Thursday, July 31, 2008

प्रेमचंद जी का जन्मदिन

आज 31 जुलाई हैं। प्रेमचंद जी के जन्म का दिन। इसलिए आज उनकी याद में उनकी बातें करने का मन हैं। आप भी शामिल हो जाईऐ।

दक्षिण के एक हिन्दी-प्रेमी चन्द्रहासन, प्रेमचंद से मिलने काशी आये। पता लगाकर शाम के वक्त उनके मकान पर पहुँचे। बाहर थोड़ी देर ठहरकर खाँ-खूँ करने पर भी कोई नजर न आया तो दरवाजे पर आये और झाँककर भीतर कमरे में देखा। एक आदमी, जिसका चेहरा बड़ी-बड़ी मूँछो में खोया हुआ-सा था, फर्श पर बैठकर तन्मय भाव से कुछ लिख रहा था। आगंतुक ने सोचा, प्रेमचंदजी शायद इसी आदमी को बोलकर लिखाते होंगे। आगे बढ़कर कहा- मैं प्रेमचंदजी से मिलना चाहता हूँ। उस आदमी ने झट नज़र उठाकर ताज्जुब से आगंतुक की ओर देखा, क़लम रख दी, और ठहाका लगाकर हँसते हुए कहा- खड़े-खड़ॆ मुलाक़ात करेंगे क्या। बैठिए और मुलाक़ात कीजिए .......

बस्ती के ताराशंकर 'नाशाद' मुंशीजी से मिलने लखनऊ पहुँचे। उन दिनों वह अमीनुद्दौला पार्क के सामने एक मकान में रहते थे। मकान के नीचे ही 'नाशाद' साहब को एक आदमी मिला, धोती-बनियान पहने। 'नाशाद' ने उससे पूछा- मुंशी प्रेमचंद कहाँ रहते हैं, आप बतला सकते हैं ? उस आदमी ने कहा - चलिए, मैं आपको उनसे मिला दूँ। वह आदमी आगे-आगे चला, 'नाशाद' पीछे-पीछे। ऊपर पहुँचकर उस आदमी ने 'नाशाद' को बैठने के लिए कहा और अंदर चला गया। ज़रा देर बाद कुर्ता पहनकर निकला और बोला- अब आप प्रेमचंद से बात कर रहे हैं ............

ऐसे थे प्रेमचंद । ये दोनो घटनाऐ किताब "कलम का सिपाही - लेखक अमृतराय" से ली गई हैं। और ऊपर दिया फोटो सहमत से साभार हैं।

Tuesday, July 29, 2008

मेरी सखी

जब यह बोलती हैं
हर भाषा की मिसरी कान में घोलती हैं।


घर इसका छोटा सा
जहाँ गंगा यमुना सरस्वती की संस्कृति बहती मिलती हैं।


जब माँगे कोई इससे रहने का आसरा
बिना परवाह दे देती दो रोटी का जुगाड़ भी।


जब हो आपको अपने घर के खाने की इच्छा
तब वह आपके घर के खाने की महक अपने हाथों से परोसती हैं।


ना पुराने, ना नये ख्यालों का लिबास पहनती हैं
जो अच्छा लगा वही पहने घूमती हैं।


कभी कभी भय के साये में डरी सी रहती हैं
पर मुसीबत आने पर वीरों सा मुकाबला वह करती हैं।


इसलिए
मेरी दिल्ली
मेरे से रुठती नहीं
मुझसे छूटती नहीं।



मैं पहले अपने बचपन की दिल्ली को आपसे रुबरु कराना चाहता था। अपने बचपन के दिनों की दिल्ली की गलियों में घूमा। उन्हें एक तस्वीर में ढालने लगा पर ढाल नही पाया। फिर किसी दिन ऐसे ही एक दिन दो लाईन पता नहीं कहाँ से जहन में आ गई।

मेरी दिल्ली
मेरे से रुठती नहीं
मुझसे छूटती नहीं।

बस यह तुकबंदी बन गई। आप ही बताऐ कैसी लगी।

Wednesday, July 23, 2008

मेरा शहर

इस शहर को ना जाने क्या होने लगा हैं

छोटी-छोटी बात पर अपना आपा खोने लगा हैं ।


जिधर देखो आदमी के चेहरे ही चेहरे

फिर ना जाने क्यों आदमी अकेला होने लगा हैं।


जिसे देखो वही आईना दिखा रहा

फिर ना जाने क्यों अपना चेहरा छुपा रहा।


हर मोड़ पर आँशू पोछंने वाले मिल जाऐंगे

फिर ना जाने क्यों इसका भी दाम वसूला जा रहा।


चारों तरफ बाबाओं के प्रवचन ही प्रवचन गूंज रहे

फिर ना जाने क्यों ताकतवर कमजोर को मसल रहा।

Wednesday, July 16, 2008

जीवन का एक लम्हा

कभी कभी जीवन में ऐसा भी लम्हा आता हैं

"खुशी" सामने बाहें फैलाऐ खड़ी होती हैं

आदमी खुलकर उसे गले लगा नही पाता हैं

दिल खुश हो झूमने को कहता हैं

पर दिमाग झट से हाथ पकड़ लेता हैं

दिल और दिमाग के इन अहसासों में

वो खुशी का लम्हा कहीं दब कर रह जाता हैं ।

Tuesday, July 8, 2008

चूहे और कौए का संघर्ष

चूहा और कौआ

फंसा चूहा कौए की चोंच में
चूहे के लिए
एक तरफ पहाड़, दूसरी तरफ खाई
बीच में अस्तिव की लड़ाई
चूहा छटपटाता
झटके मार पूंछ को चोंच से निकालता
पर फिर से फंस जाता
तभी
समय ने ली एक करवट
गुजरा वहाँ से एक परिंदा
चूहे पर आई उसको दया
लगा भगाने वो कौए को
पर कौआ था बलशाली
पीछे हटता एक कदम
आगे बढ़ता दो कदम
चूहा लहूलुहान हो गया
सोचा चूहे ने अब तो बस मौत
परिंदा फिर भागा कौए की तरफ
मौका देख चूहे ने फिर से की एक कोशिश
गिरता पड़ता चूहा पहुँचा अपने बिल
जीवन यही हैं
संघर्ष करते जाना
अपना अस्तिव बचाना


ऊपर दी गई फोटो www.mikejewel.com से ली गई हैं। जिन्होने ये फोटो ली उनका नाम Micheal .C. Jewel हैं जोकि Marylanda , USA में रहते हैं। इस तुंकबदी को और जीवंत दिखाने के लिए मुझे लगा ये फोटो लगा दूँ । इसके लिए Micheal .C. Jewel जी का बहुत शुक्रिया।


Monday, July 7, 2008

मैं नहीं जानता मेरी कौन थी वो ?

मेरी कौन थी वो


मैं नहीं जानता कौन थी वो
क्या रिश्ता था मेरा उसका ।


समझ नहीं आता, जान नहीं पाता
किसी भी एक रिश्ते में ढाल नही पाता ।


किसी दिन जब मैं उससे रुठ जाता
दोस्त बन अपने कान पकड़ मनाया करती थी वो ।


जब मैं जीवन से निराश होता भविष्य से उदास होता
मैडम बन जीवन से लड़ना सिखाती थी वो ।


कभी कभी आँखें बंद करने को कहती
प्रेमिका बन गाल पर अपने होंठ रख छोड़ भाग जाया करती थी वो ।


कभी कभी गुड्डे गुड़िया का खेल खेलने का मन करता था
पत्नी बन रख गोद में सिर मेरा, बना बालों को काले बादल, मेरे तपते चेहरे पर जम कर बरसा करती थी वो ।


भूख लगती थी जब मुझे जोरों से
माँ बन अपने हाथों से रोटी बना खिलाती थी वो



जब भी मुझे किताबें लाने के लिए पैसे की कमी पड़ जाती
पिता बन टयूशन पढ़ाकर कमाये पैसों में से पैसे दिया करती थी वो



मैं कहता था हर रिश्ता जीना है तेरे साथ
इसलिए हर रिश्ता निभाती थी वो


मगर

दार्शनिक बन एक दिन बोली " अपना जीवन अपना नहीं दूसरों का भी होता हैं "
मैं देख रहा था किसी अनहोनी को उसकी सुजी हुई लाल आँखो में ।

बेटी बन फिर वो बोली " मैं दूर कहाँ जा रही हूँ यही हूँ तुम्हारे पास, जब बुलाओगे दोड़ी चली आऊँगी "
मैं बुला ना सका
वह लौट कर आ ना सकी ।






Thursday, July 3, 2008

बुढ़ापा हमारा तुम्हारा

बुढ़ापा

गुम-सुम सा बैठा सोचता वह रहता हैं
हाथ की लकीरों में अतीत को वह देखता रहता हैं

चेहरे की झुर्रीयों में मुस्कान उसकी कहीं छिप जाती हैं
सांसो की धड़कनों में दिल की बात उसकी कहीं रुक जाती हैं

स्कूल जाते बच्चों में अपना चेहरा वह ढूढ़ता हैं
चिडियों की चहचाहटों में मन उसका उछलने को करता हैं

जो मिला खाया पीया पहना, वह करता है
कभी कभी बच्चों सी फरमाईश भी वह करता हैं

उठता हैं चलता हैं रुकता हैं फिर से चलता हैं
कांपते हाथों से चीजें बड़े करीने से वह रखता हैं

जो कभी करता था अपने मन की
आज सपनो को तकिये के नीचे छुपाया वह करता हैं

एक छोटे से कमरे में बैठा अपनो की वह राह तकता हैं
फिर भगवान से भावुक हो कर गिले शिकवे खूब वह करता हैं

जब नींद नही आती उसकी आँखो में
तब रात को उठ-उठ कर बैठा वह करता हैं



Tuesday, July 1, 2008

बड़ी होती हमारी नैना

हमारी नैना


हमारी नैना बड़ी होने लगी हैं
छोटे छोटे पैरों से दोड़ने लगी हैं |

सुबह जब उठती हैं फूल सी हसंती हैं
अम्मा, बाबा, मम्मा, पप्पा, चाचू, बुआ को मार आवाजें सारे घर में घूमती फिरती है |

जब नहाने की करों बात तो रोनी सी सूरत बना लेती हैं
नहा-धो कपड़े पहन जब वह आती हैं परी सी वह दिखती हैं |

शब्दों को सही सही बोल नही पाती हैं
पर इशारों में सब समझाती जाती हैं |

अपनी जानवरों की किताब में सब जानवरों को वह पहचानती हैं
पूछने पर उंगली रख वह हम सबको बतलाती हैं |

घूमने की शौकिन झट पी पी करती मोटरसाईकिल पर चढ़ जाती हैं
सबको बाय बाय बोल टाटा करती जाती हैं |

जब कभी कोई उसे हल्का सा भी डांट देता हैं
तब उसकी आँखो से छोटे छोटे मोती टपकने लगते हैं|

कभी कभी मुझे उठा कुर्सी से, खुद को बैठाने का इशारा वह करती हैं
एक हाथ से माऊस पकड़, दूसरे हाथ की उगंलियों कीबोर्ड पर वह चलाती हैं|

आलती पालती मार जब वह खाने बैठती हैं
अपने खाने में से हमें भी वह थोड़ा थोड़ा देती हैं |

जब वह थक जाती हैं तब इशारे से मम्मा को बताती हैं
रख कंधे पर सिर अपना झट से वह सो जाती हैं |




आप अगर मेरी पहली तुकबंदी पढ़ना चाहते जो मैने हमारी नैना के इस दुनिया में आने के बाद की थी तो नीचे दिये लिंक पर क्लीक कर सकते हैं। मैं चाहूंगा कि आप उसे भी पढ़े। पीछे खड़ी नैना की मम्मा कहती कि बताना हमारी बेटी कैसी हैं।

हमारी बेटी
http://meri-talash.blogspot.com/2008/02/blog-post.html#links

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