Sunday, September 10, 2023

मेरी पहली साइकिल और उसकी यादें

आज सुबह 'आशीष जी' ने फेसबुक पर एक पोस्ट साइकिल पर डाली. उस पोस्ट को पढ़कर हमारी दबी हुई इच्छा जाग-सी गई. दरअसल मैं खुद भी कई साल से एक साइकिल खरीदना चाहता था. उसी से सुबह टहलने जाना चाहता था. उसी से थोड़ा घूमना भी चाहता था. यह इच्छा कोरोना काल में पैदा हुई थी. जब घर में बैठे-बैठे पागल सा हो रहा था. तब यह तमन्ना कभी सो जाती थी और कभी जाग जाती थी. जागने और सोने की अपनी-अपनी वजह थीं.
आज जब 'आशीष जी' ने पोस्ट डाली तो यह तमन्ना फिर से जाग गई. इसके साथ-साथ पुरानी यादें भी फिल्म की तरह मेरी आंखों में चलने लगीं. शायद तब मैं कक्षा 9 या कक्षा 10 में पढ़ता था. ट्रीगोनोमेट्री समझ नहीं आती थी. इसलिए ट्यूशन लगाना पड़ा. ट्यूशन घर से थोड़ा दूर था और वो भी रात को था. इसलिए साइकिल की जरूरत महसूस हुई. घर पर बताया कि मुझे अब साइकिल चाहिए. पिताजी ने कहा ठीक है ले देंगे. हम खुश.
दो एक दिन बाद ऑफिस से पिताजी के साथ उनके एक दोस्त आ गए, जोकि किसी साइकिल की दुकान वाले को जानते थे. उन्होंने आते ही पूछा कि एटलस की साइकिल लेगा या हीरो की. मैंने तपाक से कहा ये वाली साइकिल नहीं लूंगा ( वो साइकिल जो उन दिनों आम थी. अंकल लोग उसे ही लेते थे. उसका नाम क्या है पता नहीं.) मैं तो बस 'रेंजर' साइकिल लूंगा. शायद रेंजर तब आई-आई थी या फिर कुछ एक साल हो गए थे. 'रेंजर' थोड़ी महंगी साइकिल थी. पिताजी की पॉकेट शायद तब उसे खरीदने के लिए हां ना कहती होगी. अंकल जी ने मुझे 'रेंजर' के ना जाने कितने नुकसान बताए लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ. कुछ दिन यूं ही बीत गए.
फिर एक दिन क्या देखता हूं पिताजी के साथ वो अंकल जी 'रेंजर' साइकिल लेकर आ गए. मैं खुशी से झूम उठा. ऐसे खुश था जैसे मेरे लिए बाइक आ गई हो. कई दिनों तक तो मेरे जमीन पर पैर ही नहीं थे. खुशी-खुशी में फिर ना जाने उसमें मैंने क्या-क्या लगवाया वो तो अब याद नहीं लेकिन ये याद है कि कुछ दिन बाद मैंने उसमें एक हूटर लगवा था. जैसा पुलिस की गाड़ियों का होता है. जब भी रात को मैं ट्यूशन से घर आता था तो ट्यूशन सेंटर से लेकर घर तक वो बजता रहता था. और मोहल्ले के लोग कहते थे कि हो ना हो ये सुशील ही होगा. और तो और जहां ट्यूशन पढ़ने जाता था. वहां के लोग भी इसी वजह से पहचाने लगे थे. एक अलग ही टशन थी. जोकि अब बेहद ही खराब लगती है.
जब कुछ दिनों पहले गली से ऐसे ही सायरन बजाती कोई साइकिल गुजरी तो मुझे अपनी यादें याद आने लगीं. और मैं अपनी बेटी को इन यादों को सुनाने लगा. वह यह सब सुनकर कहने लगी, 'अब पुरानी रट मत लगाने लगना कि मैंने साइकिल खरीदनी है.' फिर मैं बोला, 'मन तो अब भी होता है कि साइकिल खरीद ही लूं. 'अपनी कॉलोनी देखी है. और आपका दो दिन का शौक रहेगा. फिर वो यूं ही खड़ी रहा करेगी.' बेटी बोली. और मैं चुप्पी मारकर रह गया.
शायद अगले दिन या दो एक दिन के बाद रात को सायरन बजाती वही साइकिल गली से फिर गुजरी. उसे सुनते ही बेटी बोली,' पापाजी पापाजी देखो आपका बचपन जा रहा है.'

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