ऑफिस-ऑफिस वाले भाटिया जी की बात में दम है. पूछो कैसे. दरअसल हम तीन दोस्त थे. एक सिख थे. दूसरे जाट थे और तीसरा मैं. तीनों में किसी की भी आदत रुकी बस में चढ़ने की नहीं थी. दो साल तक रूपनगर के स्कूल जाना हुआ. याद नहीं कि कभी ये नियम टूटा हो. कई बार जब बस रुक भी जाती थी. और हम में कोई भीड़ की वजह उतर नहीं पाता तो वो अगले स्टैंड पर उतरता था. या फिर बस के चलने पर उतरता था. तब डीटीसी बसें तो हुआ करती थीं लेकिन तब तक रेड लाइन बसें आ गईं थी. उन बसों में स्कूल, कॉलेज के बच्चों का स्टाफ चला करता था. जैसे दिल्ली पुलिस वालों का चला करता था. स्टाफ भी स्टाइल से बोला जाता था. और एक मैं था स्टाफ बोलने में शर्म आती थी. इस बात पर दोनों दोस्त मुझे डरपोक कहा करते थे. और हाँ उस वक्त के बच्चों की ये आदत हुआ करती थी कि बस के अंदर नहीं जाना. गेट पर ही लटककर जाना है और हर स्टैंड पर उतरना है. इस बात को लेकर कई बार कंडक्टर से लड़ाई भी हो जाया करती थी. कई बार बस के शीशे बच्चों का शिकार हो जाया करते थे. और कभी कंडक्टर!
खैर एक बार छुट्टी से पहले स्कूल को बंक करके हम तीनों घर जा रहे थे. हमेशा की तरह तीनों चढ़ती बस में ही चढ़े. ये याद नहीं कि बस 234 नंबर थी या फिर कोई और. लेकिन ये याद है वजीराबाद के आने से पहले हम दो ( मैं और सिख यार.) में शर्त लग गई कि बस को बिना छुए जो घर के स्टॉप तक जाएगा वो जीत जाएगा. डीटीसी बस खाली-सी थी. बस फिर क्या था. मैं पिछले गेट से थोड़ा पीछे खड़ा हो गया. तब डीटीसी की कुछ बसों में पीछे सीट नहीं हुआ करती थीं. पिछ्ला हिस्सा खाली हुआ करता था. सरदार जी मेरे से आगे. जाट यार अंपायर बने हुए थे. जैसे ही बस ने वजीराबाद पुल क्रॉस किया वैसे ही पता नहीं क्या हुआ. बस ड्राईवर ने एकदम से ब्रेक लगा दिए. और मैं बस के अंदर आगे-पीछे करते हुए ऐसे गिरा कि बस के सभी लोग हंसने लगे थे. मेरी सारी हेकड़ी निकल गई थी. और चेहरे पर 12 बज गए थे.
[ पाहवा जी की बात सुनकर ये वाकया याद हो आया. सोचा याद के लिए लिख दूं. बाकी फोटो गूगल से ली गई है.]
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