इनाम की आस यूँ पूरी होगी सोचा ना था।
" जब मैं पांचवी जमात में था, हमारे गाँव में संत रविदास का जन्म समागम किया गया। मैंने गीत लिखा और संगत को सुनाया। चाचा बेला सिंह ने एक रुपया निकाला। लाला जी ने रोक दिया। बटुए से पाँच का नोट निकाला और कहा: " अगर इनाम देना ही है तो ये पाँच रुपए पकड़ा।" ( साभार-नाट्य कला और मेरा तजुरबा-चरणदास सिंद्धू)
" जब मैं पांचवी जमात में था, हमारे गाँव में संत रविदास का जन्म समागम किया गया। मैंने गीत लिखा और संगत को सुनाया। चाचा बेला सिंह ने एक रुपया निकाला। लाला जी ने रोक दिया। बटुए से पाँच का नोट निकाला और कहा: " अगर इनाम देना ही है तो ये पाँच रुपए पकड़ा।" ( साभार-नाट्य कला और मेरा तजुरबा-चरणदास सिंद्धू)
ठीक इससे मिलता जुलता दृश्य फिर हँसराज कालेज में घटा। फर्क इतना था कि इनाम स्वरुप पाँच रुपये लेने वाला वो लड़का आज प्रोफेसर एंव नाटककार बन अपने शिष्य की जानदार एक्टिंग देखकर इनाम के तौर पर पाँच सौ रुपए दे रहा था और शिष्य याद के लिए बस छोटा नोट माँग रहा था। मैं पहले वाले दृश्य को किताब में कई बार पढ़ चुका था और दूसरे दृश्य को अपने सामने घटते हुए देख रहा था। साथ ही मन ही मन में सोच रहा था वो दिन कब आऐगा जब सिंद्धू सर मुझे मेरे किसी काम पर खुश होकर इनाम स्वरुप कुछ देंगे? उसके बाद जब मैंने लिखना शुरु किया तो लगा अब मेरी मुराद पूरी हो जाऐगी। मैं अपनी तरफ से अच्छा खराब लिखता रहा, डाक से उन्हें भेजता रहा और कभी-कभी सुनाता भी रहा। इसकी एवज में मुझे शाबासी जरुर मिलती किंतु इनाम नही मिलता। जिसकी मुझे चाह थी। लेकिन पिछले दिनों जब सिंधू सर के घर जाना हुआ तो सर ने बताया कि तेरी एक रचना जो तूने मुझ पर लिखी हैं, मैंने अपनी आने वाली किताब- "नाटककार चरणदास सिद्धू : शब्द चित्र" में शामिल कर ली हैं। सुनकर बहुत खुशी हुई। मन ही मन में सोचने लगा कि, जिस इनाम की बरसों से आस थी वो दूसरे रुप में मुझे आज मिल गया हैं। अगर यूँ कहूँ कि यह तो किसी प्रकार के इनाम से कई गुना ज्यादा बड़ा इनाम हैं तो अनुचित नहीं होगा। और यदि इनाम सरप्राइज जैसा हो तो आश्रर्यमिश्रित खुशी चौगुनी हो उठती है। जब उनकी यह किताब मेरे हाथ में आई तो एक अलग ही सुखद अहसास हुआ। लगता है आपका होना, आपका लिखना सबकुछ साकार हो गया। सार्थक हो गया। मैं किस लायक हूँ यह तो आज भी मुझे नही पता किंतु अपने गुरु के पन्नों पर जब अपना नाम देखता हूँ तो लगता है, हाँ मेरा एक अस्तित्व है जिसे मेरे गुरु ने आशीर्वाद देकर फला है। वैसे ऐसे कुछ विशेष पल होते हैं जिन्हें शब्दों में बयान करना मुश्किल होता है, इसलिए ज्यादा कुछ न कहते हुए बस उस रचना को लिख रहा हूँ जिसे मेरे गुरु ने अपनी पुस्तक में स्थान देकर मुझे अनुग्रहित किया है।
बूझो तो उसका नाम देखो वह सांवला जोशीला पहने सादी पेंट और जिस पर सफेद कमीज़ आंखो पर पहने मोटा चश्मा और पैरों में कपड़ॆ के जूते कंधे पर डाले झोला वह कौन? मस्त, मनमोहक चाल से चला जाता बूझो तो उसका नाम। लोग, कहते कि, वह कालेज में बच्चों को इंग्लिश पढ़ाता पर बच्चे कहते कि, वह हमें जीवन जीना सिखाता बुद्धिजीवी कहते कि, वह चार चार भाषाएं जानता। पर कामगार कहते कि, वह हमारी बोलियाँ बोलता। वह कौन? मस्त, मनमोहक चाल से चला जाता बूझो तो उसका नाम। कहते हैं कि, वह रुप बदल बदल, गाँव-गाँव इंसानी कहानी की तलाश में घूमता फिरता। पर किसान कहते कि, वह गौतम बुद्ध, जीवन के रहस्य की खोज में। कहानीकार कहते हैं कि, वह कहानियों को स्टेज पर जीवित करता। पर दर्शक कहते कि, शहीद भगत, बाबा बंतू, भजनो, किरपा, सत्यदेव, चन्नो, शंकर, कमला और लेखू को देख रोया करता। वह कौन? मस्त, मनमोहक चाल से चला जात बूझो तो उसका नाम। उसके दोस्त बोले, घर उसका सादा -सा, कमरा उसका आधा-सा, पर पड़ोसी बोले, घर के बाहर लगी लकड़ी की एक प्लेट, जो बोले: "नेता, भिखारी, हाकिमों का, यहाँ न कोई गेट।" धर्मानुयाई कहते फिरते कि, वह किसी धर्म को नहीं मानता। पर कोई चुपके से कहता कि, वह नफरत को नहीं मानता। आलोचक कहते: इसमें भी हैं दोष। पर दूर कहीं से आई एक आवाज़ मैं नहीं हूँ कोई भगवान, मैं तो हूँ बस, एक इंसान! वह कौन ? मस्त, मनमोहक चाल से चला जाता बूझो तो उसका नाम। |
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