कभी कोई दोस्त अचानक से वर्षों बाद याद आ जाता है. याद आने के बाद मिलने या बात करने की तलब बेहद ज्यादा हो जाती है. लेकिन आपके पास ना उसका फोन नंबर होता है. और ना ही उसके घर का पता. बस तब आप मायूस होकर उसके साथ बिताए पुराने दिनों को याद करने लग जाते हैं.
खैर यह दोस्ती उन दिनों की है, जब सुबह-सुबह गली में ‘दही ले लो दही’ की आवाज लगाते दही बेचने वाले आया करते थे. उनके सिर पर कपड़े की इंडी जैसी कुछ हुआ करती थी. और उसके ऊपर पतले कपड़े से ढकी दही की हांडी. अब तो याद भी नहीं कि दही कितने रूपए किलो मिला करती थी. लेकिन दही बेहद स्वादिष्ट हुआ करती थी. उसके स्वाद का कारण दही का मिट्टी की हांडी में जमना हुआ करता था.
फिर भरी दोपहरी में ‘कुल्फी वाले’ घंटी बजाते हुए अपनी रेहड़ी लेकर आते थे, उनकी रेहड़ी में कुल्फी के पास एक लोहे की चरखी लगी होती थी. जिसके बीच में अंक लिखे होते थे. बच्चे लोग उसे घूमाते थे. और कोई-कोई बच्चा ऐसे घुमाता था कि दो-दो कुल्फी पा जाता था. और कोई एक आध तीन भी पा जाता था. और मेरे जैसा तो हमेशा बस एक ही कुल्फी पाता था.
उसी भरी दोपहरी में गली के नुक्कड़ पर एक ‘भूस की टाल पर ताश’ खेलने वालों का मजमा भी लगा रहता था. वहां अक्सर ताश का गेम 'सीप' खेला जाता था लेकिन कभी-कभी दहला पकड़ भी खेला जाता था. ताश के 'सीप' के खेल में हम भी कभी-कभी हाथ आजमा लिया करते थे.
खैर मैं बात दोस्त की कर रहा था. मुझे इस वक्त उसकी शादी से जुड़ी एक घटना की याद आ रही है. हल्की वाली सर्दियों में दोस्त की शादी थी. कैमरा वाला करना उनके लिए संभव नहीं था. लेकिन शादी की फोटो याद के लिए हो जाएं तो ये भी हम दोनों की इच्छा थी. इसलिए कैमरे की तलाश शुरू हुई कि किसी दोस्त के पास कोई छोटा-मोटा कैमरा हो तो उसे शादी में ले जाया जाए. खैर हमारे एक किराएदार थे. वे एक बैंक में काम करते थे. और वे उत्तराखंड के थे. उनके पास कैमरा था. वो भी रील वाला. तब रील वाले कैमरे ही हुआ करते थे ज्यादातर. लेकिन वे कैमरामैन नहीं बनना चाहते थे. तब आपां दोस्त के लिए कैमरामैन बन गए थे. बात बस इतनी-सी नहीं है. जो बात मैं बताना चाहता हूं वो दूसरी है.
खैर फिर क्या था शादी के दिन नए कपड़े पहनकर आपां कैमरामैन हो गए. बारात लुटियंस दिल्ली में किसी एमपी के घर के पीछे बने घरों में जानी थी. कैमरे की रील सीमित मात्रा में खरीदी गई थीं. तो फोटो भी हमारे द्वारा भी कम लिए जा रहे थे. शायद तीन-चार रील ही खरीदी गई थीं. और उस वक्त एक रील में 32-36 के करीब फोटो आती थीं. लेकिन जब फेरे के समय की बारी आई तो रील कम पड़ गईं. जहां तक मुझे याद है बस एक रील ही बची थी. तब मैंने यह बात दोस्त को बताई और कहा कि अब मैं क्या करूं? अब तो रील भी खरीदी नहीं जा सकती. क्योंकि उन दिनों उस लुटियंस इलाके में कोई दुकान भी नहीं थी. तब उसने कहा था, जो तुझे करना है वो तू कर ले. और फिर फेरों के वक्त जिसे देखो वही कहे कि मेरी फोटो ले लो दूल्हे के साथ. मैं फोटो लेने से मना कर दूं या अनदेखा कर दूं तो लोग गुस्से से देखने लगें. या गुस्सा हो जाएं. तभी मुझे ख्याल आया कि ऐसा करता हूं कि खाली फ़्लैश मार देता हूं. किसे पता चलेगा कि फोटो ली है कि नहीं. और ट्रिक काम कर गई. फिर फेरे के समय जो फोटो जरुरी लगती उसकी फोटो ले लेता था वरना तो फ़्लैश से काम चला लेता था. लेकिन तभी कोई महिला फेरों के बीच ही बोली, ' यो कैमरा वाला हमारी फोटो नहीं लेता खाली फ़्लैश मारे है बस.' और मेरी पोल खुल गई. आजतक पता नहीं यह पोल खुली तो कैसे खुली. फिर बाद में ही लड़कों वालों की तरफ से बताया गया कि ये कोई कैमरा वाला नहीं है ये तो दूल्हे का दोस्त है!!
खैर अब यहां ना वो दोस्त है. ना ही अब यहां वो दही वाले या कुल्फी वाले आते हैं। और ना ही अब वो भूस की टाल है. यहां तो अब बस मैं हूं, ये मोहल्ला है. या फिर पुरानी यादें हैं!!