रोशनी की तलवार
और हर बार मुझसे
मेरा घर छीनकर चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द है
कभी घर नही लौटती ......
मैं चौराहे पर खड़े हर ऐरे गैरे से
अपने घर का पता पूछती हूँ
भीड़ में से
एक निकलकर कहता हैं
मेरे जेहन में कई कमरे हैं
एक कमरे का दूसरे कमरे की तरफ
कोई दरवाजा नही खुलता
तू एक कमरे में रह सकती हैं
मैं उसकी चोर निगाह की ओर घूर कर देखती हूँ
इतने में दूसरा खड़ा होकर कहता हैं
किसी के साथ गुज़रे हुए कुछ खूबसूरत पल
क्या काफ़ी नही होते बची हुई उम्र के लिए
फिर घर के बारें में क्या सोचना हुआ
इतने में तीसरा खड़ा होकर कहता हैं
हर मर्द चोरी छिपे अपने घर से दूर भागता रहता हैं
उस शून्य घर का क्या करोगी
मैं उसकी ओर गौर से देखती हूँ
इतने में चौथा खड़ा होकर कहता हैं
घर तो झूठे रिश्तों पर सुनहरी लेबल हैं
मस्तक की लपट को 'झूठ' लेबल के साथ
कैसे रौशनाएगी? मैं घबरा जाती हूँ
इतने में पाचँवा खड़ा होकर कहता हैं
घर तो जेल का दूसरा नाम हैं
पंछी, पवन एंव पवित्र विचारों को
घर की मोहताजी की ज़रुरत नही होती
घर का साथ छोड़ो
और फिर तेरी रोशनी की तलवार
जो सच माँगती हैं
उस का वार भला कौन झेल सकता है
मैं चौराहे पर ही
चीख चीख कर कह रही हूँ
मुझे मेरा घर चाहिए
वह पता नही
किस किस का जिस्म पहनकर आता हैं
हर बार मुझसे मेरा घर छीनकर
चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द हैं
कभी घर ही नही लौटती
मनजीत टिवाणा
साभार- किताब का नाम - "ओ पंखुरी" ,चयन व अनुवाद राम सिहं चाहल, प्रकाशन - संवाद प्रकाशन मेरठ (जिन जिन के सहयोग से ये कविताएं हमारे तक पहुँची उन सभी को दिल से शुक्रिया)
15 comments:
पता नही वह किस-किस का जिस्म पहनकर आता हैं
और हर बार मुझसे
मेरा घर छीनकर चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द है
कभी घर नही लौटती ......
bahut sunder...in kawitaon ko padwane ke liye shukriya
मैं चौराहे पर ही
चीख चीख कर कह रही हूँ
मुझे मेरा घर चाहिए
आपका बहुत आभार पढ़वाने के ल
राम राम !
मैं चौराहे पर ही
चीख चीख कर कह रही हूँ
मुझे मेरा घर चाहिए
बहुत शुक्रिया इसको पढ़वाने का .
बेहतरीन रचना पढ़वाने के लिए बेहतरीन वाला आभार.
यह जो पंजाबी का कहन है न, ऐसा विरला है कि संश्लिष्टता देख ही समझ आ जाता है कि इसे अवश्य किसी पंजाबी लोकमानस से निस्सृत होना चाहिए।
मनजीत जी तक हमारी शुभकामनाएँ पहुँचें,
चहल जी को भी और आप को भी धन्यवाद।
अतुलनीय, बहुत ही खूबसूरत...
मेरे पास इसकी तारीफ के लिए शब्द नहीं...
इससे परिचय करवाने के लिए बहुत शुक्रिया...
---मीत
मैं कहना जी कमाल कर दित्ता टिवाना साहेब ने...वाह जी वाह...
नीरज
भीड़ में से
एक निकलकर कहता हैं
मेरे जेहन में कई कमरे हैं
sundar kavita..
मैं चौराहे पर ही
चीख चीख कर कह रही हूँ
मुझे मेरा घर चाहिए
आपका बहुत आभार पढ़वाने के ल
राम राम !
शुक्रिया दोस्त !एक कवि वही अर्थपूर्ण होता है जिसकी कविता पढ़कर लगे .....ये तो मेरे मन की व्यथा भी है......ये कविता कुछ वैसी ही है.
bahut sundar prastuti , kavataayen man ke bheetar sama gayi hai .. in fact punjabi poems ki baat hi kuch alag hai ..
dil ko choo gayi ..
bahut badhai
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
वह पता नही
किस किस का जिस्म पहनकर आता हैं
हर बार मुझसे मेरा घर छीनकर
चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द हैं
कभी घर ही नही लौटती
सुशील कुमार छौक्कर जी आप का धन्यवाद इस सुंदर कविता के लिये
bhaavon ki khubsurat abhivyakti.
behad sundar prastuti.
हर बार मुझसे मेरा घर छीनकर
चौराहे पर खड़ा होकर कहता हैं
देखो कितनी आवारा-गर्द हैं
कभी घर ही नही लौटती
bahut kuchh khud mein samete hue ya panktiyan kavita ki jaan hain.
Manmeet ji ki kavita padhwane ke liye dhnywaad.
बहोत ही गहरे भाव हैं मनजीत जी आपकी कविता के गाँधी जी शुक्रिया इतनी अच्छी कविता पढवाने के
लिए, कविता छू गई। मेरा नमन है मनजीत जी को..
bahut hi sundar prastuti.........hamare pas to shabd hi nhi prashansa ke liye wo bhi kam hain...itni achchi kavita padhwane ke liye shukriya
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