Monday, June 29, 2009

पागल

पागल

ना जाने क्यूँ चिड़चिड़ाने लगा है
बात बात पर वो बड़बड़ाने लगा हैं।

बदलतें इंसानी रिश्तों को देखकर
किताबों में वो साथी तलाशने लगा है।

लोग दो और दो को पाँच बताते हैं
बचपन के कायदे को वो खोजने लगा है।

बढ़ती जिम्मेदारियों की तपिश में
कोयलें सा काला वो होने लगा है।

जिदंग़ी की इन सीधी टेढी राहों पर
मुस्कराना भी वो भूलने लगा है।

अब अपनी ही धुन में घूमने लगा है
कहते हैं कि वो पागल होने लगा है।

Monday, June 1, 2009

गली गली वह घूमता हैं।

कबाड़ी

चिड़ियों का अलार्म सुनकर
कूड़ॆ के ढेर में से वह उठता है।

डाल कंधे पर प्लास्टिक का बोरा
बिना खाये वह गली-गली घूमता है।

देख उसे कुत्ते भोंकते है
लोग नाक मुँह सिकोड़ते है।

कड़ी धूप हो या ठुठरती ठंड़
बोरे से अपना शरीर वह ढकता फिरता है।

जिन जगहों को देख हम मुँह पर रुमाल रखते है
ऐसी जगहों को देख वह मचल उठता है।

दोपहर बाद अपने घर की राह चलता है
करके बोरे को खाली वह गत्ते, प्लास्टिक और लोहे को छाँटता है।

बेचकर उस कबाड़ को कुछ रुपये कमाता है
घर आकर फिर वह चूल्हा सुलगाता है।

ना वो मोहन, ना वो हुसैन
ना वो बेदी, ना वो जोसफ कहलाता है
वो तो बस एक कबाड़ी पुकारा जाता है।

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