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Tuesday, January 14, 2025

यादें सर्दियों की...

टाइफाइड बुखार तो उतर गया लेकिन शरीर ऐसा हो गया है कि कमबख्त ठंड ऐसे सता रही है कि कुछ देर कंबल रजाई से बाहर रहने पर ठंड से सिर और छाती में दर्द-सा महसूस होता है. पैर बर्फ-से हो जाते हैं. और फिर पैर सीधे कंबल-रजाई की तरफ दौड़ जाते हैं! कंबल-रजाई में घुसे-घुसे किताब पढ़ने की सोचो तो चश्मा साथ नहीं देता. अक्षर धुंधले हो जाते हैं. फिर हाथ से किताब की दूरी को बढ़ाता हूं तो अक्षर कुछ-कुछ पढ़ने लायक हो पाते हैं लेकिन फिर हाथ जवाब दे जाते हैं. मोबाइल पर कुछ देर कुछ देखो-दाखो तो उसकी बैटरी बोल जाती है. आखिर एक आदमी कब तक कंबल-रजाई में पड़ा रहे. सच में इस ठंड ने उस एक आदमी का बुरा हाल कर रखा, जो कभी इस ठंड को इतना प्यार करता था कि मन ही मन सवाल करता था कि यार ये ठंड इतने कम दिन क्यूं रहती है?

कल रात रजाई में लेटे-लेटे सोच रहा था कि सर्दियों के वो भी क्या दिन थे. जब रूपनगर के स्कूल की सुबह की प्रार्थना में तू ही एक अकेला ही ऐसा लड़का होता था, जो सफ़ेद कमीज में नजर आता था. जैसे आजकल राहुल गांधी एक टी-शर्ट में नजर आते हैं! जैसे आजकल राहुल गांधी की टी-शर्ट की चर्चा हो रही है. ठीक वैसे ही उस वक्त स्कूल में तेरी कमीज की चर्चा हुआ करती थी. वो अलग बात है टीचर इस बात पर डांट भी दिया करते थे. मेरे क्लास टीचर 'जाट' ( हम उन्हें जाट ही कहते थे. जैसे एक दूसरे टीचर को बाऊ. बाऊ वाला किस्सा भी बहुत मजेदार है. शायद उसके बारे में तो मैंने लिखा भी है.) अक्सर कहते थे वो छोकरे कभी तो स्वेटर-जर्सी पहन आया कर. एक दिन वे बोले,'कल कमीज में नजर नहीं आना चाहिए.' एक दो बार प्रिंसिपल साहब ने भी टोका था. और मैं था कि स्कूल में कमीज में ही नजर आता था. 

बात दरअसल कुछ यूं थी. स्कूल में नीली जर्सी या स्वेटर लगा हुआ था, जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं था. तो मैं घर से दूसरे रंग का स्वेटर या जर्सी पहन कर निकलता था और स्कूल में उसे निकालकर डेस्क में डाल देता था. और ठंड से बचने के लिए कमीज के नीचे गर्म बनियान तो पहना ही करता था. और शायद कमीज के नीचे ही एक पतला स्वेटर भी पहना करता था. और मफलर तो था ही! जिससे सिर्फ कान और नाक ढंका करता था. सिर नहीं क्योंकि तब मेरे सिर पर बाल हुआ करते थे! और कभी जब ज्यादा ठंड होती थी तो क्लास में वो दूसरे रंग स्वेटर को पहन लिया करता था. और टीचर के आते उसे झट से उतार दिया करता था.

मुझे अच्छी तरह याद है. रूपनगर के स्कूली दिनों में हम बस से स्कूल जाया करते थे. या तो 234 नंबर  बस लेते थे. या फिर कभी बालकराम से 108 नंबर बस. लेकिन ज्यादातर हम किसी भी बस से माल रोड तक पहुंच जाते थे. और फिर माल रोड जहां से 212 नंबर बस आती है वहां से शायद 365 नंबर बस लिया करते थे. उस बस कई किस्से हैं. (उस बस के कंडक्टर जैसा दूसरा कंडक्टर मैंने आजतक नहीं देखा. कॉलेज के लड़कों  के पास बस पास ना होने पर वे बस रुकवाकर छात्र को बीच रोड़ पर उतार देते थे.अक्सर मैंने उन्हें छात्रों से  भिडते  हुए देखता था.) 

कभी-कभी जब अच्छा-खासा कोहरा होता था. तब मेरा मन माल रोड़ से पैदल ही स्कूल जाने को करता था. उस कोहरे में पैदल चलने का अलग ही आनंद होता था. मैं दोस्त से कहता था कि यार आज पैदल ही निकल पड़ते हैं. तो वो कहता था,'पागल हो गया है क्या तू. इतनी ठंड और कोहरे में कोई पैदल चलता है क्या!'  मैं बोलता था,'तुझे चलना है तो बता वरना मैं ही अकेले ही निकल जाता हूं.'और वो फिर मेरा साथ देता हुआ. साथ-साथ चलने लगता था. 

नाक और कान को मफलर से ढककर. हाथों को जेबों में डालकर. बोंटा पार्क के सामने से दिल्ली यूनिवर्सिटी के गेट से अंदर-अंदर चलते हुए. अब तो याद भी नहीं कि रास्ते में क्या-क्या पड़ता था. क्या-क्या मिलता है. शायद साइंस ब्लाक मिलता था. कुछ प्रोफेसर के घर मिलते थे. एक होस्टल भी मिला करता था. और फिर इन सबसे होते हुए हम आर्ट फैकल्टी वाली रोड से मोरिस नगर का स्टैंड से होते हुए स्कूल पहुंचते थे. पूरे रास्ते भर दोनों दोस्त दुनिया जहां की बातें किया करते थे. अब आप सोच रहे होंगे कि जब माल रोड से रूपनगर पैदल जाते थे तो फिर घर से कब निकलते थे. दरअसल हमारे घर के पास जो बस स्टैंड था. उस पर सुबह स्कूल टाइम पर इतनी भीड़ हो जाती थी कि उस वक्त बस पर चढ़ना मुश्किल होता था. और ऐसा ही मोरिस नगर के स्टैंड पर होता था स्कूल की छुट्टी होने के बाद. हम दोनों का फैसला था कि समय से पहले स्कूल पहुँचना और स्कूल से समय से पहले ही निकल जाना. यानि लास्ट पीरियड को छोड़ देना. कभी स्कूल में सख्ती होती थी तो अलग बात है. वरना तो ऐसा ही चलता था. 

सर्दियों से याद आया. हम दोनों सर्दियों में एक शरारत किया करते थे. जब कोई दोस्त बातों में व्यस्त होता था तो हम पीछे से जाकर उसके एक हिप पर दो उंगली से ऐसे मारा करते थे कि सामने वाला दोस्त 'ओ तेरी, ओ तेरी या फिर गाली देता' हुआ उछलने लगता था. जितनी ज्यादा ठंड होती थी उन दो उंगलियों के चोट उतनी ही ज्यादा लगा करती थी. और मैं था कि पेंट के नीचे गर्म पजामी पहनकर आया करता था. बस 'ओ तेरी' करके ही रह जाता था, गाली कभी नहीं निकली!!

Saturday, November 5, 2022

चलती बस में दिल्लीवालों को चढ़ने की आदत ना हो. ऐसा हो नहीं सकता- मनोज पाहवा

ऑफिस-ऑफिस वाले भाटिया जी की बात में दम है. पूछो कैसे. दरअसल हम तीन दोस्त थे. एक सिख थे. दूसरे जाट थे और तीसरा मैं. तीनों में किसी की भी आदत रुकी बस में चढ़ने की नहीं थी. दो साल तक रूपनगर के स्कूल जाना हुआ. याद नहीं कि कभी ये नियम टूटा हो. कई बार जब बस रुक भी जाती थी. और हम में कोई भीड़ की वजह उतर नहीं पाता तो वो अगले स्टैंड पर उतरता था. या फिर बस के चलने पर उतरता था. तब डीटीसी बसें तो हुआ करती थीं लेकिन तब तक रेड लाइन बसें आ गईं थी. उन बसों में स्कूल, कॉलेज के बच्चों का स्टाफ चला करता था. जैसे दिल्ली पुलिस वालों का चला करता था. स्टाफ भी स्टाइल से बोला जाता था. और एक मैं था स्टाफ बोलने में शर्म आती थी. इस बात पर दोनों  दोस्त मुझे डरपोक कहा करते थे. और हाँ उस वक्त के बच्चों की ये आदत हुआ करती थी कि बस के अंदर नहीं जाना. गेट पर ही लटककर जाना है और हर स्टैंड पर उतरना है. इस बात को लेकर कई बार कंडक्टर से लड़ाई भी हो जाया करती थी. कई बार बस के शीशे बच्चों का शिकार हो जाया करते थे. और कभी कंडक्टर!

खैर एक बार छुट्टी से पहले स्कूल को बंक करके हम तीनों घर जा रहे थे. हमेशा की तरह तीनों चढ़ती बस में ही चढ़े. ये याद नहीं कि बस 234 नंबर थी या फिर कोई और. लेकिन ये याद है वजीराबाद के आने से पहले हम दो ( मैं और सिख यार.) में शर्त लग गई कि बस को बिना छुए जो घर के स्टॉप तक जाएगा वो जीत जाएगा. डीटीसी बस खाली-सी थी. बस फिर क्या था. मैं पिछले गेट से थोड़ा पीछे खड़ा हो गया. तब डीटीसी की कुछ बसों में पीछे सीट नहीं हुआ करती थीं. पिछ्ला हिस्सा खाली हुआ करता था. सरदार जी मेरे से आगे. जाट यार अंपायर बने हुए थे. जैसे ही बस ने वजीराबाद पुल क्रॉस किया वैसे ही पता नहीं क्या हुआ. बस ड्राईवर ने एकदम से ब्रेक लगा दिए. और मैं बस के अंदर आगे-पीछे करते हुए ऐसे गिरा कि बस के सभी लोग हंसने लगे थे. मेरी सारी हेकड़ी निकल गई थी. और चेहरे पर 12 बज गए थे. 

[ पाहवा जी की बात सुनकर ये वाकया याद हो आया. सोचा याद के लिए लिख दूं. बाकी फोटो गूगल से ली गई है.]

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