Tuesday, September 14, 2010

यमुना, हम और मीडिया

हर सुबह की तरह आदत से मजबूर होकर जब न्यूज सुनने के लिए टीवी चलाया तो वहाँ नीचे एंकर में एक न्यूज दौड़ रही थी कि तीसरा पुस्ता (उस्मानपुर) पानी में डूब गया है। एक पल को तो डर ही गया था। फिर मैं सोचने लगा, पर हमारी गली सूखी, ये चमत्कार कैसे हो गया? क्योंकि हमारे घर से तीसरे पुस्ते की पैदल दूरी बस दस मिनट की ही होगी। खैर जब कई घंटो के बाद भी पानी नहीं आया तो शाम को हम खुद ही निकल गए, ये देखने कि आखिर देखे तो माजरा क्या। ( पिछली बार अगस्त में भी कई न्यूज चैनल वालों ने पुल के नीचे की पार्किग को बस अड्डा बना दिया था।) जब पुस्ता रोड़ पर गया तो देखा कि लोगों का इतना तांता लगा हुआ है। ( सब टीवी देखकर ही आ रहे है) कि हर पुस्ते पर पुलिस तैनात है। यमुना को ऐसे देख रहे हैं कि जैसे आज से पहले यमुना देखी ही नही हो। सच तो यही है कि दिल्ली के लोगों ने यमुना देखी ही कहाँ है वो तो सिमट कर रह गई है एक छोटे से दायरे में और कहीं तो बिल्कुल ही सूख गई। जहाँ-जहाँ थोड़ा बहुत पानी है, उसे मैला कर दिया दिल्ली वालों ने कूड़ा-करकट डालकर और रही-सही कसर दिल्ली सरकार पूरा कर देती है गंदे नालों का पानी डालकर। और साथ ही उसकी खाली पड़ी जमीन को बेकार समझकर सरकार ने उस पर कहीं मेट्रो का डिपो बना दिया, कहीं खेलगाँव बना दिया, कहीं अक्षरधाम मंदिर बनावा दिया.............। आखिर कब तक यमुना चुप रहेगी............... और जब ये अपना उग्र रुप धारण करेगी तब लोग कहेंगे हाय यमुना तुने ये क्या किया? फिर मुख्यमंत्री जी आकर कहेंगी भगवान से दुआ करो कि सब ठीक हो जाए। गलतियां इंसान करे और ठीक भगवान करें अजीब लोग हैं?  खैर आगे बढ़ा तो देखा कि पानी तो अभी भी पुस्ता रोड़ से लगभग आठ नौ फुट नीचे ही होगा, जो पहले के मुकाबले थोड़ा ज्यादा तो है पर इतना भी नही कि हाय-तोबा मचाई जाए । धीरे-धीरे पानी को देखता हुआ आगे बढ़ा जा रहा हूँ। मेरे आगे बच्चों की एक टोली चल रही है अपनी मस्ती में। आगे एक आदमी पेशाब कर रहा है यमुना की तरफ मुँह करके। तभी एक बच्चा अपने दोस्तों से कहता है ओए...... धक्का दे दूँ इसे.....? दूसरा बच्चा अबे सा............ ले................खैर बच गई जान इस आदमी की :) और बच्चे निकल गए साईड से। पर हम भी अभी बच्चे ही ठहरे इसलिए बोल पड़े अरे भाई पुस्ता टूट जाऐगा, ज्यादा पेशाब मत करना, वो मुस्कराया :) । ( वैसे हमने उन महाश्य का फोटो खींच मारा, मोबाइल कैमरा भी क्या कमाल की चीज है जी :) )  पुस्ता रोड  के दोनों तरफ टेंट और तीरपाल लगे हुए हैं। उसके अंदर लोग अपना-अपना समान लेकर बैठे-लेटे हुए हैं। कोई बैठा बतिया रहा है, कोई चारपाई पर सोया हुआ है, दो बच्चे कबाड़ को छाँट रहे है, छोटी लड़कियाँ मेहंदी लगाने में मस्त हैं। एक बीमार स्त्री सड़क पर बोरी बिछाए लेटी हुई है, उसका पति सिरहाने पर बैठा उसे ही निहार रहा है। बैबसी उसके चेहरे पर साफ़ नजर आ रही है। आगे बढ़ता हूँ तो देखता कुछ सरकारी बाबू लिखा पढ़ी में लगे हुए है। दिल्ली जल बोर्ड का पानी का टेंकर खड़ा है और उसका पानी यूँ बह रहा है। उसका ड्राइवर कहाँ है कुछ पता नहीं। दो औरतें सड़क पर बैठी लूडो खेल रही है। पास ही एक लाली-पोप बेचने वाला खड़ा है, बच्चें खड़े होकर, लाली-पोप बिकने वाले का मुँह ताक रहे है ना जाने अंदर ही अंदर क्या सोच रहे हैं। इसके साथ लगे टेंट में एक बुजुर्ग चारपाई पर लेटा लम्बी-लम्बी साँसे ले रहा है, एक बच्चा हाथ के पंखे से उसकी हवा कर रहा है। कुछ लोग तीरपाल का आशियाना बना रहे है। उसके आगे दो बच्चे मछली पकड़ रहे हैं। शायद शाम के खाने में ये मछलियां ही पकेगी आज। आगे चलकर देखता हूँ सूअर अपनी मस्ती में मस्त हैं,  शायद टीवी नही देखते है। फिर सोचता हूँ कि आज से पहले कब देखे थे मैंने सूअर......पर आप ये मत सोचो, आप सोचो कि हम एक विकसित अर्थव्यवस्था या एक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे है पर किसी आपदा के आने पर दिल्ली जैसे शहर में लोगो को सड़को पर रहना पड़ता है। कोई भी ऐसी जगह नही जहाँ प्रभावित लोगो को रखा जाए  , कोई मशीनरी नजर नही आती...... आपदा प्रबधन नाम की कोई चीज नहीं....... है तो बस कागजों में......... हाँ आफिस जरुर है सफदरजंग एनकलेव में......और इसी विकसित होने के गुमान में क़ॉमनवेल्थ खेल करा रहे हैं और कैसी फजीयत हो रही,  वो आप देख ही रहे हैं। क्या इतने जरुरी थे ये खेल? भाई आपके यहाँ लोग दो रोटी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं, पता नही कितने लोग भूखे सोते? और कितने किसान खुदकुशी कर रहे है।..............मेरी मम्मी जी अक्सर कहती  है कि "भूखे पेट तो ढोल भी अच्छे नहीं लगते हैं"...........अब मैं तीसरा पुस्ता पहुँच गया हूँ। देखता हूँ कि जिस तीसरे पुस्ते की बात चैनल वाले कर रहे है वो तो खादर की तरफ है और जिसे सही में तीसरा पुस्ता कहते है वो उसके ठीक सामने। यानिकी जब भी यमुना में ज्यादा पानी आता है तो इधर आता ही। इसके साथ ही गुर्जरों का उस्मानपुर का पुराना गाँव है वैसे तो गाँव में काफी घर है पर जो भी वहाँ के रहने वाले थे वो इधर आ गए है तीसरे पुस्ते और पहले पुस्ते के बीच की क़ॉलोनी में इसको भी उस्मानपुर कहते हैं। पर इन लोगो ने वहाँ भी अपना आशियाने बना रखे हैं,  क्योंकि जब दिल्ली में भैंस रखने के लिए सरकार ने मना किया, ( क्योंकि दिल्ली को दिल्ली नहीं, लंदन बनाना चाहती है दिल्ली सरकार )  तो इन्होंने यहाँ अपना खरक ( जहाँ भैंस रहती है) बना लिया। इन्हीं गुर्जरों ने कुछ जगह कबाडियों को दे दी। कुछ खेत के मजदूरों को जो वहाँ सब्जी बगैरा उगाते हैं। और सड़क पर टेंट लगाकर ये ही लोग है। बाकी तो खाली जमीन है, देखना धीरे-धीरे इस पर कंक्रीट के जंगल बना दिए जाऐंगे। और बिल्कुल यही हाल आगे गढ़ी मेढू का है, वो भी गुर्जरों का गाँव है। पर जिस तीसरे पुस्ते को लोग जानते है और वो इधर है पुस्ता रोड़ से पूर्व की तरफ है ना कि पश्चिम में खादर की तरफ। और ये तीसरा पुस्ता आगे जाकर मिलता है ब्रहमपुरी में। और इस पुस्ता रोड़ पर कुल आठ पुस्ता है जीरो से लेकर पांच तक। अब सोचिए जिनके रिश्तेदार दूसरे शहरों में रहते है वो जब इस खबर को देखेंगे तो परेशान होंगे कि नहीं? और ऐसी ही एक स्टोरी को देखकर पिछले दिनों एक आदमी ने आफिस से घर फोन किया और बोला कि " वो स्कूल से बच्चों को ले आओ सुना है बस-अड्डे में पानी भर गया है टीवी में खबर आ रही है।"  हेल्लो यार सुना है तुम्हारे बगल के पुस्ते पर पानी आ गया है, तुम्हारे यहाँ का क्या हाल है? मेरे खुद के गाँव से रिश्तेदारों के फोन आ रहे हैं।  अब आप उन्हें समझाए और बताए कि ऐसा नहीं हैं। पर ये पत्रकार लोग परेशानी को कहाँ समझेंगे , इन्हें तो "बस स्टोरी बनानी है और सनसनी फैलानी है", जिसके कारण ज्यादा से ज्यादा दर्शक इनके चैनल को देखे, जिससे इनके चैनल की टीआरपी ज्यादा रहे, जब टीआरपी ज्यादा रहेगी तब विज्ञापन ज्यादा मिलेंगे और जब विज्ञापन ज्यादा मिलेंगे तो ज्यादा मुनाफा होगा और भाई जब मुनाफा ज्यादा होगा तो मालिक खुश होगा। सोच रहा हूँ आखिर ये मालिक लोग कितना खुश होना चाहते हैं?






































मीडिया का बस अड्डा































आज के पत्रकार




















Monday, August 30, 2010

परदेसन

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो

मैक्समूलर भवन में टकराई थी
"सॉरी" की मीठी आवाज़
कानों में मेरे आई थी।
चेहरे पर उसके लाली थी
कानों में उसके बाली थी,
बालों की दो चोटी झूले से झूल रही थी,
नाक की नथ सूरज सी चमक रही थी।
गले में चेग्वारा टंगा था
इक पैर सूना,
दूजे में पाजेब सा कुछ पहना था।
आकर मेरे सामने की कुर्सी पर
आलथी-पालथी मार बैठ गई थी।
गाँधी की फोटो लगे झोले से निकाल एक किताब
सिमोन द बोवुआर के काले अक्षरों में डूब गई थी
उसकी ये अपूर्व तस्वीर मेरी आँखो में बस गई थी।
याद उसकी रह-रह कर आती रही
सपनों में आकर बार-बार बुलाती रही।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

एक बार मिली
दो बार मिली,
अलग-अलग राहों पर, 
बार-बार मिली।
उस दिन मिली थी
इंडिया हैबिटेट की कला दीर्घा में,
"बावली लड़की" टाइटल वाली पेंटिंग में खोई,
शायद अपना अक्स ढूढ़ रही थी,
मैं भी पेंटिंग के बावरी रंगो में खो गया।
कुछ पल बाद मुझे देख वो चौंकी, 
और इंगलिश टच  हिंदी जबान में बोली,
"गॉड कुछ चाहता है,
इसलिए बार-बार मिलाता है,
लगता है वो दोस्ती कराना चाहता है,
आओ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं,
मैं ........................ और आप।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

आँखो को मटकाकर
बालों को फूँक से उड़ाती थी।
भरकर चिकोटी मेरे
जीभ निकाल चिढ़ाती हुई दौड़ जाती थी।
मेरी सी बातूनी थी
देर रात तक बतलाती थी,
कभी मेरे ख्वाबों के रंगो की पेंटिंग बनाती थी,
कभी अपने सपनों के घुँघरु बाँध नाचती थी,
मैं देखता-सुनता जाता और अच्छा- अच्छा ..... कहता जाता,
"अच्छे की ऐसी-की-तैसी सुबह हो गई है।" वो कहती थी।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

अल्हड़ थी
घूमक्कड़ थी।
टाँग पीठ पर पिटठू बैग
दूर गाँवों में,
अकेले ही निकल जाती थी।
आकर फिर पास मेरे
लोगों के किस्से,
दर्द सुनाती थी।
बीच-बीच में सुनाते-सुनाते
कभी मुस्कराती थी,
कभी उदास हो जाती थी,
ना जाने ज़िंदगी से क्या चाहती थी।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

आखिर वो दिन आ ही गया
जिस दिन उसे अपने देश जाना था।
उस दिन
ऊपर-ऊपर हँस रही थी,
अंदर-अंदर रो रही थी,
रखकर मेरी गोद में सिर अपना
घंटो रोती रही थी, 
फिर आँसू पोंछकर बोली,
"प्यार का मतलब साथ-साथ रहना ही नहीं,
साथ-साथ जीना भी होता है,
और हम साथ-साथ जीएगें।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

                                                   सुशील कुमार छौक्कर

Tuesday, August 10, 2010

जीने की खातिर

बनिहारन























एक बच्चा छोटा सा,
मैले-कुचैले कपड़े पहने,
रोज़ मुझे सड़क किनारे,
मिट्टी में पत्थरों संग,
खेलता मिलता हैं।

कभी देख मुस्कराता हैं,
कभी देखता ही जाता हैं।

माँ इसकी पत्थर तौड़ती है,
रख तसले में फिर उन्हें ढ़ोती है।
माथे पर आती पसीने की बूंदों को,
अपने फटे हुए पल्लू से पोंछती हैं।


बीच-बीच में तिरक्षी निगाहों से,
अपने लाडले को भी देखती है।

बताती है ये पेट की खातिर,
दूर गाँव से इस शहर आई है।
फुटपाथ बनाऐगी,
कुछ पैसा कमाऐगी।
चौमासे में गाँव वापस चली जाऐगी,
और ज़मीनदार के खेत में धान लगाऐगी।

इधर हम शहर की चमक में,
खूब तरक्की की बात करेंगे।
उधर ये लालटेन की रोशनी में,
चूल्हा सुलगाऐगी।

                                - सुशील कुमार छौक्कर

Monday, June 21, 2010

तेरे जैसा यार कहाँ...........

कुछ इंसान यूँ मिलते हैं कि उस नीली छतरी वाले की तरफ मुँह उठाकर पूछना पड़ता हैं कि यार गज़ब खेल है तुम्हारा। और फिर उस इंसान से ऐसा तालमेल बैठता है कि आप याद करें या वो, मोबाइल की घंटी बज ही उठती हैं। जैसे अभी अभी हवाओं के साथ संदेश गया हो कि यार आपका दोस्त याद कर रहा हैं आपको। और हम फिर से मुँह उठाकर उस नीली छतरी वाले की तरफ देखते हैं और कहते हैं ................. तो आज उन्हीं दोस्त की एक रचना पेश कर रहा हूँ जो मेरे जन्मदिन पर पिछले साल लिखी गई थी। और यह रचना मुझे हर वक्त हौंसला देती हैं पिछले काफी दिनों से ब्लोग की इस प्यारी दुनिया से कुछ दूर था तो कई साथियों के संदेश आये कि क्या बात हैं उन्हीं के प्यार की बदौलत अपनी हाजिर लगाने आ गया हूँ अपने प्यारे दोस्त का तौहफा आप सबको दिखाने। अब आप सोच रहे होंगे ये दोस्त कौन हैं तो कुछ देर सोचिए फिर आगे बढिए और नाम जानिए। और हाँ साथियों अभी कुछ दिनों के लिए और दूर रहना पडेगा आप सब साथियों से, उसके लिए माफी चाहूँगा साथियों।


तुम निडर हो, तुम अडिग हो
पथिक तुम, चलते जाना।

जीवन पथ की दुख व्यथा से
तनिक भी न तुम घबराना।

इस प्रलय के वक्ष स्थल पर  
चढ़कर तुम हुंकार लगाना। 

हँसते रहना, चलते रहना
दुख को अमृत सा पी जाना।

तुम शक्ति हो, तुम भक्ति हो
धर विश्वास तुम बढ़ते जाना।

सच्चे मन से मीत तुम्हारे लिए
मेरी बस यहीं शुभकामना।
                              अमिताभ श्रीवास्तव

अमिताभ जी आजकल तो रोज ही गुनगुनाता हूँ आपके इन शब्दों को। 

Monday, April 19, 2010

मर रही है मेरी भाषा शब्द शब्द- सुरजीत पातर

पिछले दिनों एक सम्मेलन में जाना हुआ जहाँ नामचीन लेखकों का जमावड़ा था। इस सम्मेलन को आयोजित किया था फाउंडेशन आफ सार्क राइटर्स एण्ड लिटरेचर संस्था ने। इस संस्था की कर्ता-धर्ता अजित कौर जी है। इनकी और इनके साथियों की मेहनत का ही नतीजा है कि यह संस्था आज भी सार्थक काम कर रही हैं। और मेरा सौभाग्य था कि मुझे बेहतरीन से बेहतरीन रचनाएं सुनने को मिलीं और नए नए विचारों की रौशनी से रुबरु भी हुआ। उन्हीं में से कुछ रचनाएं जो मैं इक़टठी कर पाया हूँ। उन्हें अपने ब्लोगगर साथियों और उन पाठकों के लिए पेश कर रहा हूँ जो नई नई रचनाओं को पढने के लिए मुझ पागल की तरह बैचेन रहते हैं। और नई नई रचनाएं इन पागलों के लिए दवा का काम करती हैं। तो साथियों आज पेश हैं सुरजीत पातर जी की पंजाबी में लिखी कविताएं "भाषा के परथाए" के नाम से। मैं पातर जी का शुक्रगुजार हूँ उन्होंने अपने कीमती समय में से समय निकालकर  यह कविता भेजी। यह कविता मुझे बहुत पसंद आई। और उम्मीद आपको भी बहुत पसंद आऐगी।

भाषा के परथाए

1.

मर रही है। मेरी भाषा शब्द-शब्द
मर रही हैं। मेरी भाषा वाक्य वाक्य
अमृत वेला
नूर पहर दा तड़का
मूंह हनेरा
पहु फुटाला
धम्मी वेला
छाह वेला
सूरज सवा नेज़े
टिकी दुपहर
डीगर वेला
लोए लोए
तरकालाँ
दीवा वटी
खौपीआ
कोड़ा सोता
ढलदीआँ खित्तीआँ
तारे दा चढाअ
चिड़ी चूकणा
साझरा, सुवखता, र्सघी वेला
घड़िआँ, पहर, पल छिण, बिन्द, निमख बेचारे
मारे गये अकेले टाईम के हाथों
ये शब्द सारे
शायद इस लिए
कि टाईम के पास टाईमपीस था

हरहट की माला, कुत्ते की टिकटिक, चन्ने की ओट, गाठी के हूटे
काँजण, निसार, चककलियाँ, बूढ़े
भर भर  कर खाली होती टिंडे
इन सब को तो बह जाना था
टिऊब वैल की धार में
मुझे कोई हैरानी नहीं
हैरानी तो यह है कि
अम्मी और अब्बा भी नहीं रहे
बीजी और भापा जी भी चले गये
और कितने रिशतें
अकेले आँटी और अँकल कर दिये हाल से बेहाल
और कल पंजाब के एक आँगन में
कह रहा था एक छोटा सा बाल:
पापा अपणे ट्री दे सारे लीव्ज कर रहे ने फाल
हाँ पुत्तर अपणे ट्री दे सारे लीव्ज कर रहे ने फाल
मर रही है अपणी भाषा पत्ता-पत्ता शब्द शब्द
अब तो रब ही रखा हैं अपनी भाषा का
पर रब?
रब तो खुद पड़ा है मरनहार
दोड़ी जा रही हैं उस की भूखी सँतान
उसे छोड़
गौड की पनाह में
मर रही है मेरी भाषा
मर रही हैं बाई गौड











2.
मर रही है मेरी भाषा
क्योंकि जीना चाहते है
मेरी भाषा के लोग
जीना चाहते हैं
मेरी भाषा के लोग
इस शर्त पर भी
कि मरती हैं तो मर जाये भाषा
क्या बँदे का जीते रहना
ज्यादा जरुरी हैं
कि भाषा?
हाँ जानता हूँ
आप कहेंग़े
इस शर्त पर
जो बँदा जीवित रहेगा
वह जीवित तो रहेगा
पर क्या वह बँदा रहेगा?
आप मुझे जजबाती करने की कोशिश मत करे
आप खुद ही बताएँ
अब
जब आपका रब भी
दाने दाने पर
खाने वाले का नाम
अँगरेजी में ही लिखता हैं
तो कौन बेरहम माँ बाप चाहेगा
कि उस की सँतान
डूब रही भाष के जहाज में बैठी रहे

जीता रहे मेरा बच्चा
मरती हैं तो मर जाए
तुम्हारी बूढ़ी भाषा









3.

नहीं इस तरह नही मरेगी मेरी भाषा
इस तरह नहीं मरा करती कोई भाषा
कुछ शब्दों के मरने से
नहीं मरती कोई भाषा
रब नहीं तो न सही
सतगुरु इस के सहाई होगे
इसे बचाऐगे सूफी सँत फकीर
शायर
आशिक
नाबर
योद्धे
मेरे लोग, हम, आप
हम सब के मरने के बाअद ही
मरेगी हमारी भाषा
बलकि
यह भी हो सकता है कि मारनहार हालात में घिर कर
मारनहार हालात से टक्कर लेने के लिए
और भी जीवँत हो उठे मेरी भाषा॥












सुरजीत पातर जी को दिल से शुक्रिया।

Tuesday, April 13, 2010

12 अप्रैल का दिन

आज का दिन खास हैं
सबको प्यारा सा अहसास हैं
आज के दिन खिली थी एक कली
एक गाँव के गौबर से पूते आँगन में।

देखकर दुनिया यह हल्की सी मुस्कराई थी
चारपाई पर लेटे-2 नन्हें पैरों से फिर साईकिल चलाई
पग-पग चलती रही, धीरे-धीरे बढ़ती रही ।

सहेलियों संग गिटों से खेलती रही
आईस-पाईस में छिपते छिपाते
गाँव की पाठशाला में क ख ग घ पढती रही
गुड्डे गुडिया की दुनिया भी बसाती रही।

जब आई बाली उम्र
छोटे बड़े सपने सतरंगी बुनती रही
पर जब देखी परम्परा की रीति
सीखी कढ़ाई-बुनाई और खाने की विधि
माँ ने याद दिलाई दादी की बातें
"बेटियाँ होती हैं पराई"
डोली में बैठकर फिर सजन घर चली।

पर उसने दूसरी राह भी सपनों में रची थी
जब वह अपने नाम से जानी जाऐगी
रुढ़ियों की छाया से दूर होकर
अपनी एक अलग पहचान बनाऐगी
इसलिए साथ उसने यह दूसरी राह भी चुनी
करके एम. ए, लगी वो फिर बच्चों को पढ़ाने।

फिर वो दिन भी खास होगा
जब गर्व का अहसास होगा
जब ये कली पूरा फूल बनेगी
मैडम से प्रिंसीपल मैडम बनेगी।

Monday, April 5, 2010

वो

इन दिनों बड़ी उलझन में रहता हैं
जिदंगी की जालों को हटाता हैं वो।

बच्चों की मुस्कराहट पर जान छिड़कता हैं
चाँद न माँग ले ये, आँखे मिलाने से बचता हैं वो।

खुशियों की तलाश में दिन-भर घूमता फिरता हैं
खुशियों का एक अक्स भी ढूढ़ नही पाता हैं वो।

पाँच प्राणियों की पेट की आग बुझाने में इतना मशग़ूल है
अपने हडिड्यों के ढ़ाँचे को देखने में भी कतराता है वो।

रातों को पलकें बंद करने से डरता हैं
क्योंकि नींद में टूटे सपने देखता है वो।

कहता हैं वो "सुशील इस दुनिया में जी नहीं लगता
पर कमजोर बनकर दिल मरने का भी नहीं करता।

Thursday, April 1, 2010

अमिताभ जी की नजर में नाटककार डा. चरणदास सिंद्धू जी (अंतिम भाग)

14.3.1997 को डॉ. राजेन्द्र पाल को दिये गये एक साक्षात्कार में डॉ.चरणदास सिद्धू ने नास्तिकता पर अपने विचार प्रकट किये हैं। ( नाट्यकला और मेरा तजुरबा, पृ.141) यह मुद्दा वाकई गम्भीर है। डॉ.सिद्धू नास्तिक हैं। पहले नहीं थे, बाद में हुए। ( इंगलिश ऑनर्स करते समय मैने, प्राइवेट कैंडिडेट के तौर पर, प्रभाकर ( हिन्दी) तथा विद्वानी (पंजाबी) के इम्तिहान पास किये। तब तक मैं आम लोगों जैसा वहमी था...।' इसी पुस्तक से , पृ.142) यह जो होना होता है उसे मैं ठीक वैसे ही लेता हूं जैसे कोई पहले पढाई किसी विषय की कर रहा होता है और बाद में करियर कोई दूसरा चुन लेता है। उन्होनें एक जगह कहा है- "मैं नास्तिक हूं। बिना झिझक हर एक को बताता हूं कि मुझे कल्पित रब में विश्वास नहीं है।..... मैं मुश्किल से मुश्किल घडी में भी किसी दैवी ताकत से, प्रार्थना करके, भीख नहीं मांगता। मगर मैं जानबूझकर आस्तिक लोगों की बेइज्जती नहीं करता। मुझे कमजोर वहमी लोगों से हमदर्दी है। काश उनके पल्ले सोच समझ होती। अंदरूनी शक्ति होती...।" मुझे याद आते हैं सर्वपल्ली राधाकृष्णन, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गान्धी, विनोबा भावे आदि। मुझे सोचना होगा कि क्या ये कमजोर थे? या वहमी थे? या फिर इनमे अन्दरूनी शक्ति का अभाव था? इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ कतई नहीं लिखना चाहुंगा, क्योंकि मैने जाना है कि दुनिया के जितने भी नास्तिक हैं वे तमाम लोग बहुत बडे आस्तिक होते हैं। अपने नास्तिक होने के लिये वे जिस रब या ईश्वर का विरोध करते रहते हैं उम्रभर, तर्क देते हैं, अमान्य करने की कोशिश करते हैं और बहुत कुछ आस्तिकता पर कहते हुए यह भी कहते हैं कि जानबूझकर आस्तिक लोगों को बेइज्जत नहीं करता तब उससे लगता है कि ये 'रब' काल्पनिक तो कतई नहीं हो सकता। वरना इतना विरोध क्यों? खैर..। ऐसे में मेरी आस्तिकता और अधिक दृढ हो जाती है। बरनर्ड शॉ, बरट्रेंड रसल, सैमुअल बटलर, टॉमस हार्डी तथा कई यूरोप व अमेरिका के लेखक व चिंतक-खासकर कार्ल मार्क्स की विचारधारा के प्रशंसक। मनोविज्ञान की किताबें और मिथिहास के बारे में फ्रेज़र जैसे विद्वानों के खोज ग्रंथ आदि ने डॉ सिद्धू को तर्कशील बनाया। भारत देश सनातन काल से आध्यात्मिक रहा है, ऐसा माना जाता है। वेद-पुराण, शास्त्र और कई तरह के दर्शनयुक्त साहित्य रचे गये, बडे से बडे साहित्यकारों द्वारा....। शायद सब फिज़ुल? मैने कहीं पढा था कि भारत जैसे अतिबुद्धिवादी देश और इसकी परम्पराओं को नष्ट करने के लिये भी विदेशों में काफी काम हुआ है। विदेशी साहित्यकारों का एक पूरा जमघट लगा..।खैर.., यह विषय सचमुच बहस के लायक नहीं है क्योंकि मेने हमेशा माना है कि तर्क समाधान नहीं देता, सिर्फ उलझाता है, भ्रमित रखता है। आखिर इस 'तर्क' का रूप भी तो ऐसा है कि इसे उल्टा कर पढे तो होता है 'कर्त', यानी 'काटना'। बस तर्क सिर्फ काट है। काट कब समाधानी हुआ? बहरहाल, इस बहस में उज्जवल पक्ष जो जीवन की प्रेरणा हो सकता है, उसे कतई नहीं भूला जा सकता।
20 बरसों के लगातार लेखन, अनुभवों को समेटने का प्रतिफल है डॉ सिद्धू की यह किताब"नाट्यकला और मेरा तजुरबा"। डॉ. सिद्धू गम्भीर चिंतक हैं। जो व्यक्ति 7वीं जमात में परिपक्व विचार पाल लेता हो उसका पूरा जीवन कैसा होगा इसकी कल्पनाभर करके समझा जा सकता है। " कुछ बन्दे मौत को जीत लेते हैं। अपने कारनामों के जरिये, कलाकृतियों द्वारा, वे अपनी जिन्दगी को अमर बना जाते हैं। मुझे चाहिये, मैं भी अपनी मेहनत सदका, दिमागी ताक़त के भरोसे, कुछ इस तरह का काम कर जाऊं, लोग मेरा काम और मेरा नाम सदियों तक याद रखें।" फिर 32 वर्ष में प्रवेश करते करते उन्होंने साध लिया कि आखिर उन्हें करना क्या है? 'कॉलेज में पढाने के साथ-साथ मैं नाटक पढने, देखने, लिखने और खेलने पर शेष जिन्दगी लगाउंगा।' आप सोच सकते हैं कि जिला होशियारपुर का एक देहाती लडका, प्रोफेसर बनता है, नाटक लिखता है, खेलता है, आई ए एस के इम्तिहान में सफल होता है किंतु नाटक के शौक में वो उसे त्यागता है, अमेरिका जाता है, अंग्रेज़ी का डबल एमए, फर्स्टक्लास, पीएचडी और तमाम नाटककारों का गहन अध्ययन करता हुआ युरोप की यात्रा करता है, तेहरान होते हुए स्वदेश लौटता है। और इस बीच अपने लक्ष्य को बेधने के लिये पूरी तरह तैयार हो जाता है...। क्या यह सब सहज हो सका? नहीं। लगन, मेहनत और दृढ विश्वास का नतीजा था कि डॉ. सिद्धू ने जो ठाना था उस दिशा में वे अपना वज़ूद ले, निकल पडे थे, संघर्ष खत्म नहीं बल्कि नये नये सिरे से उठ खडे हुए थे। अपनी पूरी जिंदगी कभी हार नहीं मानी। उन्होने जो देखा वो लिखा, देहात का परिवेश, सामाजिक समस्यायें, धर्म, कर्म आदि तमाम गूढ बातों का चिंतन-मनन उनके नाटकों में उतरता रहा। मंचित होता रहा। उनकी धुन, लगन, मेहनत देख देख कर उनके छात्र, दोस्त आदि जो उनके करीब आया सबके सब उनके मुरीद होते चले गये। आलोचना नहीं हुई, ऐसा भी कभी नहीं हुआ, या यूं कहें ज्यादा आलोचनायें ही हुई और सिद्धू साहब कभी डिगे नहीं। उनका पूरा परिवार उनके साथ सतत लगा रहा। और जीवन भी क्या, कि जो देखा वो कहा, कोई लाग-लपेट नहीं, कोई भय नहीं, कोई चिंता नहीं। थियेटर का यह बिरला कलाकार धनी नहीं था, न हुआ और न ही इसका कोई उपक्रम किया। वो सिर्फ नाटक के लिये पैदा हुए। पूरी इमानदारी से नाटक को समर्पित रहे। जीवन में, अपने काम में जब भी आप इमानदार होते हैं तो सफलता भी इमानदार ही प्राप्त होती है जो लगभग आदमी को अमर कर देती है। तभी तो मुझ जैसा भी उन पर कुछ लिखता है, उन्हें याद करता है और राह बनाता है कुछ ऐसे ही जीवन जीने या हौसले के साथ रहने की। यह व्यक्ति के कार्य ही हैं जो जग में विस्तारित होते चले जाते हैं।
अपने कई नाटकों का विशेष ज़िक्र किया है चरणदासजी ने, जैसे इन्दूमती सत्यदेव, स्वामीजी, भजनो आदि, बस यह जान सका हूं कि नाटक क्या हैं, किस पर आधारित है और उसका मूल क्या है। मगर वो कैसे हैं यह तो देख कर या उसे पढकर ही पता लग सकता है इसलिये नाटकों पर मैं कुछ नहीं लिख सकता। सिद्धू साहब की दूसरी पुस्तक जो मेरे पास है (नाटककार, चरणदास सिद्धू, शब्द-चित्र), उसका सम्पादन रवि तनेजा ने किया है और कुल 29 लोग, जिनमें साहित्यकार, नाटककार, समीक्षक, लेखक, छात्र आदि सब कोई समाहित हैं जिन्होंने एकमत से सिद्धू साहब के जीवन के पहलुओं को अपने-अपने तरीके से व्यक्त किया है। अपने संस्मरण व्यक्त किये हैं। असल में यही सब तो होती है, जीवन की पूंजी। जीवन की सफलता। सिर ऊंचा उठा कर चलते रहने की शक्ति। ऐसे व्यक्ति दुर्लभ होते है। बिरले होते हैं। आप कह सकते हैं कि सचमुच के इंसान होते हैं। ताज्जुब और विडम्बना यह कि 'इंसान' को पढने, जानने, समझने वाले आज कम होते चले जा रहे हैं।

 नोट- इस सीरीज के तीन भाग है जिन्हें पढने के लिए आप नीचे दिए लिंक पर क्लीक करें।
पहला भाग
अमिताभ जी की नजर में नाटककार डा. चरणदास सिंद्धू जी ( पहला भाग)  
दूसरा भाग
अमिताभ जी की नजर में नाटककार डा. चरणदास सिंद्धू जी ( दूसरा भाग)
और इस सीरिज के लेखक श्री अमिताभ श्रीवास्तव जी का ब्लोग पता हैं।
अमिताभ श्रीवास्तव जी का ब्लोग

Tuesday, March 30, 2010

अमिताभ जी की नजर में डा. चरणदास सिंद्धू जी ( भाग-2)

अनुभव जब एकत्र हो जाते हैं तो वे रिसने लगते हैं। मस्तिष्क में छिद्र बना लेते हैं और ढुलकने लगते हैं, कभी-कभी हमे लगता है अपनी खूबियों को बखानने के लिये व्यक्ति लिख रहा है, बोल रहा है या समझा रहा है। किंतु असल होता यह है कि अनुभव बहते हैं जिसे रोक पाना लगभग असम्भव होता है। नदियां बहुत सारी हैं, कुछ बेहद पवित्र मानी जाती है इसलिये उसमें डुबकी लगाना जीवन सार्थक करना माना जाता है। हालांकि तमाम नदियां लगभग एक सी होती हैं, कल कल कर बहना जानती हैं, उन्हें हम पवित्र-साधारण-अपवित्र आदि भले ही कह लें किंतु किसी भी नदी को इससे कोई मतलब नहीं होता कि उसे कैसा माना जा रहा है या वो कैसी है? वो तो निरंतर बहती है, सागर में जा मिलती है। आप चाहे तो उसके पानी का सदुपयोग कर लें या उसे व्यय कर लें, या फिर नज़रअंदाज़ कर लें, यह सब कुछ हम पर निर्भर होता है। ठीक ऐसे ही आदमी के अनुभव होते हैं, जो रिसते हैं, कलम के माध्यम से या प्रवचन के माध्यम से या किसी भी प्रकार के चल-अचल माध्यम से। कौन किसका अनुभव, किस प्रकार गाह्य करता है यह उसकी मानसिक स्थिति या शक़्ति पर निर्भर है। " मेरी दृष्टि में, एक सुखी जिन्दगी वो होती है जिसमें जरूरी आराम की चीज़े हों, मगर ऐशपरस्ती न हो। इसमें किसी किस्म का अभाव महसूस न हो। सब्र संतोष हो। इसके लिये आवश्यक है कि आदमी तगडा काम करे जो इंसानियत की भलाई की खातिर हो। सबसे अहम बात-एक सुखी जीवन रिश्तेदारों और दोस्तों की संगत में, दूसरों के वास्ते जिया जाय।" ( 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्द चित्र', - सुखी जीवन-मेरा नज़रिया पृ.17) डॉ. चरणदास सिद्धू अब जाकर यह कह सके, यानी 44-45 वर्षों बाद, तो इसे क्या उनके जीवन का निचोड नहीं माना जा सकता? मगर ये ' दूसरों के वास्ते जिया जाय' वाला कथन मुझे थोडा सा खनकता है क्योंकि पूरी जिन्दगी उन्होंने नाटक को समर्पित की, उनका परिवार उनके समर्पण में सलंग्न रहा तो इसे मैं दूसरों के वास्ते जीना नहीं बल्कि अपने लक्ष्य के वास्ते जीना ज्यादा समझता हूं। वैसे भी जब आप किसी लक्ष्य पर निशाना साधते हैं तो शरीर की तमाम इन्द्रियां आपके मस्तिष्क की गिरफ्त में होती है और आपको सिर्फ और सिर्फ लक्ष्य दिखता है, ऐसे में दूसरा कुछ कैसे सूझ सकता है? यह सुखद रहा कि सिद्धू साहब को जैसा परिवार मिला वो उनके हित के अनुरूप मिला। यानी यदि जितने भी वे सफल रहे हैं उनके परिवार की वज़ह भी उनकी सफलता के पीछे है और यह उन्होंने स्वीकारा भी है। खैर..। पर यह तो नीरा दर्शन हुआ, जिसमें जीवन के लौकिक रास्तों से हटकर बात होती है। पर असल यही है कि सिद्धू साहब बिरले व्यक्ति ठहरे जिनका अपना दर्शन किसी गीता या कुरान, बाइबल से कम नहीं। यथार्थवादी दर्शन। और यह सब भी इसलिये कि उन्होंने जिन्दगी को जिया है, नाटकों में नाटक करके, तो यथार्थ में उसे मंचित करके। उनकी पुस्तक 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' जब पढ रहा था तो उसमे पहले पहल लगा कि व्यक्ति अपनी महत्ता का बखान कर रहा है, या करवा रहा है। किताब सबसे उत्तम जरिया होता है। मगर बाद में लगा कि व्यक्ति यदि अपनी महत्ता बखान भी रहा है तो फिज़ुल नहीं, बल्कि वो वैसा है भी। और यदि वो वैसा है तो उसका फर्ज़ बनता है कि वैसा ही लिखे या लिखवाये। कोई भी कलाकार हो, उसे अपनी कला का प्रतिष्ठित प्रतिफल मिले, यह भाव सदैव उसके दिलो दिमाग में पलता रहता है। यानी यह चाहत कोई अपराध नहीं। सामान्य सी चाहत है। इस सामान्य सी चाहत में रह कर असामान्य जिन्दगी जी लेने वाले शख्स को ही मैरी नज़र महान मानती है। महान मानना दो तरह से होता है, एक तो आप उक्त व्यक्ति से प्रभावित हो जायें, दूसरे आप व्यक्ति का बारिकी से अध्ययन करें, उसके गुण-दोषों की विवेचना करें। मैं दूसरे तरह को ज्यादा महत्व देता हूं। इसीलिये जल्दी किसी से प्रभावित भी नहीं होता, या यूं कहें प्रभावित होता ही नहीं हूं, क्योंकि यहां आपका अस्तित्व शून्य हो जाता है, आप अपनी सोच से हट जाते हैं और प्रभाववश उक्त व्यक्ति के तमाम अच्छे-बुरे विचार स्वीकार करते चले जाते हैं। ऐसे में तो न उस व्यक्ति की सही पहचान हो सकती है, न वह व्यक्ति खुद अपने लक्ष्य में सफल माना जा सकता है। फिर एक धारणा यह भी बनाई जा सकती है कि आखिर मैं किस लाभ के लिये किसी व्यक्ति के सन्दर्भ में बात कर रहा हूं? और क्या मुझे ऐसा कोई अधिकार है कि किसी व्यक्ति के जीवन को लेकर उसकी अच्छाई-बुराई लिखूं? नहीं, मुझे किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है। न ही ऐसा करने से मुझे कोई लाभ है। फिर? आमतौर पर आदमी लाभ के मद्देनज़र कार्य करता है। उसे करना भी चाहिये। जब वो ईश्वर को अपने छोटे-मोटे लाभ के लिये पटाता नज़र आता है तो किसी व्यक्ति के बारे में लिख पढकर लाभ क्यों नहीं कमाना चाहेगा? मुझे भी लाभ है। वो लाभ यह कि मुझे सुख मिलता है। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में लिख कर जिसके माध्यम से अन्य जीवन को किसी प्रकार का रास्ता प्राप्त हो सके, बस इसका सुख। न कभी मैं सिद्धू साहब से मिला, न ही दूर दूर तक ऐसी कोई सम्भावना है कि मिलना हो। और मैं जो भी लिख रहा हूं वो सारा का सारा उनकी किताब में ही समाहित है। मैं तो सिर्फ उस लिखे को सामने रख अपनी व्याख्या कर रहा हूं, जो किसी भी प्रकार से गलत नहीं माना जा सकता। यह मैरा धर्म है कि जब किसी पुस्तक को पढता हूं तो उसे सिर्फ पढकर अलमारी के किसी कोने में सजाकर नहीं रख देता बल्कि उसके रस से अपनी छोटी ही बुद्धि से सही, सभी को सराबोर या अभिभूत करा सकने का प्रयत्न करता हूं क्योंकि कोई भी पुस्तक किसी पाठक से यही चाहती है। यह मेरी, नितांत मेरी एक ईमानदार सोच है। और मेरा कर्म, धर्म लिखना ही तो है सो मैं इसे निसंकोच निभाता हूं। और लाभ यह कि सुख मिलता है। जैसा कि सिद्धू साहब ने लिखा- " सुख तो एक सोचने की आदत है, स्थाई तौर पर अच्छा महसूस करने की हालत। सुख कभी न छूटने वाली वो आदत है जिसके जरिये आप हमेशा चीज़ों के रौशन रुख को ताकते रहें...।" मेरा रुख यही है। सुख की सोच। रोशन रुख को ताकते हुए। तो क्या, सिद्धू साहब दार्शनिक हैं? नहीं। उनका जीवन दार्शनिक है। उनके अनुभव दर्शन है। मैने उनकी किताबों से जो व्यक्तित्व पाया है उसके आधार पर ही मैं कुछ कह सकता हूं। वरना लिखना तो उन लोगों के बारे में होता है जिन्हें आप अच्छी तरह से जानते हों। और यदि मैं कहूं, मैं उनके बारे में कैसे लिख रहा हूं तो वो सिर्फ इसलिये कि मेरी जिन्दगी में उनकी किताबे आईं और उन्हीं किताबों के जरिये अपनी छोटी सी बुद्धि के सहारे बतौर समीक्षक शब्दों में उतार रहा हूं। "नाटक लिखा नहीं जाता नाटक गढा जाता है" ( नाट्य कला और मेरा तजुरबा,मुलाकातें-पृ.165) सिद्धू साहब बताते हैं। जब अपनी धुन, अपने तरह का जीवन जिसने गढ रखा हो वो कोई चीज कैसे लिख सकता है? गढ ही सकता है। काश के मुझे उनके नाटक देखने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता? भविष्य में ही सही इंतजार किया जा सकता है। किंतु इधर 1973 से 1991 तक के सफर में उनके द्वारा जो करीब 33 नाटक रचे, लिखे गये हैं उन्हें पढने की उत्सुकता बढ गई है और यह भी तय है कि सबको धीरे धीरे पढ लूंगा। शायद तब डॉ. सिद्धू सर के नाटकों पर लिखा जा सकता है, अभी तो उनके जीवन पर ही लिखी गई किताबें मेरे पास है सो मैं सिर्फ वही लिख सकता हूं। जैसी किताब है। तो अगली पोस्ट में मिलिये और यह भी जानिये कि, हां आदमी जो ठान लेता है, वो करके ही दम लेता है। और जब दम लेता है तो उसके वो दम में बला की तसल्ली होती है। किंतु इस दम लेने के बीच उसे उम्र का बहुत बडा भाग तपा देना होता है। " स्वर्ण तप-तप कर ही तो निखरता है।" कैसे तपे सिद्धूजी? और कैसे निखरे? जरूर पढिये अगली पोस्ट में।

Monday, March 29, 2010

अमिताभ जी की नजर में नाट्ककार डा. चरणदास सिंद्धू जी।

किसी भी व्यक्ति को उसकी किताब से पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता। वैसे भी किसी व्यक्ति को पूरा कब जाना जा सका है, हां उसके करीब रह कर उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव, उसकी आदतें आदि जानी जा सकती है और जब ऐसे व्यक्ति किसी के बारे कुछ लिखते हैं तो हम उक्त व्यक्ति के सन्दर्भ में अपनी रूप रेखा बना सकते हैं। बस यही रूप-रेखा खींची है मैने डॉ. चरणदास सिद्धू को लेकर। इस देश में कई ख्यातिनाम नाटककार हुए हैं। उनमे से एक यदि मैं चरणदास सिद्धू को गिन लूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ठीक है कि मैने कभी सिद्धू साहब के नाटक नहीं देखे, कभी इसके पहले तक उनके नाम से परिचय नहीं हुआ, कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई, किंतु यह कतई जरूरी नहीं होता कि आपके जीवन में कभी कोई महान व्यक्ति आ ही नहीं सकता। समय-समय की बात होती है जब आपको मिलने, पढने आदि को प्राप्त होता है और तब आप कह उठते हैं कि अरे, मैं इनसे पहले क्यों नहीं मिल पाया या मैं इतना अज्ञानी रहा कि अब जा कर इनके बारे में पता चला? खैर देर आयद दुरुस्त आयद। धन्यवाद दूंगा सुशील छौक्कर जी का जिनके माध्यम से मैं डॉ.चरणदास सिद्धू के नाम से परिचित हुआ, फिर उनकी 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' तथा 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्दचित्र' जैसी किताब पढ पाया। दोनों किताबें सुशीलजी के सौजन्य से ही मुझे प्राप्त हुई। एक आदमी जिसने अपना पूरा जीवन नाटकों को समर्पित कर दिया, जिसने नाटक के अलावा कुछ और सोचा ही नहीं, जिसने अपने सामने आए कई सारे बडे प्रतिष्ठित पदों को ठुकरा दिया, जिसने अपने घर-परिवार तक को नाटक की दीवानगी में दूसरे पायदान पर रखा और जो आज भी नाटक के लिये ही जी रहा है क्या ऐसे व्यक्ति के बारे में जानना-समझना कोई नहीं चाहेगा? क्या ऐसे व्यक्ति बिरले नहीं? मैं समझता हूं कि किसी भी कार्य को करने के लिये सनक होनी चाहिये, सनक यानी दीवानगी आपको कार्य की सफलता तक छोडती है और यदि सफलता की चमक में आपकी आंखे चौन्धियाती नहीं है तो समझो आप सचमुच के आदमी है। बस यही 'आदमी' माना जा सकता है चरणदास सिद्धू को। सुशीलजी ने इनकी बारे में काफी कुछ बताया। फिर पढा। और फिर इनके बारे में, इनके करीबी रहे, छात्र रहे, दोस्त रहे, जानने-समझने वाले रहे व्यक्तियों ने जो कुछ भी लिखा, उसे भी पढा। फिर इनको मनन किया। और तब खींची रूप रेखा जो आपके सम्मुख लाने से रोक नहीं पाया।
इस देश में बेहतरीन नाटककार शेष ही कितने हैं? नाटककारों पर लिखने वाले भी शेष कितने है? और नाटककारों को जानने-समझने के लिये कितनों के पास वक्त है? ऐसे प्रश्न क्यों नहीं कौन्धते है आमजन में? खैर इससे नाटककारों या चरणदास सिद्धू जैसों को कोई मतलब भी नहीं क्योंकि ये तो बस धुनी रमाये हुए हैं, तप में लीन है। दुर्भाग्य हमारा है कि हम वंचित रह जाते हैं ऐसे दुर्लभ जीवन से, जिसके माध्यम से हम जीवन के कई सारे अनबुझे पहलुओं को जान सकते हैं, समझ सकते हैं। क्योंकि नाटककार सिर्फ नाटक मंचित नहीं करता बल्कि अपने जीवन को, अपने परिवेश को, अपने अनुभवों को या कहें एक समग्र जीवन दर्शन को कथानक में उतारकर पेश करता है। वो अभिनय करता या कराता तो है किंतु कहीं वो अपने ही जीवन के साथ खेल भी रहा होता है। कौन खेलता है अपने जीवन के साथ? आज जब मैं अपने चारों ओर भागते-दौडते-खाते-पीते- कमाते- गंवाते लोगों की भीड देखता हूं तो यही ख्याल आता है कि जी कौन रहा है? खेल कौन रहा है? जीवन काट रहें है सब। कट रहा है सबकुछ बस। खेलने के अर्थ बदल गये हैं। खैर..। मैने चरणदास जी के बारे में सुना व पढा है। फक्कड सा जीवन। किंतु ऐसी फक्कडता नहीं कि जीवन का लक्ष्य ही लुप्त हो जाये। अपने लक्ष्य के लिये तमाम बाधाओं को पार करने वाला व्यक्तित्व, अपने शौक के लिये आसमान को ज़मीन पर झुका देने वाला साहसिक जांबाज, अपनी एक अलग दुनिया बना कर चलने वाला दुनियादार इंसान...., क्या कभी मिल भी सकुंगा उनसे? क्योंकि जितना पढा-सुना है वो उनसे मिलने के लिये व्यग्र तो कर ही देता है किंतु अपनी भी बडी बेकार आदत है कि किसी के बारे में जानने-समझने के इस चक्कर में यदि कभी कहीं उसके ही विचारों के कई सारे विरोधाभास जब सामने आते हैं तो उसे कहने-बोलने से भी हिचकिचाता नहीं। कभी-कभी इस आदत के चलते सामने वाला मिलना नहीं चाहता। जबकि मिलकर मुझे बहुत कुछ और जानने-समझने को मिल सकता है जो ज्यादा असल होता है। पर..स्पष्टवादिता की प्रवृत्ति स्वभाव में प्राकृतिक रूप से जो ठहरी। कभी कभी गुडगोबर भी कर देती है। क्योंकि ज़माना औपचारिकता का है और अपने को औपचारिकता की ए बी सी डी नहीं आती। यानी हम जमाने के साथ नहीं है, यह हम जानते हैं। शायद इसीलिये बहुत पीछे हैं। वैसे इस पीछडेपन को हम स्लो-साइक्लिंग रेस मानते हैं। जिसमे जीतता कौन है? आप जानते ही हैं। खैर..डॉ.चरणदास सिद्धू के बारे में सुशीलजी से सुनकर, उनकी किताबो को पढकर उनके बारे में जो चित्र खींचा है वो वाकई दिलचस्प है और जिसे एकमुश्त पोस्ट मे ढालकर पेश नहीं किया जा सकता, सो अगली पोस्ट का इंतजार जरूर कीजियेगा।

नोट- यह पोस्ट अमिताभ श्रीवास्तव जी के ब्लोग से चोरी ना ना इजाजत से उठाई गई है।

Wednesday, March 24, 2010

मेरी माँ बोली "हरियाणवी" में एक कहानी

महादे-पारवती ( महादेव- पार्वती) 

एक बर की बात सै। पारबती महादे तैं बोल्ली - महाराज, धरती पै लोग्गाँ का क्यूँक्कर गुजारा हो रहया सै? हमनै दिखा कै ल्याओ। 
महादे बोल्ले- पारबती, इन बात्ताँ मैं के धरया सै? अडै सुरग मैं रह, अर मोज लूट। धरती पै आदमी घणे दुखी सैं। तू किस- किस का दुख बाँट्टैघी। 
पारबती बोल्ली- महाराज, मैं नाँ मन्नू। मैं तै अपणी आँख्या तै देक्खूँगी। संदयक देक्खे बिना पेट्टा क्यूक्कर भरै? 
महादे बोल्ले- तै चाल पारबती।  देख धरती की दुनियाँ दारी। न्यूँ कह कै वे दोन्नूँ अपणे नाधिया पै बैठ, थोड़ी हाण मैं आ पोंहचे धरती पै। उन दिनाँ गंगाजी का न्हाण था।  पारबती बोल्ली- महाराज, मैं बी गंगाजी न्हाँगी। गंगा न्हाण का बड़ा फल हो सै। जो गंगा न्हाले उननै थम मुकती दे दयो सो। मरयाँ पाच्छै वो आदमीं सूदधा सुरग मैं जा सै। अड़ै आए-ऊए दो गोत्ते बी मार ल्याँ गंगा जी मैं। 
महादे बोल्ले- पारबती, लोग हमनैं पिछाण लैंघे। अक न्यूँ कराँ, दोन्नूँ अपणा-अपणा भेस बदल ल्याँ। न्यूँ कह कै दोनुवाँ नै मरद-बीर का भेस भर लिया। भेस बदल कै दोन्नूँ चाल पड़े, गंगाजी कैड़। 
राह मैं पारबती नैं देख्या दुनियाँ ए गंगाजी न्हाण जा सै। कोए गाड्डी जोड़ रहे, तै कोए मँझोल्ली, कोए रह्डू , तै कोए पाहयाँ एक पाहयाँ चाल्ले जाँ सै। लुगाई गंगाजी के गीत गामती जाँ सै। अक जड़ बात या थी, सारी ए खलखत पाट्टी पड़ै थी गंगाजी के राह मै। 
पारबती बोल्ली- महाराज, धरती पै तै घणा एक धरम-करम बध रहया सै। देक्खो नाँ, टोल के टोल आदमीं गंगाजी न्हाण जाण लाग रहे। मेरै तै एक साँस्सै सै। थम कहो थे- जो गंगा न्हागा वो सूदधा सुरग मैं जागा। जै ये सारे न्हाणियाँ सुरग मैं आगे तै सुरग मैं तै तिल धरण की जघाँ बी नाँ रहैगी। सुरग मैं तै खड़दू रुप ज्यागा। 
महादे हँस्से अर बोल्ले- पारबती, तूँ तै भोली की भोली ए रही। ये सारे आदमी गंगाजी न्हाण कोन्या आए। कोए तै मेला-ठेला देक्खण आया सै। कोए खेत-क्यार के काम तैं बच कै आया सै। कोए-कोए अपणा बड्डापण जितावण ताँहीं आया सै। कोए- कोए अपणा मैल काट्टण आया सै। कोए बेट्टे माँगण ताँही आया सै, तै कोए पोत्ते माँगण ताँही। कोए बेट्टी नैं परणा कै सुख की साँस लेण आया सै। कोए अँघाई एक करण ताँही आया सै। गंगाजी न्हाणियाँ तै इनमैं उड़द पै सफेददी जितणा कोए-कोए ढूँढ्या पावगा। 
महादे की बात सुण कै पारबती बोल्ली- महाराज, थम तै मेरी बात नैं न्यूँ एँ टालो सो। कदे न्यूँ बी हुया करै? 
महादे बोल्ले- तूँ मेरी बात नैं बिचास कै देख ले, जै मेरी बात न्यूँ की न्यूँ साच्ची नाँ लिकड़ै तै। 
पारबती बोल्ली- महाराज, बात नैं बिचास्सो। महादे बोल्ले- बिचास ले। 
इतणी कह कै महादे नैं कोड्ढी का रुप धारण कर लिया अर पारबती रुपमती लुगाई बण गी। राह चालते नहाणियाँ नैं वो कोड्ढ़ी अर लुगाई देक्खी। बीरबान्नी तै हाथ मल मल कै रहगी। देख दुनियाँ मैं कितणा कुन्या सै? सुरत सी बीरबान्नी कोड्ढ़ी कै पल्लै ला दी। डूबगे इसके माई-बाप। के सारी धरती पाणी तैं भरी सै जो इसनैं जोड़ी का बर नाँ मिल्या? 
कोए उनतैं अँघाई करकै लिकड़ै। कोए कहै छोडडै नैं इस कोड्ढ़ी नैं। मेरै साथ चल, राज उडाइये। 
वा लुगाई सब आवणियाँ-जाणियाँ ताँही एक्कैं बात कहै- सिअ कोए इसा धरमातमाँ जो इसनैं कोड्ढी की जूण तैं छुटवादे। इसका हाथ पकड़ कै गंगीजी मैं झिकोला लवा दे? जै कोए इसनैं गंगाजी मैं नुहादे उसका राम भला करैगा। वो दूदधाँ न्हागा अर पूत्ताँ फलैगा। गंगाजी मैं न्हात्याँ हे इस की काया पलट हो ज्यागी। सै कोए धरमातमाँ जो इसका कस्ट मेट्टै? सब महादे-पारबती की बात सुणै अर मन मन मैं हँस्सैं। 
उस लुगाई की बात दुनियाँ सुणै पर मुंह फेर कै लीक्कड़ ज्या। जिसके हाड हाड मैं कोढ़ चूवै उसनैं कूण छूहवै। 
अक जड़ बात या थी अक कोए बी उसकै हाथ लावण नैं त्यार नाँ हुआ। लाक्खाँ न्हाणियाँ डिगरग़े अर वा लुगाई न्यूँ की न्यूँ खड़ी डिडावै। 
जिब भोत्तै हाण होली जिब एक धरमातमाँ उत आया। उस बिचारे नैं बी उस बीरबान्नी की गुहार सुणी। कोड्ढ़ी नैं देख कै उसका मन पसीज ग्या। उसनै सोच्या- हे परमेस्सर, इसे कूण से पाप करे अक यो कोड्ढ़ी बण्या? अर कूण से आच्छे करम के थे अक इतणी सुथरी बहू मिल्ली। उस आदमी नैं जिनान्नी की सारी बात सुणी अर बोल्या- जै इसका कोढ़ गंगा मैं न्हवाए तैं मिट ज्यागा तै मैं इसका झिकोला लगवा दयूँगा। थारा दोनुवाँ का अगत सुधर ज्यागा। तूँ न्यूँका, एक कान्नी तैं तै तू इसकी बाँह पाकड़ और दूसरी कान्नी तै मैं थांभूँगा। 
उस आदमी का तै उस कोड्ढ़ी कै हाथ लावणा था अर वो तैं साँच माँच का सिबजी भोला बणकैं खड़ या हो ग्या,अर बोल्या- देक्ख्या पारबती! मैं तत्तैं कहूँ था नाँ, अक सारे माणस गंगाजी न्हाण नहीं आमते।  लाक्खाँ मैं कोए कोए पवित्तर भा तैं गंगा न्हाण आवै सै जिसा यो आदमी लिकड़या। 
सिबजी भोले नैं उस आदमी ताँही आसीरबाद दिया अर वै दोन्नूँ अंतरध्यान होगे।  
नोट- यह कहानी हरियाणवी हिन्दी कोश से ली गई है जिसके लेखक डा. जय नारायण कौशिक और प्रकाशक - हरियाणा साहित्य अकादमी है।

Tuesday, March 2, 2010

आह...... होली पर बेटी, मेरा बचपन लौटा लाई।

नैना की होली

हम अपना बचपन देख नहीं पाते बस अपने बड़े बुजुर्गो से सुन ही पाते हैं, या एक आध घटनाएं हमारी स्मृति में बची रह जाती है। अगर हमें अपना बचपन देखना है तो अपने बच्चों के बचपन के संग हो लेना चाहिए और उस छूटे हुए बचपन को फिर से जीने के लिए। कुछ ऐसा ही मैंने इस बार किया। अपने और बेटी की खातिर हम भी होली में रंगीले हो लिए। सुबह सुबह बेटी ने हमें रंगा, दोपहर में हमने बेटी को रंग दिया। और बेटी की माँ कहाँ पीछे रहने वाले थी सो उन्होंने तो सबको ऐसा रंगा की सब एक दूसरे को पहचान ही नहीं पाए। खैर आप हमारी बेटी की होली की फोटो देखिए। और हाँ बेटी की पसंद के 10 गाने भी जानिए जिनको सुनने के लिए वह अपने पापा से खूब जिद करती हैं। और पापा गानों के लिए ब्लोगर साथियों के पीछे पड़े रहते हैं।

















सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे
ससुराल गैंदा फूल ..............................

















दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी
हाँ दिल तो बच्चा है जी ........................













आजा आजा दिल निचोड़े ,रात की मटकी तोड़े
कोई गुड़ लक निकाले, आज गुड लक तो फोड़ॆ ...........

















तू पैसा पैसा करती है क्यों पैसे पे इतना मरती है
मैं पैसों की लगा दूँ ढेरी री री री री...................













इब्न ए बतूता ता ता , बगल में जूता ता ता
पहने तो करता है चुर्र .............................













जब लाईफ हो आऊट आफ कंट्रोल
होंठो करके गोल, होठों को करके गोल
सीटी बजा के बोल ALL IS WELL













आजा आजा जिन्दे शामियाने के तले
जेरी वाले नीले आसमाने के तले
जय हो जय हो जय हो .......................................

















होले होले से हवा लगती है
होले होले से दवा लगती है
होले होले से दुआ लगती है
होले होले .......................
होले होले हो जाऐगा प्यार ....................













मसकली मसकली मसकली मसकली मसकली .........

















बेटा हो जा जवान तेरी शादी करुँगा
शादी करुँगा तेरी शादी करुँगा .......

कैसी लगी हमारी होली। और नैना बेटी के पसंद के गानों में से आपकी पसंद का गाना कौन सा है,  ये भी बताना जी।
 

Tuesday, February 23, 2010

गुरुवर के पन्नों में मैं

इनाम की आस यूँ पूरी होगी सोचा ना था। 

" जब मैं पांचवी जमात में था, हमारे गाँव में संत रविदास का जन्म समागम किया गया। मैंने गीत लिखा और संगत को सुनाया। चाचा बेला सिंह ने एक रुपया निकाला। लाला जी ने रोक दिया। बटुए से पाँच का नोट निकाला और कहा: " अगर इनाम देना ही है तो ये पाँच रुपए पकड़ा।" ( साभार-नाट्य कला और मेरा तजुरबा-चरणदास सिंद्धू)

ठीक इससे मिलता जुलता दृश्य फिर हँसराज कालेज में घटा। फर्क इतना था कि इनाम स्वरुप पाँच रुपये लेने वाला वो लड़का आज प्रोफेसर एंव नाटककार बन अपने शिष्य की जानदार एक्टिंग देखकर इनाम के तौर पर पाँच सौ रुपए दे रहा था और शिष्य याद के लिए बस छोटा नोट माँग रहा था। मैं पहले वाले दृश्य को किताब में कई बार पढ़ चुका था और दूसरे दृश्य को अपने सामने घटते हुए देख रहा था। साथ ही मन ही मन में सोच रहा था वो दिन कब आऐगा जब सिंद्धू सर मुझे मेरे किसी काम पर खुश होकर इनाम स्वरुप कुछ देंगे? उसके बाद जब मैंने लिखना शुरु किया तो लगा अब मेरी मुराद पूरी हो जाऐगी। मैं अपनी तरफ से अच्छा खराब लिखता रहा, डाक से उन्हें भेजता रहा और कभी-कभी सुनाता भी रहा। इसकी एवज में मुझे शाबासी जरुर मिलती किंतु इनाम  नही मिलता। जिसकी मुझे चाह थी। लेकिन पिछले दिनों जब सिंधू सर के घर जाना हुआ तो सर ने बताया कि तेरी एक रचना जो तूने मुझ पर लिखी हैं, मैंने अपनी आने वाली किताब- "नाटककार चरणदास सिद्धू : शब्द चित्र" में शामिल कर ली हैं। सुनकर बहुत खुशी हुई।  मन ही मन में सोचने लगा कि, जिस इनाम की बरसों से आस थी वो दूसरे रुप में मुझे आज मिल गया हैं। अगर यूँ कहूँ कि यह तो किसी प्रकार के इनाम से कई गुना ज्यादा बड़ा इनाम हैं तो अनुचित नहीं होगा। और यदि इनाम सरप्राइज जैसा हो तो आश्रर्यमिश्रित खुशी चौगुनी हो उठती है। जब उनकी यह किताब मेरे हाथ में आई तो एक अलग ही सुखद अहसास हुआ। लगता है आपका होना, आपका लिखना सबकुछ साकार हो गया। सार्थक हो गया। मैं किस लायक हूँ यह तो आज भी मुझे नही पता किंतु अपने गुरु के पन्नों पर जब अपना नाम देखता हूँ तो लगता है, हाँ मेरा एक अस्तित्व है जिसे मेरे गुरु ने आशीर्वाद देकर फला है। वैसे ऐसे कुछ विशेष पल होते हैं जिन्हें शब्दों में बयान करना मुश्किल होता है, इसलिए ज्यादा कुछ न कहते हुए बस उस रचना को लिख रहा हूँ जिसे मेरे गुरु ने अपनी पुस्तक में स्थान देकर मुझे अनुग्रहित किया है।  










                                                                          
बूझो तो उसका नाम 

देखो वह सांवला जोशीला
पहने सादी पेंट और जिस पर सफेद कमीज़
आंखो पर पहने मोटा चश्मा
और पैरों में कपड़ॆ के जूते
कंधे पर डाले झोला
वह कौन?
मस्त, मनमोहक चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम।

लोग, कहते कि,
वह कालेज में बच्चों को इंग्लिश पढ़ाता
पर बच्चे कहते कि,
वह हमें जीवन जीना सिखाता
बुद्धिजीवी कहते कि,
वह चार चार भाषाएं जानता।
पर कामगार कहते कि,
वह हमारी बोलियाँ बोलता।
वह कौन?
मस्त, मनमोहक चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम।

कहते हैं कि,
वह रुप बदल बदल, गाँव-गाँव
इंसानी कहानी की तलाश में घूमता फिरता।
पर किसान कहते कि,
वह गौतम बुद्ध, जीवन के रहस्य की खोज में।
कहानीकार कहते हैं कि,
वह कहानियों को स्टेज पर जीवित करता।
पर दर्शक कहते कि,
शहीद भगत, बाबा बंतू, भजनो, किरपा, सत्यदेव, चन्नो, शंकर,
कमला और लेखू को देख रोया करता।
वह कौन?
मस्त, मनमोहक चाल से चला जात
बूझो तो उसका नाम।

उसके दोस्त बोले,
घर उसका सादा -सा, कमरा उसका आधा-सा,
पर पड़ोसी बोले,
घर के बाहर लगी लकड़ी की एक प्लेट, जो बोले:
"नेता, भिखारी, हाकिमों का, यहाँ न कोई गेट।"
धर्मानुयाई कहते फिरते कि,
वह किसी धर्म को नहीं मानता।
पर कोई चुपके से कहता कि,
वह नफरत को नहीं मानता।
आलोचक कहते: इसमें भी हैं दोष।
पर दूर कहीं से आई एक आवाज़
मैं नहीं हूँ कोई भगवान,
मैं तो हूँ बस, एक इंसान!
वह कौन ?
मस्त, मनमोहक चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम।
 

Friday, February 19, 2010

फुरसत के कुछ पल यूँ कर बीते।

काफी दिनों के बाद अब जाकर कुछ राहत मिली है तो सबसे पहले अपनी ब्लोग की दुनिया याद आई। इसलिए राम जी के हाथों की जादूगरी के कुछ नमूने लेकर आया हूँ। हुआ कुछ यूँ कि एक काम से गया था कनाट प्लेस, पर वो काम तो हुआ नहीं और पहुँच गया अपनी पसंदीदा जगह मंडी हाऊस , बस वही राम जी की कला की प्रदर्शनी लगी हुई थी । "दिल तो बच्चा है जी" नही माना, उछलता कूदता घुस गया।
 
  
  
  
  
  
  
  
  
  
  
  

आप चाहे तो ये प्रदर्शनी 22 फरवरी तक दिल्ली के कापननिक्स मार्ग पर रवीन्द्र भवन में देख सकते है। और अधिक जानकारी के लिए www.ramsutar.com पर भी जा सकते हैं। और राम जी के हाथों से बनी बेहतरीन और सुन्दर कला का आनंद ले सकते हैं। 

Tuesday, January 5, 2010

किताबें













किताबें 

किताबें
रंग बिरंगी
छोटी-बड़ी
मोटी-पतली
अलमारी में से
हर पल झाँकती हैं।

फिर आकर पास मेरे
हँसाती हैं, रुलाती हैं
देर तक मुझसे बतियाती हैं
जब छोड़े सारी दुनिया
तब मेरा साथ निभाती हैं।

"माँ"
हाथ पकड़कर चलना सिखाती है
"मुझे चाँद चाहिए"
सपनो को पँख लगाती है
"पीली छतरी वाली लड़की"
इश्क की महक से महकाती है
"नास्तिक शहीद "
जीने का मकसद बताती है।


नोट- आजकल साथियों किन्हीं कारणों से ब्लोगजगत पर ज्यादा समय नही दे पा रहा हूँ। उसके लिए माफी चाहूँगा और साथ ही आप सभी साथियों को नववर्ष की ढेरों शुभकामनाएं देना चाहूँगा।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails