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Tuesday, January 14, 2025

यादें सर्दियों की...

टाइफाइड बुखार तो उतर गया लेकिन शरीर ऐसा हो गया है कि कमबख्त ठंड ऐसे सता रही है कि कुछ देर कंबल रजाई से बाहर रहने पर ठंड से सिर और छाती में दर्द-सा महसूस होता है. पैर बर्फ-से हो जाते हैं. और फिर पैर सीधे कंबल-रजाई की तरफ दौड़ जाते हैं! कंबल-रजाई में घुसे-घुसे किताब पढ़ने की सोचो तो चश्मा साथ नहीं देता. अक्षर धुंधले हो जाते हैं. फिर हाथ से किताब की दूरी को बढ़ाता हूं तो अक्षर कुछ-कुछ पढ़ने लायक हो पाते हैं लेकिन फिर हाथ जवाब दे जाते हैं. मोबाइल पर कुछ देर कुछ देखो-दाखो तो उसकी बैटरी बोल जाती है. आखिर एक आदमी कब तक कंबल-रजाई में पड़ा रहे. सच में इस ठंड ने उस एक आदमी का बुरा हाल कर रखा, जो कभी इस ठंड को इतना प्यार करता था कि मन ही मन सवाल करता था कि यार ये ठंड इतने कम दिन क्यूं रहती है?

कल रात रजाई में लेटे-लेटे सोच रहा था कि सर्दियों के वो भी क्या दिन थे. जब रूपनगर के स्कूल की सुबह की प्रार्थना में तू ही एक अकेला ही ऐसा लड़का होता था, जो सफ़ेद कमीज में नजर आता था. जैसे आजकल राहुल गांधी एक टी-शर्ट में नजर आते हैं! जैसे आजकल राहुल गांधी की टी-शर्ट की चर्चा हो रही है. ठीक वैसे ही उस वक्त स्कूल में तेरी कमीज की चर्चा हुआ करती थी. वो अलग बात है टीचर इस बात पर डांट भी दिया करते थे. मेरे क्लास टीचर 'जाट' ( हम उन्हें जाट ही कहते थे. जैसे एक दूसरे टीचर को बाऊ. बाऊ वाला किस्सा भी बहुत मजेदार है. शायद उसके बारे में तो मैंने लिखा भी है.) अक्सर कहते थे वो छोकरे कभी तो स्वेटर-जर्सी पहन आया कर. एक दिन वे बोले,'कल कमीज में नजर नहीं आना चाहिए.' एक दो बार प्रिंसिपल साहब ने भी टोका था. और मैं था कि स्कूल में कमीज में ही नजर आता था. 

बात दरअसल कुछ यूं थी. स्कूल में नीली जर्सी या स्वेटर लगा हुआ था, जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं था. तो मैं घर से दूसरे रंग का स्वेटर या जर्सी पहन कर निकलता था और स्कूल में उसे निकालकर डेस्क में डाल देता था. और ठंड से बचने के लिए कमीज के नीचे गर्म बनियान तो पहना ही करता था. और शायद कमीज के नीचे ही एक पतला स्वेटर भी पहना करता था. और मफलर तो था ही! जिससे सिर्फ कान और नाक ढंका करता था. सिर नहीं क्योंकि तब मेरे सिर पर बाल हुआ करते थे! और कभी जब ज्यादा ठंड होती थी तो क्लास में वो दूसरे रंग स्वेटर को पहन लिया करता था. और टीचर के आते उसे झट से उतार दिया करता था.

मुझे अच्छी तरह याद है. रूपनगर के स्कूली दिनों में हम बस से स्कूल जाया करते थे. या तो 234 नंबर  बस लेते थे. या फिर कभी बालकराम से 108 नंबर बस. लेकिन ज्यादातर हम किसी भी बस से माल रोड तक पहुंच जाते थे. और फिर माल रोड जहां से 212 नंबर बस आती है वहां से शायद 365 नंबर बस लिया करते थे. उस बस कई किस्से हैं. (उस बस के कंडक्टर जैसा दूसरा कंडक्टर मैंने आजतक नहीं देखा. कॉलेज के लड़कों  के पास बस पास ना होने पर वे बस रुकवाकर छात्र को बीच रोड़ पर उतार देते थे.अक्सर मैंने उन्हें छात्रों से  भिडते  हुए देखता था.) 

कभी-कभी जब अच्छा-खासा कोहरा होता था. तब मेरा मन माल रोड़ से पैदल ही स्कूल जाने को करता था. उस कोहरे में पैदल चलने का अलग ही आनंद होता था. मैं दोस्त से कहता था कि यार आज पैदल ही निकल पड़ते हैं. तो वो कहता था,'पागल हो गया है क्या तू. इतनी ठंड और कोहरे में कोई पैदल चलता है क्या!'  मैं बोलता था,'तुझे चलना है तो बता वरना मैं ही अकेले ही निकल जाता हूं.'और वो फिर मेरा साथ देता हुआ. साथ-साथ चलने लगता था. 

नाक और कान को मफलर से ढककर. हाथों को जेबों में डालकर. बोंटा पार्क के सामने से दिल्ली यूनिवर्सिटी के गेट से अंदर-अंदर चलते हुए. अब तो याद भी नहीं कि रास्ते में क्या-क्या पड़ता था. क्या-क्या मिलता है. शायद साइंस ब्लाक मिलता था. कुछ प्रोफेसर के घर मिलते थे. एक होस्टल भी मिला करता था. और फिर इन सबसे होते हुए हम आर्ट फैकल्टी वाली रोड से मोरिस नगर का स्टैंड से होते हुए स्कूल पहुंचते थे. पूरे रास्ते भर दोनों दोस्त दुनिया जहां की बातें किया करते थे. अब आप सोच रहे होंगे कि जब माल रोड से रूपनगर पैदल जाते थे तो फिर घर से कब निकलते थे. दरअसल हमारे घर के पास जो बस स्टैंड था. उस पर सुबह स्कूल टाइम पर इतनी भीड़ हो जाती थी कि उस वक्त बस पर चढ़ना मुश्किल होता था. और ऐसा ही मोरिस नगर के स्टैंड पर होता था स्कूल की छुट्टी होने के बाद. हम दोनों का फैसला था कि समय से पहले स्कूल पहुँचना और स्कूल से समय से पहले ही निकल जाना. यानि लास्ट पीरियड को छोड़ देना. कभी स्कूल में सख्ती होती थी तो अलग बात है. वरना तो ऐसा ही चलता था. 

सर्दियों से याद आया. हम दोनों सर्दियों में एक शरारत किया करते थे. जब कोई दोस्त बातों में व्यस्त होता था तो हम पीछे से जाकर उसके एक हिप पर दो उंगली से ऐसे मारा करते थे कि सामने वाला दोस्त 'ओ तेरी, ओ तेरी या फिर गाली देता' हुआ उछलने लगता था. जितनी ज्यादा ठंड होती थी उन दो उंगलियों के चोट उतनी ही ज्यादा लगा करती थी. और मैं था कि पेंट के नीचे गर्म पजामी पहनकर आया करता था. बस 'ओ तेरी' करके ही रह जाता था, गाली कभी नहीं निकली!!

Monday, December 2, 2024

'तू' और 'आप' की कहानी

 

एक बार बेटी ने कहा था..

पापाजी आपने मेरी 'आप-आप' कहकर आदत खराब कर दी.

क्यूं भई. क्या हुआ?

पता है. अब कोई मुझे 'तू' बोलता है तो अच्छा नहीं लगता! 


तब यह बात मैंने यूं ही हंसी-हंसी में सुनी-अनसुनी कर दी थी. लेकिन पिछले दिनों एक दोस्त के साथ एक वाक्य घटा देखा-सुना तो यह बात याद हो आई. 


दरअसल पिछले दिनों जब वह (मेरा दोस्त) अपने दोस्तों से मिलने जा रहा था. तो अपने एक दोस्त के घर के पास से जानबूझकर गुजरा कि क्या पता उसका उसके दोस्त से आमना-सामना हो जाए. क्योंकि पिछले कुछ सालों से उसकी राहें और उसके दोस्त की राहें अलहदा-अलहदा हो गई थीं. राहें बेशक अलग-अलग हो गई थीं लेकिन शायद 'कुछ था' जो उसे और उसके दोस्त को जोड़े हुए था. वैसे भी उन दोनों के बीच 32 साल पुरानी दोस्ती जो थी. और इसी 'कुछ' की वजह से जब-जब भी उसके दिल से मुलाक़ात की आवाज निकलती. तब-तब बेशक उन दोनों मुलाकात ना हो पाती हो लेकिन आमना-सामना तो हो ही जाता था. और उसे इसी बात से सुकून मिल जाता था कि वो ठीक है. स्वस्थ है.


और इस बार उसकी मुलाकात उसके दोस्त से हो गई थी. वो दोनों के कॉमन दोस्तों के बीच खड़ा था. उसका दोस्त आया और सबसे हाथ मिलाता रहा. जब उससे हाथ मिलाने की बारी आई तो उसके दोस्त का हाथ उससे हाथ मिलाने को बढ़ा ही नहीं. शायद कोई वजह रही होगी. कोई गिला रहा होगा.


खैर उसने यह बात कहकर बात को आगे बढ़ाया कि ' क्या बात जो मेरे से हाथ नहीं मिलाया.


' खैर उसके दोस्त का हाथ बढ़ा. यह कहते हुए कि ''आप' लोग तो वीआइपी हो. बड़े लोग हो. 'आप' लोगों से मैं कहां हाथ मिला सकता हूं.' 


'आप' शब्द की ध्वनि उसके कानों में से ऐसे गुजरी जैसे किसी ने उसे कुछ भला-बुरा कह दिया हो. या फिर किसी ने उसके दिल पर चोट कर दी हो. वो 'आप' शब्द की टिस लिए अपने दोस्त से बोल उठा कि 'मैं तेरे लिए कब से 'आप' हो गया.

' उसका दोस्त बोला,' जब से मुझे दुनियादारी की समझ आ गई है.


' वो कटाक्ष पर कटाक्ष सुनता रहा और अंदर ही अंदर बिलखता रहा. और फिर जब उससे रहा नहीं गया तो एक साइड होकर आसमां की तरफ देखता रहा. शायद दोस्ती के पुराने दिनों को याद कर मानो बोल रहा हो,'दोस्ती क्या सिर्फ लेन-देन से होती है! यानि जब तक एक दूसरे के काम आते रहो, एक हाथ दो, दूसरे हाथ लेते रहो.या फिर दूसरे हाथ से लेते रहो, पहले हाथ से देते रहो तो ठीक वरना एक बार साथ ना दे पाओ तो दोस्ती टूट जाती है!' 


खैर अपने मन को हल्का कर वो फिर से ग्रुप में शामिल हो गया. हम सब हंस बोल रहे थे. वो अब गूंगा-सा बिना बोले ही हम सबकी बातें सुनता रहा. और जब चलने यानि विदा होने की बारी आई तो उसके दोस्त ने अबकी बार भी सबसे हाथ मिलाया सिवाय इसके. और उसका दोस्त बायं राह की तरफ मुड़ गया. और ये मेरे साथ हाथ ना मिलाने की टिस लिए दाएं राह की तरफ चल दिया. 


और मैं यह सब लिखते हुए सोच रहा हूं कि  जीवन के रंग कितने अजीब होते हैं.  बेटी 'तू' कहने से परेशान थी. और मेरा दोस्त 'आप' कहने से परेशान है! 


Tuesday, March 12, 2024

बचपन का दोस्त और यादें

कभी कोई दोस्त अचानक से वर्षों बाद याद आ जाता है. याद आने के बाद मिलने या बात करने की तलब बेहद ज्यादा हो जाती है. लेकिन आपके पास ना उसका फोन नंबर होता है. और ना ही उसके घर का पता. बस तब आप मायूस होकर उसके साथ बिताए पुराने दिनों को याद करने लग जाते हैं.

खैर यह दोस्ती उन दिनों की है, जब सुबह-सुबह गली में ‘दही ले लो दही’ की आवाज लगाते दही बेचने वाले आया करते थे. उनके सिर पर कपड़े की इंडी जैसी कुछ हुआ करती थी. और उसके ऊपर पतले कपड़े से ढकी दही की हांडी. अब तो याद भी नहीं कि दही कितने रूपए किलो मिला करती थी. लेकिन दही बेहद स्वादिष्ट हुआ करती थी. उसके स्वाद का कारण दही का मिट्टी की हांडी में जमना हुआ करता था.

फिर भरी दोपहरी में ‘कुल्फी वाले’ घंटी बजाते हुए अपनी रेहड़ी लेकर आते थे, उनकी रेहड़ी में कुल्फी के पास एक लोहे की चरखी लगी होती थी. जिसके बीच में अंक लिखे होते थे. बच्चे लोग उसे घूमाते थे. और कोई-कोई बच्चा ऐसे घुमाता था कि दो-दो कुल्फी पा जाता था. और कोई एक आध तीन भी पा जाता था. और मेरे जैसा तो हमेशा बस एक ही कुल्फी पाता था. उसी भरी दोपहरी में गली के नुक्कड़ पर एक ‘भूस की टाल पर ताश’ खेलने वालों का मजमा भी लगा रहता था. वहां अक्सर ताश का गेम 'सीप' खेला जाता था लेकिन कभी-कभी दहला पकड़ भी खेला जाता था. ताश के 'सीप' के खेल में हम भी कभी-कभी हाथ आजमा लिया करते थे.

खैर मैं बात दोस्त की कर रहा था. मुझे इस वक्त उसकी शादी से जुड़ी एक घटना की याद आ रही है. हल्की वाली सर्दियों में दोस्त की शादी थी. कैमरा वाला करना उनके लिए संभव नहीं था. लेकिन शादी की फोटो याद के लिए हो जाएं तो ये भी हम दोनों की इच्छा थी. इसलिए कैमरे की तलाश शुरू हुई कि किसी दोस्त के पास कोई छोटा-मोटा कैमरा हो तो उसे शादी में ले जाया जाए. खैर हमारे एक किराएदार थे. वे एक बैंक में काम करते थे. और वे उत्तराखंड के थे. उनके पास कैमरा था. वो भी रील वाला. तब रील वाले कैमरे ही हुआ करते थे ज्यादातर. लेकिन वे कैमरामैन नहीं बनना चाहते थे. तब आपां दोस्त के लिए कैमरामैन बन गए थे.  बात बस इतनी-सी नहीं है. जो बात मैं बताना चाहता हूं वो दूसरी है.

खैर फिर क्या था शादी के दिन नए कपड़े पहनकर आपां कैमरामैन हो गए. बारात लुटियंस दिल्ली में किसी एमपी के घर के पीछे बने घरों में जानी थी. कैमरे की रील सीमित मात्रा में खरीदी गई थीं. तो फोटो भी हमारे द्वारा भी कम लिए जा रहे थे. शायद तीन-चार रील ही खरीदी गई थीं. और उस वक्त एक रील में 32-36 के करीब फोटो आती थीं. लेकिन जब फेरे के समय की बारी आई तो रील कम पड़ गईं. जहां तक मुझे याद है बस एक रील ही बची थी. तब मैंने यह बात दोस्त को बताई और कहा कि अब मैं क्या करूं? अब तो रील भी खरीदी नहीं जा सकती. क्योंकि उन दिनों उस लुटियंस इलाके में कोई दुकान भी नहीं थी. तब उसने कहा था, जो तुझे करना है वो तू कर ले. और फिर फेरों के वक्त जिसे देखो वही कहे कि मेरी फोटो ले लो दूल्हे के साथ. मैं फोटो लेने से मना कर दूं या अनदेखा कर दूं तो लोग गुस्से से देखने लगें. या गुस्सा हो जाएं. तभी मुझे ख्याल आया कि ऐसा करता हूं कि खाली फ़्लैश मार देता हूं. किसे पता चलेगा कि फोटो ली है कि नहीं. और ट्रिक काम कर गई. फिर फेरे के समय जो फोटो जरुरी लगती उसकी फोटो ले लेता था वरना तो फ़्लैश से काम चला लेता था. लेकिन तभी कोई महिला फेरों के बीच ही बोली, ' यो कैमरा वाला हमारी फोटो नहीं लेता खाली फ़्लैश मारे है बस.' और मेरी पोल खुल गई. आजतक पता नहीं यह पोल खुली तो कैसे खुली. फिर बाद में ही लड़कों वालों की तरफ से बताया गया कि ये कोई कैमरा वाला नहीं है ये तो दूल्हे का दोस्त है!!

खैर अब यहां ना वो दोस्त है. ना ही अब यहां वो दही वाले या कुल्फी वाले आते हैं। और ना ही अब वो भूस की टाल है. यहां तो अब बस मैं हूं, ये मोहल्ला है. या फिर पुरानी यादें हैं!

Saturday, November 5, 2022

चलती बस में दिल्लीवालों को चढ़ने की आदत ना हो. ऐसा हो नहीं सकता- मनोज पाहवा

ऑफिस-ऑफिस वाले भाटिया जी की बात में दम है. पूछो कैसे. दरअसल हम तीन दोस्त थे. एक सिख थे. दूसरे जाट थे और तीसरा मैं. तीनों में किसी की भी आदत रुकी बस में चढ़ने की नहीं थी. दो साल तक रूपनगर के स्कूल जाना हुआ. याद नहीं कि कभी ये नियम टूटा हो. कई बार जब बस रुक भी जाती थी. और हम में कोई भीड़ की वजह उतर नहीं पाता तो वो अगले स्टैंड पर उतरता था. या फिर बस के चलने पर उतरता था. तब डीटीसी बसें तो हुआ करती थीं लेकिन तब तक रेड लाइन बसें आ गईं थी. उन बसों में स्कूल, कॉलेज के बच्चों का स्टाफ चला करता था. जैसे दिल्ली पुलिस वालों का चला करता था. स्टाफ भी स्टाइल से बोला जाता था. और एक मैं था स्टाफ बोलने में शर्म आती थी. इस बात पर दोनों  दोस्त मुझे डरपोक कहा करते थे. और हाँ उस वक्त के बच्चों की ये आदत हुआ करती थी कि बस के अंदर नहीं जाना. गेट पर ही लटककर जाना है और हर स्टैंड पर उतरना है. इस बात को लेकर कई बार कंडक्टर से लड़ाई भी हो जाया करती थी. कई बार बस के शीशे बच्चों का शिकार हो जाया करते थे. और कभी कंडक्टर!

खैर एक बार छुट्टी से पहले स्कूल को बंक करके हम तीनों घर जा रहे थे. हमेशा की तरह तीनों चढ़ती बस में ही चढ़े. ये याद नहीं कि बस 234 नंबर थी या फिर कोई और. लेकिन ये याद है वजीराबाद के आने से पहले हम दो ( मैं और सिख यार.) में शर्त लग गई कि बस को बिना छुए जो घर के स्टॉप तक जाएगा वो जीत जाएगा. डीटीसी बस खाली-सी थी. बस फिर क्या था. मैं पिछले गेट से थोड़ा पीछे खड़ा हो गया. तब डीटीसी की कुछ बसों में पीछे सीट नहीं हुआ करती थीं. पिछ्ला हिस्सा खाली हुआ करता था. सरदार जी मेरे से आगे. जाट यार अंपायर बने हुए थे. जैसे ही बस ने वजीराबाद पुल क्रॉस किया वैसे ही पता नहीं क्या हुआ. बस ड्राईवर ने एकदम से ब्रेक लगा दिए. और मैं बस के अंदर आगे-पीछे करते हुए ऐसे गिरा कि बस के सभी लोग हंसने लगे थे. मेरी सारी हेकड़ी निकल गई थी. और चेहरे पर 12 बज गए थे. 

[ पाहवा जी की बात सुनकर ये वाकया याद हो आया. सोचा याद के लिए लिख दूं. बाकी फोटो गूगल से ली गई है.]

Sunday, August 7, 2022

फ्रेंडशिप डे

एक हमारे 'जाट यार' थे. थे क्या अब भी हैं. बात स्कूल के दिनों की है. हमारी क्लास के एक दोस्त 'सरदार' भी थे. नाम था 'गुरुदर्शन सिंह'. हम तीनों ही अधिकतर बार '234 नंबर बस' से स्कूल आते थे. जोकि दिल्ली के 'लखनऊ रोड़' से निकलकर. 'खालसा कॉलेज' से होते हुए 'कर्मपुरा' जाती थी. लेकिन हम 'रूपनगर' वाले स्टैंड पर उतर जाते थे. अक्सर उन दोनों के बीच किसी ना किसी बात पर बहस हो जाती थी. बहस के बाद 'गुरुदर्शन सिंह' उसे 'और जाट, सोलह दुनी आठ' कहकर चिढ़ाता था. और 'जाट यार' उसे 'दूरदर्शन' कहकर चिढ़ाता था. 'गुरुदर्शन सिंह' का साथ 12 क्लास के बाद छूट गया. लेकिन 'जाट' यार बनकर जुड़े रहे. अभी तक जुड़े हुए हैं.


धीरे-धीरे हम बड़े होते गए. 'जाट यार' अब चौधरी हो चुके थे. लोग उन्हें अब चौधरी साहब कहने लगे थे. और एक मैं था कि लोग 'गुर्जर' भी नहीं मनाते थे! गुर्जर दोस्त कहते थे कि साले तू तो हमारी गुर्जर कौम पर कलंक है! खैर चौधरी से एक किस्सा याद हो आया. इस किस्से के आपां साक्षी नहीं हैं लेकिन है सच.

किस्सा कुछ यूं है. 'जाट यार' की दोस्त मंडली में से किसी को पैसे की जरुरत आन पड़ी. वो 'जाट यार' के दूसरे साथी के पास आकर कहने लगा कि इतने पैसे की जरुरत है. अगर हो सके तो दे दो. मैं कुछ दिन में लौटा दूंगा. लेकिन जिससे पैसे मांगे जा रहे थे उसके पास पैसे नहीं थे. उसने मना कर दिया. परंतु पैसे मांगने वाले को एक रास्ता सूझा दिया कि चौधरी साहब से मांगकर देख ले. उसके पास होंगे. तो दे देगा. अगर नहीं होंगे तो भी वो किसी से मांग कर तेरी जरुरत पूरी कर देगा. लेकिन ये ध्यान रखियो. 'नाम लेकर या भाई कुछ पैसे चाहिए.' कहकर पैसे मत मांग लेना. और अगर तू ये कहेगा कि चौधरी साहब कुछ पैसों की जरुरत है. कैसे भी करके पैसे चाहिए. तो वो कहीं से भी पैसे लाकर दे देगा. उस लड़के ने वैसा ही किया. हमारे 'जाट यार' को चौधरी साहब सुनना अच्छा लगता था. 'जाट यार' चौधरी साहब कहने पर पिघल गए और उसे किसी से पैसे उधार लेकर दे दिए. और उसका काम बन गया. ऐसे थे हमारे 'जाट यार.'

एक और किस्सा है उस 'जाट यार' का. जिसका मैं खुद साक्षी रहा हूं. दरअसल हुआ कुछ यूं कि एक मेरे दोस्त हैं. पैरों से चल नहीं सकते तो चार पहिए की गाड़ी का इस्तेमाल करते हैं. एक वक्त था जब उनके पास अच्छा खासा पैसा हुआ करता था. पिता जी की अच्छी खासी सैलरी थी. घर से बिज़नेस भी कर रहे थे. लेकिन फिर इनके पिताजी की एक एक्सीडेंट में मौत हो गई. और बिज़नेस भी खत्म हो गया. किराए से घर चल रहा था. खैर! एक दिन हुआ कुछ यूं कि इनके जीजा जी की भी मौत हो गई. खबर लगने पर मैं उनके घर गया. पता लगा इनकी जेब में पैसे नहीं. ये करें तो क्या करें. मैंने अपनी जेब टटोली तो उसमें भी कुछ ज्यादा पैसे नहीं. खैर जाट यार को फोन किया गया. वे मेरी वजह से इन्हें जानते पहचानते थे. दोस्त जैसा संबध तो नहीं कह सकते लेकिन दोनों के बीच दुआ-सलाम तो थी ही. उसे फोन कर बताया कि यार ऐसे-ऐसे हो गया. क्या किया जाए? तब उसने कहा था ' मुझे पता है तू चाहकर भी उसकी हेल्प नहीं कर सकता क्योंकि तेरे हालात मैं जानता हूं. लेकिन मैं कुछ करता हूं...तू एक काम कर. मुझे आधे घंटे बाद तू फलां जगह मिल. मैं आधे घंटे बाद उस जगह पहुंच गया. वो अपनी सदाबहार सवारी 'बुलेट' पर बिना हेलमेट लगाए आया. और बोला,' ये पांच हजार रुपए हैं. तू उसे अपने नाम से दे दे. जब उसके पास होंगे तब दे देगा.' और जाट यार पैसे देकर चला गया. मैंने वो पैसे उसके नाम ही से उस दोस्त को दे दिए. आज इतने साल बीत गए. उस दोस्त ने वो पैसे अभी तक दिए नहीं. और इस 'जाट यार' ने आजतक मुझसे मांगे नहीं. सुना है आज फ्रेंडशिप डे है!
 

Tuesday, June 1, 2021

तेरे जैसा यार कहां...

कुछ दोस्त साथ छूटते ही हाथ छोड़कर निकल जाते हैं. अनेक दोस्त साथ छूटने पर बीच-बीच में संपर्क बनाए रहते हैं. लेकिन कुछ दोस्त ऐसे भी होते हैं जिनका साथ भी छूट जाता है, हाथ भी छूट जाता है और संपर्क भी टूट जाता है परंतु वे याद हर दिन आते हैं. कमबख्त जिस दिन याद नहीं आते, सपने में चले आते हैं. कुछ तो ऐसा होता है, जिस वजह से वे याद आते हैं. ऐसा ही 'कुछ' था उसमें जो वो इतना याद आता है. अब आप कहेंगे कि भई तेरे जैसा होगा. इसलिए याद आ जाता है. अरे भई नहीं. वो मेरे जैसा नहीं था. वो तो मेरा उल्टा था. वो धरती था तो मैं आसमान. वो दिन था तो मैं रात. भारी असमानताओं के बाद भी हम दोस्त बने रहे. सालों साथ-साथ हाथ पकड़कर दोस्ती की राह पर चलते रहे. हम दोनों की मुलाकात स्कूल में हुई थी. यह मुझे शुरू में पसंद नहीं आया था. दरअसल बदमाशी का शौक पाले थे जनाब. जैसा उस उम्र में कुछ लड़कों के साथ हो जाता है. हाथ में कड़ा या उंगली में नुकली अंगूठी इसलिए नहीं पहनते थे कि इसका इन्हें शौक था बल्कि इसलिए कि किसी से लड़ाई हो जाए तो उसका थोबड़ा बिगाड़ने के काम में आ जाए. एक हम थे लड़ाई-वड़ाई से कोसों दूर लेकिन ना जाने फिर ऐसा क्या कुछ हुआ कि दोस्ती हो गई. दोस्ती भी ऐसी कि स्कूल में बच्चे हमारी दोस्ती की मिशाले देते थे. कोई जय-वीरू कहता था कोई कुछ और. एक बार तो क्लास के एक लड़के ने कहा, 'यार ये तुम्हारी दोस्ती तो ठीक है. लेकिन तुम दोनों को एक साथ पेशाब कैसे आ जाता है? एक साथ प्यास कैसे लग जाती. एक साथ भूख कैसे लग जाती है? दरअसल कुछ ऐसा नहीं था बस एक दूसरे का साथ देना था. जब दो इंसान एक दूसरे का साथ देने लगते हैं तो एक पुल-सा बन जाता है, फिर चाहे उस पुल को दोस्ती का नाम दे लो, या किसी रिश्ते का.

Monday, June 21, 2010

बम्बई वाला मेरा दोस्त

कुछ इंसान यूँ मिलते हैं कि उस नीली छतरी वाले की तरफ मुँह उठाकर पूछना पड़ता हैं कि यार गज़ब खेल है तुम्हारा। और फिर उस इंसान से ऐसा तालमेल बैठता है कि आप याद करें या वो, मोबाइल की घंटी बज ही उठती हैं। जैसे अभी अभी हवाओं के साथ संदेश गया हो कि यार आपका दोस्त याद कर रहा हैं आपको। और हम फिर से मुँह उठाकर उस नीली छतरी वाले की तरफ देखते हैं। तो आज उन्हीं दोस्त की एक रचना पेश कर रहा हूँ जो मेरे जन्मदिन पर पिछले साल लिखी गई थी। और यह रचना मुझे हर वक्त हौंसला देती है. 





तुम निडर हो, तुम अडिग हो
पथिक तुम, चलते जाना।

जीवन पथ की दुख व्यथा से
तनिक भी न तुम घबराना।

इस प्रलय के वक्ष स्थल पर  
चढ़कर तुम हुंकार लगाना। 

हँसते रहना, चलते रहना
दुख को अमृत सा पी जाना।

तुम शक्ति हो, तुम भक्ति हो
धर विश्वास तुम बढ़ते जाना।

सच्चे मन से मीत तुम्हारे लिए
मेरी बस यहीं शुभकामना।
 -अमिताभ श्रीवास्तव


Monday, April 27, 2009

गुमशुदा दोस्त की तलाश

दोस्त की यादों की बारात आई हैं।

भीड़ से भरे बस स्टेड़ पर, भीड़ से दूर बस का इंतजार करता कोई लड़का,
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।
रुकी बस में ना चढ़कर, चलती हुई बस में ही चढ़ता हुआ कोई लड़का
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।
बस की खाली सीटें होने के बावजूद पीछे खिड़की के पास खड़ा कोई लड़का,
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।
सड़क की चढ़ाई पर रिक्शे से उतर कर, पीछे से धक्का लगाता कोई लड़का,
हो या ना हो वो मेरा दोस्त ही होगा।

ज़िंदगी की भूलभुलैया सी गलियों में अगर कहीं टकरा जाए तो उसे कहना
"बुढ़िया माई की गली के नुक्कड़ पर एक छोकरा उसका इंतजार करता है।"


ये दोस्त दो साल तक साथ रहा मेरे रुपनगर के स्कूल में। नया स्कूल था, नए टीचर थे, नए साथी थे। पर ये नया नही लगता था। ऐसा लगता था जैसे इसे पहले कहीं देखा है। ना जाने कभी किसी को देखकर लगता है कि इससे तो पिछले जन्म का कोई रिश्ता है। पहली मुलाकात में ही दोस्ती हो गई। जैसे पहली नजर में प्यार होता है। पता लगा ये भी 234 नम्बर बस से आता है। बस फिर क्या था टाईम फ़िक्स कर लिया एक बस स्टेड़ पर मिलने का। जैसे कोई प्यार करने वाले लड़का लड़की मिलने का टाईम फ़िक्स करते है। साथ-साथ जाते थे साथ-साथ आते थे। तब रेड लाईन बसें हुआ करती थी। और उनमें लड़ाकू छात्रों का ( आप चाहे तो पढ़ाकू भी कह सकते है) स्टाफ़ चला करता था। और ये महानुभाव टिकट लिया करते थे। हम इन्हें डरपोक कहा करते थे। पर इसे डरपोक बनने रहना ही पसंद था। पर किसी दिन कडंक्टर की बदतमीजी देख लेता था उस दिन पता नही क्यों स्टाफ़ बोला करता था। अगर कडंक्टर से बहस नही हुई तो जानबूझकर गेट पर जाकर खड़ा हो जाता था। तब कंड्क्टर उससे जरुर लड़ता था क्योंकि उसकी सवारियों को दिक्कत होती थी। तब कडंक्टर से खूब लड़ता था। समझ नही आता था कि वो गाँधी का प्रशंसक था या भगत सिंह का।

एक साउथ इंडियन टीचर थे गणित के। बस पढ़ाने से मतलब, बैशक चार छात्र पढे या तीस। हमारी क्लास में दो गेट हुआ करते थे। एक आगे और एक पीछे। सर ब्लैक बोर्ड पर सवाल हल कर रहे होते थे, और अधिकतर बच्चें पीछे के गेट से बाहर निकल रहे होते थे। बस चार पाँच बच्चे रह जाते थे पढाकू टाइप के, उनमें से एक ये लड़ाकू भी होता था टेन ठीठा बराबर होता है साईन ठीठा / कोस ठीठा, पढ़ते हुए। और हम कमला नगर की मार्किट में घूम रहे होते थे। पर कभी खुद मुझे उठाकर कहता यार मन नही लग रहा चल कमला नगर चलते है छोले बठूरे खाने। फिर साधु बेला में बैठकर खूब बातें करेंगे। अपना खाना बाहर आकर किसी भिखारी को दे देता था। मैं कई बार मना करता था कि सा.. आज जाट ने( हमारे क्लास टीचर) सख्ती कर रखी है। पता नही उसे सख्ती के दिन ही खुजली क्यों होती थी, स्कूल से भागने की? पर वो जिद्दी था जिद करके ले जाया करता था। मैं कहता यार तू जिद बहुत करता है तो कहता था " जिद करता हूँ तो लगता है कि मैं जीव हूँ नही तो दोस्त निर्जीव सा महसूस करता हूँ।"

सुबह चाहे कितनी ही ठंड हो। माल रोड़ से रुपनगर तक पैदल ही खींच कर ले जाया करता था। दोपहर में जब स्कूल की छुट्टी होती थी तो हम कोशिश करते थे कि स्कूल की छुट्टी से एक पिरिअड़ पहले निकले या फिर आधा घंटा बाद, क्योंकि स्टेड पर बहुत भीड़ हो जाती थी। पर कभी स्कूल की सख़्ती की वजह से छुट्टी के समय पर ही निकलना पड़ता तो मुझे रिक्शे से जाना पड़ता था, वो भी उसकी पसंद का रिक्शे वाले से। वो रिक्शे वाले से ये नही पूछता था कि माल रोड के कितने पैसे लेगा। बल्कि ये पूछता था कि आज कितने कमा लिये अगर कोई कहता कि कमा लिये होगे 30 या 40 चालीस रुपये तो वो उसमें नही जाऐगा। जिसने ज्यादा नही कमाए उसके चेहरे को गौर से देखेगा और बोलेगा "चल माल रोड छोड़ दे।" फिर माल रोड़ पहुँच कर जानबूझकर खुले पैसे नही देगा और चार या पाँच रुपये फ्री में देकर चलता बनेगा। मैं कहता था "सा.. तू मूर्ख है" वो कहता था "सा.. जब दुकान वाला दस की चीज बीस में देता है तो झट से दे आते हो और जब मेहनत करने वाले को ज्यादा मिल जाए तो शोर मचाते हो। फिर थोड़ा चुप रहकर बोलता था "लोग अनजाने में मूर्ख बनते है मैं जानबूझकर मूर्ख बनता हूँ।" "

शैतानी करने में, मैं सोचता था कि मैं ही बादशाह हूँ। पर एक दिन तो वो मेरा ही गुरु निकला। हुआ यूँ था कि एक हमारे उपप्रधानाचार्य थे अग्रवाल जी, जिनको बच्चें अक्सर बाऊ कहते थे। क्योंकि सर इस नाम से चिढ़ते थे। अक्सर बच्चें क्लास में कही भी बाऊ लिख दिया करते थे। वो दाँत पीसकर रह जाते थे। एक दिन क्लास खत्म करते ही सर मेरे से बोले "तुम मेरे कमरे में आओ।" मेरी साँसे रुक गई,दिल धड़कने लगा और सोचने लगा कि बेटा आज गया तू। कमरे में पहुँचा तो वो बोले "एक काम दे रहा हूँ तुम्हें, जरा ये पता करो कि क्लास में कौन लिखता है बाऊ।" तब जाकर साँस में साँस आई। मैंने वापिस आकर बताया कि यारों अब लिखना छोड़ दो बाऊ, सी.बी.आई लगा दी बाऊ ने तुम्हारे पीछे। वो बोला मैं कहता था ना कि फँसोगे एक दिन। सा.. मानते कहाँ हो तुम। फिर हमारे ग्रुप ने फैसला कर लिया कि अब नही लिखेंगे। पर अगले ही दिन क्लास में सर ने खलबली मचा दी यह कहकर कि जिस भी लड़के ने उनके गेट पर "बाऊ" लिखा है। पता चलते ही मैं उसका स्कूल से नाम काट दूँगा। हम अचम्भे में कि कौन हमारा भी गुरु निकल आया। जिसने बाऊ के कमरे के गेट पर ही लिखा दिया। सब टीचरों में चर्चा। छुट्टी में स्टेड जाते हुए धीरे से बोला "सुबह आते ही सबसे पहले यही काम किया था आज यार।" उसके चेहरे पर डर था पर फिर बोला "सा.. मजा बड़े बम फोड़ने में आता है नाकि छोटे बम फोड़ने में।" और अगले हफ्ते एक डायरी और एक पेन ले लाया और कहने लगा "यार बाऊ को गिफ़्ट करने जा रहा हूँ।"

दिल का साफ था। उदार विचारों को अपने दिमाग की टोकरी में रखता था। कुछ चीजें पसंद नही थी उसे। जैसे झूठ, पीठ पीछे बुराई........। जब कभी इन्हीं कारणों से किसी से उसकी लड़ाई हो जाती तो वह भी लड़ पड़ता था। लड़ता ऐसे था जैसे बस आज के बाद उसका और उस लड़के का रिश्ता खत्म हो जाऐगा। पर अगले ही दिन वह उस लड़के को Cash Account , Trial Balance, Balance Sheet आदि समझा रहा होता था। या फिर मजे से गप्पे लडा रहा होता था। मैं कहता "कल तो वो तेरे से लड़ रहा था और आज तू उसे पढ़ा रहा है।" वो कहता था " कल उसने अपनी समझ से अपना काम किया, आज मैं अपनी समझ से अपना काम रहा हूँ।" और जाते जाते एक बात जो आज तक मेरी समझ नही आई अगर आपको समझ आए तो लिख देना और नहीं आई तो ये भी पूछना उससे अगर कभी टकरा जाए किसी रास्ते, कि उसकी अधिकतर कापियों के दूसरे पेज पर ये लाइन क्यों लिखी होती थी?

"जा इंसान तेरी उम्मीद तेरा इंतजार करती हैं।"

Monday, December 29, 2008

कभी कभी ऐसा भी होता हैं। कैसा। अजी ऐसा।

कभी कभी ऐसा भी होता हैं घर में, गली में, चौराहों पर, स्कूल में , कालेज में, बस में,  बस स्टेण्ड पर, ...................................।

1. आप किसी बस स्टेड़ पर खड़े उस लड़की के आने का इंतजार कर रहे हैं। जो आपको अच्छी लगने लगी हैं। जिधर से वह आती हैं बस उधर ही देखते जा रहे हैं  और जब वह काफी देर तक ना आए। फिर आप अपने  पर  गुस्सा करे कि पाँच मिनट पहले आ जाता। और एकदम गुस्सें में पीछे मुड़े और देखे कि वही लड़की आपके पीछे ही खड़ी हैं। तो ....................................................................................................................................................।
एक घबराहट की लहर पूरे शरीर में दोड़ जाती हैं। 
2.आपका दोस्त कहे चल यार बाहर चलते हैं बहुत पढ लिए। आप कहे कि तू चल मैं आया। और आप दो मिनट के बाद पहुँचते है। फिर आपका दोस्त कहे कि यार लेडिज बाथरुम कोई लड़का घुसा हैं मामला कुछ गड़बड़ लगता है जरा आवाज तो मार। आप आवाज मारते हैं। और फिर एकदम से एक लड़की निकल आए।
तो.....................................................................................................................................................।
आप अपनी गलती पर शर्मिदा होते हैं दोस्त को भला बुरा कहते हैं और उस लड़की से जाकर सारी बात बता देते हैं।
3. एक अप्रैल के दिन आप कई दोस्तों का अप्रैल फूल बनाने के बाद एक लड़की का अप्रैल फूल बनाने के लिए उसके पास जाए और कहे कि आपको फला लड़की बुला रही हैं। वापस हँसते हुए अपनी सीट पर आकर मद मद मुस्कराते हैं। और फिर वही लड़की रुहाँसी सी सूरत लेकर आपके पास आकर कहे कि आपको ऐसा नही करना चाहिए था और आप कहे कि क्या हुआ, और वह बोले कि हम दोनों के बीच बातचीत नही रही और वो कह रही हैं कि " मुझे कोई पागल कुत्ते ने काटा है जो तुझे बुलाँऊगी"।
तो....................................................................................................................................................।
आप माफी माँगते हैं और कहते हैं कि मुझे नही पता था कि आप दोनो के बीच बातचीत नही रहीं।
4. आप किसी मार्किट( मान लो सरोजनी नगर की मार्किट) में शापिंग कर रहे हैं और सामने कुछ दूरी पर आपकी तरफ पीठ किए हुए आपकी गर्ल फ्रेंड खड़ी हो और आप उसके पास जाए और कंधे पर हाथ मारकर कहे अरे.... तुम यहाँ क्या कर रही हो? और फिर वो मुड़े तो वो कोई ओर निकले। तो ..................................................................................................................................................।
आपके मुँह से कुछ नही निकलता हैं और घबराए से चल पड़ते हैं। 
5. आप अपने दोस्त के साथ कहीं ( मान लो मंसूरी मानने में क्या जाता हैं) घूमने जाए। और किसी मार्किट में घूमने निकल जाए। तभी आपका पेट धोखा दे जाए और आप समान ढूंढने के बजाय पखाना ढूंढने लग जाए और जब पखाना नजर आए तो आप उधर ही दोड़ जाए। और आपका दोस्त पास ही बैठे चाय वाले से दो चाय बोल दें। कुछ देर बाद आप सड़ा सा मुँह बनाते हुए बाहर आए। और चाय वाले को बोले यार तू कैसे करता होगा यहाँ.....। तुम्हारा पखाना तो बहुत ही गंदा हैं। मैं तो बेहोश होते-होते बचा, मजबूरी ना हो तो मैं यहाँ मूतू भी नही। और बाद में आपका दोस्त कहे कि जिससे तू बात कर रहा था वह पेंट कमीज पहने  लड़का नही लड़की हैं। देख जरा गौर से।
तो .................................................................................................................................................।
आप सकपका जाते हैं और दूसरी तरफ मुँह करके चाय पीने लगते हैं। और बाद में खूब हँसते हैं।
6. आप अपने दोस्त के साथ किसी मार्किट(मान लो कमला नगर की मार्किट) में बर्गर और पेटीज खा रहे हैं। तभी एक लड़की बर्गर वाले से पूछे कि भईया 100 रुपये के खुलले हैं और बर्गर वाला मना कर दे और लड़की आगे बढ़ जाए पर आपका दोस्त कहे कि मेरे पास है खुलले तू बुला तो सही उस लड़की को और आप उस लड़की आवाज मारकर बुलाते हैं। वह 100 का नोट आपकी तरफ बढा दे और फिर आपका दोस्त कह दे मेरे पास खुलले नही हैं।
तो .................................................................................................................................................।
आप झेंप जाए और लड़की के जाने के बाद आप दोस्त को खूब गालियों दें। और आपका दोस्त हँसते हँसते अपना पेट ही पकड़ ले। 
7. आप अपनी बाईक पर अपनी दोस्त को पीछें बैठा कही घूमने जा रहे। किसी रेड लाईट पर आपको रुकना पड़े और पीछे से आपकी दोस्त कहे कि ..... आगे वाली गाड़ी पापा की हैं और वो मुंड मुंड के पीछे ही देख रहे हैं क्या करे फंस गए बुरे। ना ही आगे भाग सकते हैं ना ही पीछे भाग सकते हैं और आपकी दोस्त मुंह छुपाए बैठी हो और तभी उनके पापा गेट खोल कर उतर जाए और पीछे की तरफ आए।
तो ..................................................................................................................................... ...........।
उनके पापा पीछे के टायर को फटाफट देख कर अपनी सीट पर बैठ जाते हैं। और एकदम ग्रीन लाईट हो जाती हैं। और आप दोनों की सांस में सांस आती हैं। 
8. आपकी कोई नई नई दोस्त बनी हो और उसका फोन आ जाए कि घर से कुछ खाने की चीजें लेते आना। आप मारे खुशी के उछलने लगे और ढेरों ख्वाब बुनने लगे। और जब वह मिले हाय हेल्लो हो और वो कहे कि घर से क्या क्या लाए हो मुझे दे दो घर जाके खाऊँगी अभी घर से फोन आ गया हैं। जल्दी घर जाना हैं।
तो .................................................................................................................................................।
आप बस उसे जाते हुए देखते रह जाते हैं।
 9. आप किसी दिन अपनी छोटी चचेरी बहन के साथ बस में बैठे कहीं जा रहे हो। और आपके आगे वाली सीट पर एक सुन्दर मार्डन लड़की बेठी हो एक बड़ा सा जूड़ा बनाए हुए। और वह पलट पलट के बार बार आपको देखे। और आपकी समझ में ना आए कि बात क्या हैं? फिर अचानक वह लड़की उठे और इंगलिश में उल्टा सीधा कहने लगे। और बस में बैठी सारी सवारी की आँखे आपको देखने लगे।
तो..................................................................................................................................................।
काफी कुछ सुनने के बाद पता चले कि आपकी छोटी बहन उसके जूड़े को बार बार छेड़ रही थी और वो लड़की समझ रही थी कि आप उसके जूड़े को छेड़ रहे थे।
10. किसी  दिन आपका टीचर आपकी शैतानी पर सजा के तौर मुर्गा बनने को कहे और वो भी लड़कियों की क्लास के गेट के सामने।
तो .................................................................................................................................................।
आप मुँह उठा उठा कर देखते हैं कि कुछ लड़कियाँ हँस रही हैं और आप पानी पानी हो रहे हैं। पर उसमें एक लड़की की हँसी आपको अपनी सी लगती हैं। और हर रोज की प्रार्थना सभा में आप हाथ जोड़कर प्रार्थना करें और आँखे खोलकर उसके चेहरे को निहारते रहे।

इन खट्टी मिटठी यादों को लिखने का विचार अनुराग जी की एक पोस्ट जिदंगी की दोड़ मगर बदस्तूर जारी हैं। और विजय जी की एक पोस्ट कुछ महान कार्य इन्हें अवश्य आजमाएं। से आया। कभी कभी संगत का भी असर हो जाता हैं। फिर अपनी और दोस्तों की यादों को यहाँ साझा कर दिया। यह साल जा रहा हैं इसलिए कुछ ऐसा याद किया जिसे पढकर हँसी भी आए, एक ठंड़ी आह भी निकले, ..........................................।
आप सभी से गुजारिश हैं टिप्पणी के साथ आप भी अपनी खट्टी मिटठी यादें यहाँ अवश्य बाँटे।

Friday, August 1, 2008

ऐ मेरे दोस्त तेरे लिए

जिंदगी चलने का नाम हैं
यूँ ही चला चल
कोई साथ हो, ना हो, बैशक
एक आश के सहारे ही चला चल
हाथ मत फैला
कुछ जलील करेंग़े, कुछ दया करेंगे
दोनो ही सूरत में तेरे हाथों में हार होगी
हाथों के जौहर दिखा
क्या हुआ जो हाथों में छाले पड़ जाऐंगे
इन छालों से तो हाथ और मजबूत बन जाऐंग़े
तब ये ज्यादा भार उठा पाऐगे
तू मत हो उदास
किसी राह चलते चलते
वह सुबह जरुर आऐगी
जब तेरी मंजिल तुझे मिल जाऐगी
जरा हौसला तो रख
जिंदगी चलने का नाम हैं
यूँ ही चला चल

Monday, March 24, 2008

ऐ दोस्त तेरे लिऐ

ऐ दोस्त तेरे लिऐ


Listen to the exhortation of the Dawn look to this day.
For it is life the very life of life,
In its brief course lie all the verities and realities of your existence।

The bliss of growth, The glory of action, The splendour of beauty,
For yesterday is but a dream, And tomorrow is only a vision.
But Today well lived makes every yesterday a dream of happiness,
And every Tomorrow a dream of HOPE.
look well therefore, to this DAY।

Rig Veda

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