तलाश
किसी को फसल के अच्छे दाम की तलाश,किसी को काम की तलाश,किसी को प्यार की तलाश, किसी को शांति की तलाश, किसी को खिलौनों की तलाश,किसी को कहानी की तलाश,किसी को प्रेमिका की तलाश, किसी को प्रेमी की तलाश,................ तलाश ही जीवन है
Sunday, September 10, 2023
मेरी पहली साइकिल और उसकी यादें
Saturday, July 1, 2023
उसके मन के भाव
1.
वे अपने-अपने हिसाब से चलते रहे
वो उनके हिसाब से बदलता रहा!
2.
रिश्ते
सब-के-सब
अपने-अपने
'खून' के साथ
खड़े हो गए.
एक था वो
जो 'सही' के साथ
खड़ा रहा.
और अकेला रह गया.
3.
वो अपने ही घर में
किराएदार हो गया
लोग कहते हैं कि
वो अपनी जिंदगी में
नाकामयाब हो गया.
Friday, May 26, 2023
'जंगल जलेबी' वाला लड़का
अब तक मेरे दिमाग में बस यही आ रहा था कि ये भरी दुपहरी में ऐसा क्यों कर रहा है? क्या इसे भूख लगी है? क्या बस 'जंगल जलेबी' के लिए ही ऐसा कर रहा है? दिमाग में ये नहीं आया कि बैग में बिस्कुट, केक भी तो रखे हैं. मैं बस उसकी मेहनत और लगन को ही देखता रहा. और उसकी 'जंगल जलेबी' पाने की इच्छा से प्रभावित होता रहा. मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी 'जंगली जलेबी' को इस तरह तोड़कर कभी खाया हो. बस इतना याद है कि मेरे ननिहाल में एक मामा हैं वो एक बकरी पाला करते थे. वे उसे अपने पास ना रखकर बकरी पालने वाले दिए रखते थे. और रोज उस बकरी के लिए कुछ ना कुछ खाने के लिए ले जाते थे. वे ढेर सारी बकरियों में भी उसे पहचान लिया करते थे. और उनकी एक आवाज पर वो बकरी दौड़ी चली आती थी. उन्ही दिनों एक बार उन्होंने मुझे 'जंगल जलेबी' खाने के लिए दी थी. उस दिन पता चला था कि जलेबी ही नहीं एक 'जंगल जलेबी' भी होती है. उस दिन के बाद 'जंगल जलेबी' तो कई बार देखी. लेकिन कभी दुबारा खाई नहीं. खैर थोड़ी ही देर बाद मुझे ख़याल आया कि अरे बैग में बेटी के खाने का सामान रखा है. उसमें से कुछ तो इसको दिया ही जा सकता है. फिर मैंने उसे अपने पास बुलाया. बैग खोला तो सामने केक ही था और वो मैंने उसे दे दिया. वो पूछने लगा कि ये क्या है? मैंने कहा कि केक है.केक! शायद उसे केक के बारे में पता नहीं था. केक को लेकर वो फिर से 'जंगल जलेबी' तोड़ने लगा. कहानी बस यही खत्म नहीं होती है. असल कहानी तो आगे शुरू होती है. दरअसल उससे वो केक का पैकेट संभल नहीं रहा था. शायद केक के पैकेट को वो नीचे रखना नहीं चाहता था. क्या पता उसे भूख भी लगी हो. फिर उसने 'जंगल जलेबी' तोड़ना बंद कर दिया. उस रस्सी बंधी बोतल को वहीँ छोड़कर वो केक को लेकर आगे बढ़ गया. मैं वही खड़ा रह गया. फिर कुछ देर बाद जब मैं सेंटर के पास जाने लगा तो बीच रास्ते में वो मुझे फिर मिला. केक बस थोड़ा-सा ही बचा था. तभी उसके पास खड़ी दो लड़कियों में एक लड़की उससे 'जंगल जलेबी' मांगने लगी. ये लड़कियां शायद किसी दोस्त या बहन-भाई का पेपर दिलवाने लाई थीं. और मेरी ही तरह पेपर के छूटने का इंतजार कर रही थीं. इनके 'जंगल जलेबी' के मांगने पर उसने 'जंगल जलेबी' को छिला और एक पीस उन्हें देने लगा लेकिन उन लड़कियों ने वो पीस लेने से मना कर दिया. और कहा कि दूसरा वाला दो. फिर उसने बची हुई पूरी 'जंगल जलेबी' उस लड़की को दे दी. मैं उस बच्चे को देखता हुआ. उसके मिल-बांटकर खाने वाले दिल को महसूस करता हुआ आगे बढ़ गया.
Friday, March 17, 2023
दिल्ली वाला लहजा और उसके वाला ह्यूमर...
जब से पैदा हुआ हूं. तब से दिल्ली को दिखाता आया हूं. उसकी गलियों में घूमता आया हूं. दिल्ली के चौराहों पर खड़े होकर दिल्ली के हर रंग को देखा है. यानि कुल मिलाकर दिल्ली से इश्क है. पर ये ‘दिल्ली वाला लहजा’, ‘ये दिल्ली वाला ह्यूमर’ क्या होता है? सच मुझे पहले पता नहीं था. ऐसा नहीं है कि ये सब मैंने सुना नहीं होगा. देखा नहीं होगा. लेकिन ऐसे गौर करके पहचाना नहीं.
बेटी ने कई बार कहा,’ क्या पापाजी. कितने साल के हो गए हो आप. 40-45 साल के तो होगे ही. आपको ना
कभी ‘दिल्ली वाले लहजे’ में बात करते देखा. ‘दिल्ली वाले ह्यूमर’ की तो बात ही छोड़ दो! मैं
बचपन से आपको सुनती आ रही हूं. आपके शब्दों से दिल्ली वाली फील नहीं आती. कई बार
ऐसे शब्दों (हिंदी के कम प्रयोग वाले और कठिन शब्द, और उर्दू के शब्द, ऐसा वो कहती है.) का यूज़ करते हो कि सर के ऊपर से चले जाते
हैं. आप दिल्ली वाले लगते ही नहीं हो. वो देखो शाहरुख खान को. उनकी बातचीत में आज
भी ‘दिल्ली वाली फील’ आती है. उनके मजाक से ‘दिल्ली वाला ह्यूमर’ झलकता है. आज से पहले बहुत
बार इस टॉपिक पर अपन दोनों की बातचीत हो चुकी है. वो फिलहाल अब याद नहीं. लेकिन
अभी ‘तापसी पन्नू’ को सुन रहा था. वे भी शाहरुख
खान के 'दिल्ली वाले ह्यूमर' की बात कर रही थीं.
फिर बैठा-बैठा सोचने लगा कि ऐसा क्या और कैसे हुआ है कि मैं इतने सालों में ये सब नहीं पहचान पाया. उसे देख-समझ नहीं पाया. जिसे बेटी ने दो साल में पहचान लिया. इस बात पर बेटी को गर्व-सा फील हो रहा था कि जो बात उसने गौर की, वो बात उसके पापा नहीं कर पाए, जोकि उसकी नज़रों में बेहद इंटेलीजेंट हैं. यानि इस मामले में वो अपने पापा से आगे निकल गई!
Tuesday, March 14, 2023
सिद्धू सर का जन्मदिन और उनके जीवन की चंद झांकियां
सेंट स्टीफंज कॉलेज के प्रिंसिपल ने सिद्धू की दाखिले की दरख़ास्त ठुकरा दी क्योंकि दाखिले तो दो महीने पहले खत्म हो चुके! सिद्धू घबराया नहीं. सीधा यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार के पास पहुंचा. मदद मांगी. रजिस्ट्रार ने कहा,’ वापस सेंट स्टीफंज कॉलेज जाओ. प्रिंसिपल को कहो, मुझे टेलीफोन फोन करे. यह बात सुनकर सिद्धू लौटकर कॉलेज की तरफ चल पडा. रास्ते में उसको एक एम. ए. हिंदी का छात्र मिल गया. उसने सलाह दी. एम. ए. इंग्लिश करने के लिए रामजस कॉलेज को सबसे बढ़िया माना जाता है. रामजस का प्रिंसिपल आप भी अंग्रेजी पढ़ाता है.
इस वक्त के रामजस कॉलेज और तब के रामजस
कॉलेज में बहुत फर्क था. सिद्धू ने अपना रास्ता बदल लिया. वह उलटी जानिब चल पड़ा.
रामजस कॉलेज पहुंच गया. प्रिंसिपल बी.बी गुप्ता को मिला. प्रिंसिपल ने सिद्धू की
काबलियत झट पहचान ली. सिद्धू को कहा, दाखिले के 250 रुपए जमा करा दे. पर सिद्धू के
पास इतनी रकम थी नहीं. उसके पास 15 रुपए थे. प्रिंसिपल गुप्ता ने कैशियर को कहा, ‘इससे
सिर्फ 9 रुपए ले लो. आज दाख़िले का आख़िरी दिन है. दाख़िले की जरुरी रस्म पूरी कर लो.
बाकी की फीस यह बाद में दे देगा. होशियारपुर लौटने के वास्ते छह रुपए इसके पास
रहने दे. हॉस्टल में इसके वास्ते कमरा भी अलोट करवा दे.’
-डॉ सी.डी वर्मा
अमरीकन साहित्य के बारे में 1966 में एक
सेमीनार हुआ. सिद्धू ने इसमें वाल्टविटमन पर पेपर पेश किया. अमरीकन प्रोफेसर
क्रिस्टी ने इस पेपर को सेमीनार में पेश हुए सभी पर्चों में से बेहतरीन कहा. डॉ
सरूप सिंह ने, जो उस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग के मुखिया थे,
सिद्धू की भरपूर प्रंशसा की. और तुरंत ही फुलब्राइट स्कालरशिप पर उसके अमरीका जाने
का प्रबंध कर दिया. विसकानसिन यूनिवर्सिटी ने उसको अपनी यूनिवर्सिटी से भी
अंग्रेजी की एम. ए करने के लिए कहा. उसने परीक्षा दी और यूनिवर्सिटी में से अव्वल
रहा. पौने तीन साल में वो एम. ए और डॉक्टरेट दोनों
हासिल करके, डेढ़ महीना यूरोप की सैर करके, वापस हंसराज कॉलेज आ पहुंचा.
-डॉ कुलदीप सिंह धीर
जब मैं डॉ सिद्धू से इनामों-सम्मानों की
बात करने लगा, तो वह बीच में ही टोकर बोला: इनाम-सम्मान बड़े मिले हैं, पर मैं
तुम्हें ‘बाबा बंतू’ की बात सुनाता हूं. ‘बाबा बंतू’ पंजाब यूनिवर्सिटी की बी.ए.
क्लास में लगा हुआ है. मैं नवां शहर गया. अपने एक मित्र के पास ठहरा, जो कॉलेज में
पढ़ाता था. जब मैंने ‘बाबा बंतू’ के प्रभाव के बारे में पूछा, वह कहने लगा: नहीं
रीस ‘बाबा बंतू की. ‘बाबा बंतू’ की जात-बरादरी के लड़के-लड़कियां शेर बने बैठे हैं
कि उनके बाबा दा की नीच समझी जाने वाली बोली में लिखी किताब भी उनको कोर्स में
पढ़ाई जा सकती है! मुझे ‘बंतू’ के पुत्र-पौत्रों ने अपना कहा. मैं सदियों तक उनका
कर्जदार रहूंगा. डॉ सिद्धू का गला भर आया. और आंखें खुशी के आंसुओं से भर गईं.
उसका पक्के रंग वाला चेहरा स्वाभिमान से ज्वलंत था.
-डॉ अजित सिंह
सिद्धू बड़ी प्यारी शरारतें करता है. (
सयाना बंदा शरारती होता है और शरारती बंदा सयाना होता है. और ऐसे बंदे जिंदगी में
सफल होते हुए देखे जाते हैं.) अक्सर लेखक किसी मुश्किल में फंसने के डर के मारे
अपनी पुस्तक के आगे यह नोट लिख देते हैं कि ‘ इस नाटक या नावल के पात्र और घटनाएं
फर्जी हैं. अगर किसी का नाम किसी पात्र के नाम से मेल खा जाए, तो यह सिर्फ संयोग
ही होगा.’
इसके उलट, सिद्धू अपनी हर रचना के शुरू
में अक्सर दिलचस्प नोट लिख देता है: ‘इस ड्रामे के अंदर वाले बंदों के नाम और
घटनाएं सच्ची हैं. हर बंदे को लेखक पर मुकदमा करने की पूरी छूट है.’ एक स्थान पर
वह लिखता है,’ इस ड्रामे की घटनाएं सही और सच्ची हैं. पिटाई से बचने की खातिर,
लेखक ने कुछ एक बंदों के नाम उलटे-सीधे कर दिए हैं.’
-जगदीश कौशल
प्रश्न- कोई अपूर्ण रही ख्वाहिश?
उत्तर- सिर्फ दो ख्वाहिशें पूरी नहीं
हुईं. एक तो दिन बड़ा छोटा होता है. मैं ज्यादा काम और ज्यादा आनंद लेना चाहता हूं.
दूसरा, मेरा ब्याह हेमा मालिनी से नहीं हो सका.
-रोजाना जगवाणी, जालंधर
[सभी झांकियां 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र' नामक
किताब से लिए गए हैं. जिसे संपादित रवि तनेजा जी ने किया है और छापा 'श्री प्रकाशन' ने
है. बाकी की झांकियों के लिए आप किताब पढ़ सकते हैं. ]
Friday, November 18, 2022
सर कविता क्या होती? शेक्सपीयर से पूछकर बताऊंगा!
सर,
पिछले दिनों बेटी के मांगने पर उस पर लिखी अपनी रचनाएं तलाश रहा था. उसी तलाश के दौरान ये डायरी मिली, जिसमें आपने मेरे लिए यह लिखा था. अपना लिखा यह याद है आपको!! याद तो होगा ही. आप भूलने वाले लोगों में कहाँ थे. ना जाने अब कहां होंगे? किस दुनिया में होंगे? और किस रूप में होंगे आप? लेकिन इतना पता है आप जहां भी होंगे अपनी धुन में लगे होंगे. जैसे यहां इस दुनिया में लगे रहते थे. वसुंधरा वाले घर के अपने कमरे की उस मेज पर, किताबें पढ़ते हुए, कुछ रचते हुए. हंसराज कॉलेज की कक्षाओं में मुझ जैसे स्टूडेंट्स को पढ़ाते हुए. नाटक मंच के पीछे. या फिर नाटक मंच के आगे में सबसे पीछे की किसी कुर्सी पर, अपनी आंखें नम किए हुए. पता है सर मैं अक्सर पीछे मुड़कर देखा करता था आपको भावुक होते हुए. जो जज्बात आप कह नहीं पाते थे वो जज्बात आपकी आंखें बोल जाती थीं.
और हाँ सर
आपने मेरा वाला वो सवाल तो अब तक पूछ लिया होगा ना शेक्सपीयर जी से. वही वाला सर.
जो मैंने एक बार आपसे पूछा था कि ‘सर कविता
क्या होती?’ और आपने मजाक में कहा था
शेक्सपीयर से पूछकर बताऊंगा! अब तो आपकी खूब छनती भी होगी शेक्सपीयर जी से. आप
कहाँ चैन से बैठने वालों में से हैं. बुला लेते होंगे जार्ज बर्नार्ड शॉ जी को भी.
और फिर दुनिया जहां की बातें-बहस होती होंगी. जैसे वसुंधरा वाले सोसाइटी वाले
पार्क में धूप में पांच-सात कुर्सियां पर बैठकर आप लोग किया करते थे. यहां की तरह
हंसी-मजाक, बहस की आवाजें वहां भी दूर
तक जाती होंगी. उन्हें सुनकर बाकी लेखक लोग भी आ जम जाते होंगे बाकी खाली पड़ी
कुर्सियों पर. उसके बाद फिर जो समा बंधता होगा. उसके बारे में सोचकर ही मैं आनंदित
हो रहा हूं. उधर आप उतने प्रसन्न होते होंगे. खैर जब आपकी याद आती है या तो आपकी
किताबें उठा लेता हूं या फिर बेटी-पत्नी को आपके बारे में बताने लग जाता हूँ, आपके जो किस्से मुझे पता हैं, उन्हें सुनाने लग जाता हूं.
पता है सर कभी-कभी मन करता है कि आपके समकालीन या आपके दोस्तों के पास जाऊं और
उनसे आपके किस्से पूंछू. उन्हें फिर कलमबद्ध कर. एक किताब का रूप दूं. कुछ दिलचस्प
किस्से प्रताप सहगल जी ने सुनाए थे एक बार. और ना जाने कितने और होंगे. उनमें से
कितने किस्सों को सुनकर आनंद आएगा. कितने किस्सों से हौसला मिल जाएगा. और कितनों
से एक नई राह मिल जाएगी. वो राह फिर किसी-किसी को मंजिल तक भी ले जाएगी. खैर आपकी
कमी बेहद खलती है. आप वो पेड़ थे, जिसकी
छाया में बैठकर मैं अपने मन की कह लेता था. आपके अनुभव से कुछ सीख लेता था. आपके
पास बैठकर एक नई ऊर्जा मिलती थी. हौसला मिलता था. लेकिन अब कोई आप जैसा हौसला नहीं
बढ़ाता. सर आपकी कमी खलती है. आपकी याद आती है!
[आज ही के दिन सिद्धू सर हम सबको
छोड़कर चले गए थे!]
Saturday, November 5, 2022
चलती बस में दिल्लीवालों को चढ़ने की आदत ना हो. ऐसा हो नहीं सकता- मनोज पाहवा
खैर एक बार छुट्टी से पहले स्कूल को बंक करके हम तीनों घर जा रहे थे. हमेशा की तरह तीनों चढ़ती बस में ही चढ़े. ये याद नहीं कि बस 234 नंबर थी या फिर कोई और. लेकिन ये याद है वजीराबाद के आने से पहले हम दो ( मैं और सिख यार.) में शर्त लग गई कि बस को बिना छुए जो घर के स्टॉप तक जाएगा वो जीत जाएगा. डीटीसी बस खाली-सी थी. बस फिर क्या था. मैं पिछले गेट से थोड़ा पीछे खड़ा हो गया. तब डीटीसी की कुछ बसों में पीछे सीट नहीं हुआ करती थीं. पिछ्ला हिस्सा खाली हुआ करता था. सरदार जी मेरे से आगे. जाट यार अंपायर बने हुए थे. जैसे ही बस ने वजीराबाद पुल क्रॉस किया वैसे ही पता नहीं क्या हुआ. बस ड्राईवर ने एकदम से ब्रेक लगा दिए. और मैं बस के अंदर आगे-पीछे करते हुए ऐसे गिरा कि बस के सभी लोग हंसने लगे थे. मेरी सारी हेकड़ी निकल गई थी. और चेहरे पर 12 बज गए थे.
[ पाहवा जी की बात सुनकर ये वाकया याद हो आया. सोचा याद के लिए लिख दूं. बाकी फोटो गूगल से ली गई है.]
Sunday, August 7, 2022
फ्रेंडशिप डे
एक हमारे 'जाट यार' थे. थे क्या अब भी हैं. बात स्कूल के दिनों की है. हमारी क्लास के एक दोस्त 'सरदार' भी थे. नाम था 'गुरुदर्शन सिंह'. हम तीनों ही अधिकतर बार '234 नंबर बस' से स्कूल आते थे. जोकि दिल्ली के 'लखनऊ रोड़' से निकलकर. 'खालसा कॉलेज' से होते हुए 'कर्मपुरा' जाती थी. लेकिन हम 'रूपनगर' वाले स्टैंड पर उतर जाते थे. अक्सर उन दोनों के बीच किसी ना किसी बात पर बहस हो जाती थी. बहस के बाद 'गुरुदर्शन सिंह' उसे 'और जाट, सोलह दुनी आठ' कहकर चिढ़ाता था. और 'जाट यार' उसे 'दूरदर्शन' कहकर चिढ़ाता था. 'गुरुदर्शन सिंह' का साथ 12 क्लास के बाद छूट गया. लेकिन 'जाट' यार बनकर जुड़े रहे. अभी तक जुड़े हुए हैं.
धीरे-धीरे हम बड़े होते गए. 'जाट यार' अब चौधरी हो चुके थे. लोग उन्हें अब चौधरी साहब कहने लगे थे. और एक मैं था कि लोग 'गुर्जर' भी नहीं मनाते थे! गुर्जर दोस्त कहते थे कि साले तू तो हमारी गुर्जर कौम पर कलंक है! खैर चौधरी से एक किस्सा याद हो आया. इस किस्से के आपां साक्षी नहीं हैं लेकिन है सच.
किस्सा कुछ यूं है. 'जाट यार' की दोस्त मंडली में से किसी को पैसे की जरुरत आन पड़ी. वो 'जाट यार' के दूसरे साथी के पास आकर कहने लगा कि इतने पैसे की जरुरत है. अगर हो सके तो दे दो. मैं कुछ दिन में लौटा दूंगा. लेकिन जिससे पैसे मांगे जा रहे थे उसके पास पैसे नहीं थे. उसने मना कर दिया. परंतु पैसे मांगने वाले को एक रास्ता सूझा दिया कि चौधरी साहब से मांगकर देख ले. उसके पास होंगे. तो दे देगा. अगर नहीं होंगे तो भी वो किसी से मांग कर तेरी जरुरत पूरी कर देगा. लेकिन ये ध्यान रखियो. 'नाम लेकर या भाई कुछ पैसे चाहिए.' कहकर पैसे मत मांग लेना. और अगर तू ये कहेगा कि चौधरी साहब कुछ पैसों की जरुरत है. कैसे भी करके पैसे चाहिए. तो वो कहीं से भी पैसे लाकर दे देगा. उस लड़के ने वैसा ही किया. हमारे 'जाट यार' को चौधरी साहब सुनना अच्छा लगता था. 'जाट यार' चौधरी साहब कहने पर पिघल गए और उसे किसी से पैसे उधार लेकर दे दिए. और उसका काम बन गया. ऐसे थे हमारे 'जाट यार.'
एक और किस्सा है उस 'जाट यार' का. जिसका मैं खुद साक्षी रहा हूं. दरअसल हुआ कुछ यूं कि एक मेरे दोस्त हैं. पैरों से चल नहीं सकते तो चार पहिए की गाड़ी का इस्तेमाल करते हैं. एक वक्त था जब उनके पास अच्छा खासा पैसा हुआ करता था. पिता जी की अच्छी खासी सैलरी थी. घर से बिज़नेस भी कर रहे थे. लेकिन फिर इनके पिताजी की एक एक्सीडेंट में मौत हो गई. और बिज़नेस भी खत्म हो गया. किराए से घर चल रहा था. खैर! एक दिन हुआ कुछ यूं कि इनके जीजा जी की भी मौत हो गई. खबर लगने पर मैं उनके घर गया. पता लगा इनकी जेब में पैसे नहीं. ये करें तो क्या करें. मैंने अपनी जेब टटोली तो उसमें भी कुछ ज्यादा पैसे नहीं. खैर जाट यार को फोन किया गया. वे मेरी वजह से इन्हें जानते पहचानते थे. दोस्त जैसा संबध तो नहीं कह सकते लेकिन दोनों के बीच दुआ-सलाम तो थी ही. उसे फोन कर बताया कि यार ऐसे-ऐसे हो गया. क्या किया जाए? तब उसने कहा था ' मुझे पता है तू चाहकर भी उसकी हेल्प नहीं कर सकता क्योंकि तेरे हालात मैं जानता हूं. लेकिन मैं कुछ करता हूं...तू एक काम कर. मुझे आधे घंटे बाद तू फलां जगह मिल. मैं आधे घंटे बाद उस जगह पहुंच गया. वो अपनी सदाबहार सवारी 'बुलेट' पर बिना हेलमेट लगाए आया. और बोला,' ये पांच हजार रुपए हैं. तू उसे अपने नाम से दे दे. जब उसके पास होंगे तब दे देगा.' और जाट यार पैसे देकर चला गया. मैंने वो पैसे उसके नाम ही से उस दोस्त को दे दिए. आज इतने साल बीत गए. उस दोस्त ने वो पैसे अभी तक दिए नहीं. और इस 'जाट यार' ने आजतक मुझसे मांगे नहीं. सुना है आज फ्रेंडशिप डे है!
Friday, March 25, 2022
सागर सरहदी...
मैंने 'बाजार' फिल्म बहुत बाद में देखी. पहले मुझे उसके गानों से प्यार हुआ था. उस प्यार की बदौलत ही इस फिल्म के गानों की कैसेट ले आया था, जिसमें गानों के साथ-साथ संवाद भी थे. ना जाने कितनी बार अपने वॉकमेन पर उस कैसेट को लगाकर लूप में सुना करता था. तब तक मैं सागर सरहदी जी को नहीं जानता था. तब हम केवल केवल फिल्म के हीरो-हीरोइन को ही जानते थे. फिर बाद में एक दोस्त की बदौलत मैं इस फिल्म को देख पाया था. फिल्म को देखकर फिर इस फिल्म से भी प्यार हो गया था. इसका असर ये रहा कि मैं तुरंत ही मार्किट जाकर इस फिल्म की सीडी ले आया था. इस वक्त तक भी मैं सागर सरहदी जी को नहीं जानता था. फिल्म देखते वक्त मन जरुर हुआ था कि किसने इस फिल्म को बनाया है वो शख्स कौन है? लेकिन बस बात मन ही मन में रह गई थी. फिर जिंदगी की आपा-धापी में लग गए. सालों बाद एक दिन ऐसा आया कि इरफ़ान जी के 'गुफ़्तगू' कार्यक्रम में 'सागर सरहदी जी' नजर आए. बातचीत सुनी और देखी गई. और एक सीधे-सच्चे, जज्बाती इंसान से सामना हुआ. और वो दिन था जब मुझे सागर सरहदी जी से भी प्यार हो गया था. उस इंटरव्यू को देखते हुए सागर सरहदी जी का एक-एक शब्द दिल में उतर रहा था. कई जगह उनकी बातों में दुहराव आया लेकिन उनके सवाल जहन को चीर रहे थे. मसलन 'मुझे ये बात आज भी बहुत खटकती है. और सता रही है. ऐसी कौन-सी ताकतें हैं जो आपको अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर करती हैं? आपको आदमी से रिफ्यूजी बना देती हैं?' यह सवाल आज भी दिमाग के एक कौने में बैठा हुआ है. इंटरव्यू के बाद मन करने लगा कि इनको और जानने का. रात भर Youtube पर इनके इंटरव्यू देखता रहा. इंटरव्यू ज्यादा तो ना थे. लेकिन जो थे उन्हें ही बार-बार देखता रहा. बाद में लगा कि इनके और भी इंटरव्यू आने चाहिए. इनके जो भी दर्द हैं. वे बाहर निकलने चाहिए. ना जाने क्या-क्या दबा रखा है इस इंसान ने अपने अंदर. वो बाहर आना ही चाहिए. चाहे फिल्म के रूप में या फिर इंटरव्यू के रूप में, या फिर किसी अन्य रूप में. अगले दिन सुबह होते ही. मुंबई में अपने पत्रकार मित्र को फोन किया. कहा कि ये इंटरव्यू देखो. और अगर खुद इनका इंटरव्यू कर सको तो करो यार. ऐसे इंसान बड़े कम होते हैं इस दुनिया में. खैर! आज यह खबर मिली कि यह महामारी पिछले साल ही इस प्यारे इंसान को भी हमसे दूर ले गई. खबर सुनकर ऐसा लगा जैसे कोई आपका अपना नजदीकी चला गया हो. ऐसा नजदीकी, जिनसे आप कभी नहीं मिले लेकिन जिन्हें आप प्यार करते थे. उनके काम को पसंद करते थे. उनके जज्बात को समझते थे. उनके दर्द को समझते थे. उनके लिए खुशियां की दुआ करते थे.
नोट-फोटो गूगल से ली गई है.
Saturday, September 18, 2021
मोहन राकेश और उनके किस्से, भाग-3
एक बेहद गर्म शाम, आज जब हम दोनों (दुष्यंत, और मोहन राकेश) अपनी-अपनी ख़ाली जेबों को कोसते हुए उसके घर जा रहे थे। गर्मी के कारण वह बुरी तरह हाँफ रहा था और जेब के कारण वह बेतरह परेशान था। मगर ठहाकों पर ठहाके लगा रहा था। मैंने पूछा, "क्यों खुश हो रहा है?" तुम समझते नहीं, वह बोला, " मैं गरीबी को ब्लफ़ कर रहा हूँ। कहीं साली यह न समझे कि मैं उसके रोब में आ गया...दरअसल यह राकेश की अदा थी और इसी पर लोग मरते भी थे। अगर उसकी जेब में अंतिम दस रुपए बचे हैं तो वह यह नहीं सोचता था कि इन्हें खर्च न करुँ, बल्कि यह सोचता था कि इन्हें जल्दी से जल्दी कैसे ठिकाने लगाऊँ ! वह साढ़े सात रुपए टैक्सी में खर्च करके ओमप्रकाश के पास पहुँचता और अपने ठेठ अमृतसरी पंजाबी लहजे में, उन्हे पुकारकर, बचे हुए पैसे उनके सामने पटक देता, " ले भाई, अब यह ढाई रुपए बचे हैं, बोल अब क्या करना है इनका?"