Monday, February 23, 2009

उठो बाबा

उठो बाबा

अब नहीं पूछूँगी
मेरी मम्मी कहाँ हैं ?
मेरे पापा कहाँ हैं ?
सबके तो हैं, मेरे कहाँ हैं ?
उठो बाबा।

अब कौन प्यारी आवाज लगा सुबह उठाऐगा ?
अब कौन बस्ता लेकर स्कूल छोड़कर आऐगा ?
अब कौन गोल गोल रोटी बना खिलाऐगा ?
अब कौन कहानी सुनाकर नींद को बुलाऐगा ?
उठो बाबा।

तुम कहते थे "तेरे बाप की याद आती हैं,
खुद चला गया मुझे जवान बनाकर"
क्या तुमको हमारी याद नहीं आऐगी ?
हमको यूँ बेसहारा छोड़कर
उठो बाबा।

तुम कहते थे "दुकान पर बैठा कर"
मैं कहती थी "अच्छा नहीं लगता"
अब मैं तुम्हें कुर्सी पर ऊँघने नहीं दूँगी
दुकान चलाकर खूब पैसा कमाऊँगी
उठो बाबा............................



Thursday, February 19, 2009

रुसी कवयित्री- मरीना त्स्वेतायेवा

कुछ रातें

कुछ रातें प्रिय के बिना
कुछ रातें अप्रिय के बिना
कुछ बड़े बड़ॆ तारे
दहकते हुए सिर के ऊपर
और कुछ हाथ
बढ़ते हुए उसकी तरफ जो सदियों से रहा नहीं और न होगा
जो सम्भव नहीं पर जिसे होना चाहिए ...................
बच्चे का एक आँशू
नायक के लिए
और नायक का एक आँशू बच्चे के लिए
पत्थरीलें पहाड़ हैं उसकी छाती में
उसे उतर आना चाहिए अब नीचे
जानती हूँ-जो हुआ
जानती हूँ-जो होगा,
जानती हूँ पूरी तरह
गूंगे-बहरे उस रहस्य को
तुतली और अबोध भाषा में जिसे
कहा जाता है जीवन

रुसी कवयित्री- मरीना त्स्वेतायेवा

साभार- वरयाक सिंह ( आधार प्रकाशन हरियाणा)

Sunday, February 15, 2009

ब्लोग की सालगिरह

आज इस ब्लोग ने एक साल पूरे कर लिए हैं। यह सब आप सब साथियों के सहयोग से संभव हो सका हैं इसलिए आप सभी का दिल से शुक्रिया। आज के दिन इस ब्लोग की पहली पोस्ट को थोड़ा रंग बिंरगा और थोडा बदलाव करके दुबारा पोस्ट करके ब्लोग की सालगिरह मनाने का मन किया।

नैना

कोई तेरे होने पर मनाये खुशी
और कोई अफ़सोस
कोई तेरे आने पर दे बधाई

और कोई दे दिलासा

ऐसा क्यूँ होता हैं नैना ?


कोई तुझे चुनमुन पुकारे
और कोई नैना

कोई तुझे दुर्गा बोले

और कोई सुनयना

ऐसा क्यूँ होता हैं नैना ?


कोई हँसे कि तू हँसे,
कोई रोये क्योंकि तू रोये

कोई खाये कि तू खाए

कोई सोये क्योंकि तू सोये

ऐसा क्यूँ होता हैं नैना ?


कोई कहे यह लड़कियों की सदी
कोई कहे फिर भी चाहत लड़को की

कोई बोले बेटे होते बुढापे की लाठी

कोई बोले मेरी बेटी मेरे बुढापे की नैना

ऐसा क्यूँ होता हैं नैना ?

Thursday, February 12, 2009

जिदंगी क्या इसी ही को कहते हैं ?


वही सुबह का अलार्म सुनकर
वही जनसत्ता पेपर पढ़कर
वही सुबह एक सा नाश्ता खाकर
वही बदलती इंसानी फ़िदरत को देखकर
वही आफिस में उंगलियाँ तोड़कर
वही भिन्नाते सिर के साथ बिस्तर पर गिरकर
मन उचट गया है
पर जिदंग़ी है कि बस कटे जा रही है 
कभी माँ-बाप के बुढ़ापे की आहट में
कभी बेटी की शरारत में
कभी पत्नी की मुस्कराहट में 
कभी चिड़ियों की चहचहाट में
कभी हवाओं की सरसराहट में
 
बहुत दिनों से मन में उथल पुथल थी। क्योंकि कई यार दोस्त और खुद मैं भी कहता रहता हूँ कि यार जिदंगी में मजा नही आ रहा। पर जीऐ जा रहे है। और कल यह सुनते ही झट से हमारा चाय वाला बोला " मजा कोई किसी के बाप का नौकर है जो किसी के कहने से आ जाएगा।" और फिर मुस्कराता हुआ पीछे से कान के पास आकर बोला कि "मेरे जैसे बन जाओ फिर देखना मजा भी आ जाऐगा।" पर मेरी समझ में नही आता कि जिसे देखो वही मुझे बदलने को कहता है, चाहे वो घरवाले हो या बाहर वाले? साथियों अब आप ही बताईए कि क्या मुझे बदलना चाहिए?  वैसे मैं जल्द ही अपनी अलमारी पर भगत सिंह जी की लिखी दो लाईनें लगाने वाला हूँ। जब से ये लाईने पढ़ी है तब से दिल को बहुत भा गई हैं। आप भी पढ़िए। नोट- हर पोस्ट के बोनस के रुप में सीधे हाथ की तरफ से सबसे ऊपर भी मेरी पसंद का कुछ लिखा होता है उसे भी पढ़ा करें। शुक्रिया।
इन दीवाने दिमागों में ख्वाबों के कुछ लच्छे हैं,
हमें पागल रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।

Monday, February 9, 2009

पत्र के बहाने से


पत्र के बहाने से


तुम्हारा
और बाबू जी का
दोनों पत्र एक साथ
पकड़ाया, डाकिया ने।
पहले बाबूजी...
एक बार बाँच कर
सिरहाने की जगह
उसके लिए माक़ूल पाया 
तुम्हारा पत्र जेब में भरकर निकल आया
एक
बहुत छाँहवाली पेड़ के नीचे
जमकर बैठा,
एक नुकीली-सी चट्टान पर।
पेड़ की शाख़ें
तुम्हारी बाँहे बन गई
पत्तियाँ आँखे
हाँ... पीछे से तुम भी 
झुक आओ पत्र पर...
कई बार पढ़ गया
इत्ता छोटा पत्र !
और एक बार फिर से
बहुत बार पढ़ने के लिए
पढ़ने लगा तुम्हारा पत्र
बहुत देर बाद
अनमना-सा वहाँ से उठा
और दूसरे पेड़ के नीचे जा बैठा
एक और छायादार पेड़
एक और चट्टान
तुम्हारी बाँहे, तुम्हारी आँखे
और तुम्हारी बातें
तुम्हारे साथ बैठकर
पढ़ता रहा तुम्हारा पत्र
बड़ी ममता से देखती रहीं तुम
मुझे पढ़ते हुए
राह चलते
मिलते रहे लोग
होती रहीं बातें
उन बातों के बीच
बार्-बार
हाथ देकर देख लेता जेब में
फिर निकालकर दूसरी जेब में रखता
और पत्र के ऊपर रख देता अपना हाथ
हाँ... साथ-साथ चल रही हो तुम
तुम्हें छू रहा हूँ मैं
पिता का पत्र सिरहाने टिकाकर
सो रहा
तुम्हारा पत्र, दुआ की तरह
चादर बनाकर ओढ़ ली
आओ... आओ न अब याद
तुम्हें सपने में पाना चाहता हूँ
(कम से कम!)
सोने-जागने के बीच पड़ा
जरा-सा बुदबुदाया
'पगली!'
और जोरों से हँस पड़ा
अंधेरे कमरे में
लाखों जुगनू जाग पड़े
सिटपिटाकर चुप हो गया
थपक-थपककर सुलाता रहा
जुगनुओं को और
तुम्हें आँखो ही आँखो में
लाड़ से डाँटता रहा 
कि हँसाना मत
फिर धीरे-से उठा
बत्ती जलाया, और
तुम्हारा पत्र निकालकर पढ़ने लगा
दरअसल
यह याद नहीं कर पा रहा था
रोज़ समय पर खाने की बात
तुमने लिखा है
या बाबूजी ने?
-हाँ,
तुम्हीं ने लिखा है
तो बाबूजी ने क्या लिखा?
उनका पत्र निकालकर देखता हूँ-

उन्होंने तो रुपयों के लिए लिखा है
कि और ज़रुरत तो नहीं !
मैं मुस्कुराते हुए बत्ती बुझात हूँ
सोते-सोते उलाहना देता हूँ:
'बस, यही फ़िक्र रह गई
कि खाता कैसे हूँ! 
जीता कैसे हूँ तुम्हारे बग़ैर
... क्यों नहीं पूछा?'
कुछ ही देर बाद
अंधेरे में आँखे गड़ाकर देखता हूँ
कोई देख तो नहीं रहा
कुछ नहीं सूझता
धीरे-से बत्ती जलाता हूँ
लगता है, तुम खड़ी थीं सिरहाने
खुद से ही कहता हूँ-
'कब तक यों ही खड़ी रहोगी
मैं आज सारी रात नहीं सोने वाला
इसी तरह कटती है हर रात।'
इस बार दोनों पत्र साथ ही उठाया
एक बात फिर याद नहीं कर पा रहा था
कि आने के लिए किसने लिखा है
कि 'देखने को मन करता है'
कई-कई बार छान मारा तुम्हारा पत्र
कहीं नहीं मिला
तो किसने लिखा ऐसा?
लिख ही कौन सकता है और?
हार कर
बाबूजी का पत्र उठाया
दूसरी ही पंक्ति थी-
"माँ बुला रही हैं
आ जाओ एक बार
तुम्हें देखने को मन करता है ।"
अजीब-सा अवसाद
छा जाता है मन पर
बुझा देता हूँ बत्ती
छुपा देता हूँ दोनों पत्र
तुमने क्यों नहीं लिखा आने को?
यही चाहती हो, कि नहीं आऊँ ?
अंधेरे में धीरे से कहता हूँ-
'अभी नहीं आऊँगा बाबूजी
छुट्टी नहीं है
ख़ूब जोरों पर है पढ़ाई।'
अंधेरा हँसता है मुझ पर
तकिए में मुँह गाड़ लेता हूँ
हिल रहा है पिंजर-पिंजर
रो रहा हूँ मैं
बँधा हुआ है गला
भर्रा रही है आवाज़
फिर भी चीख़ कर कहता हूँ -
'एक बार
तुम्हें देखने को मन करता है
आना चाहता हूँ मैं '
                         
                         विपिन कुमार शर्मा
                         जेएनयू, नई दिल्ली
                         
यह सुन्दर रचना "बया" के जून-नवम्बर 2008 के अंक में छपी थी। तब पढ़कर आनंद आ गया था। दो एक दिन पहले फिर से पढ़ी तो वही आनंद आया। सोचा चलो अपनी ब्लोग की दुनिया के साथियों को भी इस सुन्दर रचना से रुबरु करा दूँ। विपिन जी से अनुमति माँगी तो उन्होंने झटपट हाँ  कह दी और वादा किया कि कुछ और अच्छी रचनाए दूँगा आपको।  तो साथियों हो जाईए तैयार उनकी लिखी रचनाओं को पढ़ने के लिए।

Monday, February 2, 2009

बेटी की उम्र बढ़ने लगी है।

शुक्रवार को बैठे बैठे पत्नी की कही एक बात याद आ गई जो किसी दिन किसी बात पर कही गई थी कि " हे भगवान अगर बेटी दे तो धन भी दिया कर" इस बात में छिपा दर्द शब्द बनकर कलम से कागज पर उतर गया। पर भाव पूरी तरह से उभर नहीं पाए तो रंजू जी को याद किया गया और उन्हें वो तुकबंदी मेल कर दी गई। इस विनती के साथ कि अगर समय हो तो इसको अपने हाथों से तराश दें। फिर शाम को ईमेल चैक की तो वह तुकबंदी एक सुन्दर भावपूर्ण रचना में बदल चुकी थी। जो बात मैं कहना चाहता था वो बात यह रचना कह रही है इसलिए ज्यादा कुछ ना कहते हुए बस रंजू जी  को दिल से शुक्रिया।
     
बढ़ रही है बेटी की उम्र जैसे जैसे
ढ़लती उम्र के पिता की
कदमों की चाल तेज हो रही है
बढ़ती माँगो को देखकर
उतर रहे हैं माँ के तन से जेवर धीरे-धीरे
आँखो से बेबसी बयान हो रही है
तक रही है आसमान को
बेटी नि:शब्द होकर
भाई के हाथ
बहन को दे रहे हैं दिलासा
घर के कोने-कोने में
खामोशी जज्ब हो रही है
हँसता नही अब यहाँ
कोई खिलखिला कर
मुस्कान की भी जैसे
कीमत तय हो रही है
गूँजते है बस अब
कुछ ही लफ्ज़ घर में
"सो गए क्या?"
"नही तो"
यह ज़िंदगी बस अब यूँ
नाम की व्यतीत हो रही है

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails