Monday, December 29, 2008

कभी कभी ऐसा भी होता हैं। कैसा। अजी ऐसा।

कभी कभी ऐसा भी होता हैं घर में, गली में, चौराहों पर, स्कूल में , कालेज में, बस में,  बस स्टेण्ड पर, ...................................।

1. आप किसी बस स्टेड़ पर खड़े उस लड़की के आने का इंतजार कर रहे हैं। जो आपको अच्छी लगने लगी हैं। जिधर से वह आती हैं बस उधर ही देखते जा रहे हैं  और जब वह काफी देर तक ना आए। फिर आप अपने  पर  गुस्सा करे कि पाँच मिनट पहले आ जाता। और एकदम गुस्सें में पीछे मुड़े और देखे कि वही लड़की आपके पीछे ही खड़ी हैं। तो ....................................................................................................................................................।
एक घबराहट की लहर पूरे शरीर में दोड़ जाती हैं। 
2.आपका दोस्त कहे चल यार बाहर चलते हैं बहुत पढ लिए। आप कहे कि तू चल मैं आया। और आप दो मिनट के बाद पहुँचते है। फिर आपका दोस्त कहे कि यार लेडिज बाथरुम कोई लड़का घुसा हैं मामला कुछ गड़बड़ लगता है जरा आवाज तो मार। आप आवाज मारते हैं। और फिर एकदम से एक लड़की निकल आए।
तो.....................................................................................................................................................।
आप अपनी गलती पर शर्मिदा होते हैं दोस्त को भला बुरा कहते हैं और उस लड़की से जाकर सारी बात बता देते हैं।
3. एक अप्रैल के दिन आप कई दोस्तों का अप्रैल फूल बनाने के बाद एक लड़की का अप्रैल फूल बनाने के लिए उसके पास जाए और कहे कि आपको फला लड़की बुला रही हैं। वापस हँसते हुए अपनी सीट पर आकर मद मद मुस्कराते हैं। और फिर वही लड़की रुहाँसी सी सूरत लेकर आपके पास आकर कहे कि आपको ऐसा नही करना चाहिए था और आप कहे कि क्या हुआ, और वह बोले कि हम दोनों के बीच बातचीत नही रही और वो कह रही हैं कि " मुझे कोई पागल कुत्ते ने काटा है जो तुझे बुलाँऊगी"।
तो....................................................................................................................................................।
आप माफी माँगते हैं और कहते हैं कि मुझे नही पता था कि आप दोनो के बीच बातचीत नही रहीं।
4. आप किसी मार्किट( मान लो सरोजनी नगर की मार्किट) में शापिंग कर रहे हैं और सामने कुछ दूरी पर आपकी तरफ पीठ किए हुए आपकी गर्ल फ्रेंड खड़ी हो और आप उसके पास जाए और कंधे पर हाथ मारकर कहे अरे.... तुम यहाँ क्या कर रही हो? और फिर वो मुड़े तो वो कोई ओर निकले। तो ..................................................................................................................................................।
आपके मुँह से कुछ नही निकलता हैं और घबराए से चल पड़ते हैं। 
5. आप अपने दोस्त के साथ कहीं ( मान लो मंसूरी मानने में क्या जाता हैं) घूमने जाए। और किसी मार्किट में घूमने निकल जाए। तभी आपका पेट धोखा दे जाए और आप समान ढूंढने के बजाय पखाना ढूंढने लग जाए और जब पखाना नजर आए तो आप उधर ही दोड़ जाए। और आपका दोस्त पास ही बैठे चाय वाले से दो चाय बोल दें। कुछ देर बाद आप सड़ा सा मुँह बनाते हुए बाहर आए। और चाय वाले को बोले यार तू कैसे करता होगा यहाँ.....। तुम्हारा पखाना तो बहुत ही गंदा हैं। मैं तो बेहोश होते-होते बचा, मजबूरी ना हो तो मैं यहाँ मूतू भी नही। और बाद में आपका दोस्त कहे कि जिससे तू बात कर रहा था वह पेंट कमीज पहने  लड़का नही लड़की हैं। देख जरा गौर से।
तो .................................................................................................................................................।
आप सकपका जाते हैं और दूसरी तरफ मुँह करके चाय पीने लगते हैं। और बाद में खूब हँसते हैं।
6. आप अपने दोस्त के साथ किसी मार्किट(मान लो कमला नगर की मार्किट) में बर्गर और पेटीज खा रहे हैं। तभी एक लड़की बर्गर वाले से पूछे कि भईया 100 रुपये के खुलले हैं और बर्गर वाला मना कर दे और लड़की आगे बढ़ जाए पर आपका दोस्त कहे कि मेरे पास है खुलले तू बुला तो सही उस लड़की को और आप उस लड़की आवाज मारकर बुलाते हैं। वह 100 का नोट आपकी तरफ बढा दे और फिर आपका दोस्त कह दे मेरे पास खुलले नही हैं।
तो .................................................................................................................................................।
आप झेंप जाए और लड़की के जाने के बाद आप दोस्त को खूब गालियों दें। और आपका दोस्त हँसते हँसते अपना पेट ही पकड़ ले। 
7. आप अपनी बाईक पर अपनी दोस्त को पीछें बैठा कही घूमने जा रहे। किसी रेड लाईट पर आपको रुकना पड़े और पीछे से आपकी दोस्त कहे कि ..... आगे वाली गाड़ी पापा की हैं और वो मुंड मुंड के पीछे ही देख रहे हैं क्या करे फंस गए बुरे। ना ही आगे भाग सकते हैं ना ही पीछे भाग सकते हैं और आपकी दोस्त मुंह छुपाए बैठी हो और तभी उनके पापा गेट खोल कर उतर जाए और पीछे की तरफ आए।
तो ..................................................................................................................................... ...........।
उनके पापा पीछे के टायर को फटाफट देख कर अपनी सीट पर बैठ जाते हैं। और एकदम ग्रीन लाईट हो जाती हैं। और आप दोनों की सांस में सांस आती हैं। 
8. आपकी कोई नई नई दोस्त बनी हो और उसका फोन आ जाए कि घर से कुछ खाने की चीजें लेते आना। आप मारे खुशी के उछलने लगे और ढेरों ख्वाब बुनने लगे। और जब वह मिले हाय हेल्लो हो और वो कहे कि घर से क्या क्या लाए हो मुझे दे दो घर जाके खाऊँगी अभी घर से फोन आ गया हैं। जल्दी घर जाना हैं।
तो .................................................................................................................................................।
आप बस उसे जाते हुए देखते रह जाते हैं।
 9. आप किसी दिन अपनी छोटी चचेरी बहन के साथ बस में बैठे कहीं जा रहे हो। और आपके आगे वाली सीट पर एक सुन्दर मार्डन लड़की बेठी हो एक बड़ा सा जूड़ा बनाए हुए। और वह पलट पलट के बार बार आपको देखे। और आपकी समझ में ना आए कि बात क्या हैं? फिर अचानक वह लड़की उठे और इंगलिश में उल्टा सीधा कहने लगे। और बस में बैठी सारी सवारी की आँखे आपको देखने लगे।
तो..................................................................................................................................................।
काफी कुछ सुनने के बाद पता चले कि आपकी छोटी बहन उसके जूड़े को बार बार छेड़ रही थी और वो लड़की समझ रही थी कि आप उसके जूड़े को छेड़ रहे थे।
10. किसी  दिन आपका टीचर आपकी शैतानी पर सजा के तौर मुर्गा बनने को कहे और वो भी लड़कियों की क्लास के गेट के सामने।
तो .................................................................................................................................................।
आप मुँह उठा उठा कर देखते हैं कि कुछ लड़कियाँ हँस रही हैं और आप पानी पानी हो रहे हैं। पर उसमें एक लड़की की हँसी आपको अपनी सी लगती हैं। और हर रोज की प्रार्थना सभा में आप हाथ जोड़कर प्रार्थना करें और आँखे खोलकर उसके चेहरे को निहारते रहे।

इन खट्टी मिटठी यादों को लिखने का विचार अनुराग जी की एक पोस्ट जिदंगी की दोड़ मगर बदस्तूर जारी हैं। और विजय जी की एक पोस्ट कुछ महान कार्य इन्हें अवश्य आजमाएं। से आया। कभी कभी संगत का भी असर हो जाता हैं। फिर अपनी और दोस्तों की यादों को यहाँ साझा कर दिया। यह साल जा रहा हैं इसलिए कुछ ऐसा याद किया जिसे पढकर हँसी भी आए, एक ठंड़ी आह भी निकले, ..........................................।
आप सभी से गुजारिश हैं टिप्पणी के साथ आप भी अपनी खट्टी मिटठी यादें यहाँ अवश्य बाँटे।

Saturday, December 27, 2008

बस स्टैड़ वाली लड़की

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रोज सुबह मैं बस पकड़ता था
मोरी गेट के बस स्टैंड से अपनी लाइब्रेरी जाने को
तुम भी बस पकड़ती थी अपने ऑफिस जाने को
हर सुबह नौ बजकर बीस मिनट पर।
इससे पहले मेरी आँखे तुम्हें तलाशती इधर- उधर
तुम्हारी एक झलक पाने को।
कभी- कभी तुम दिखती नही
तब रह-रह कर तुम्हारी याद आती थी।
वो तुम्हारा सुंदर साधारण चेहरा
और उस पर तोते सी नाक।
वो तुम्हारी गोल लम्बी सुराई सी गर्दन
और जिस पर एक सुन्दर रेशम का धागा
वो रेशम का धागा मैं भी ले आया था।
वो तुम्हारे पहनावे में पूरब,पश्चिम का सुंदर मिलन
जो मेरे दिल को बहुत भाया था।
जब कभी मैं तुम्हारी इन यादों के किनारे
अमृता प्रीतम को पढ़ता था
तो मेरे प्यार का फूल खिलता था।
परन्तु
नहीं थी हिम्मत इतनी भी कि पूछ सकता नाम तुम्हारा।

नोट- यह तुकबंदी ब्लोग की शुरुआत में पोस्ट की थी। तब कम ही ब्लोगर इसको पढ पाए थे। इसलिए दुबारा से पोस्ट की हैं।
और यह फोटो www.skyscrapercity.com से ली गई हैं इसलिए इनका और गूगल का शुक्रिया।

Monday, December 15, 2008

पंजाब की प्रेम कविताएं का आखिरी भाग

प्यार और कविता

प्यार करने

और किताब पढ़ने में

कोई अंतर नहीं होता

कुछ किताबों का हम

मुख-पृष्ट देखते हैं

अदंर से बोर करती हैं

पन्ने पलट देते हैं

और रख देते हैं

कुछ किताबें हम रखते हैं

तकिए तले

अचानक जब नींद खुलती हैं

तो पढ़ने लगते हैं

कुछ किताबों का

शब्द-शब्द पढ़ते हैं

उनमें खो जाते हैं

बार-बार पढ़ते हैं

रुह तक घुल-मिल जाते हैं

कुछ किताबों पर

रंग-बिरंगे निशान लगाते हैं

और कुछ किताबों के

नाजुक पन्नो पर

निशान लगाने से भी

भय खाते हैं

प्यार करने और किताब पढ़ने में

कोई अतंर नही होता

   

                   सतिंदर सिंह

साभार- किताब का नाम - "ओ पंखुरी" ,चयन व अनुवाद राम सिहं चाहल, प्रकाशन - संवाद प्रकाशन मेरठ (जिन जिन के सहयोग से ये कविताएं हमारे तक पहुँची उन सभी को दिल से शुक्रिया)

Thursday, December 11, 2008

पंजाब की प्रेम कविताएं भाग-2

रोशनी की तलवार


पता नही वह किस-किस का जिस्म पहनकर आता हैं
और हर बार मुझसे
मेरा घर छीनकर चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द है
कभी घर नही लौटती ......


मैं चौराहे पर खड़े हर ऐरे गैरे से
अपने घर का पता पूछती हूँ


भीड़ में से
एक निकलकर कहता हैं
मेरे जेहन में कई कमरे हैं


एक कमरे का दूसरे कमरे की तरफ
कोई दरवाजा नही खुलता
तू एक कमरे में रह सकती हैं
मैं उसकी चोर निगाह की ओर घूर कर देखती हूँ


इतने में दूसरा खड़ा होकर कहता हैं
किसी के साथ गुज़रे हुए कुछ खूबसूरत पल
क्या काफ़ी नही होते बची हुई उम्र के लिए
फिर घर के बारें में क्या सोचना हुआ


इतने में तीसरा खड़ा होकर कहता हैं
हर मर्द चोरी छिपे अपने घर से दूर भागता रहता हैं
उस शून्य घर का क्या करोगी
मैं उसकी ओर गौर से देखती हूँ


इतने में चौथा खड़ा होकर कहता हैं
घर तो झूठे रिश्तों पर सुनहरी लेबल हैं
मस्तक की लपट को 'झूठ' लेबल के साथ
कैसे रौशनाएगी? मैं घबरा जाती हूँ


इतने में पाचँवा खड़ा होकर कहता हैं
घर तो जेल का दूसरा नाम हैं
पंछी, पवन एंव पवित्र विचारों को
घर की मोहताजी की ज़रुरत नही होती
घर का साथ छोड़ो
और फिर तेरी रोशनी की तलवार
जो सच माँगती हैं
उस का वार भला कौन झेल सकता है


मैं चौराहे पर ही
चीख चीख कर कह रही हूँ
मुझे मेरा घर चाहिए


वह पता नही
किस किस का जिस्म पहनकर आता हैं
हर बार मुझसे मेरा घर छीनकर
चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द हैं
कभी घर ही नही लौटती

                             मनजीत टिवाणा

साभार- किताब का नाम - "ओ पंखुरी" ,चयन व अनुवाद राम सिहं चाहल, प्रकाशन - संवाद प्रकाशन मेरठ (जिन जिन के सहयोग से ये कविताएं हमारे तक पहुँची उन सभी को दिल से शुक्रिया)

Tuesday, December 9, 2008

बहुत हो चुका, अब कुछ कर जाना


अब कुछ कर जाना हैं
 
यह वक्त नहीं शौक मनाने का
अब वक्त हैं कुछ कर जाने का।
अब इंतजार नहीं करेंगे हम
और जिदंगीयों के जाने का।
इन नेताओं में तो अब जंग लग चुका
अब वक्त हैं खुद ही जंग लड़ जाने का।
आओ अपने अदंर भी झांक लें
अपने कर्तव्यों को पहचान लें।
हिंदू-मुस्लिम, जात-पात, छोटा-बड़ा से ऊपर उठकर
आओ मिलकर रखें एक नये भारत की नींव हम।
     
26 नवम्बर की घटना के बाद तीन दिन तक तो आँख, कान  न्यूज चैनल पर ही लगे रहे। अलग अलग भावों से गुजरा। जब लिखने बैठा तो ये चंद पंक्तियाँ काग़ज पर उतर गई।  ऐसे ही कुछ मिलते जुलते ज़ज़्बात 7 अगस्त की पोस्ट में पेश किये थे। उन्हें भी नीचे पेश कर रहा हूँ।

बुत

देखो उस बुत को
कैसा चमक रहा है
कितनी जगह घेरे है
कितना पैसा खर्च किऐ हैं
अपनी शान के नाम पर
बिल्कुल तुम्हारी तरह
कुछ समय बाद देखना उस बुत को
कोई थूकेगा
पक्षी बीट करेंगे
बच्चे पत्थर से हिट करेंगे
इसलिए
नेताओं  
अब भी समय है
संभल जाओ
कुछ ऐसा कर जाओ
आने वाली पीढ़ियाँ नाज़ करें 
शान से तुम्हारी बात करें

Wednesday, November 26, 2008

पंजाब की प्रेम कविताएं

पिछले महीने एक किताब पढ़ी थी "ओ पखुंरी" जिसमें दी हुई कविताएं बहुत ही खूबसूरत थी पर तीन कविताएं दिल को छू गई और मैंने अपनी डायरी में उतार ली आज सोचा कि बारी बारी से एक एक कविता आप सभी के लिए पेश कर दूँ।

मेरी कविता

मेरी माँ को मेरी कविता समझ न आई
बेशक मेरी मातृभाषा में लिखी हुई थी
वह तो केवल इतना समझी
पुत्र की रुह को दुख हैं कोई

मगर उसका दुख
मेरे होते हुए
आया कहाँ से

ध्यान लगाकर देखा
मेरी अनपढ़ माँ ने मेरी कविता
"देखो लोगों,
अपने कोख से जन्में
माँ को छोड़
अपने दुख काग़ज़ों को कहते हैं

मेरी माँ ने काग़ज़ों को उठाकर
सीने से लगाया
क्या पता इस तरह ही
कुछ मेरे नज़दीक हो जाए
मेरा बेटा
सुरजीत पातर

साभार- किताब का नाम - "ओ पंखुरी" ,चयन व अनुवाद राम सिहं चाहल, प्रकाशन - संवाद प्रकाशन मेरठ (जिन जिन के सहयोग से ये कविताएं हमारे तक पहुँची उन सभी को दिल से शुक्रिया)




Thursday, November 6, 2008

कोई हिजड़ा कह बुलाता और कोई किन्नर कह पुकारता , लेकिन कोई भी अपना कह नही दुलारता हमें।

एक ही कोख से जन्में हम
एक ही खून से बनें हम
भूख लगती तो खाना खातें हम
दुख होने पर रोते हम
खुश होने पर हँसते हम
एक ही मिट्टी में मिलते आखिर में हम
परंतु
अपने परिवार से ठुकराए जाते सिर्फ हम
बाहर निकलकर मजाक बनते सिर्फ हम
सब रिश्तों की आँखो में चुभते सिर्फ हम
ताली बजाकर पेट की आग बुझाते सिर्फ हम
प्यार, दुलार को तरसते सिर्फ हम
सदियों से लेकर आजतक उपेक्षित रहें सिर्फ हम

नोट: ऊपर दिये फोटो http://www.pijushphotography.blogspot.com/ और गूगल से लिए गए। इसलिए इस पोस्ट के लिए उनका भी शुक्रिया।

Monday, November 3, 2008

यह दीपावली भी आई और चली गई।

ऐसी रही मेरी दीपावली

हर बार की तरह यह दिवाली आई और चली गई। बेटी अब समझने और जानने लगी हैं। इसलिए उमंग थी, खुशी थी, और मेरी नैना की मुस्कराहटों की फुलझड़ियाँ थी। मेल राकेट की तरह आ रहे थे फोन छोटे बमों की तरह बज रहे थे। इसी हँसी खुशी में हमने भी ऐलान कर दिया कि आज शाम को हम कुर्ता पाजामा पहनेंगे। पत्नी भी कह उठी कि ये आवाज किस लोक से आई हैं। कुर्ता पाजामा निकाल प्रेस वाले को भेज दिया गया।

तभी घड़ी ने 11 बजे के 11 बम फोडे और मोबाईल भी क्यूँ पीछे रहता तो वो भी बज उठा। और उसमें से आवाज आई Happy Diwali" बेटा। मैं झट से बोल उठा "साले तेरे को भी, और सुना क्या हो रहा है।" वो बोला " क्या होना है? शादी हुई नही, जो कुछ होता भी और नौकरी बजा रहे है आज दिवाली के दिन भी, हाँ पता है बेटा आज उसका फोन आया था" मैं बोला "किसका साले" वो बोला वही जैन साहब का, बोल रहा था "कि हम तो सबको साथ लेकर चलने वाले है जी", आज से पहले तो कभी नही किया आज कैसे क्यूँ किया।" मैं बोला बेटा तू जो जी न्यूज में चला गया है इसलिए किया है उसने बधाई फोन, "आजकल आदमी को नहीं उसके रुतबे को सलाम किया जाता हैं" आज से पहले तो नही किया था ना उसने फोन।" वो बोला "अरे बेटा हम कौन से कम हैं।" मैं समझ नही सका कौन कम और कौन नहीं। दिल की जाने वाली बातें कहाँ गायब हो गई। और बातें करके फोन रख दिया गया।

नीचे गया देखूँ कि शाम के खाने के लिए क्या तैयारी चल रही हैं। देखा तो मम्मी नही थी, पूछा तो बताया कि " वो है ना .... उसके साले को किसी ने मार दिया पैसे की खातिर, कल सुबह पैसे लेके निकला था और आज सुबह लाश मिली गटर में।" चंद पैसे की खातिर एक जान, कितनी सस्ती हो गई हैं एक जान। जिदंगी भर हर दिवाली याद आऐगी इस परिवार को इस इंसान की।

शाम के खाने का मेन्यू तैयार हो चुका था मैं बोला पत्नी से "यार उसके यहाँ हो आता हूँ इस बार वह लेट हो गया, मैं ही आज पहले निकल जाता हूँ दिवाली की मुबारक दे आता हूँ।" वो बोली " कि ठीक है आप चले जाओ पर फोन कर लो एक बार जाने से पहले कहीं भाई साहब हमारे घर ही ना आ रहे हो।" मैं बोला " हाँ ये ठीक रहेगा।" फोन किया गया तो पहले तो बधाईयों का आदान प्रदान हुआ। फिर वो बोला " यार मैं यहाँ मेरठ में शिफ्ट हो गया हूँ राजेन्द्र नगर से" मैं एकदम दंग रह गया बोल उठा " तुने पहले क्यों नही बताया" वो बोला "यार तू परेशान होता इसलिए नही बताया बस और बताने को था ही क्या जो बताता, ये बताता कि यार कर्जा बहुत हो गया है घर दुकान बेच कर मेरठ जा रहा हूँ। " मेरी जुबान चुप हो गई और उसकी आवाज भारी हो गई, कुछ पल की दोनो के बीच की चुप्पी बहुत कुछ कह रही थी।
इन सबके बीच बेटी उछल खुद माचती रही, जो भी डिब्बा नजर आता उसे खुलवाती और थोड़ा खाकर फिर उस डिब्बे को हाथ भी नही लगाती। बेटी पास आकर बोली कि " पापा मार्किट चलो" उसे लेकर घर के पास वाली मार्किट में गया जहाँ भीड़ ही भीड़ थी। और मेरी बेटी हाथ के इशारे मुझे समझाती जाती। एक दुकान पर रुका एक जानी पहचानी 10 या 15 साल की लड़की को देखकर । उससे पूछा "बेटा क्या हाल हैं कैसे चल रही है दुकान।" वो बोली "ठीक ठाक हैं बस" और उसका बाबा हाफंता हुआ खड़ा था एक तरफ। वो बोला कि बस काट रहे है जिदंगी को। ये लडकी और एक इसका भाई वो भी 10 या 15 के बीच का होगा। ( दोनो की सही उम्र का मुझे पता नहीं) अपने दादा दादी और एक छोटी बहन का पेट पाल रहे हैं। इस लड़की का पिता कभी मेरे साथ क्रिकेट खेला करता था। कुछ के साल पहले किसी बिमारी से निधन हो गया था उसका । और फिर चंद महीनों बाद ही लड़की की माँ भी गम करती करती यह दुनिया छोड़ गई। और फिर इन तीनों बच्चों के पालने का जिम्मा आ गया इनके बुढे दादा दादी पर जिन्हें खुद ही जरुरत थी किसी के सहारे की। धीरे धीरे ये बच्चे बडे हुए और अपने पापा की दुकान सभांल ली । इनकी दादी से चला नही जाता और दादा चल फिर रहा है बस वो भी कापंता हाफंता। एक इन बच्चों का ताऊ है पर ........। अगर आज इनका बाप होता तो ये भी नये नये कपडे पहने होते और इनके चेहरे खुशी से चमक रहे होते। और मैं अपनी बेटी को देखने लगा पता नही क्या सोचकर ......।

शाम हुई तो मम्मी नही आई इसलिए पापा , बहन और पत्नी दीये जलाने लगे। पर उनकी सख्या कम थी पहले की अपेक्षा और मोमबतियाँ तो और भी कम थी। छत पर जाकर देखा छतों पर दिये नही थे ना ही मोमबतियां बस एक आध नजर आ रहे थी । जिधर देखो बिजली की लडियाँ थी वो भी पहले से कम । क्या हो रहा था पता नहीं, दिवाली की पहले वाली रौनक कहाँ चली गई । दिये रखकर नीचे आए तो देखा कि जो परात कभी खिल और मीठे खिलोनो से भरी होती थी वो आज आधी भी नही थी। समझ नही आ रहा था इस दिवाली क्या हो रहा हैं। दिये नही, मोमबतियां नही, खिल नही, मीठे खिलोने नही, है भी तो बस शगुन के लिए। खाना खाकर छत पर गए कि एक आध अनार छोड़ेगे। छोटा भाई खरीद लाया था मेरा मन कभी हुआ नही कि बम फोडू। चारों तरफ आकाश में आतिशबाजी चमक रही थी और मेरी बेटी अनार, फुलझड़ी, फिरकनी को देखकर झूम रही थी।
नीचे आए सोने के लिए तो वो कुर्ता पजामा खुंटी पर टंगे हुए थे और ऐसा लग रहा जैसे मुझे घुर रहे हो और पूछ रहे क्यूँ जी हमें पहना क्यों नहीं।

Monday, October 20, 2008

एक लड़की की कहानी

एक लड़की एक पहेली

वह लड़की एक पहेली थी
कहने को तो इसकी ढ़ेरों सहेली थी
फिर भी यह अकेली थी।

मुस्कराती थी, खिलखिलाती थी, देर तक बतियाती थी
पर ना जाने अकेले में किस सोच में डूब जाती थी।

कभी-कभी वह बच्चों सी बातें करती थी
और कभी वो फ्रायड को भी मात दे जाती थी।

जब कोई बात ना होती थी
तब वह अपने कोमल हाथों से सपने बुनने लगती थी
कभी आसमान को छूने के सपने
कभी सुन्दर, प्यारे घर के सपने
परंतु अपनो के सपने पूरे करने में वह अपने सपने भूल जाती थी।

आज मिली वही रस्तें में बोली "कैसे हो तुम"
मैं पहचान ना सका, बस एकटक देखता रहा
उसके खुरदरे हाथों को
उसकी आँखो के नीचे के काले घेरों को
उसकी हडिडयों की काया को
उसकी आँखों में आये एक आँशू को
मैं बोला "तुम वही हो ना जिसका नाम मैंने "पहेली" रख दिया था"
वो बोली "हाँ वही पहेली, जिदंगी की पहेली सुलझाते सुलझाते सच में ही एक पहेली बन कर रह गई
यह बात कहते ही वह जार जार रो पड़ी, जो कभी बात बात पर हँसती थी।

Thursday, October 16, 2008

प्रेम करने वाली लड़की

प्रेम करने वाली लड़की


प्रेम करने वाली लड़की अक्सर हो जाती है खुद से गाफ़िल और दुनिया को अपने ही ढ़ग से बनाने-सँवारने की करती है कोशिश।

प्रेम करने वाली लड़की हवा में खूशबू की तरह बिखर जाना चाहती है उड़ना चाहती है स्वच्छंद पंछियों की तरह धूप सी हँसी ओढ़े।

वह लड़की भर देना चाहती है उजास चँहु ओर।

प्रेम करने वाली लड़की सोना नही, चाँदी नही,गाड़ी नही, बँगला नही।
चाहती है बस किसी ऐसे का साथ जो समझ सके उसकी हर बात और अपने प्रेम की तपिश से उसे बना दे कुंदन सा सच्चा व पवित्र।

अब वह आईना भी देखती है तो किसी दूसरे की नजर से परखती है स्वंय को और अपने स्व को दे देती है तिलांजलि।

प्रेम करने वाली लड़की के पाँव किसी नाप की जूती में नही अटते, समाज के चलन से अलग होती है उसकी चाल।

माँ की आँख में अखरता है उसका रंग-ढ़ग, पिता का संदेह बढ़ता जाता है दिनों दिन और भाई की जासूस निगाहें करती रहती है पीछां ।

गाँव-घर के लोग देने लगते है नसीहतें समझाने लगते है ऊँच-नीच अच्छे-बुरे के भेद मगर प्रेम करने वाली लड़की जानना समझना चाहती है दुनिया को

और एक माँ की तरह उसे और सुंदर बनाना चाहती है ।


रचनाकार- रमण सिहँ

(यह कविता सामयिक वार्ता में छपी थी )
महेश सिँह जी( प्रबधंक संपादक सामयिक वार्ता) की अनुमति से इस प्यारी रचना की पोस्ट डाली जा रही हैं।
आजकल समय अभाव के कारण कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ इसलिए अपनी पसंद की कुछ रचनाएं डाल रहा हूँ जो पहले ही फाईल में सेव हैं।

Thursday, October 2, 2008

माँ

एक दिन मैं साहित्य अकादेमी की लाईब्रेरी में हिंदी की पत्रिकाओं को उलट- पुलट रहा था। तो वहाँ किसी पत्रिका में एक कविता पढ़ी जो " माँ " पर लिखी गई थी। उसमें एक लाईन थी "माँ तू मेरी बेटी हैं।" उस लाईन ने मुझे अपनी तरफ खींचा। जब पढ़ी तो अच्छी लगी। यह कविता तुषार धवल जी की लिखी हुई थी और आखिर में उनका मेल पता लिखा था। मेल से सम्पर्क किया गया। बातें हुई। और ईद के दिन ऐसे ही ख्याल आया क्यों ना इस कविता को ब्लोग पर डाला जाए। फिर उनसे अनुमति लेकर आज आपके सामने पेश कर दी हैं।


माँ

तू मेरी माटी की गाड़ी
तू मेरे आटे की लोई
माँ तू मेरी बेटी हैं

उगा तुम्हीं से
तू बह रही सरल
समय बदलता रहा अर्थ
तेरा मेरी आँखों में

गालों को तेरे चूमा नोचा
खेल झमोरा बालों को
माँजे तुम संग बासी बर्तन

तू रोई जब मैं रोया
तेरी आँखों में आकाश पढ़ा

तू मेरा पहला '' हैं
मेरा ''
मेरा वन तू
माँ तू मेरी जोड़ी हैं

देह नहीं तू
बस धारा हैं
बह कर तुम में अनगिन जीवन
घुघुआ मैना खेल रहे हैं

कब बड़ा हुआ जो कभी मरुँगा
मेरी तू नस नाड़ी अमर
अलता बिन्दी सिन्दूर टिकली
तू रचना के पार खड़ी हैं
भाषा में अनकही अनन्त

तू उँगली डगमग कदमों की
मेरा जूता गंजी जंघिया
तू मेरी
कागज की नौका
तू मेरे गुब्बारे गैस के
तू लोरी काली रातों में
तू मेरा विस्तार प्यार का
माँ तू मेरी बेटी हैं

तू मेरी माटी की गाड़ी
तू मेरे आटे की लोई
माँ तू मेरी बेटी हैं

तुषार धवल

दो अक्तूबर, दो इंसान, और दो बातें


दो अक्तूबर और दो महान इंसान











आज दो अक्तूबर हैं दो महान इंसानो का जन्मदिन । एक ने सत्य और अहिंसा का संदेश दिया। दूजे ने सरलता और नैतिकता का उदाहरण पेश किया। हमें वो तो याद रहे पर उनके संदेश और उदाहरण हम भूल गए। और आज के दिन हम बड़ी बड़ी बात ना करके बस उनके संदेशो को फिर से जाने, समझे और अपनाए तो इससे बड़ी कोई बात ना होगी। इसलिए पेश हैं दो बातें। पढे और अपनी बात भी रखे।

1. अधिकार या कर्तव्य ?

मैं आज उस बहुत बड़ी बुराई की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसने समाज को मुसीबत में डाल रखा हैं। एक तरफ पूंजीपति और जमींदार अपने हकों की बात करते हैं, दूसरी तरफ मजदूर अपने हकों की। अगर सब लोग सिर्फ अपने हकों पर ही जोर दें और फर्जों को भूल जाए, तो चारों तरफ बडी गड़बड़ी और अंधाधुंधी मच जाए। अगर हर आदमी हकों पर जोर देने के बजाय अपना फर्ज अदा करे, तो मनुष्य जाति में जल्दी ही व्यवस्था और अमन का राज्य कायम हो जाए। इसलिए यह जरुरी हैं कि हम हकों और फर्जों का आपसी सम्बंध समझ लें। मैं यह कहने की हिम्मत करुंगा कि जो हक पूरी तरह अदा किये गये फर्ज से नहीं मिलते, वो प्राप्त करने और रखने लायक नहीं हैं। वे दूसरों से छीने गये हक होंगे। उन्हें जल्दी से जल्दी छोड़ देने में ही भला हैं। जो अभागे माँ-बाप बच्चों के प्रति अपना फर्ज अदा किये बिना उनसे अपना हुक्म मनवाने का दावा करते हैं, वो बच्चों की नफरत को ही भड़कायेंगे। जो बदचलन पति अपनी वफादार पत्नी से हर बात मनवाने की आशा करता हैं, वह धर्म के वचन को गलत समझता हैं; उसका एकतरफा अर्थ करता हैं। लेकिन जो बच्चे हमेशा फर्ज अदा करने के लिए तैयार रहने वाले माँ-बाप को जलील करते हैं, वो कृतघ्न समझे जायेंगे और माँ-बाप के मुकाबले खुद का ज्यादा नुकसान करेंगे। यही बात पति और पत्नी के बारे में भी कही जा सकती हैं। अगर यह सादा और सब पर लागू होनेवाला कायदा मालिकों और मजदूरों, जमींदारों और किसानों, राजाओं(सरकार) और हिन्दू, मुसलमानों, सिख, ईसाई पर लगाया जाय, तो हम देखेंगे कि जीवन के हर क्षेत्र में अच्छे से अच्छे सम्बंध कायम किये जा सकते हैं। और, ऐसा करने से न तो हिन्दुस्तान या दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह सामाजिक जीवन या व्यापार में किसी तरह की रुकावट आयेगी और न गड़बड़ी पैदा होगी।

एक हिन्दू का अपने मुसलमान पड़ोसी के प्रति क्या फर्ज होना चाहिऐ ? उसे चाहिऐ वह एक मनुष्य के नाते उससे दोस्ती करे और उसके सुख-दुख में हाथ बंटाकर मुसीबत में उसकी मदद करे। तब उसे अपने मुसलमान पड़ोसी से ऐसे हे बरताव की आशा रखने का हक प्राप्त होगा। और शायद मुसलमान भी उसके साथ वैसा ही बरताव करे जिसकी उसे उम्मीद हो। मान लीजिये कि किसी गाँव में हिन्दुओं की तादाद बहुत ज्यादा हैं। और मुसलमान वहाँ इने-गिने ही हैं, तो उस ज्यादा तादादवाली जाति की अपने थोडे से मुसलमान पड़ोसीयों की तरफ की जिम्मेदारी कई गुनी बढ जाती है। यहाँ तक कि उनहें मुसलमानों को यह महसूस करने का मौका भी न देना चाहिये कि उनके धर्म के भेद की वजह से हिन्दू उनके साथ अलग किस्म का बरताव करते हैं। तभी, इससे पहले नहीं, हिन्दू यह हक हासिल कर सकेंगे कि मुसलमान उनके सच्चे दोस्त बन जायें और खतरे के समय दोनों कौमें एक होकर काम करें। लेकिन मान लीजिये कि वे थोड़े से मुसलमान ज्यादा तादाद वाले हिन्दुओं के अच्छे बरताव के बावजूद उनसे अच्छा बरताव नहीं करते और हर बात में लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो यह उनकी कायरता होगी। तब उन ज्यादा तादादवाले हिन्दुओं का क्या फर्ज होगा ? बेशक, बहुमत की अपनी दानवी शक्ति से उन पर काबू पाना नहीं। यह तो बिना हासिल किये हुए हक को जबरदस्ती छीनना होगा। उनका फर्ज यह होगा कि वे मुसलमानों के अमानुषिक बरताव को उसी तरह रोकें, जिस तरह वे अपने सगे भाइयों के ऐसे बरताव को रोकेंगे। इस उदाहरण को और ज्यादा बढ़ाना मैं जरुरी नहीं समझता। इतना कहकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ कि जब हिन्दुओं की जगह मुसलमान बहुमत में हो और हिन्दु सिर्फ इने-गिने हों, तब भी बहुमत वालों को ठीक इसी तरह का बरताव करना चाहिये। जो कुछ मैंने कहा हैं उसका मौजूदा हालत में हर जगह उपयोग करके फायदा उठाया जा सकता हैं। मौजूदा हालत घबड़ाहट पैदा करने वाली बन गई हैं, क्योंकि लोग अपने बरताव में इस सिन्द्धात पर अमल नहीं करते कि कोई फर्ज पूरी तरह अदा करने के बाद ही हमें उससे सम्बंध रखनेवाला हक हासिल होता है।

2. गुड, बच्चा और गाँधी

एक बार एक औरत अपने बच्चे के साथ गाँधी जी से मिली । और उसने कहा कि गाँधी मेरा बच्चा गुड बहुत खाता है आप इसे मना कर देगे बहुत अच्छा होगा और ये आपका कहा नही टालेगा। गाँधी जी बोले कि आप कल आना अपने बच्चे के साथ। वह औरत अगले दिन पहुँच गई अपने बच्चे के साथ। और बोली कि गाँधी जी मै आ गई हूँ। गाँधी जी बच्चे को अपने पास बुलाया और कहा कि ज्यादा गुड खाना अच्छा नही होता है। पर वह औरत तुरंत बोली कि गाँधी जी ये तो आप कल भी बोल सकते थे हमें आज क्यों बुलाया। गाँधी जी बोले कल तक तो मैं भी बहुत गुड खाता था पर अब मैंने खाना छोड़ दिया हैं। जो काम मैं खुद नही करता उसी काम के लिए ही तो मैं किसी को मना कर सकता हूँ। और वह औरत अपने बच्चे के साथ खुशी खुशी अपने घर को चल दी।

जरा विचार भी करें।

नोट- फोटो गूगल से लिए गये हैं और विचार गाँधी साहित्य से।






Sunday, September 28, 2008

कल बेटी का जन्मदिन मनाया, आज भगत सिंह का जन्मदिन मनाऐंगे।

भगत सिंह को याद करते हुए, मनाएं उनका जन्मदिन।



अपना पेट तो पशु सरीखा,
हर कोई हर दम भरता ।
धन्य जीना उस महापुरुष का,
दूसरों के लिए मरता॥



आओ, सिमरो भगत सिंह सूरमा, लो शीश उसकी सोच पे झुका।
रोज़ जनमें भगत हीद जैसे, देते देश आज़ाद करा।
ज़िन्दाबाद सदा नारा इंक़लाब का, दिया घर-घर हिन्द में पहुँचा।
भाई पुजारी मुल्लां मक्का, रहे हउओं से लोगों को डरा।
तर्कों की तेग़ तीखी पकड़के, वहमों को किया था फना।
नित्य नया खंडा बरते विज्ञान का, सोच सान पर लिया जो घिसा।
आओ, सिमरो भगत सिंह सूरमा, लो शीश उसकी सोच पे झुका।

जब से सुना हैं हमने,
मरने का नाम ज़िन्दगी हैं,
सर पर कफन लपेटे,
क़ातिल को ढूँढते हैं



दिल से निकलेगी न मरके भी
वतन की उलफ़त।
मेरी मिट्टी से भी,
ख़ुशबूए वतन आएगी॥

मरके भी हम मिट्टी अन्दर,
दफनाए रह नहीं सकते।
युगों युग, हर दिल में,
हर पल जोत आज़ादी जगाएँगे॥


नोट- ये विचार चरण दास सिंधू जी के भगत सिंह पर लिखे तीन नाटकों से लिए गए है जिनका प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया हैं। और सभी फोटो बी बी सी हिंदी से लिए गए है। सभी का बहुत धन्यवाद।


Thursday, September 25, 2008

यह है काल सेंटर की दुनिया

काल सेंटर

बड़ी सी यह काँच की इमारत
दिखती हैं बड़ी चमकली हैं।

जहाँ खिलती टेलिफोन पर
खट्टी-मिट्ठी बातों की फुलझड़ी हैं ।

कोई माल बेचता
कोई सूचना देता
कोई पैसे वसूलता
कोई समस्या सुलझाता।

लड़के-लड़कियों यहाँ सब बराबर
लक्ष्य पर रहती इन सबकी नज़र।

खुदा का भय यहाँ नही चलता
बोस का डर हमेशा साथ-साथ रहता।

बिजली की दुधिया रौशनी में
सूरज कब छिपता
चाँद कब निकलता
पता ही नहीं चलता।

Sunday, September 21, 2008

लगता हैं तुम इंसान नहीं।

जिधर देखो इंसान के सपनों का खून हो रहा।

समझ नहीं आता कि क्यों इंसान को इंसान मार रहा। रोज ही ऐसा मंज़र देखने को मिल रहा दुनिया के अलग-अलग कोनों में। कोई मासूम सा बच्चा सवाल कर रहा। हँसती खेलती बच्ची की हँसी गायब हो गई। किसी माँ की आँखे पथरा गई रोते रोते। किसी के बुढ़ापे का सहारा छीन गया। किसी का दोस्त बिछड़ गया। इन्हीं की पुकारों को सुनकर एक तुकबंदी की थी जिसका प्रकाशन "साहित्यशिल्पी" ने किया। आप अवश्य पढ़े । आप नीचे दिये लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
एक दर्दनाक मंज़र

Wednesday, September 10, 2008

एक बच्चा जो हैं सबका प्यारा, पर............................

एक बच्चा
सुन्दर,बलवान सा
चेहरे पर तेज़ लिए
सादा सा लिबास पहने
घूमता-फिरता, इधर-उधर
कभी इस गली, कभी उस शहर
जिसकी चर्चा होती रहती
टीवी और अखबारों में
लेखकों की सभाओं में
नेताओं की संसद में
गाँव की चौपालों में
आम-जन की बातों में
सब के सब बात ही करतें
पर कोई इसे अपनाता नहीं
क्योंकि
बच्चें का नाम सत्य है
और सत्य के साथ कोई होता नहीं

Sunday, September 7, 2008

चाय की दुकान और एक लेखक


एक जिदंगी यह भी 

अगर आप आई.टी.ओ. के आसपास हैं और थकान से चूर-चूर हो रहे है। चाहते है कि थकान पल भर में दूर हो जाए और शरीर में थोड़ी फुर्ती भी आ जाए तो आप विष्णु दिगम्बर मार्ग की तरफ हो लीजिए। जब आप इस मार्ग पर आऐंगे तो आपको पंजाबी भवन और हिंदी भवन दिखेगा। आप रुकिए और पंजाबी भवन के गेट के पास से हिंदी भवन की तरफ बीच में एक सांवला सा आदमी कमीज़ पेंट पहने एक चाय की छोटी सी दुकान लगा कर बैठा होगा। दो स्टोव, कुछ प्लास्टिक के कप, दो कपड़े के थैले समान से भरे हुए, ग्राहकों को बैठने के लिए दो बडे सपाट पत्थर और खुद के बैठने के लिए एक सपाट पत्थर जिस पर एक दरी बिछी होगी और वह आदमी नंगे पैरों को मोड़ कर बैठा चाय बना रहा होगा। आप उन्हें एक चाय का आर्डर दीजिए। चंद ही मिनटों में एक कड़क चाय आपके सामने पेश हो जाऐगी। और चाय का एक घूंट पीते ही आपको नई ताज़गी का अहसास होगा। अब आप कहेगे कि चाय की दुकान तो देख ली पर लेखक जी से तो मिलाईए। अजी मिला तो दिया। यही लेखक भी है और चाय वाले भी। आप चौकिएं मत। इनका नाम श्री लक्ष्मण राव जी है। जिनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये आपको चाय के साथ साथ साहित्य का रस भी पिलाऐंगे। जब आप पूछेंगे कि क्या आप अपनी लाईफ से संतुष्ट हैं। तो कहेंगे कि जनाब संतुष्ट हो या ना हो संतुष्ट होना पड़ता हैं। चाय बेचकर ठीक ठाक  कमा लेता हूँ और अच्छी खासी  रायल्टी मिल जाती है किताबों से, फिर क्यों छोडू इस चाय के पेशे को। खुद ही छपवाता हूँ और फिर खुद ही बेचता हूँ अपनी साईकिल पर किताबों के थैले टांग कर किताबों की दुकानों को , लाईब्रेरीयों को, और लोगों को। मैं लेखकों की तरह  एक सफेद कुर्ता पाजामा पहन और एक थैला टांग कर नही रह सकता। मेरी पहली किताब रामदास पर थी जो हमारे गाँव का एक लड़का था एक दिन वह छुट्टियों में अपने मामा के गाँव गया । जब वह लोटने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी और उसके चमकते हुए पानी में उसने छलांग लगा दी। वह फिर कभी लौट कर नहीं आया। मैं इस घटना पर लिखना चाहता था इसलिए रामदास पर मैंने पहली किताब लिखी एक उपन्यास के रुप में। बस वही से शुरुआत हो गई। आज  सन 2008 में मेरी नई रचना आई है "रेणु" के नाम से। यह है मेरा सफर।  नीचे दिया इनका जीवन परिचय उसी किताब से लिया गया है। जिसका प्रकाशन "भारतीय साहित्य कला प्रकाशन ने किया हैं। जीवन परिचय देने के लिए राव जी का दिल से शुक्रिया ।    

जिदंगी के पन्नों पर कुछ ऐसा लिखा जाए, जो पवित्र पुस्तक की तरह सुबह शाम पढा जाए - स्वेट मार्डेन  

श्री लक्ष्मण राव का जन्म 22 जुलाई, 1954 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले में एक छोटे से गाँव तडेगांव दशासर में हुआ। उन्होंने मराठी भाषा में माध्यमिक कक्षाएं, दिल्ली तिमारपुर पत्राचार विधालय से उच्चतर माध्यमिक व दिल्ली विश्वविधालय से बी.ए. उर्तीण किया। जब लक्ष्मण राव जी ने दसवीं कक्षा पास करके महाराष्ट के अमरावती शहर में, सूत मिल में टेक्सटाइल मज़दूर के रुप में काम किया तो कुछ दिनों के बाद वह मिल बिजली कटौती के कारण बंद हो गई। राव जी अमरावती से अपना सामान उठाकर गांव चले गए। वहाँ वे खेती का काम करने लगे। वे हमेशा मानसिक तनाव से ग्रस्त रहने लगे। एक महीने के बाद मई महीने में पिताजी से झूठ बोलकर 40 रुपये लिये और गांव से भोपाल आ गए। यहां तक 40 रुपये समाप्त हो गये। लक्ष्मण राव भोपाल में ही एक भवन पर पांच रुपये रोज़ से बेलदार का काम करने लगे। तीन महीने भोपाल में रहकर 30 जुलाई 1975 को जी.टी. एक्सप्रेस से दिल्ली आये। दिल्ली में दो तीन बिरला मंदिर की धर्मशाला में ठहरे। काम ढूंढ रहे थे पर मिल नहीं रहा था। जीवन के कठिनतम समय पर राव जी ने ढाबों पर बर्तन साफ करने का काम स्वीकार किया। दो वर्ष लगातार यही चलता रहा, कभी ढाबों पर बर्तन साफ करना, कभी भवनों पर मज़दूरी करना आदि। 1977 में दिल्ली जैसे भीड़ भरे शहर में आई. टी.ओ. के विष्णु दिगम्बर मार्ग पर राव जी पेड़ के नीचे बैठकर पान-बिड़ी, सिगरेट बेचने लगे। वस्तुत: उनकी छोटी सी दुकान दिल्ली नगर निगम व दिल्ली पुलिस अनेक बार उजाड़्ती रही पर उन्होंने एक सफल साहित्यकार बनने का सपना अधूरा नहीं छोड़ा। राव जी दरियागंज के रविवारीय पुस्तक बाज़ार में जाकर अध्ययन करने हेतु पूरे सप्ताह भर के लिए साहित्य खरीदकर लाते थे। उन्ही दिनों उन्हें साहित्य सम्राट शेक्सपीयर, यूनानी नाटककार सोफोक्लीज का पता चला। इसी तरह मुन्शी प्रेमचंद, शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय आदि साहित्यकारों की पुस्तकों का अध्ययन करने लगे। लक्ष्मण राव जी का पहला उपन्यास ' नई दुनिया की नई कहानी' 1979 में प्रकाशित हुआ। उस समय वे चर्चा का विषय बन गए। एक पानवाला उपन्यासकार, लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था। परंतु टाइम्स आफ इंडिया के संडे रिव्यू में उनका परिचय प्रकाशित हुआ। यह बात एक फरवरी 1981 की है। तब उनके कार्य पर लोगों को विश्वास होने लगा। साहित्यकार लक्ष्मण राव जी को अग्रेंजी भाषा का भी ज्ञान हैं। अग्रेंजी समाचार पत्र व पुस्तकें पढना उनका प्रतिदिन का नियम है। अमेरिका से प्रकाशित साप्ताहिक टाइम पत्रिका पढ़ना उनका शौक बन गया है। 
सम्मान 
भारतीय अनुवाद परिषद सहित लगभग 11 संस्थाओं से सम्मान। 

अबतक का लेखन 
साहित्य की रचनाएं 
1. नई दुनिया की नई कहानी  2. रामदास  3. शिवअरुणा  4. सर्पदंश  5. साहिल 6. पत्तियों की सरसराहट 7. प्रात: काल 8. नर्मदा 9. रेणु 
सामाजिक हिनी नाटक 
1. राष्ट्पति 2. प्रधानमंत्री 3. प्रशासन 
वैचारिक हिन्दी साहित्य 
1. द्रषिटकोण 2. अंहकार 3. परम्परा से जुड़ी भारतीय राजनीति 4. समकालीन संविधान 5. अभिव्यक्ति 6. मौलिक पत्रकारिता 
आत्मकथा एंव जीवनी 
1. साहित्य व्यासपीठ ( आत्मकथा) 2. संयम ( राजीव गाँधी की जीवनी) 

चर्चा 
बहुत सारी देश-विदेश की प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में चर्चा  
नोट: राव जी का फोटो www.tribuneindia.com से लिया गया है। इसके लिए उनका शुक्रिया।
आप इस लिंक से भी इनके बारें में पढ सकते हैं। 

Friday, September 5, 2008

शिक्षक दिवस और मेरे गुरु

ओड़क ता टूट जाणे
            सारे रिशतें नाते 
फेर क्यों न बणा 
             अम्बर दा तारा टूंटा ?
 आज शिक्षक दिवस है। और आज की पोस्ट की शुरुवात भी अपने गुरु  के लिखे शब्दों से कर रहा हूँ । मैंने कभी गाँधी , भगत सिहँ को नहीं देखा। पर अपने गुरु में मैने देखा गाँधी सा  सादा पहनावा, सादा रहना और भगत सिहँ सा  अन्याय से लड़ने का ज़ज़्बा अपने लेखन से। आप जब मिलेंगे तो यह इंसान एक कमीज और एक लूंगी पहने मेज पर बैठा कुछ पढता या लिखता हुआ मिलेगा। आप नमस्कार करेगे  तो बोलेंगे आओ भाई। जब आप उनके कमरे में जाऐगे तो देखेगे कि एक छोटा सा कमरा , एक छोटा सा बेड, एक छोटी सी मेज, एक लकड़ी की कुर्सी , और उसी कमरे में दो लकड़ी की अलमारी जिन पर काग़ज पर लिखी हुई बहुत सारी  सूकितयाँ चिपकी हुई मिलेगी। जिन्हें पढ़कर आपमें एक होंसला पैदा होगा जीने का, लिखने का, लोगो के लिए काम करने का। इस कमरे का एक गेट बाहर एक बड़े से मैदान की तरफ खुलता है। जहाँ से क्रिकेट खेलते बच्चें दिख जाऐगे। एक बार मैने पूछा कि सर आपको परेशानी महसूस नही होती इनकी आवाजों से  लिखने में सोचने में। वो बोले " कि उल्लू के पट्ठे ये मेरा बचपन है जिसे मैं रोज देखता हूँ। और अच्छी अच्छी गालियाँ  भी सुनने को मिल जाती । और छत पर एक छोटा सा पंखा है। कोई कूल्लर नही, कोई A.C नही । ऐसा नही कि वो उसका खर्चा वहन नही कर सकते। मैडम जी के कमरे में लगा हुआ है। आप पूछोगे कि सर आपको  गर्मी नही लगती तो कहेगे" कि उल्लू ...... जब गर्मी लगे तो बाथरुम में जाकर आधा बाल्टी पानी से नहा लो। लो हो गई गर्मी दूर" । जब आप बात करेगे तो उनकी बातों जोश होगा वजन होगा । मुझे याद वो दिन जब मै समय लेके गया  था उनके पास कुछ पूछने अग्रेंजी से सम्बधित शंका ।घर जाके पता चला कि उनकी तबीयत ठीक नही है। सांस लेने में दिक्कत हो रही है। इनको कई बीमारियाँ है दमा, शूगर, दिल की, पैरों के घुटने की। खैर मैं उनके पास बैठ गया। उनके डाक्टर दामाद को फोन किया जा चुका था । उनकी बताई दवाई दी जा चुकी थी। पर फिर भी सांस लेने में दिक्कत थी। मैं अपने हाथो से उन्हे पानी पी ला रहा था बिस्कुट खिला रहा था। और वो बीच बीच में कह रहे थे कि सुशील आज तेरी पढाई का नुकसान हो गया। मेरी आँखे नम थी। और मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था । खैर उनके दामाद आये और उन्हें अपोलो में भरती करा दिया गया। जब उन्हें कार में बैठा रहे थे तो भी वो बोले कि बेटा तेरी पढाई का नुकसान हो गया आज। ऐसे हैं मेरे गुरु।  
उनसे जुडा एक पहलू और देखिए। उनकी किताब से "नाटय कला और मेरा तजुरबा -विदुषी प्रकाशन" से ।
9 अगस्त 1967 जब मैं अमरीका के लिए जहाज़ चढ़ा, दो मोटी किताबें मेरे झोलें में थी: बरनर्ड शा के पूरे नाटक और शेक्सपीयर के पूरे नाटक। फुलब्राइट वज़ीफा मुझे मिला था एक साल के वास्ते। अमरीकन साहित्य पढने के लिए। पहले पांच महीने की पढाई में मैंने इतनी मेहनत की, मेरे ग्रेड इतने बढिया आये, तीन चार टीचरों ने मुझे आगे वज़ीफे के लिए अर्जी देने को कहा। उन्होंने मुझे मोटा वज़ीफा दिलवा दिया। एक साल बाद मैंने एम.ए का इमितहान दिया- ताकि अंग्रेजी का डबल एम .ए बन संकू। मेरी फस्ट डिवीजन आई और नंबर भी सबसे ज़्यादा मिले। विभाग के हैड डा. राइआऊट ने मुझे मिलने की इच्छा जताई। आधा घंटा बातचीत हुई। राइडआऊट ने कहा: "मैंने तेरे जवाब पढ़े । तू साहित्य का महा पंडित बनेगा। उच्च आलोचक बनेगा। आई ग्रीट यू आन द थरैशोल्ड आफ ए ग्रेट कैरियर।" मैं घंटा भर कैंपस की विशाल, सुंदर, मनमोहक झील के किनारे बैठा सोचता रहा। अपनी चार बेटियों को, पत्नी को, माता-पिता को, मुल्क को, याद करके रोता रहा। सबसे हज़ारों कोस दूर बैठा। - " अगर ये लोग मुझे इतना क़ाबिल समझते हैं, अगर मैं पराये देश में बैठा, बेगानी बोली में, इनसे बेहतर काम कर सकता हूँ, तब अपनी बोली में, अपने लोगों के वास्ते, मैं क्या नहीं कर सकता? मुझे अपना जीवन संयम से , सोच-समझकर, जीना चाहिए।" 
ये था इनका दूसरा पहलू। अब देखिए तीसरा पहलू।
जिदंगी को नज़दीक से देखे बगैर आप बढिया नाटक नही लिख सकते । धरती से, अपने लोगो से, हर समय जुड़े रहना जरुरी है। इसके लिए मैने अनोखा तरीका अपनाया। छ्ब्बीस साल से मैं यह तरीका बरत रहा हूँ। बरस में एक या दो बार भेष बदल कर लोगो के नजदीक जाना। इस तजरबे ने मुझे नाटक के बास्ते चोखा मसाला दिया। मैंने पात्रों से एकरुप होने का अभ्यास किया। मालायें-मुंद्रिया बेचने वाला बना तो हर देहाती के सामने हर हीले इस रोल को निभाया। हाथ देखने वाला पंडा बना तो वही पाखंड किये। हसितनापुर जिला मेरठ से गंगा में नहाकर , पैदल चलकर , मथुरा यमुना पहूँचा। भेस था साधू का। मैं परख कर देख रहा था गृहस्थ त्यागने वाले महावीर जैसे, गौतम  जैसे, कैसे महसूस करते होंगे? बाबा नानक किन तजुरबों में से , मुशिकलों में से, गुजरा होगा जब वह चारों दिशाओं में यात्रा करता हुआ भारत के कोने-कोने तक पहूँचा था? इस यात्रा पर मैं अकेला जाया करता हूँ । मेरे पास घड़ी नही होती। चश्मा नही होता। पगड़ी बांधे, धोती कुरता पहने, छड़ी पकड़े, गंवारों संग गंवार बना, मैं अदृश्य सा चलता हूँ। कभी आधी रात तारों की छांव के नीचे, कभी पंछियों पशुओं संग जागता हुआ पौ फुटाला की बेला, कभी सख़्त दोपहर को, थका, टूटा, भूखा। गाँवो में घूमता हुआ, इस बात का मैं ख़ास ख़्याल रखता हूँ। मैं अपनी अकेले रहने की तपस्या भंग नहीं होने देता। अपने घर वालों से इतना सा रिशता होता हैं: थैले के अंदर एक काग़ज़- जिस पर लिखा होता हैं," अगर किसी दुघर्टना के कारण मैं मर जाऊं, मेरी देह, बग़ैर किसी धार्मिक रस्म के जला दी जाये। उसके दो दिन बाद, नीचे लिखे पते पर मेरी पत्नी और बच्चों को ख़बर कर दी जाये।"
ये था इनका तीसरा पहलू। इनके ऊपर मैंने भी एक तुकंबदी की थी। वो भी पेश है। 

वह कौन ? 

देखो वह साँवला जोशीला
पहने सादी पेंट और सफेद कमीज
आँखो पर जो पहने मोटा चश्मा
पैरो में कपडे के जूते
और कंधे पर डाले एक सादा झोला
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

लोग कह्ते कि वह कालेज में बच्चों को इंगलिश है पढाता
पर बच्चे कह्ते कि वह हमें जीवन जीना सिखाता
बुधिजीवी कह्ते कि वह चार चार भाषायें जानता
पर कामगार कहते फिरते कि वह हमारी बोलियाँ बोलता रहता
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

किसान कह्ते कि वह रुप बदल बदल गाँव गाँव इंसानी कहानी की तलाश में घूमता फिरता
पर गाँव के बच्चे कहते कि जैसे फाहयान घूमता फिरता
कहानीकार कह्ते है कि वह कहानियों को स्टेज पर जींवत करता
पर दर्शक कह्ते कि शहीद भगत, बाबा बंतू, भजनो, किरपा, सत्यदेव, चन्नो, शंकर, कमला, ओर लेखू को देख पीछे बैठा रोया करता
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

उनके दोस्त बोले घर उनका सादा सा, कमरा उनका आधा सा, जँहा लगा किताबो का ढेर
पर पडोसी बोले घर के बाहर लगी लकडी की एक प्लेट जो बोले "नेता, भिखारी, ओर हाकिमो का यहाँ ना है कोई गेट
धर्मानुयाई कह्ते फिरते कि वह किसी धर्म को नहीं है मानता
पर कोई चुपके से कह्ता कि वह नफरत को नही मानता
आलोचक कह्ते इसमें भी हैं दोष
पर दूर कहीं से आई एक आवाज ये ना हैं कोई भगवान, ये तो हैं बस एक इंसान
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

इनका नाम श्री  चरण दास सिधू, हंसराज  कालेज दिल्ली के भूतपूर्व अंग्रेजी  के टीचर,एक पंजाबी नाट्ककार, अब तक 33 नाटक लिख चुके है ओर साथ ही एक सच्चे इंसान. और आखिर में भी उनकी किताब में लिखा हुआ ही कहूँगा 

जिसको शक हो, वो करे,
और ख़ुदाओं की तलाश,
हम तो इंसान को, इस दुनिया का,
ख़ुदा कहते हैं ।


Sunday, August 31, 2008

अमृता प्रीतम जी का जन्मदिन और उनकी कविताएं

आज 31 अगस्त हैं अमृता जी का जन्म का दिन।
मेरे लिए यह दिन अब बहुत ही ज़ज्बाती होता है। आज है उनकी बातों का दिन, उनकी यादों का दिन। इनका लेखन ही था जिसने मुझे किताबों का रसिक बनाया। पहले एक किताब पढ़ी फिर दूसरी, फिर तीसरी, और फिर किसी ओर लेखक की एक किताब पढ़ी और ये सिलसिला यू ही चल पड़ा। या यू ही भी कह सकते है ये ही थी जिन्होने मुझे बिगाड़ा और किताबों से दोस्ती करा दी। और मन चाहने लगा कि एक बार इनसे मिला जाए। जो इंसान इतना प्यारा लेखन करता है वो कैसा है। बस कही से पता लिया उनके घर का। और निकल पड़े 31 अगस्त को उनकी जन्मदिन की बधाई देने के लिए। एक हाथ में एक ग्रीटींग और एक किताब " चुने हुए उपन्यास- अमृता प्रीतम" लिए निकल पड़े उनके होजखास घर के लिए। होजकास पहुँच कर एक गुलदस्ता लिया फूलों का।( कभी किसी लड़की को फूल तो क्या एक छोटा सा ग्रीटींग भी नही दिया। और जो एक आध लड़की अच्छी लगी कभी उनका नाम भी नही पूछ सका और आज फूल भी, ग्रीटिंग भी, वाह क्या बात है ) पता ढूढ कर घर के बाहर लगी घंटी बजाई। एक आदमी आया कुर्ता पजामा पहने। लगता था जाना पहचाना दिमाग पर जोर दिया तो पता लगा अरे ये तो इमरोज जी है। वो मुझे ऊपर ले गए। और एक जगह बैठा कर बोले कि आज उनकी तबीयत जरा ठीक नही है फिर भी बता कर आता हूँ कि कोई चाहने वाला आपको जन्मदिन की बधाई देने आया है। वो आई इमरोज जी को पकड़ते हुए मुझे लगा जैसे मैने गलती कर दी हो आकर। पर वो आई तो मैने उनके चरणस्पर्श किए। एक आर्शीवाद का हाथ सिर पर प्यार से फिर गया। फूलों का गुलदस्ता दिया गया जन्मदिन की मुबारकबाद के साथ साथ। नाम पूछा, काम पूछा। लगभग 10या 15 मिनट बात हुई। बात करते हुए लगा जैसे मै इन्हें बरसो से जानता हूँ। मैंने ही कहा कि आपकी तबीयत ठीक नही आप आराम करे। ठीक है मै जाती हूँ। एकदम ही मै फिर से बोल उठा कि मुझे आपके आटोग्राफ चाहिए और मैने वो किताब आगे बढ़ा दी। वे आटोग्राफ दे कर चली गई इमरोज जी के साथ। मैं खुश था कि मैंने इनसे मुलाकात कर ली। इमरोज जी आए और मैने दूसरे कमरे में जाने की इजाजत माँगी जहाँ खूब सारी पेटिंग्स रखी हुई थी जिन्हें देखने की इच्छा दूर से ही देखने के बाद हो गई थी। इमरोज जी ने कहा क्यों नही आप देखिए। जैसे ही मैं उस कमरे में घुसा तो देखा चारों तरफ पेटिंग्स ही पेटिंग्स थी दिवारों। और फर्श पर दीये रखे थे बुझे हुए ऐसा लगा कि जैसे रात को जले हो। उस कमरे में आकर लगा कि पता नही मै कौन सी दुनिया में आ गया हूँ। वो दिन है और आज का दिन है इमरोज जी की पेटिंग्स मैं दूर से पहचान जाता हूँ और अमृता जी की किताबों को भी। बहुत देर तक उस दुनिया में रहकर मैं विदा लेकर आ गया। फिर उसके बाद भी वहाँ जाना हुआ। एक दो बार। ये मेरी पहली मुलाकात थी उनके साथ। उनके जन्मदिन पर आप सभी से बाँट डाली। एक इमेज भी है जिस अमृता जी के आटोग्राफ है। साथ कुछ अमृता प्रीतम जी की कविताएँ भी पेश कर रहा हूँ आशा है आप लोगों को मेरी पसंद अच्छी लगेगी। जोकि " चुनी हुई कविताएँ- अमृता प्रीतम" की किताब से ली गई है। जिनके प्रकाशक है "भारतीय ज्ञानपीठ" । भारतीय ज्ञानपीठ की बहुत मेहरबानी।


आदि रचना

मैं- एक निराकार मैं थी
यह मैं का संकल्प था, जो पानी का रुह बना
और तू का संकल्प था, जो आग की तरह नुमायां हुआ
और आग का जलवा पानी पर चलने लगा
पर वह पुरा-ऐतिहासिक समय की बात है .....

यह मैं की मिट्टी की प्यास थी
कि उस ने तू का दरिया पी लिया
यह मैं की मिट्टी का हरा सपना
कि तू का जंगल उसने खोज लिया
यह मैं की माटी की गन्ध थी
और तू के अम्बर का इश्क़ था
कि तू का नीला-सा सपना
मिट्टी की सेज पर सोया ।
यह तेरे और मेरे मांस की सुगन्ध थी -
और यही हक़ीक़त की आदि रचना थी ।

संसार की रचना तो बहुत बाद की बात है ......

अमृता प्रीतम

एक दर्द था-
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं -
जो सिगरेट से मैं ने राख की तरह झाड़ी.....


इमरोज़ चित्रकार

मेरे सामने- ईज़ल पर एक कैनवस पड़ा है
कुछ इस तरह लगता है -
कि कैनवस पर लगा रंग का टुकड़ा
एक लाल कपड़ा बन कर हिलता है
और हर इंसान के अन्दर का पशु
एक सींग उठाता है ।
सींग तनता है -
और हर कूचा-गली-बाज़ार एक ' रिंग ' बनता है
मेरी पंजाबी रगों में एक स्पेनी परम्परा खौलती
गोया कि मिथ- बुल फाइटिंग- टिल डैथ -

मेरा पता

आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रुर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रुह की झलक पड़े
समझना वह मेरा घर है ।

Saturday, August 30, 2008

व्यथा एक जीवन की

पेड़

धूप में तपता
ठंड में अकड़ता
बारिश में खिलता
ये पेड़ यू ही डटा रहता।

कोई थका मादा जब इसके पास आता
इसकी छाया में थकान मिटा, एक नई ऊर्जा लेकर जाता
जब भी माँगा किसी ने एक लकड़ी का टुकड़ा
अपने घर का चूल्हा जलाने को
खुशी-खुशी वह लकड़ियाँ देता रहता।

पर कोई नहीं पूछता उससे
उसके दिल की बातें
उसके अरमान
उसके सपने
उसके दुख

Monday, August 25, 2008

एक लाचारी भरा दिन

दो किलकारी

दो किलकारीयाँ घर में गूँजने से पहले
बीच रास्तें में ही कहीं दफ़न हो गई
कोई अनदेखी अनजानी डोर उन्हें खींच ले गई
बहना काका काका पुँकारती रही
माँ दर्द में कराहती हुई आवाज़ लगाती रही
दादी कहती मेरे दो फूल आओ और खिल जाओ
दादा रुँधे गले से बोल रहे
ओ मेरे राम लक्ष्मण मेरे बुढ़ापे के साथी बन जाओ
मैं ना आवाज़ मार सका, ना हाथ ही बढ़ा सका
मैं दो दो हाथ लिए भी पत्थर की मूर्ति बना खड़ा
बस देखता रहा, बस देखता रहा, बस देखता रहा ....

Friday, August 22, 2008

मेरा बचपन

दिल्ली में मेरा बचपन

मेरे बचपन की दिल्ली थी बड़ी खुली खुली
ट्रेन की आवाजें थी मेरी माँ की घड़ी
लिखता था तख़्ती पर, मुलतानी मिट्टी पोत के
सरकड़ो की कलम बना, काली स्याही की दवात में डुबो के
पाठशाला में ज़मीन पर बैठ पढ़ा करते थे
टाट भी खुद ही घर से ले जाया करते थे
वो खट्टी मीठी संतरे की गोली मुँह में डाल
क से कलम, द से दवात बोला करते थे
पाठशाला की जब बजती टन टन पूरी छुट्टी की घंटी
पीठ पर बस्ता टांगे, हाथ में तख़्ती लिए
दौड़ जाते थे शोर मचाते हुए घर के लिए
फैंक बस्ता एक कोने में, खा जल्दी जल्दी एक दो रोटी
भाग जाते थे भरी दोपहरी में गिल्ली डंडा और कंचे खेलने
वापिस आते वक्त भरी होती कंचो से कमीज़ की झोली
माँ डाटँती सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती
हाथ मुँह धो, लगा पीठ दीवार पर
स्कूल का सारा काम थोड़ी देर में ही कर जाया करते थे
शाम ढलती रात होती माँ के चूल्हे में आग होती
खा माँ के हाथों की रोटी, लेट खाट पर सपनों में खो जाते थे

Tuesday, August 19, 2008

बचपन के दिन (पान वाले की दुकान और सुरीले गाने)

दो एक दिन पहले महेन जी ने अपने ब्लोग पर एक गाना सुनवाया था। गीत के बोल थे " चल उड़ा जा रे पंछी" । गीत के बोल मुझे मेरे बचपन में ले गए जब मैं पढ़ा करता था। तब गानों की इतनी समझ नही थी वैसे आज भी समझ नही आई हैं। जो गाने तब अच्छे नही लगते थे अब वो गाने अच्छे लगते हैं। बस इतना फर्क आ गया हैं। खैर बात बचपन की हो रही थी। जब हमारी आधी छुट्टी होती थी तो मै और मेरा एक दोस्त बाहर पेट पूजा करने आते थे। चार डबलरोटी लेकर उसके बीच में छोले रख कर और ऊपर से खट्टी चटनी डाल कर हम दोनो खाते थे। और स्कूल के पास ही एक पनवारी की दुकान थी जहाँ हम खड़े हो जाते थे। क्योंकि उसके पास टेप रिकार्डर था और हर समय चलता रहता था। बस हम दोनों एक साईड में खड़ॆ होकर गाने सुनते थे। 10 या 15 मिनट तक। उसके पास गानों की कैसेटों की भरमार थी। वह हमें अपनी दुकान से भगा ना दें इसलिए उससे हम संतरे की छोटी छोटी मीठी गोलियाँ ले लिया करते थे। वहाँ एक गाना अक्सर बजता था जो मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। पर कल ही पता चला कि वह गाना नही कव्वाली हैं। जब मैं उसको यूटयूब पर सर्च कर रहा था। उसके बोल हैं " चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता हैं ढल जाऐगा" । कल से कई बार सुन चुका हूँ फिर एकदम ख्याल आया आप सभी साथी दोस्तों को भी ये सुनवाया जाए। अच्छा लगे तो दो शब्द, खराब लगे तो चार शब्द कहना।






साभार: www.youtube.com . youtube वालों की बहुत मेहरबानी जिनकी बदौलत ये कव्वाली मैं फिर से सुन पाया और सुनवाया पाया ।

Friday, August 15, 2008

आज़ादी के पर्व पर मेरे दिल के करीब दो देशभकित गाने

आज़ादी के इस पर्व की सबको बधाई।


आज 15 अगस्त हैं। हमारी आज़ादी का दिन। बाहर क्या बच्चें, क्या जवान, क्या वृद सभी छतों पर पतंगे उड़ा रहे हैं। आसमान पर पंतग ही पंतग हैं। और नीचे आवाज आ रही है कि आई बो के( पंतग कट गई) । बचपन के दिन याद आ रहे जब 14 अगस्त को स्कूल में देशभकित के गानों का कार्यक्रम होता था । झंडा फहराया जाता था। तब से लेकर आज तक एक गाना मेरे दिल के नजदीक हैं। पहले भी सुनकर आँखे नम हो जाती थी और आज भी । मेरे दोस्त पूछते थे तुझे क्या हुआ। पर पता नही मुझे क्या हो जाता था। खैर गाने के बोल हैं। "ऐ मेरे प्यारे वतन"। फिल्म "काबुली वाला"। साथ ही इसके अलावा एक गाना और हैं जो मेरे गाँवो की याद दिलाता हैं। आप सभी को फिर आज़ादी की ढेरो शुभकामनाएं।












साभार : www.youtube.com.मेहरबानी youtube  की।

15 अगस्त ,

आज आज़ादी का दिन हैं। आप सभी देशवासियों को ढेरों शुभकामनाऐं।


आज़ादी का दिन

सूखी ड्डियों की काया
चिथड़ो में लिपटी हुई
कंधे पर टाँगे एक पोटली
पीठ पर बाँधे जिगर का टुकड़ा
नीले अम्बर के नीचे
विचारों की जुगाली के अड्डे
इंडिया हैबिटेट सेंटर के चौराहे पर
दो रोटी और थोड़े से दूध के वास्ते
बेच रही थी
एक एक रुपये में एक एक तिरंगा
यही हैं आजादी का रंग बदरंगा
और जब पड़ी तेज बारिश
तो तिरंग़ा लुगदी बन गया
न मिली रोटी न मिला दूध
भूखा पेट दूध रोटी के सपनों मे खो गया


नोट: अविनाश जी के मार्गदर्शन के बिना यह तुकबंदी पूरी नही हो पाती, इसलिए सप्रेम उनकी बहुत मेहरबानी।

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