Monday, May 9, 2011

‘वह लड़का आज भी मुझमें बसा हुआ है’

दिल्ली की बेतहाशा गर्मियों वाली दोपहर को चिलचिलाती धूप से पुरानी दिल्ली स्थित हरदयाल सिंह लाइबेरी की छत तप रही थी, पंखे गर्म हवा फेंक रहे थे, बड़े बड़े कूलर भी हांफ रहे थे। मैं सुबह जल्दी ही लाइबेरी आ जाता था, इसलिए एक बजते ही पेट में चूहे हलचल मचाने लगते थे। लाइब्रेरी की बड़ी गोलाकार सफेद घड़ी में एक बजते ही बैग से खाने का डिब्बा निकालकर लाइब्रेरी में मौजूद लड़के लड़कियों के साथ मैं भी बाहर निकल आया। सबने अपने-अपने ठीए संभाल लिए, मैं बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर खाना खाता था। लिहाजा उसी बरगद के पेड़ के नीचे जाकर रोज की तरह वहीं से चायवाले को एक स्पेशल चाय के लिए आवाज लगा दी।
पता नहीं हमारे कुनबे में खाना खाते वक्त कुछ पीने (चाहे वह चाय हो, दूध, लस्सी या फिर रायता) की आदत किसने डाली थी। मैं भी इसे आज तक निभाए जा रहा हूं, या यूं समझिए कि एक आदत सी हो गई है और कहते हैं आदतें छुड़ाए नहीं छूटती हैं। बस चंद पलों में ही चायवाला चान लेकर आ गया। मै।ने खाना खाना शुरू किया। बीच बीच में चाय की चुस्कियां भी लेता रहा। खाना खाने के बाद मैं पुरानी दिल्ली का नजारा देखने लगा। सामने चांदनी चौक को जाने वाली सड़क पर गाड़ियां कम हो रही थी। भीड़ पर गर्मी का असर साफ नजर आ रहा था।
तभी एक सात आठ साल का सांवला सा लड़का, फअी हुई नीली कमीज और मैली सी सफेद निक्कर पहने मेरे पास आया। एक हाथ आगे बढ़ाकर बोला, “ अंकल, एक रूपया दे दो, भूख लगी है।” पहले तो मैं उसे अनदेखा कर इधर उधर देखता रहा। फिर मन में आया कि बोल दूं “परे हट, यह तेरे जैसे बच्चों का रोज का धंधा है” क्योंकि इस इलाके में भिखारियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। पर पता नहीं क्यों एक बार फिर उस पर नजर जाते ही मैं खुद से ही उलझ गया कि पैसे दूं या ना दूं। इसी बीच वह फिर से बोला, “अंकल, एक रूपया दे दो, भूख लगी है।” मैंने झट से अपनी जेब में हाथ डालकर एक सिक्का निकाला, जो दो रूपये का था। यह मैंने उस लड़के को दे दिया। लड़का सिक्का लेकर तुरंत सामने चांदनी चौक की तरफ जाने वाली सड़क की ओर भाग खड़ा हुआ। मैं वहां खड़े होकर खाना खाने के बाद आए नींद के झोंके को भगाने की कोशिश में जुटा था, लू के गर्म गर्म थपेड़ों का मुझसे टकराकर निकलने का सिलसिला जारी था।
लगभग पांच सात मिनट बाद वही लड़का सामने से आता हुआ नजर आया। उसके हाथ में डबल रोटी के टुकड़े और चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। मेरे पास आकर बोला, ” ये लो अंकल,” ना जाने क्यों मेरा हाथ भी एक भिखारी की तरह आगे बढ़ गया और उसने मेरे हाथ पर एक रूपये का चमकता हुआ सिक्का रख दिया। वह जिधर से आया था उसी तरफ चल दिया। मैं एक बुत की तरह खड़ा हुआ, कभी उसे जाते हुए देखता, कभी अपने हाथ पर रखे हुए चमकते सिक्के की तरफ। कुछ ही पलों में वह मेरी आंखो से ओझल हो गया। मगर मेरे दिलो-दिमाग में वह अब भी था।
मैं सोचने लगा कि क्य वह भिखारी था। यदि भिखारी था, तो क्या कोई भिखारी इतना ईमानदार भी हो सकता है? जितना मांगा, उतना ही लिया, जबकि मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं था कि यह दो रूपये का सिक्का है, इसमें से एक रूपया लौटा देना। और अगर भिखारी न भी हो तो भी ले जा चुके पैसों को वापस लौटा देने की मानकिकता कितनों की रहती है? फिर सोचने लगा कि क्या पेट की भूख ने उसे भिखारी बना दिया था क्योंकि आजकल तो धन की भूख में भिखारी ज्यादा बनते दिखाई देते हैं, यदि ऐसा भी नहीं था तो क्या इस देश में ईमानदारी बची है? और बची भी है तो क्या सिर्फ बच्चों में बची है?
कई सारे सवाल दिमाग में दौड़ने लगे थे, यह लाजिमी भी था क्योंकि जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां चारों सिवाय लूट मारी के कुछ नजर नहीं आता। अगर बच्चों में ही ईमानदारी बची है तो मुझे लगता है कि ईश्वर हमें बड़ा होने ही न दें। और यदि हम बड़े हो भी जाएं तो ईमानदार रहना भी सीख जाएं।
यह चमकता हुआ सिक्का सिर्फ सिक्का नहीं रहा। यह उस बच्चें की ईमानदारी का आईना बन गया था जिसमें मैं अपना चेहरा देख सकता था और सोच सकता था कि ईमानदार होने का एक यह भी उदाहरण होता है, जिसके बूते आप किसी के जेहन में हमेशा के लिए बसे रह सकते हैं।
जैसे वह लड़का आज भी मुझमें बसा हुआ है।
नोट- इस बच्चे की ईमानदारी को "तहलका हिंदी" ने 15 मई 2011 के संस्करण के  अपने "आपबीती स्तंभ" में सलाम किया है। और साथ ही ऊपर दिया गया स्केच भी "तहलका" से लिया गया है। शुक्रिया तहलका ।

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