Friday, September 5, 2008

शिक्षक दिवस और मेरे गुरु

ओड़क ता टूट जाणे
            सारे रिशतें नाते 
फेर क्यों न बणा 
             अम्बर दा तारा टूंटा ?
 आज शिक्षक दिवस है। और आज की पोस्ट की शुरुवात भी अपने गुरु  के लिखे शब्दों से कर रहा हूँ । मैंने कभी गाँधी , भगत सिहँ को नहीं देखा। पर अपने गुरु में मैने देखा गाँधी सा  सादा पहनावा, सादा रहना और भगत सिहँ सा  अन्याय से लड़ने का ज़ज़्बा अपने लेखन से। आप जब मिलेंगे तो यह इंसान एक कमीज और एक लूंगी पहने मेज पर बैठा कुछ पढता या लिखता हुआ मिलेगा। आप नमस्कार करेगे  तो बोलेंगे आओ भाई। जब आप उनके कमरे में जाऐगे तो देखेगे कि एक छोटा सा कमरा , एक छोटा सा बेड, एक छोटी सी मेज, एक लकड़ी की कुर्सी , और उसी कमरे में दो लकड़ी की अलमारी जिन पर काग़ज पर लिखी हुई बहुत सारी  सूकितयाँ चिपकी हुई मिलेगी। जिन्हें पढ़कर आपमें एक होंसला पैदा होगा जीने का, लिखने का, लोगो के लिए काम करने का। इस कमरे का एक गेट बाहर एक बड़े से मैदान की तरफ खुलता है। जहाँ से क्रिकेट खेलते बच्चें दिख जाऐगे। एक बार मैने पूछा कि सर आपको परेशानी महसूस नही होती इनकी आवाजों से  लिखने में सोचने में। वो बोले " कि उल्लू के पट्ठे ये मेरा बचपन है जिसे मैं रोज देखता हूँ। और अच्छी अच्छी गालियाँ  भी सुनने को मिल जाती । और छत पर एक छोटा सा पंखा है। कोई कूल्लर नही, कोई A.C नही । ऐसा नही कि वो उसका खर्चा वहन नही कर सकते। मैडम जी के कमरे में लगा हुआ है। आप पूछोगे कि सर आपको  गर्मी नही लगती तो कहेगे" कि उल्लू ...... जब गर्मी लगे तो बाथरुम में जाकर आधा बाल्टी पानी से नहा लो। लो हो गई गर्मी दूर" । जब आप बात करेगे तो उनकी बातों जोश होगा वजन होगा । मुझे याद वो दिन जब मै समय लेके गया  था उनके पास कुछ पूछने अग्रेंजी से सम्बधित शंका ।घर जाके पता चला कि उनकी तबीयत ठीक नही है। सांस लेने में दिक्कत हो रही है। इनको कई बीमारियाँ है दमा, शूगर, दिल की, पैरों के घुटने की। खैर मैं उनके पास बैठ गया। उनके डाक्टर दामाद को फोन किया जा चुका था । उनकी बताई दवाई दी जा चुकी थी। पर फिर भी सांस लेने में दिक्कत थी। मैं अपने हाथो से उन्हे पानी पी ला रहा था बिस्कुट खिला रहा था। और वो बीच बीच में कह रहे थे कि सुशील आज तेरी पढाई का नुकसान हो गया। मेरी आँखे नम थी। और मैं मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था । खैर उनके दामाद आये और उन्हें अपोलो में भरती करा दिया गया। जब उन्हें कार में बैठा रहे थे तो भी वो बोले कि बेटा तेरी पढाई का नुकसान हो गया आज। ऐसे हैं मेरे गुरु।  
उनसे जुडा एक पहलू और देखिए। उनकी किताब से "नाटय कला और मेरा तजुरबा -विदुषी प्रकाशन" से ।
9 अगस्त 1967 जब मैं अमरीका के लिए जहाज़ चढ़ा, दो मोटी किताबें मेरे झोलें में थी: बरनर्ड शा के पूरे नाटक और शेक्सपीयर के पूरे नाटक। फुलब्राइट वज़ीफा मुझे मिला था एक साल के वास्ते। अमरीकन साहित्य पढने के लिए। पहले पांच महीने की पढाई में मैंने इतनी मेहनत की, मेरे ग्रेड इतने बढिया आये, तीन चार टीचरों ने मुझे आगे वज़ीफे के लिए अर्जी देने को कहा। उन्होंने मुझे मोटा वज़ीफा दिलवा दिया। एक साल बाद मैंने एम.ए का इमितहान दिया- ताकि अंग्रेजी का डबल एम .ए बन संकू। मेरी फस्ट डिवीजन आई और नंबर भी सबसे ज़्यादा मिले। विभाग के हैड डा. राइआऊट ने मुझे मिलने की इच्छा जताई। आधा घंटा बातचीत हुई। राइडआऊट ने कहा: "मैंने तेरे जवाब पढ़े । तू साहित्य का महा पंडित बनेगा। उच्च आलोचक बनेगा। आई ग्रीट यू आन द थरैशोल्ड आफ ए ग्रेट कैरियर।" मैं घंटा भर कैंपस की विशाल, सुंदर, मनमोहक झील के किनारे बैठा सोचता रहा। अपनी चार बेटियों को, पत्नी को, माता-पिता को, मुल्क को, याद करके रोता रहा। सबसे हज़ारों कोस दूर बैठा। - " अगर ये लोग मुझे इतना क़ाबिल समझते हैं, अगर मैं पराये देश में बैठा, बेगानी बोली में, इनसे बेहतर काम कर सकता हूँ, तब अपनी बोली में, अपने लोगों के वास्ते, मैं क्या नहीं कर सकता? मुझे अपना जीवन संयम से , सोच-समझकर, जीना चाहिए।" 
ये था इनका दूसरा पहलू। अब देखिए तीसरा पहलू।
जिदंगी को नज़दीक से देखे बगैर आप बढिया नाटक नही लिख सकते । धरती से, अपने लोगो से, हर समय जुड़े रहना जरुरी है। इसके लिए मैने अनोखा तरीका अपनाया। छ्ब्बीस साल से मैं यह तरीका बरत रहा हूँ। बरस में एक या दो बार भेष बदल कर लोगो के नजदीक जाना। इस तजरबे ने मुझे नाटक के बास्ते चोखा मसाला दिया। मैंने पात्रों से एकरुप होने का अभ्यास किया। मालायें-मुंद्रिया बेचने वाला बना तो हर देहाती के सामने हर हीले इस रोल को निभाया। हाथ देखने वाला पंडा बना तो वही पाखंड किये। हसितनापुर जिला मेरठ से गंगा में नहाकर , पैदल चलकर , मथुरा यमुना पहूँचा। भेस था साधू का। मैं परख कर देख रहा था गृहस्थ त्यागने वाले महावीर जैसे, गौतम  जैसे, कैसे महसूस करते होंगे? बाबा नानक किन तजुरबों में से , मुशिकलों में से, गुजरा होगा जब वह चारों दिशाओं में यात्रा करता हुआ भारत के कोने-कोने तक पहूँचा था? इस यात्रा पर मैं अकेला जाया करता हूँ । मेरे पास घड़ी नही होती। चश्मा नही होता। पगड़ी बांधे, धोती कुरता पहने, छड़ी पकड़े, गंवारों संग गंवार बना, मैं अदृश्य सा चलता हूँ। कभी आधी रात तारों की छांव के नीचे, कभी पंछियों पशुओं संग जागता हुआ पौ फुटाला की बेला, कभी सख़्त दोपहर को, थका, टूटा, भूखा। गाँवो में घूमता हुआ, इस बात का मैं ख़ास ख़्याल रखता हूँ। मैं अपनी अकेले रहने की तपस्या भंग नहीं होने देता। अपने घर वालों से इतना सा रिशता होता हैं: थैले के अंदर एक काग़ज़- जिस पर लिखा होता हैं," अगर किसी दुघर्टना के कारण मैं मर जाऊं, मेरी देह, बग़ैर किसी धार्मिक रस्म के जला दी जाये। उसके दो दिन बाद, नीचे लिखे पते पर मेरी पत्नी और बच्चों को ख़बर कर दी जाये।"
ये था इनका तीसरा पहलू। इनके ऊपर मैंने भी एक तुकंबदी की थी। वो भी पेश है। 

वह कौन ? 

देखो वह साँवला जोशीला
पहने सादी पेंट और सफेद कमीज
आँखो पर जो पहने मोटा चश्मा
पैरो में कपडे के जूते
और कंधे पर डाले एक सादा झोला
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

लोग कह्ते कि वह कालेज में बच्चों को इंगलिश है पढाता
पर बच्चे कह्ते कि वह हमें जीवन जीना सिखाता
बुधिजीवी कह्ते कि वह चार चार भाषायें जानता
पर कामगार कहते फिरते कि वह हमारी बोलियाँ बोलता रहता
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

किसान कह्ते कि वह रुप बदल बदल गाँव गाँव इंसानी कहानी की तलाश में घूमता फिरता
पर गाँव के बच्चे कहते कि जैसे फाहयान घूमता फिरता
कहानीकार कह्ते है कि वह कहानियों को स्टेज पर जींवत करता
पर दर्शक कह्ते कि शहीद भगत, बाबा बंतू, भजनो, किरपा, सत्यदेव, चन्नो, शंकर, कमला, ओर लेखू को देख पीछे बैठा रोया करता
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

उनके दोस्त बोले घर उनका सादा सा, कमरा उनका आधा सा, जँहा लगा किताबो का ढेर
पर पडोसी बोले घर के बाहर लगी लकडी की एक प्लेट जो बोले "नेता, भिखारी, ओर हाकिमो का यहाँ ना है कोई गेट
धर्मानुयाई कह्ते फिरते कि वह किसी धर्म को नहीं है मानता
पर कोई चुपके से कह्ता कि वह नफरत को नही मानता
आलोचक कह्ते इसमें भी हैं दोष
पर दूर कहीं से आई एक आवाज ये ना हैं कोई भगवान, ये तो हैं बस एक इंसान
वह कौन?
मस्त मनमोह्क चाल से चला जाता
बूझो तो उसका नाम

इनका नाम श्री  चरण दास सिधू, हंसराज  कालेज दिल्ली के भूतपूर्व अंग्रेजी  के टीचर,एक पंजाबी नाट्ककार, अब तक 33 नाटक लिख चुके है ओर साथ ही एक सच्चे इंसान. और आखिर में भी उनकी किताब में लिखा हुआ ही कहूँगा 

जिसको शक हो, वो करे,
और ख़ुदाओं की तलाश,
हम तो इंसान को, इस दुनिया का,
ख़ुदा कहते हैं ।


8 comments:

डॉ .अनुराग said...

आपने जिन सीधे सच्चे जज्बातों से अपने गुरु को याद किया है उसके लिए आपको नमन है....इस भागती दौड़ती जिंदगी में वरना हम सिर्फ़ याद करते रह जाते है.......कुछ तो याद भी नही कर पाते.....आपके गुरु सचमुच इक हीरो है.....

मीत said...

सुशिल जी
आपकी यह रचना पढ़कर आँखों में आंसू आ गए, और अपने सभी शिक्षक भी याद आ गए....
बहुत ही उम्दा पोस्ट है...

bhuvnesh sharma said...

आपको अपने जीवन में ऐसे गुरू का सान्निध्‍य मिला...वाकई आप बहुत भाग्‍यशाली हैं.

सिधूजी को मेरा प्रणाम
शिक्षक दिवस पर ऐसी बेहतरीन पोस्‍ट के लिए साधुवाद

रंजू भाटिया said...

शिक्षक दिवस की एक बेहतरीन पोस्ट लिखी है आपने ..यूँ याद करके एक एक बात लिखना बहुत अच्छा लगा .

Anonymous said...

अवसरानुकूल एवं बेहतरीन
दिल प्रसन्‍न हुआ।

यह सच है इस जहां का
इंसान ही है खुदा यहां का।

मस्‍त मनमोहक चाल से चला जाता
नये नये रूपों में आता जाता है
गुरू तो गुरू है गुरू ही कहलाता है
इंसान को जो खुदा बतलाता है
हमें उस गुरू में ही खुदा नजर आता है।

- अविनाश वाचस्‍पति

Udan Tashtari said...

बेहतरीन पोस्ट!!


शिक्षक दिवस के अवसर पर समस्त गुरुजनों का हार्दिक अभिनन्दन एवं नमन.

राज भाटिय़ा said...

आप के गुरु जी को नमन ऎसे गुरु किस्मत से ही मिलते हे,ओर आप का धन्यवाद

राजीव तनेजा said...

शिक्षक दिवस के अनुकूल एक बेहतरीन पोस्ट...
अपने गुरू को लेकर आपने उनकी छोटी से छोटी बातों को इस प्रकार वर्णित किया मानो वो हमारे सामने ही हैँ....

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