ये जो सुंदर तस्वीर आप देख रहे हैं. ये मैंने नहीं बनाई! ये तो अमिताभ श्रीवास्तव जी ने बनाई है. वे आजकल अपने बचपन के शौक को फिर से ज़िंदा करने में लगे हैं. मैंने सोचा क्यों ना मैं भी इस बहाने अपने बचपन के ननिहाल की खूबसूरत यादों को फिर से ज़िंदा कर लूं. बस फिर क्या था मैंने उन्हें एक तस्वीर भेजकर निवेदन किया कि अगर हो सके तो इसकी पेंटिंग बना दें. जिसके परिणाम स्वरूप यह आर्ट वर्क सामने आया.
ये मेरे ननिहाल का एक कुआं है. बचपन की बहुत सारी यादें इसके साथ जुड़ी हुई हैं. दरअसल बचपन में जब भी गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां आती थीं. तो साथ में मामा को भी बुला लाती थीं. मैं उनके साथ बस में बैठकर अपनी नानी-नाना के गांव जाता था. दो-तीन घंटे के इस सफ़र में मीठी-मीठी संतरे की गोलियां मेरा अच्छा साथ निभाती थीं. फिर गांव से थोड़ा पहले हम बस से उतर जाते थे. तब यहां से ही गांव के लिए तांगे मिला करते थे. तांगा सड़क के दोनों तरफ किकर के दरख्तों से बनी छाया में टक-टक करता हुआ गांव की ओर दौड़ता जाता था. रास्ते में कई गांव आते थे. सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक बस खेत ही खेत नजर आते थे. वहीं कहीं-कहीं सड़क के किनारे भेड़ों और बकरियों के झुंड भी देखने को मिल जाते थे. कोई पांच-एक किलोमीटर की दूर तय करके तांगा गांव के अड्डे पर रुक जाता था. मैं और मामा तांगे से उतरकर खेतों के बीच से होते हुए अपने नानी के घर की ओर चलते जाते थे. रास्ते में गांव की औरतें मुझे देख मामा से पूछा करती थीं कि ' यो छोरा किसका स.'
मामा उनसे कहते कि 'यो क्रीशो को छोरा है. दिल्ली रह स.'
तो फिर वे औरतें कहा करती थीं 'अच्छा दलवाली है.' यानि दिल्ली का है.
(बातचीत में बिल्कुल यही शब्द तो नहीं हुआ करते थे. लेकिन भाव यही हुआ करता.)
ऐसे हम अपनी मां के गांव पहुंच जाते थे.
नानी-मामी मुझे घर के काम करती हुई मिलती थी. मैं उन्हें नमस्ते कहता था. वे मुझे प्यार से पुचकारने लग जाती थीं. दो नानी, तीन मामी के पुचकारने से सिर के बाल अस्त-व्यस्त हो जाते थे! मैं फिर या तो हाथों से बालों को ठीक कर लिया करता था. या फिर घर की दीवारों में जगह-जगह लगे छोटे-छोटे शीशों के सामने कंघी कर लिया करता था! फिर थोड़ी ही देर में मुझे भूख लग जाती थी. मैं रोटी-रोटी करने लग जाता था. तब मामी झट से चूल्हा सुलगाकर गर्म-गर्म रोटी बना दिया करती थीं. वहीं नानी उस पर नूनी घी रख दिया करती थीं. साथ में एक कटोरी दही भी दे दिया करती थीं. सब्जी तब के समय गांव के घरों में रोज नहीं बनती थी. सब्जी केवल तब बनती थी, जब कोई मेहमान आया करता था. वरना तो दही-दूध या चटनी से ही रोटी खा ली जाती थी. गांव की दही बिल्कुल सफेद नहीं हुआ करती थी. उसका रंग पके हुए दूध की तरह हल्का-सा पीला होता था. लेकिन स्वाद ऐसा कि दिल खुश हो जाया करता था.
कुछ देर बाद सब अपने-अपने कामों से इधर-उधर निकल जाते थे. मैं अकेला रह जाया करता था. तब घर की बेहद याद आती थी. वहीं गर्मी अपना जलवा भी दिखाने लग जाती थी. तब मेरे नाना के यहां बिजली नहीं हुआ करती थी. उन दिनों बैठक के बाहर एक 'जाल' का पेड़ हुआ करता था. मैं बस उसके नीचे खाट डालकर बैठ जाया करता था. एक पक्षी होता है, कबूतर के जैसा. शायद उसे 'घूघी' कहते हैं. दोपहरी में वह उसी जाल के पेड़ पर बैठा मिलता था. उसकी आवाजें कानों में पड़ती रहती थीं. मैं उसे ही सुनता रहता था. मुझे उसकी आवाज प्यारी लगती थी. कभी-कभी ननिहाल में लगे नीम के पेड़ से 'मोर' भी नीचे उतरकर, मेरे आजू-बाजू टहलते रहते थे. यूं तो सामने ही मुख्य सड़क थी लेकिन दोपहरी में एक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते नजर आते थे. सच में दोपहरी में समय काटना मुश्किल हो जाया करता था. लेकिन बाद के दिनों में मेरा दूसरे घरों की बैठकों में आना जाना शुरू हो गया था. जहां दोपहरी में 'ताश' के पत्तों की महफ़िल सजा करती थीं. एक तरफ लोग 'ताश' खेल रहे होते थे. वहीं दूसरी ओर टेप रिकॉर्डर पर 'रागनियां' बज रही होती थीं. कभी-कभी यूं भी होता था. मैं ट्रेक्टर पर घूमने की चाह में भरी दोपहरी में ट्रेक्टर से खेतों में चला जाया करता था.
लेकिन फिर जैसे-जैसे घूप कम होती थी. गांव में कुछ रौनक-सी होने लगती थी. गांव के लोग अपने पशुओं को पानी पिलाने ले जाते दिखाई देने लग जाते थे. कोई अपनी भैंसों को ले जा रहा होता था. कोई अपने बैलों को ले जा रहा होता था. तब दिल लगने लगता था. तब तक दोपहर में गायब रहने वाले नाना-मामा भी घर आ जाया करते थे. आते ही पशुओं की सेवा-पानी में लग जाया करते थे. एक मामा नाना के साथ पशुओं का चारा कटवा रहे होते थे. दूसरे मामा पशुओं को पानी पिलाने ले जा रहे होते थे. कभी-कभी मैं भी मामा के साथ बैलों को पानी पिलाने ले जाता था.
फिर जैसे-जैसे शाम होने को होती थी. घरों की औरतें भी कुएं से पानी लेने के लिए निकल पड़ती थी. अक्सर मामी मुझसे हंसते हुए कहती थी कि चल मेरे साथ, एक घड़ा पानी का तू भी उठाकर लाइयो. अक्सर मैं उनके साथ चला जाता था. वे कुएं से पानी लेने के लिए साफ़-सुथरे, नए-से कपड़े पहनकर जाती थीं. वे कपड़ों में 'घाघरा', 'कमीज','चुंदडी' पहना करती थीं. लेकिन जो 'घाघरा' होता था, वो घाघरा नहीं कुछ-कुछ 'पेटिकोट' टाइप होता था. वे उसके ऊपर हमेशा सफेद रंग की कमीज पहनती थीं. कालर वाली कमीज में दोनों तरफ बंद दो जेब हुआ करती थीं. वहीं सबसे ऊपर चुंदडी होती थी, जिस पर खूब सारे कांच या प्लास्टिक के गोल-गोल सितारे से लगे होते थे. जोकि चमकते थे. चुंदडी हर रोज अलग रंग,अलग डिजाइन की हुआ करती थीं. सिर पर गोल सुंदर रंगबिरंगी-सी एक चीज हुआ करती थी, जिस पर घड़ा रखा जाता था. अभी उसका नाम याद नहीं आ रहा. वहीं पैरों में घुंघरु वाली पाजेब होती थी. कभी-कभी मामी चांदी का कमरबंद भी पहना करती थीं. गले में भी कुछ-न-कुछ पहना होता था. अब याद नहीं कि मामी गले में क्या पहनती थीं. लेकिन इतना याद है वो सोने का हुआ करता था. जब वे घर से निकलती थीं तो गले तक घूंघट होता था. सिर पर कभी एक घड़ा, कभी दो घड़े होते थे. वहीं एक हाथ में एक और घड़ा और दूसरे हाथ में खाली पानी की बाल्टी होती थी, जिस पर रस्सी बंधी होती थी. इसी बाल्टी से कुएं से पानी निकाला जाता था. जब वे चलती थीं, तब पाजेब छम-छम करती थी. ऐसा नहीं कि मेरी मामी ही साफ़-सुथरे नए-से कपड़े पहन कर आती थीं. उस कुएं पर आई अधिकतर औरतें नए-से कपड़े पहनकर आती थीं.
कुआं थोड़ा ऊंचाई पर था. काफी सीढियां चढ़कर ही उस तक पहुंचा जाता था. कुएं पर मेरे पहले दिन पहुंचने पर मैं ही चर्चा के केंद्र में होता था. हर कोई मेरे से ही सवाल पूछता था. कौन हूं मैं? क्या नाम है मेरा? कहां से आया हूं? ऐसे ही अनेक सवाल. फिर दूसरे दिन औरतों की चर्चाओं में दुनिया जहान की बातें आ जाती थीं. कुएं से पानी भरती जातीं और बातें करती जातीं. मैं एक कोने में खड़ा जोहड़ को देखता रहता था. उस कुएं से पूरा जोहड़ नजर आता था. जिसमें पशु डुबकी लगा रहे होते थे. कुछ पशु पानी पी रहे होते थे. कुछ लोग अपने पशुओं को जोहड़ में घुसकर निकाल रहे होते थे. कुछ बच्चे जोहड़ में उछलकूद मचा रहे होते थे. बगल में ही एक पीपल का विशाल पेड़ था. उससे अच्छी-खासी हवा आती थी. कुएं के बगल में एक मंदिर भी था. कभी-कभी बीच में उधर से घंटी के बजने की आवाजें भी आती थीं. जब मामी अपने पानी के सारे घड़े भर लेती थीं तो खाली बाल्टी, जिसमें रस्सी बंधी होती थी उसे मुझे दे देती थीं. इस तरह मैं और मामी कुएं से अक्सर पानी लाया करते थे.
फिर कुछ ही देर में सूरज ढल जाता था. घर में दीपक जल उठता था. नानी रसोई के बाहर वाला चूल्हा सुलगा लिया करती थीं. कुछ देर में ही हम सबके के लिए मोटी-मोटी रोटियां बननी शुरू हो जाती थीं. हम सब के सब चूल्हे के पास बैठकर गर्म-गर्म दूध-रोटी खाते थे. आखिर में नाना आते थे, अपनी तांबे की लुटिया लेकर. वे दो रोटी और लुटिया भरकर दूध ले जाते थे. फिर बैठक में जाकर खाया करते थे. समय का तो पता नहीं लेकिन एक तह वक्त पर सब सोने चले जाया करते थे. मेरी खाट बैठक के बाहर जाल के पेड़ के पास नाना की खाट के बिल्कुल बगल में डली होती थी. अक्सर नाना ही मेरी खाट बिछाया करते थे, जिस पर एक तकिया, एक पतली चादर रखी हुआ करती थी. नाना ज्यादा बातें नहीं करते थे. बस थोड़ी बहुत बातों के बाद वे सो जाया करते थे. मैं लेटा-लेटा आसमान में चमकते चांद-तारों को देखा करता था. इतने तारे दिल्ली वाले घर में कभी नजर नहीं आते थे. कभी-कभी बीच में दूर कहीं से ट्रेक्टर की आवाजें भी आया करती थीं. कभी-कभी इक्का-दुक्का मोर भी रात को अपनी प्यारी आवाज निकाला करते थे. वहीं रात को बीच-बीच में सड़क पर कुत्ते भौंका करते थे. फिर नाना उन्हें गाली देकर भगाया करते थे! इन्हीं आवाजों के बीच कब नींद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था. फिर आंखें सुबह ही चिड़ियों की चहचहाहटों से खुला करती थीं.
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