आदमी है कि सिर्फ सांसे ले रहा है
क्योंकि वह मरना नहीं चाहता है
कभी मां-बाप की बुढ़ी होती हडिडयो की चिंता में
कभी बच्चों की जवान होती मुस्कराहट की फिक्र में
और कभी उसकी खातिर जो हर सुख-दुख में साथ देती है।
वरना तो वह खुद के अंदर बैठे इंसान को
रोज ही लहूलुहान होते देखता है।
उसके जख्मों को अपनी जीभ से चाटता है
इसके अलावा उसके पास कोई चारा है भी क्या ?
क्योंकि
जब तक,
घृणा से देखती आंखे होगीं,
कटु शब्द बोलती जबानें होगीं ,
कमजोर पर उठते हाथ होंगे
सच को कुचलने वाले पैर होंगे,
लूटने वाले शातिर दिमाग होंगे,
जात-पात पर लड़ते इंसान होंगे,
किसानों को ठगते व्यापारी होंगे,
मजदूरों का खून चूसते साहूकार होंगे।
तब तक
वह ऐसे ही जख्मों को जीभ से सहलाऐगा,
उससे रिसते खून के घूंट पीता जाऐगा।
-सुशील छौक्कर
4 comments:
तब तक
वह ऐसे ही जख्मों को जीभ से सहलाऐगा,
उससे रिसते खून के घूंट पीता जाऐगा।
Aah! Bas ek aah...aur kya kahen?
सुशील जी
आपकी कविता आज के युग के मनुष्य के लिये बनी है ,और ये सार्थक रूप से आज के युग की परेशानियों को दर्शा रही है ..
आपको दिल से बधाई
विजय
सीधे होता है वार, चीर कर निकल जाता है तीर..शब्दों का। पर छलनी नहीं हां दिमागी तंतुओं को हिलाता है और झकझोरते हुए खुद से ही पूछता है कि आखिर कब तक???? 'उससे रिसते खून के घूंट पीता जाऐगा।'
रचना आक्रोशित करती है, झिंझोडती है किंतु टीस भी देती है कि आप-हम उस देश में हैं जहां सच अभी खडा होने का प्रयास कर रहा है..और झूठ ठेकेदार बना हुआ है। लहुलुहान आम इंसान, खुद का चेहरा ही भूल सा चुका है। पसंद आई रचना।
bhaiya, ye kavita main aaj subah hi padha tha...behtreen likha hai aapne...awesome!!
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