Sunday, October 2, 2011

लहूलुहान इंसान

आदमी है कि सिर्फ सांसे ले रहा है 
क्योंकि वह मरना नहीं चाहता है
कभी मां-बाप की बुढ़ी होती हडिडयो की चिंता में
कभी बच्चों की जवान होती मुस्कराहट की फिक्र में
और कभी उसकी खातिर जो हर सुख-दुख में साथ देती है।
वरना तो वह खुद के अंदर बैठे इंसान को
रोज ही लहूलुहान होते देखता है।
उसके जख्मों को अपनी जीभ से चाटता है
इसके अलावा उसके पास कोई चारा है भी क्या ?
क्योंकि
जब तक,
घृणा से देखती आंखे होगीं,
कटु शब्द बोलती जबानें होगीं ,
कमजोर पर उठते हाथ होंगे
सच को कुचलने वाले पैर होंगे,
लूटने वाले शातिर दिमाग होंगे,
जात-पात पर लड़ते इंसान होंगे,
किसानों को ठगते व्यापारी होंगे,
मजदूरों का खून चूसते साहूकार होंगे। 
तब तक
वह ऐसे ही जख्मों को जीभ से सहलाऐगा,
उससे रिसते खून के घूंट पीता जाऐगा।

                                -सुशील छौक्कर

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