाले आते हैं। और ना ही अब वो भूस की टाल है. यहां तो अब बस मैं हूं, ये मोहल्ला है. या फिर पुरानी यादें हैं!!

Sunday, September 10, 2023

मेरी पहली साइकिल और उसकी यादें

आज सुबह 'आशीष जी' ने फेसबुक पर एक पोस्ट साइकिल पर डाली. उस पोस्ट को पढ़कर हमारी दबी हुई इच्छा जाग-सी गई. दरअसल मैं खुद भी कई साल से एक साइकिल खरीदना चाहता था. उसी से सुबह टहलने जाना चाहता था. उसी से थोड़ा घूमना भी चाहता था. यह इच्छा कोरोना काल में पैदा हुई थी. जब घर में बैठे-बैठे पागल सा हो रहा था. तब यह तमन्ना कभी सो जाती थी और कभी जाग जाती थी. जागने और सोने की अपनी-अपनी वजह थीं.
आज जब 'आशीष जी' ने पोस्ट डाली तो यह तमन्ना फिर से जाग गई. इसके साथ-साथ पुरानी यादें भी फिल्म की तरह मेरी आंखों में चलने लगीं. शायद तब मैं कक्षा 9 या कक्षा 10 में पढ़ता था. ट्रीगोनोमेट्री समझ नहीं आती थी. इसलिए ट्यूशन लगाना पड़ा. ट्यूशन घर से थोड़ा दूर था और वो भी रात को था. इसलिए साइकिल की जरूरत महसूस हुई. घर पर बताया कि मुझे अब साइकिल चाहिए. पिताजी ने कहा ठीक है ले देंगे. हम खुश.
दो एक दिन बाद ऑफिस से पिताजी के साथ उनके एक दोस्त आ गए, जोकि किसी साइकिल की दुकान वाले को जानते थे. उन्होंने आते ही पूछा कि एटलस की साइकिल लेगा या हीरो की. मैंने तपाक से कहा ये वाली साइकिल नहीं लूंगा ( वो साइकिल जो उन दिनों आम थी. अंकल लोग उसे ही लेते थे. उसका नाम क्या है पता नहीं.) मैं तो बस 'रेंजर' साइकिल लूंगा. शायद रेंजर तब आई-आई थी या फिर कुछ एक साल हो गए थे. 'रेंजर' थोड़ी महंगी साइकिल थी. पिताजी की पॉकेट शायद तब उसे खरीदने के लिए हां ना कहती होगी. अंकल जी ने मुझे 'रेंजर' के ना जाने कितने नुकसान बताए लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ. कुछ दिन यूं ही बीत गए.
फिर एक दिन क्या देखता हूं पिताजी के साथ वो अंकल जी 'रेंजर' साइकिल लेकर आ गए. मैं खुशी से झूम उठा. ऐसे खुश था जैसे मेरे लिए बाइक आ गई हो. कई दिनों तक तो मेरे जमीन पर पैर ही नहीं थे. खुशी-खुशी में फिर ना जाने उसमें मैंने क्या-क्या लगवाया वो तो अब याद नहीं लेकिन ये याद है कि कुछ दिन बाद मैंने उसमें एक हूटर लगवा था. जैसा पुलिस की गाड़ियों का होता है. जब भी रात को मैं ट्यूशन से घर आता था तो ट्यूशन सेंटर से लेकर घर तक वो बजता रहता था. और मोहल्ले के लोग कहते थे कि हो ना हो ये सुशील ही होगा. और तो और जहां ट्यूशन पढ़ने जाता था. वहां के लोग भी इसी वजह से पहचाने लगे थे. एक अलग ही टशन थी. जोकि अब बेहद ही खराब लगती है.
जब कुछ दिनों पहले गली से ऐसे ही सायरन बजाती कोई साइकिल गुजरी तो मुझे अपनी यादें याद आने लगीं. और मैं अपनी बेटी को इन यादों को सुनाने लगा. वह यह सब सुनकर कहने लगी, 'अब पुरानी रट मत लगाने लगना कि मैंने साइकिल खरीदनी है.' फिर मैं बोला, 'मन तो अब भी होता है कि साइकिल खरीद ही लूं. 'अपनी कॉलोनी देखी है. और आपका दो दिन का शौक रहेगा. फिर वो यूं ही खड़ी रहा करेगी.' बेटी बोली. और मैं चुप्पी मारकर रह गया.
शायद अगले दिन या दो एक दिन के बाद रात को सायरन बजाती वही साइकिल गली से फिर गुजरी. उसे सुनते ही बेटी बोली,' पापाजी पापाजी देखो आपका बचपन जा रहा है.'

Saturday, July 1, 2023

उसके मन के भाव










1.

वे अपने-अपने हिसाब से चलते रहे 

वो उनके हिसाब से बदलता रहा! 

2.

रिश्ते 

सब-के-सब 

अपने-अपने 

'खून' के साथ 

खड़े हो गए. 

एक था वो 

जो 'सही' के साथ 

खड़ा रहा. 

और अकेला रह गया. 

3.

वो अपने ही घर में 

किराएदार हो गया 

लोग कहते हैं कि 

वो अपनी जिंदगी में 

नाकामयाब हो गया. 

Friday, May 26, 2023

'जंगल जलेबी' वाला लड़का


बेटी के पेपर चल रहे हैं. एक पेपर के दौरान बेटी की एग्जाम सेंटर में एंट्री कराने के बाद मैं समय काटने के लिए यूं ही सेंटर के आसपास टहल रहा था. फिर सोचा जब टाइम पास ही करना है तो क्यों ना बेटी के खाने के लिए कुछ सामान खरीद लाता हूं. पेपर देकर निकलेगी तो खा लेगी. बस फिर क्या था परचून की दुकान की खोज होने लगी. इधर-उधर काफी भटकने के बाद जब कहीं वो दुकान नहीं मिली, जिस पर से केक, चाकलेट, बिस्कुट आदि कुछ मिल सके.खैर पता करने पर दूर एक दुकान का पता चला. केक, चाकलेट, बिस्कुट खरीदकर मैं सेंटर के लिए हो लिया. रास्ते में एक पार्क मिला. जहां बच्चों के अभिवाहक धूप से बचने के लिए इधर-उधर बैठे थे. मैं भी वही खड़ा हो गया. और खड़े-खड़े एक चाकलेट खा गया. चाकलेट खाकर जब फ़ारिग़ हुआ. टाइम देखा तो अभी भी पेपर छूटने में काफी समय था. तभी देखा पार्क के एक कोने में लगे पेड़ पर कोई आठ-एक साल का बच्चा प्लास्टिक की रस्सी से एक पानी की बोतल को बांधकर बार-बार पेड़ की तरह फेंक रहा था. पहले तो समझ नहीं आया कि ये बच्चा कर क्या रहा है. फिर जब पास जाकर देखा तो पता लगा ये बच्चा तो  पेड़ से 'जंगल जलेबी' तोड़ने की कोशिश कर रहा है. वो मैले-से कपड़े पहना था. ऐसा लगा रहा था जैसे कई दिन से नहाया भी ना हो. यूं तो पेंट कमीज पहने था लेकिन उसकी पेंट कमर से थोड़ा बड़ी थी शायद. इसलिए बार-बार उसे ऊपर किए जा रहा था. पहले उस रस्सी से बंधी बोतल को पेड़ पर फेंकता और फिर तुरंत ही पेंट को ऊपर करता. काफी देर के प्रयास के बाद उसे एक दो 'जंगल जलेबी' मिल गई लेकिन शायद उसे ज्यादा 'जंगल जलेबी' की जरुरत थी या उसकी ज्यादा पाने की इच्छा थी. मैं उसकी इस लगन को देखे जा रहा था. पास खड़े दो-चार अभिवाहक उसे गाइड भी कर रहे थे कि ऐसे नहीं फेंको, वैसे फेंको. उस तरफ जाकर फेंको.


अब तक मेरे दिमाग में बस यही आ रहा था कि ये भरी दुपहरी में ऐसा क्यों कर रहा है? क्या इसे भूख लगी है? क्या बस 'जंगल जलेबी' के लिए ही ऐसा कर रहा है? दिमाग में ये नहीं आया कि बैग में बिस्कुट, केक भी तो रखे हैं. मैं बस उसकी मेहनत और लगन को ही देखता रहा. और उसकी 'जंगल जलेबी' पाने की इच्छा से प्रभावित होता रहा. मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी 'जंगली जलेबी' को इस तरह तोड़कर कभी खाया हो. बस इतना याद है कि मेरे ननिहाल में एक मामा हैं वो एक बकरी पाला करते थे. वे उसे अपने पास ना रखकर बकरी पालने वाले दिए रखते थे. और रोज उस बकरी के लिए कुछ ना कुछ खाने के लिए ले जाते थे. वे ढेर सारी बकरियों में भी उसे पहचान लिया करते थे. और उनकी एक आवाज पर वो बकरी दौड़ी चली आती थी. उन्ही दिनों एक बार उन्होंने मुझे 'जंगल जलेबी' खाने के लिए दी थी. उस दिन पता चला था कि जलेबी ही नहीं एक 'जंगल जलेबी' भी होती है. उस दिन के बाद 'जंगल जलेबी' तो कई बार देखी. लेकिन कभी दुबारा खाई नहीं. खैर थोड़ी ही देर बाद मुझे ख़याल आया कि अरे बैग में बेटी के खाने का सामान रखा है. उसमें से कुछ तो इसको दिया ही जा सकता है. फिर मैंने उसे अपने पास बुलाया. बैग खोला तो सामने केक ही था और वो मैंने उसे दे दिया. वो पूछने लगा कि ये क्या है? मैंने कहा कि केक है.केक! शायद उसे केक के बारे में पता नहीं था. केक को लेकर वो फिर से 'जंगल जलेबी' तोड़ने लगा. कहानी बस यही खत्म नहीं होती है. असल कहानी तो आगे शुरू होती है. दरअसल उससे वो केक का पैकेट संभल नहीं रहा था. शायद केक के पैकेट को वो नीचे रखना नहीं चाहता था. क्या पता उसे भूख भी लगी हो. फिर उसने 'जंगल जलेबी' तोड़ना बंद कर दिया. उस रस्सी बंधी बोतल को वहीँ छोड़कर वो केक को लेकर आगे बढ़ गया. मैं वही खड़ा रह गया. फिर कुछ देर बाद जब मैं सेंटर के पास जाने लगा तो बीच रास्ते में वो मुझे फिर मिला. केक बस थोड़ा-सा ही बचा था. तभी उसके पास खड़ी दो लड़कियों में एक लड़की उससे 'जंगल जलेबी' मांगने लगी. ये लड़कियां शायद किसी दोस्त या बहन-भाई का पेपर दिलवाने लाई थीं. और मेरी ही तरह पेपर के छूटने का इंतजार कर रही थीं. इनके 'जंगल जलेबी' के मांगने पर उसने 'जंगल जलेबी' को छिला और एक पीस उन्हें देने लगा लेकिन उन लड़कियों ने वो पीस लेने से मना कर दिया. और कहा कि दूसरा वाला दो. फिर उसने बची हुई पूरी 'जंगल जलेबी' उस लड़की को दे दी. मैं उस बच्चे को देखता हुआ. उसके मिल-बांटकर खाने वाले दिल को महसूस करता हुआ आगे बढ़ गया. 

Friday, March 17, 2023

दिल्ली वाला लहजा और उसके वाला ह्यूमर...

जब से पैदा हुआ हूं. तब से दिल्ली को दिखाता आया हूं. उसकी गलियों में घूमता आया हूं. दिल्ली के चौराहों पर खड़े होकर दिल्ली के हर रंग को देखा है. यानि कुल मिलाकर दिल्ली से इश्क है. पर ये दिल्ली वाला लहजा’, ‘ये दिल्ली वाला ह्यूमरक्या होता है? सच मुझे पहले पता नहीं था. ऐसा नहीं है कि ये सब मैंने सुना नहीं होगा. देखा नहीं होगा. लेकिन ऐसे गौर करके पहचाना नहीं.

बेटी ने कई बार कहा,’ क्या पापाजी. कितने साल के हो गए हो आप. 40-45 साल के तो होगे ही. आपको ना कभी दिल्ली वाले लहजेमें बात करते देखा. दिल्ली वाले ह्यूमरकी तो बात ही छोड़ दो! मैं बचपन से आपको सुनती आ रही हूं. आपके शब्दों से दिल्ली वाली फील नहीं आती. कई बार ऐसे शब्दों (हिंदी के कम प्रयोग वाले और कठिन शब्द, और उर्दू के शब्द, ऐसा वो कहती है.) का यूज़ करते हो कि सर के ऊपर से चले जाते हैं. आप दिल्ली वाले लगते ही नहीं हो. वो देखो शाहरुख खान को. उनकी बातचीत में आज भी दिल्ली वाली फीलआती है. उनके मजाक से दिल्ली वाला ह्यूमरझलकता है. आज से पहले बहुत बार इस टॉपिक पर अपन दोनों की बातचीत हो चुकी है. वो फिलहाल अब याद नहीं. लेकिन अभी तापसी पन्नूको सुन रहा था. वे भी शाहरुख खान के 'दिल्ली वाले ह्यूमर' की बात कर रही थीं.

फिर बैठा-बैठा सोचने लगा कि ऐसा क्या और कैसे हुआ है कि मैं इतने सालों में ये सब नहीं पहचान पाया. उसे देख-समझ नहीं पाया. जिसे बेटी ने दो साल में पहचान लिया. इस बात पर बेटी को गर्व-सा फील हो रहा था कि जो बात उसने गौर की, वो बात उसके पापा नहीं कर पाए, जोकि उसकी नज़रों में बेहद इंटेलीजेंट हैं. यानि इस मामले में वो अपने पापा से आगे निकल गई!

Tuesday, March 14, 2023

सिद्धू सर का जन्मदिन और उनके जीवन की चंद झांकियां

सेंट स्टीफंज कॉलेज के प्रिंसिपल ने सिद्धू की दाखिले की दरख़ास्त ठुकरा दी क्योंकि दाखिले तो दो महीने पहले खत्म हो चुके! सिद्धू घबराया नहीं. सीधा यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार के पास पहुंचा. मदद मांगी. रजिस्ट्रार ने कहा,’ वापस सेंट स्टीफंज कॉलेज जाओ. प्रिंसिपल को कहो, मुझे टेलीफोन फोन करे. यह बात सुनकर सिद्धू लौटकर कॉलेज की तरफ चल पडा. रास्ते में उसको एक एम. ए. हिंदी का छात्र मिल गया. उसने सलाह दी. एम. ए. इंग्लिश करने के लिए रामजस कॉलेज को सबसे बढ़िया माना जाता है. रामजस का प्रिंसिपल आप भी अंग्रेजी पढ़ाता है.

इस वक्त के रामजस कॉलेज और तब के रामजस कॉलेज में बहुत फर्क था. सिद्धू ने अपना रास्ता बदल लिया. वह उलटी जानिब चल पड़ा. रामजस कॉलेज पहुंच गया. प्रिंसिपल बी.बी गुप्ता को मिला. प्रिंसिपल ने सिद्धू की काबलियत झट पहचान ली. सिद्धू को कहा, दाखिले के 250 रुपए जमा करा दे. पर सिद्धू के पास इतनी रकम थी नहीं. उसके पास 15 रुपए थे. प्रिंसिपल गुप्ता ने कैशियर को कहा, ‘इससे सिर्फ 9 रुपए ले लो. आज दाख़िले का आख़िरी दिन है. दाख़िले की जरुरी रस्म पूरी कर लो. बाकी की फीस यह बाद में दे देगा. होशियारपुर लौटने के वास्ते छह रुपए इसके पास रहने दे. हॉस्टल में इसके वास्ते कमरा भी अलोट करवा दे.’

-डॉ सी.डी वर्मा

 

अमरीकन साहित्य के बारे में 1966 में एक सेमीनार हुआ. सिद्धू ने इसमें वाल्टविटमन पर पेपर पेश किया. अमरीकन प्रोफेसर क्रिस्टी ने इस पेपर को सेमीनार में पेश हुए सभी पर्चों में से बेहतरीन कहा. डॉ सरूप सिंह ने, जो उस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग के मुखिया थे, सिद्धू की भरपूर प्रंशसा की. और तुरंत ही फुलब्राइट स्कालरशिप पर उसके अमरीका जाने का प्रबंध कर दिया. विसकानसिन यूनिवर्सिटी ने उसको अपनी यूनिवर्सिटी से भी अंग्रेजी की एम. ए करने के लिए कहा. उसने परीक्षा दी और यूनिवर्सिटी में से अव्वल रहा. पौने तीन साल में वो एम. ए और डॉक्टरेट दोनों हासिल करके, डेढ़ महीना यूरोप की सैर करके, वापस हंसराज कॉलेज आ पहुंचा.

-डॉ कुलदीप सिंह धीर

 

जब मैं डॉ सिद्धू से इनामों-सम्मानों की बात करने लगा, तो वह बीच में ही टोकर बोला: इनाम-सम्मान बड़े मिले हैं, पर मैं तुम्हें ‘बाबा बंतू’ की बात सुनाता हूं. ‘बाबा बंतू’ पंजाब यूनिवर्सिटी की बी.ए. क्लास में लगा हुआ है. मैं नवां शहर गया. अपने एक मित्र के पास ठहरा, जो कॉलेज में पढ़ाता था. जब मैंने ‘बाबा बंतू’ के प्रभाव के बारे में पूछा, वह कहने लगा: नहीं रीस ‘बाबा बंतू की. ‘बाबा बंतू’ की जात-बरादरी के लड़के-लड़कियां शेर बने बैठे हैं कि उनके बाबा दा की नीच समझी जाने वाली बोली में लिखी किताब भी उनको कोर्स में पढ़ाई जा सकती है! मुझे ‘बंतू’ के पुत्र-पौत्रों ने अपना कहा. मैं सदियों तक उनका कर्जदार रहूंगा. डॉ सिद्धू का गला भर आया. और आंखें खुशी के आंसुओं से भर गईं. उसका पक्के रंग वाला चेहरा स्वाभिमान से ज्वलंत था.

-डॉ अजित सिंह

 

 

सिद्धू बड़ी प्यारी शरारतें करता है. ( सयाना बंदा शरारती होता है और शरारती बंदा सयाना होता है. और ऐसे बंदे जिंदगी में सफल होते हुए देखे जाते हैं.) अक्सर लेखक किसी मुश्किल में फंसने के डर के मारे अपनी पुस्तक के आगे यह नोट लिख देते हैं कि ‘ इस नाटक या नावल के पात्र और घटनाएं फर्जी हैं. अगर किसी का नाम किसी पात्र के नाम से मेल खा जाए, तो यह सिर्फ संयोग ही होगा.’

इसके उलट, सिद्धू अपनी हर रचना के शुरू में अक्सर दिलचस्प नोट लिख देता है: ‘इस ड्रामे के अंदर वाले बंदों के नाम और घटनाएं सच्ची हैं. हर बंदे को लेखक पर मुकदमा करने की पूरी छूट है.’ एक स्थान पर वह लिखता है,’ इस ड्रामे की घटनाएं सही और सच्ची हैं. पिटाई से बचने की खातिर, लेखक ने कुछ एक बंदों के नाम उलटे-सीधे कर दिए हैं.’

-जगदीश कौशल

 

प्रश्न- कोई अपूर्ण रही ख्वाहिश?

उत्तर- सिर्फ दो ख्वाहिशें पूरी नहीं हुईं. एक तो दिन बड़ा छोटा होता है. मैं ज्यादा काम और ज्यादा आनंद लेना चाहता हूं. दूसरा, मेरा ब्याह हेमा मालिनी से नहीं हो सका.

-रोजाना जगवाणी, जालंधर


[सभी झांकियां 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र' नामक किताब से लिए गए हैं. जिसे संपादित रवि तनेजा जी ने किया है और छापा 'श्री प्रकाशन' ने है. बाकी की झांकियों के लिए आप किताब पढ़ सकते हैं. ]


Friday, November 18, 2022

सर कविता क्या होती? शेक्सपीयर से पूछकर बताऊंगा!

 

सर,

पिछले दिनों बेटी के मांगने पर उस पर लिखी अपनी रचनाएं तलाश रहा था. उसी तलाश के दौरान ये डायरी मिली, जिसमें आपने मेरे लिए यह लिखा था. अपना लिखा यह याद है आपको!! याद तो होगा ही. आप भूलने वाले लोगों में कहाँ थे. ना जाने अब कहां होंगे? किस दुनिया में होंगे? और किस रूप में होंगे आप? लेकिन इतना पता है आप जहां भी होंगे अपनी धुन में लगे होंगे. जैसे यहां इस दुनिया में लगे रहते थे. वसुंधरा वाले घर के अपने कमरे की उस मेज पर, किताबें पढ़ते हुए, कुछ रचते हुए. हंसराज कॉलेज की कक्षाओं में मुझ जैसे स्टूडेंट्स को पढ़ाते हुए. नाटक मंच के पीछे. या फिर नाटक मंच के आगे में सबसे पीछे की किसी कुर्सी पर, अपनी आंखें नम किए हुए. पता है सर मैं अक्सर पीछे मुड़कर देखा करता था आपको भावुक होते हुए. जो जज्बात आप कह नहीं पाते थे वो जज्बात आपकी आंखें बोल जाती थीं.

और हाँ सर आपने मेरा वाला वो सवाल तो अब तक पूछ लिया होगा ना शेक्सपीयर जी से. वही वाला सर. जो मैंने एक बार आपसे पूछा था कि सर कविता क्या होती?’ और आपने मजाक में कहा था शेक्सपीयर से पूछकर बताऊंगा! अब तो आपकी खूब छनती भी होगी शेक्सपीयर जी से. आप कहाँ चैन से बैठने वालों में से हैं. बुला लेते होंगे जार्ज बर्नार्ड शॉ जी को भी. और फिर दुनिया जहां की बातें-बहस होती होंगी. जैसे वसुंधरा वाले सोसाइटी वाले पार्क में धूप में पांच-सात कुर्सियां पर बैठकर आप लोग किया करते थे. यहां की तरह हंसी-मजाक, बहस की आवाजें वहां भी दूर तक जाती होंगी. उन्हें सुनकर बाकी लेखक लोग भी आ जम जाते होंगे बाकी खाली पड़ी कुर्सियों पर. उसके बाद फिर जो समा बंधता होगा. उसके बारे में सोचकर ही मैं आनंदित हो रहा हूं. उधर आप उतने प्रसन्न होते होंगे. खैर जब आपकी याद आती है या तो आपकी किताबें उठा लेता हूं या फिर बेटी-पत्नी को आपके बारे में बताने लग जाता हूँ, आपके जो किस्से मुझे पता हैं, उन्हें सुनाने लग जाता हूं. पता है सर कभी-कभी मन करता है कि आपके समकालीन या आपके दोस्तों के पास जाऊं और उनसे आपके किस्से पूंछू. उन्हें फिर कलमबद्ध कर. एक किताब का रूप दूं. कुछ दिलचस्प किस्से प्रताप सहगल जी ने सुनाए थे एक बार. और ना जाने कितने और होंगे. उनमें से कितने किस्सों को सुनकर आनंद आएगा. कितने किस्सों से हौसला मिल जाएगा. और कितनों से एक नई राह मिल जाएगी. वो राह फिर किसी-किसी को मंजिल तक भी ले जाएगी. खैर आपकी कमी बेहद खलती है. आप वो पेड़ थे, जिसकी छाया में बैठकर मैं अपने मन की कह लेता था. आपके अनुभव से कुछ सीख लेता था. आपके पास बैठकर एक नई ऊर्जा मिलती थी. हौसला मिलता था. लेकिन अब कोई आप जैसा हौसला नहीं बढ़ाता. सर आपकी कमी खलती है. आपकी याद आती है!

[आज ही के दिन सिद्धू सर हम सबको छोड़कर चले गए थे!]

Saturday, November 5, 2022

चलती बस में दिल्लीवालों को चढ़ने की आदत ना हो. ऐसा हो नहीं सकता- मनोज पाहवा

ऑफिस-ऑफिस वाले भाटिया जी की बात में दम है. पूछो कैसे. दरअसल हम तीन दोस्त थे. एक सिख थे. दूसरे जाट थे और तीसरा मैं. तीनों में किसी की भी आदत रुकी बस में चढ़ने की नहीं थी. दो साल तक रूपनगर के स्कूल जाना हुआ. याद नहीं कि कभी ये नियम टूटा हो. कई बार जब बस रुक भी जाती थी. और हम में कोई भीड़ की वजह उतर नहीं पाता तो वो अगले स्टैंड पर उतरता था. या फिर बस के चलने पर उतरता था. तब डीटीसी बसें तो हुआ करती थीं लेकिन तब तक रेड लाइन बसें आ गईं थी. उन बसों में स्कूल, कॉलेज के बच्चों का स्टाफ चला करता था. जैसे दिल्ली पुलिस वालों का चला करता था. स्टाफ भी स्टाइल से बोला जाता था. और एक मैं था स्टाफ बोलने में शर्म आती थी. इस बात पर दोनों  दोस्त मुझे डरपोक कहा करते थे. और हाँ उस वक्त के बच्चों की ये आदत हुआ करती थी कि बस के अंदर नहीं जाना. गेट पर ही लटककर जाना है और हर स्टैंड पर उतरना है. इस बात को लेकर कई बार कंडक्टर से लड़ाई भी हो जाया करती थी. कई बार बस के शीशे बच्चों का शिकार हो जाया करते थे. और कभी कंडक्टर!

खैर एक बार छुट्टी से पहले स्कूल को बंक करके हम तीनों घर जा रहे थे. हमेशा की तरह तीनों चढ़ती बस में ही चढ़े. ये याद नहीं कि बस 234 नंबर थी या फिर कोई और. लेकिन ये याद है वजीराबाद के आने से पहले हम दो ( मैं और सिख यार.) में शर्त लग गई कि बस को बिना छुए जो घर के स्टॉप तक जाएगा वो जीत जाएगा. डीटीसी बस खाली-सी थी. बस फिर क्या था. मैं पिछले गेट से थोड़ा पीछे खड़ा हो गया. तब डीटीसी की कुछ बसों में पीछे सीट नहीं हुआ करती थीं. पिछ्ला हिस्सा खाली हुआ करता था. सरदार जी मेरे से आगे. जाट यार अंपायर बने हुए थे. जैसे ही बस ने वजीराबाद पुल क्रॉस किया वैसे ही पता नहीं क्या हुआ. बस ड्राईवर ने एकदम से ब्रेक लगा दिए. और मैं बस के अंदर आगे-पीछे करते हुए ऐसे गिरा कि बस के सभी लोग हंसने लगे थे. मेरी सारी हेकड़ी निकल गई थी. और चेहरे पर 12 बज गए थे. 

[ पाहवा जी की बात सुनकर ये वाकया याद हो आया. सोचा याद के लिए लिख दूं. बाकी फोटो गूगल से ली गई है.]

Sunday, August 7, 2022

फ्रेंडशिप डे

एक हमारे 'जाट यार' थे. थे क्या अब भी हैं. बात स्कूल के दिनों की है. हमारी क्लास के एक दोस्त 'सरदार' भी थे. नाम था 'गुरुदर्शन सिंह'. हम तीनों ही अधिकतर बार '234 नंबर बस' से स्कूल आते थे. जोकि दिल्ली के 'लखनऊ रोड़' से निकलकर. 'खालसा कॉलेज' से होते हुए 'कर्मपुरा' जाती थी. लेकिन हम 'रूपनगर' वाले स्टैंड पर उतर जाते थे. अक्सर उन दोनों के बीच किसी ना किसी बात पर बहस हो जाती थी. बहस के बाद 'गुरुदर्शन सिंह' उसे 'और जाट, सोलह दुनी आठ' कहकर चिढ़ाता था. और 'जाट यार' उसे 'दूरदर्शन' कहकर चिढ़ाता था. 'गुरुदर्शन सिंह' का साथ 12 क्लास के बाद छूट गया. लेकिन 'जाट' यार बनकर जुड़े रहे. अभी तक जुड़े हुए हैं.


धीरे-धीरे हम बड़े होते गए. 'जाट यार' अब चौधरी हो चुके थे. लोग उन्हें अब चौधरी साहब कहने लगे थे. और एक मैं था कि लोग 'गुर्जर' भी नहीं मनाते थे! गुर्जर दोस्त कहते थे कि साले तू तो हमारी गुर्जर कौम पर कलंक है! खैर चौधरी से एक किस्सा याद हो आया. इस किस्से के आपां साक्षी नहीं हैं लेकिन है सच.

किस्सा कुछ यूं है. 'जाट यार' की दोस्त मंडली में से किसी को पैसे की जरुरत आन पड़ी. वो 'जाट यार' के दूसरे साथी के पास आकर कहने लगा कि इतने पैसे की जरुरत है. अगर हो सके तो दे दो. मैं कुछ दिन में लौटा दूंगा. लेकिन जिससे पैसे मांगे जा रहे थे उसके पास पैसे नहीं थे. उसने मना कर दिया. परंतु पैसे मांगने वाले को एक रास्ता सूझा दिया कि चौधरी साहब से मांगकर देख ले. उसके पास होंगे. तो दे देगा. अगर नहीं होंगे तो भी वो किसी से मांग कर तेरी जरुरत पूरी कर देगा. लेकिन ये ध्यान रखियो. 'नाम लेकर या भाई कुछ पैसे चाहिए.' कहकर पैसे मत मांग लेना. और अगर तू ये कहेगा कि चौधरी साहब कुछ पैसों की जरुरत है. कैसे भी करके पैसे चाहिए. तो वो कहीं से भी पैसे लाकर दे देगा. उस लड़के ने वैसा ही किया. हमारे 'जाट यार' को चौधरी साहब सुनना अच्छा लगता था. 'जाट यार' चौधरी साहब कहने पर पिघल गए और उसे किसी से पैसे उधार लेकर दे दिए. और उसका काम बन गया. ऐसे थे हमारे 'जाट यार.'

एक और किस्सा है उस 'जाट यार' का. जिसका मैं खुद साक्षी रहा हूं. दरअसल हुआ कुछ यूं कि एक मेरे दोस्त हैं. पैरों से चल नहीं सकते तो चार पहिए की गाड़ी का इस्तेमाल करते हैं. एक वक्त था जब उनके पास अच्छा खासा पैसा हुआ करता था. पिता जी की अच्छी खासी सैलरी थी. घर से बिज़नेस भी कर रहे थे. लेकिन फिर इनके पिताजी की एक एक्सीडेंट में मौत हो गई. और बिज़नेस भी खत्म हो गया. किराए से घर चल रहा था. खैर! एक दिन हुआ कुछ यूं कि इनके जीजा जी की भी मौत हो गई. खबर लगने पर मैं उनके घर गया. पता लगा इनकी जेब में पैसे नहीं. ये करें तो क्या करें. मैंने अपनी जेब टटोली तो उसमें भी कुछ ज्यादा पैसे नहीं. खैर जाट यार को फोन किया गया. वे मेरी वजह से इन्हें जानते पहचानते थे. दोस्त जैसा संबध तो नहीं कह सकते लेकिन दोनों के बीच दुआ-सलाम तो थी ही. उसे फोन कर बताया कि यार ऐसे-ऐसे हो गया. क्या किया जाए? तब उसने कहा था ' मुझे पता है तू चाहकर भी उसकी हेल्प नहीं कर सकता क्योंकि तेरे हालात मैं जानता हूं. लेकिन मैं कुछ करता हूं...तू एक काम कर. मुझे आधे घंटे बाद तू फलां जगह मिल. मैं आधे घंटे बाद उस जगह पहुंच गया. वो अपनी सदाबहार सवारी 'बुलेट' पर बिना हेलमेट लगाए आया. और बोला,' ये पांच हजार रुपए हैं. तू उसे अपने नाम से दे दे. जब उसके पास होंगे तब दे देगा.' और जाट यार पैसे देकर चला गया. मैंने वो पैसे उसके नाम ही से उस दोस्त को दे दिए. आज इतने साल बीत गए. उस दोस्त ने वो पैसे अभी तक दिए नहीं. और इस 'जाट यार' ने आजतक मुझसे मांगे नहीं. सुना है आज फ्रेंडशिप डे है!
 

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