Sunday, November 13, 2011

नाटक- गालिब-ए-आजम और मैं

जब भी गोरा चेहरा, ऊंची नाक, चौड़ा माथा, लम्बे कान, घनी सफेद दाढ़ी, लम्बा कद, इकहरा बदन जिस पर लम्बा-सा चोगा , और सिर पर बड़ी-सी फर वाली टोपी पहनने वाले शख़्स मिर्जा असद अल्ला खां ग़ालिब उर्फ चाचा ग़ालिब का जिक्र आता है , तो उनका यह शेर बरबस ही याद आ जाता है जिसमें उनकी पूरी शख्सियत मौजूद है :

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि गालिब का है, अंदाज-ए-बयां और॥

सच  में मिर्जा गालिब का अंदाज-ए-बयां न्यारा ही था। वरना मिर्जा गालिब इतने दिनों तक अपनी शेरो शायरी के बल पर लोगों के दिलों में जिंदा न रह पाते। मैं तो अब तक शेरो शायरी का मतलब मिर्जा गालिब और मिर्जा गालिब का मतलब शेरो शायरी समझता रहा था। मैंने जब भी गालिब की शेरों शायरी की तरफ अपने कदम बढाये, फारसी के कठिन शब्द हमेशा गतिरोध की तरह बीच में आ खड़े हुए। इसके इतर मिर्जा गालिब के बारे में यही जाना कि शायर तो वो अच्छे थे पर बदनाम बहुत थे। इससे अधिक कुछ नहीं जाना। यह संयोग था कि जब सी. डी. सिद्धू  सर का लिखा नाटक " गालिब-ए-आजम" देखा तो मैं मिर्जा गालिब की शेरो शायरी के साथ-साथ उनका भी मुरीद हो गया। इस नाटक से मुझे मिर्जा गालिब की शख्सियत के कई पहलुओं से रुबरु होने का मौका मिला। नाटक में सी. डी. सिद्धू सर ने मिर्जा गालिब की जिंदगी के तीन अहम पन्नों को इतनी खूबसूरती से पेश किया है, मानो ऐसा लगा जैसे मिर्जा गालिब दोबारा जिंदा हो गए हों।

यूं तो मिर्जा गालिब और बदकिस्मती दोनों साथ-साथ चलते हैं, किंतु इस नाटक में गालिब के उस एक रुप को जब जाना तो मैं उनके हौंसले का कायल हुए बगैर नहीं रह सका, जब पूरी पेंशन न मिलने के कारण उन्हें मुफलिसी में गुजर-बसर करना पड़ी। जिंदगी के सुनहरे दिनों में वो सिर तक कर्ज में डूबे रहे। रोज-ब-रोज दरवाजे पर कर्जख्वाहों के तकाजे मिर्जा गालिब की बेगम उमराओं जान को परेशान करते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया जब मिर्जा गालिब के खिलाफ डिक्रियां निकलने लगी। जिसकी वजह से मिर्जा गालिब का गृहस्थ जीवन तनावों से घिरता रहा। मगर क्या मजाल कि इस फनकार को अपने फन से कोई तकलीफ जुदा कर पाती। यहां तक कि तनावो के बीच मिर्जा गालिब अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को फौत होते देखता रहा और अंदर ही अंदर रोता रहा। शायद तभी उनकी कलम से यह शेर निकला :

मेरी किसमत में गम अगर इतना था ।
दिल भी, या रब्ब , कई दिये होते ॥

गालिब का दूसरा रुप इस नाटक में बखूबी तौर पर सामने आया है। जब फीरोजपुर झिरका व लोहारु के राजा नवाब अहमद खां की अनिकाही बेगम मुद्दी का बेटा शम्स अलादीन पूरी पेंशन ना देने की दगाबाजी लगातार करता रहा। और जब मिर्जा गालिब के सिर के ऊपर से पानी गुजरने लगा, तब वह इस बेइंसाफी के खिलाफ यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ कि जिस कलमकार ने खुद जिंदगी से जूझना नहीं सीखा, मुश्किलात को शिकस्त देना नहीं सीखा, वो दूसरों को क्या सिखाऐगा? एक डरपोक ऐसी नज्म नहीं कह सकता , जो दूसरों को बहादुर बनाए। एक कायर ऐसा शेर नहीं कह सकता जो सामईन के अंदर नई रुह फूंके। और वह अपनी पेंशनी हक की लड़ाई के लिए बनारस से होते हुए कोलकाता पहुंचकर अपने साथ किए गए धोखे के खिलाफ मुकदमा दायर करता है। बेशक यह इतिहास में दर्ज है पर यह सिद्धू सर के इस नाटक की खासियत है कि नाटक का नायक लाचारी, गुरबत और ढेरों तकलीफों के बीच रहते हुए भी बेईमानी और बेइंसाफी के खिलाफ जंगजू की तरह खड़ा हो जाता है, और दर्शकों को मुश्किलों से लड़ने का जज्बा देता है। यह अलग बात है कि चंद साल बाद ही वह पेंशन का मुकदमा खारिज होने के कारण एक बार फिर सदमे से गुजरता है। मगर नाटक के नायक मिर्जा गालिब की ही ताकत थी कि तमाम तकलीफों से भरी जिंदगी में भी इंसानियत का दामन पकड़े हुए कहता है :

हम कहां के दाना थे, किस हुनर में यक्ता थे ।
बेसबब हुआ गालिब दुश्मन आसमां अपना ॥

सिद्धू सर के लिखे नाटकों में लगभग हर नायक की भांति ही मिर्जा गालिब की भी परिस्थितयां, हालात, हमेशा दुश्मन बने रहे। मगर इन हालात और तकलीफों के बीच से ही नाटक का नायक एक नया जीवन दर्शन, एक नई जीवन पद्धति, जीवन जीने का तरीका, अपनी बनारस और कोलकाता की यात्राओं में से खोज निकाल लाता है। इन दोनों शहरों की माटी की महक, जीवनशैली, संस्कृति को देखकर नायक की सोच में आए बदलावों को इस नाटक में भरपूर जगह दी गई है। बल्कि यूं कहूं कि अन्य नाटककारों ने इसका बस जिक्र भर किया है परतुं सिद्धू सर ने मिर्जा गालिब की जिंदगी में से जीवन के अध्यात्म को, उसके दर्शन को, अपने नाटक में पूरी तरह उंडेल दिया है। और यही इस नाटक की आत्मा है। मिर्जा गालिब का इस नाटक में यह तीसरा रुप है। जब वह बनारस की "चिरागे दैर" की रोशनी में इल्म को पाता है और कहता है : बनारस के कयाम ने मेरी सोच बदल दी। इन दिनों बहुत कुछ पता चला है मुझे। मजहब के बारे में। दीन धर्म के बारे में। धर्म के नाम पर पुजारियों ने, मुल्लाओं ने, फर्जी किस्से कहानियां घड़ रखे हैं। गरीबों को दौजख के खौफ दिखाकर , जन्नत के झूठे ख्वाब बुनकर, फुसला रखा है । ये तो पहले ही बेचारे भूख के मारे हैं, बीमारियों के सताये है, मौत के दहलाये हैं। ऊपर से पंडित और मुल्लाओं के ये ढ्कौसले। यह जुल्म है। यह खाओ, वो न खाओ। यह पियो, वो न पियो। नमाज पढ़ो । रोजा रखो। बुतो को मत पूजो। गालिब आगे कहता है: पुराने तौर तरीके बदलों। खुदा खोखली रस्मों रीतों में नही घुसा बैठा। खुदा आपसी मोहब्बत में है।

गालिब यहीं नहीं रुकते बल्कि अपनी आंखों में संत रविदास के बेगमपुर का ख्वाब देखते है, " जहां किसी को कोई गम न हो। सब जमीन जायदाद साझे में हो। बराबर हों सब लोग। कोई ऊंच नीच न हो। हर एक को रोटी मिले। कपड़ा मिले। वहीं दूसरी ओर गालिब जब कोलकाता की आधुनिकता के उजाले में खुद को खड़ा पाता है तो वह उसके हर नक्श को बखूबी देखता और समझता है। वह कोलकाता की फिजा में आधुनिकता की पड़ी छौंक को पहचानता है, उसकी महक को अपने नथूनों से अनुभव करता है। जीवन में क्या आवश्यक है क्या नहीं, बारिकी से समझता है। तभी तो वो कह उठता है कि " नई दुनिया को सलाम करो। कोलकाता देखो। अंग्रेजों की नई नई इजादें देखो। हम पत्थर से पत्थर टकरा कर आग जलाया करते थे। अंग़्रेज को देखो। एक तिनके पर थोड़ा सा मसाला लगाया और छूं!  आग जल गई! बड़े बड़े जहाज चलते है समुद्र में। हजारों कोस तक। कैसे ?  भाप से! " गालिब इधर आधुनिकता की रोशनी में आगे बढ़ने की ओर इशारा करता है। और इन इशारों को समझते हुए मेरा दिल कहता है :

हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है।
वो हर एक बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता ॥

तब मुझे लगता है कि आखिर यह "यूं " कितना गजब ढाता है। यूं होता तो क्या होता? इस यूं में क्या-क्या होता? या क्या-क्या हो सकता है? यह नाटक भी उसी की ओर आगे बढता हुआ एक कदम है। लगता है कि नाटक के लेखक सी.डी. सिद्धू सर भी आपसी मोहब्बत के धर्म , बेगमपुर के ख्वाब और कोलकाता की आधुनिकता के सपनो को अपनी आंखों में संजोये इस नाटक को रचते हैं। और इन सपनों से इंसान को इंसान बनने को प्रेरित करते हैं। इंसान को जिंदगी की तमाम तकलीफों से लड़ने के लिए जंगजू बनाते है। और एक खुशहाल, सुखी जिंदगी जीने के लिए नए-नए सपनो की राह दिखाते हैं। सी.डी. सिद्धू सर के इस नाटक " गालिब-ए-आजम" की यही तो खूबी है। और यह इस नाटक की जान है। अगर मैं " गालिब-ए-आजम " को नहीं देख पाता तो संभवत: गालिब को भी नहीं जान पाता । या यूं कहूं कि एक पूरी जिंदगी को नहीं जान पाता जो गालिब के जरिए हमें अपनी जिंदगी जीना सिखाती है। बकौल गालिब- " बेगम, यही है मेरी जिंदगी भर की कमाई। मेरा "दीवान-ए- गालिब" क्या जिंदगी बख्शी है खुदा ने। हादसों का हुजूम। मुसीबतों का जमघट। मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर मुश्किल को शेयरों में ढालता गया । हर नन्हें मुन्ने की मौत पर, मैं तहयया करता रहा, कि मैं अपने कलम से मलकल मौत से बदला लूंगा। मैं लाफानी कलाम कहूंगा। उमराओ, आज मुस्करा दो । हंस दो। " यह मुस्कराहट, खुशी, हंसी ही जीवन जीने का हौसला। और नाटक के लेखक का मकसद। जो सिद्धू सर के हर नाटक की तरह इस नाटक की पटकथा का अंत है। जब इन सुंदर पक्तिंयों के साथ मंच का पर्दा गिरता है तो "गालिब-ए-आजम" नाटक हमारे दिलो दिमाग पर छा जाता है। शायद सालों के लिए , सदियों के लिए , या फिर जीवन भर के लिए ।

- सुशील कुमार छौक्कर

नोट- यह नाटक रिव्यू "गालिब-ए-आजम" पुस्तक से लिया गया है, पुस्तक के लेखक है डॉ. चरणदास सिद्धू। और प्रकाशित हुआ है "श्री गणेश प्रकाशन"- 32/52 , गली नम्बर -11, भीकम सिंह कालोनी , विश्वास नगर, शाहदरा से ।

Sunday, October 2, 2011

लहूलुहान इंसान

आदमी है कि सिर्फ सांसे ले रहा है 
क्योंकि वह मरना नहीं चाहता है
कभी मां-बाप की बुढ़ी होती हडिडयो की चिंता में
कभी बच्चों की जवान होती मुस्कराहट की फिक्र में
और कभी उसकी खातिर जो हर सुख-दुख में साथ देती है।
वरना तो वह खुद के अंदर बैठे इंसान को
रोज ही लहूलुहान होते देखता है।
उसके जख्मों को अपनी जीभ से चाटता है
इसके अलावा उसके पास कोई चारा है भी क्या ?
क्योंकि
जब तक,
घृणा से देखती आंखे होगीं,
कटु शब्द बोलती जबानें होगीं ,
कमजोर पर उठते हाथ होंगे
सच को कुचलने वाले पैर होंगे,
लूटने वाले शातिर दिमाग होंगे,
जात-पात पर लड़ते इंसान होंगे,
किसानों को ठगते व्यापारी होंगे,
मजदूरों का खून चूसते साहूकार होंगे। 
तब तक
वह ऐसे ही जख्मों को जीभ से सहलाऐगा,
उससे रिसते खून के घूंट पीता जाऐगा।

                                -सुशील छौक्कर

Tuesday, September 27, 2011

बेटी के पांचवे जन्मदिन पर, उसकी छह बातें


बेटी के नन्हें-नन्हें हाथ अब बड़े होने लगे हैं
खिलौनों के साथ-साथ किताबें पेंसिल भी पकड़ने लगी है।


जबान अब इसकी तुतलाती नहीं है
द, आ का डंडा, दा, द ऊ की मात्रा, दू, दादू पढ़ने लगी है।


फरमाईशें छोटी-छोटी करती है
सपने बड़े-बड़े देखती है।


कभी अकेले कमरे में बच्चों को पढ़ाती मिलती है
और कभी हम सबको सुई लगाती फिरती है।


स्कूल जाते वक्त कभी रोती नहीं
होम-वर्क किए बगैर कभी सोती नहीं।


कभी-कभी सहेलियों की देखा-देखी
गाड़ी से स्कूल जाने को कहती है,
लेकिन समझाने पर पैदल ही मुस्कराती चली जाती है।


देख कर इसकी मासूमियत दिल भर आता है
फिर इसके बड़े-बड़े सपनो की खातिर,

दिन-रात एक करने को जी चाहता है।

                                                          - नैना के पापा

Monday, September 5, 2011

शिक्षक दिवस पर, गुरु की बातें

माननीय प्रधान जी ते साथियों:

पहला धिआंवां बाबा नानक,

जिन प्यार दा सबक सिखाया

दूजे धिआंवां भगत सिंध नूं

जालम नूं ललकारे....

C.D.Sidhu Sir

ये दोनों सतरें मेरे नाटक भाइया हाकम सिंह के गीत का हिस्सा हैं। मेरे पूरे नाटकों का विषय पक्ष यही है। बाबा नानक का आपसी प्यार का सबक  सरबत के भले की कामना। और महान क्रांतिकारी भगत सिंह शहीद का शोषण के खिलाफ युद्ध। जालिमों से टक्कर लेना। ये सबक सदियों पुराने हैं। कुल दुनिया के बुजुर्गों ने, कवियों ने, कलाकारों ने, दोहराए हैं। विषय पक्ष, किसी भी लेखक का  संदेश , नितांत नया नहीं हो सकता। तो मेरे 33 नाटकों का नयापन क्या है। मेरी कोशिश रही है कि मैं अपने गांव के लोगों को, अपने इलाके के लोगों को, अपनी बोली के अंदर, मंच पर जीवंत कर सकूँ। और अपने लोगों को उनके पड़ोसियों के किस्से देखा कर, उनके इतिहास की घटनाएं दोहरा कर, जीवन के बारे में अधिक  चौकस कर सकूं- ताकि वे हिम्मत करके, अपनी कमजोरियों से, सामाजिक कुरीतियों से, वहमों-भ्रमों से, आजाद हो सकें। बेइंसाफी सए,जुलम सितम से, जूझ सकें। मैं सतलुज और व्यास दरियाओं की बाहों में पनपते, जरखेज इलाके, दुआबा का जन्मा पला हूँ। गांव  भाम, जिला होशियारपुर। दुआबा हमेशा लोक नाटक का गढ़ रहा है। मैं नकल  और रासलीला खेलने वाली टोलियों का वारिस हूँ। मैंने दुआबा को पूरी  तरह जानने की कोशिश की है। मेरे अधिकतर पात्र  जाने पहचाने जीवन से लिए गए है। उनकी बोली भी वही है  जो मैं बचपन से सुनता आया हूँ।अपने लोगों की सच्ची तस्वीर खेंचने के वास्ते मैं कई बरस देहात में घूमा हूँ। देहाती कपड़े पहनकर। फेरी वाला बनकर , साधु के लिबास में, या कोई दूसरा किरदार बनकर। मैंने अपने लोगों के साथ एकरुप होने की कोशिश की है।मुझे लगातार अहसास रहा है कि मैं दिल्ली में बसते हुए , कॉलेज में पढ़ाते हुए , अपने पिछले जीवन  को, अपनी  जड़ो को, न भूलूं। मैं बे-जमीन गरीब परिवार का पहला बंदा हूँ जो कॉलेज की पढ़ाई करने दिल्ली तक पहुंचा। और वहां से पी.एच.डी करने अमरीका तक गया। मेरे पिता की सदा मुझे ताड़ना रही –" चार  अक्खर अंग्रेजी के पढ़कर कभी अपने आपको गरीबों से ऊंचा मत समझना।" मैं धरती पुत्र हूँ। सदा धरती से जुड़ा रहा हूँ। मेरे नाटकों के पात्र मेरे परिवार के बंदे है। रिश्तेदार हैं। पड़ोसी है। वे दलित लोग जिन्होंने सदियों से जमीन वालों का, रजवाड़ो का, पुजारियों का जुल्म सहा है।उनकी मुशिकलों को, संताप को, मैंने नजदीक से देखा है, झेला है। शायद इसी कारण मैं गरीबों को मंच पर जिंदा खड़ा करने में कामयाब हुआ हूँ। मेरे कुछ दोस्त बताते है, मैं पंजाब का पहला लेखक हूँ जिसने दृढ होकर सेपी का काम करने वाले, बागवान, मोची, जुलाहे, नाई, कहार, कुम्हार,  मिस्तरी, बाजीगर नायक नायिकाओं का सृजन किया है। शायद यही मेरी नाटकों का नयापन है।

बाबा नानक के जीवन ढ़ग का मेरे ऊपर बहुत असर है। अपनी जिंदगी के कई बरस नानक ने दुआबा में बिताए। अपने प्यार के संदेश को उसने हिंदुस्तान के कोने कोने में पहुंचाया।नानक ईमानदार कामगार  के घर की सूखी रोटी खाकर खुश था। बेईमान अमीरों को सरेबाजार  फटकारता था।बाबर जैसे हमलावारों के सताए हुए गरीबों की वेदना  को नानक ने लफ्ज दिए। नानक सरीखे शायर के रास्ते पर  चलते हुए, अगर मैं अपनी कलम से, मजदूरों को जबान दे सकूं, मं अपनी जिंदगी सार्थक समझूंगा। अपने जमाने का नानक बहुत  बहादुर शायर था। हरिद्वार पहुंचकर , नानक ने पाखंडी ब्राहम्णों को ललकारा। गरीबों को इन ठगों से आजाद  करने  की कोशिश की। क्या मैं,आज  अयोध्या  पहुंचकर , मक्का पहुंचकर , कटटरपंथियों को धर्म का सही अर्थ समझाने का हौंसला रखता हूँ। संतो  की वाणी ने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है। खासकर कबीर जुलाहे के ये बोल:


पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़।

तांते  तो चक्की भली, पीस खाये संसार॥

इंकलाब का सबक मुझे इंग्लैंड या अमरीका से लाने की जरुरत नहीं थी। मेरे मुल्क के बुजुर्ग सदियों तक हमें पाखंडियों से, पुजारियों से, खबरदार रहने की शिक्षा देते रहें। अगर मैं अपने नाटकों में उन्हीं की शिक्षा दोहरा सकूं तो मुझे फखर होगा। संत रविदास, नामदेव, सदना, कबीर सब  गृहस्थी थे।इनसे मैंने लेखन के बारें में,कला के सृजन की बाबत, बढ़िया सबक सीखा। कलाकार कोई अलग किस्म का जानवर नहीं होता। कविता के गैबी ताकत की जरुरत नहीं। कला का सृजन  और जूते बनाना, कपड़ा बुनना, खेत  में हल चलाना, बीज  बोना, फसल समेटना एक ही इंसान  कर सकता है। खाली समय में एक कामगार गीत बना सकता है, गा सकता है.... अपने देहात में,परिवार में, मैंने बहुत बंदे देखे है जो रोटी कमाने के धंधे के साथ साथ , नाचने गाने का काम भी कर सकते हैं। मैं भी उन साधारण लोगों जैसा हूँ। 43 बरस मैंने  हंसराज कॉलेज दिल्ली में अग्रेंजी पढ़ाई। नाटक लिखते वक्त , खेलते वक्त, मैंने इसे अपने अध्यापन का ही हिस्सा माना। किताब है?कोई भी बंदा लिख सकता है। नाटय निर्देशन ? हर  बशर कर सकता है। सिर्फ लग्न  चाहिए। मेहनत चाहिए। मैं  इसी किस्म  का मजदूर लेखक हूँ। रंगकर्मी हूँ। अध्यापक हूँ।

बोली के बारे में भी मेरा पक्का अकीदा है: चंगा साहित्य सिर्फ अपनी मां-बोली में रचा जा सकता है। साहित्य  अपने लोगों के साथ अपनी बोली में रचाया हुआ संवाद है। मैं अग्रेंजी में नाटक लिखकर, हिंदुस्तानियों के बारे में, उनकी अच्छाइयों या बुराइयों की बाबत,  इंग्लैंड या अमरीका वालों को रिपोर्ट नहीं भेजनाअ चाहता। मैं भंगी बाबा बंतू के, जुलाहे किरपा राम के, चमार खुशिया राम के, बेटे बेटियों संग सीधी बातचीत करना चाहता हूँ। उनका हौंसला बढ़ाना चाहता हूँ। उनमें बेहतर भविष्य  की कामना जगाना चाहता हूँ। और इस  काम  के लिए सबसे कारगर  माध्यम हमारी मादरी जबान हो सकती है। मेरे सभी नायक-नायकाओं का शिखर है शहीद भगत सिंह। बचपन से मैं अपने इलाके में जन्मे इस सूरमें के किस्से सुनता आया हूँ। मेरी भगत सिंह शहीद:नाटक तिक्कड़ी मेरी पूरी  कृतियों का सार है। तत्व है। भगत सिंह मेरा आदर्श है। जुल्म के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए, सामराजी शाषकों संग जूझने के लिए, मजहब के पाखड़ों को तर्को की तलवार से कत्ल करने के लिए, भगत सिंह हमेशा मेरा प्रेरणा स्त्रोत  रहा है। इन तीन नाटकों में इस महापुरुष का सच्चा  स्वरुप पेश करके मुझे बहुत संतोष मिला है। साहित्य अकादमी ने,  हमारे काम को सराहा है। हम तहदिल से शुक्रगुजार हैं। 

केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा साल 2003 में, "भगत सिंह शहीद: नाटक तिक्कड़ी" को दिए गए सम्मान पर, मेरे गुरु श्री चरणदास सिद्धू जी द्वारा पढा गया पर्चा। और यह पर्चा पुस्तक "ड्रामेबाजियां" से लिया गया है जिसे प्रकाशित किया है "बुकमार्ट पब्लिशर्स" ने , लिखा  है "श्री चरणदास सिद्धू जी" ने। नाटक नाटक लिखने वाले,खिलने वाले और नाटक पढने वालों को यह किताब पसंद आऐगी। 

Tuesday, July 26, 2011

लोकगीतों वाले बाबा...

मुझे अच्छी तरह याद है। उस रोज दिनभर बारिश होती रहीशाम के वक्त बूंदे ज़रा थम गई थीं, लेकिन आकाश पर अभी तक बादल छाए थे ऐसा लगता था कि अभी-अभी मेह फिर बरसने लगेगा मैं और गोपाल मित्तल ‘मकतबा उर्दू’ से ब्रांडर्थ रोड़ की तरफ जा रहे थे अनारकली के चौक पर किसी ने 'मित्तल' का नाम लेकर आवाज दी हमने मुड़कर देखा, बांए हाथ, 'मुल्ला हुसैन हलवाई' की दुकान के सामने, एक सिक्ख युवक हमें बुला रहा था वह युवक 'राजेन्द्र सिंह बेदी' था, जिसे एक बार पहले मैं एक गोष्ठी में देख चुका था उसके साथ एक और व्यक्ति था  लम्बे बाल, लम्बी और लम्बी दाढ़ी , मैला  और लम्बा ओवर कोट ‘आओ, तुम्हे एक बहुत बड़े फ्रॉड से मिलाएं’ 'गोपाल मित्तल' ने कहा ‘किससे ?’ मैंने पूछा. ‘देवेन्द्र सत्यार्थी' से’ उसने जवाब दिया सत्यार्थी उस वक्त गाजर का हलवा खाने में तल्लीन था, इसलिए जब गोपाल ने मेरा परिचय कराया तो उसने विशेष ध्यान न दिया सत्यार्थी ने हलवे की प्लेट खत्म करने के बाद बेदी की तरफ देखा और कहा, ‘ बड़ी मजेदार चीज है, दोस्त! एक प्लेट और नहीं ले दोगे? बेदी उस वक्त गोपाल से किसी साहित्यक विषय पर बातें कर रहा था ‘ले लो’ उसने जल्दी से कहा. ‘लेकिन पैसे?’  सत्यार्थी बोला,’तुम पैसे दो, तब ना! ‘ओह!’ बेदी ने ज़रा चौंकते हुए कहा और हलवाई को पैसे अदा करके हलवे की दूसरी प्लेट  सत्यार्थी के हाथ में थमा दी  सत्यार्थी फिर हलवा खाने में लीन बेदी और मित्तल बातें करने लगे मैं खामोश एक तरफ खड़ा रहा हलवे की दूसरी प्लेट खत्म करने के बाद सत्यार्थी ने अपनी जेब से एक मैला खाकी रुमाल निकालकर हाथ पौंछा। पास पड़ी हुई टीन की कुर्सी पर से अपना  कैमरा और चमड़े का थैला उठाया और गोपाल मित्तल की तरफ बढ़ते हुए बोला,’यार मित्तल, एक खुशखबरी सुनोगे?’ ‘क्या?’ उसने कहा. ‘मैं प्रगतिशील हो गया हूं’ ‘हूं! तो गोया तुमने फिर एक कहानी लिखी है?’... यह मेरी उससे पहली मुलाकात थी

इसके बाद वह मुझे कई बार मिला कभी किसी जनरल मर्चेंट की दुकान के सामनेकभी किसी डाकघर के द्वार परकभी किताबों की किसी दुकान मेंकभी मैकलोड रोड और निस्बत रोडा के चाय-घरों में और कभी यों ही राह चलते चलते...फिर बहुत दिनों तक मेरी और उसकी भेंट नहीं हुई। इसके बाद वह मुझे लाहौर के एक प्रसिद्ध उर्दू प्रकाशक की दुकान पर मिला। सत्यार्थी प्रकाशक की दुकान पर उससे क्षमा याचना करने आया था। कुछ दिन पहले उसने उस प्रकाशक के खिलाफ एक गोष्ठी में एक कहानी पढकर सुनाई थीजिस पर प्रकाशक बेहद खफ़ा था। लेकिन जब सत्यार्थी ने उसे बताया कि यह कहानी वह उसकी पत्रिका में बिना पारिश्रमिक के देने को तैयार है तो प्रकाशक ने उसे माफ कर दिया और उसे अपने साथ निजाम होटल में चाय पिलाने ले गया। मैं और फिक्र तौंसवी भी साथ थे। रास्ते में देवेंद्र सत्यार्थी प्रकाशक के कंधे पर हाथ रखकर चलने लगा और बोला-'चौधरीतुम्हारी पत्रिका उस जिन्न के पेट की तरह हैजो एक बस्ती में घुस आया था। और उस वक्त तक उस बस्ती से बाहर जाने को राजी नहीं हुआ थाजब तक वहां के निवासियों ने उसे यह विश्वास नहीं दिला दिया कि वे प्रतिदिन गुफा में एक आदमी भेंट के तौर पर भेजते रहेंग़े....तुम भी वैसे ही एक जिन्न हो और तुम्हारी पत्रिका तुम्हारा पेट है। हम बेचारे अदीब और शायर हर महीने उसके लिए खाना जुटाते हैंलेकिन उसकी भूख मिटने में नहीं आती।प्रकाशक चुपचाप सुनता रहा। 'अब मेरी तरफ देखो।सत्यार्थी बोला, 'मैंने तुम्हारे खफा होने के डर से तुम्हें मुफ्त कहानी देना स्वीकार कर लिया। लेकिन तुम ही बताओक्या मेरा जी नहीं चाहता कि मैं साफ और सुथरे कपड़े पहनूँऔर मेरे जूते तुम्हारे जूतों की तरह कीमती और चमकीलें हों। मेरी बीवी रेशमी साड़ी पहने और मेरी बच्ची तुम्हारी बच्ची की तरह तांगे में स्कूल जाए। लेकिन कोई मेरी भावनाओं पर ध्यान नहीं देताकोई मुझे मेरी कहानी का मेहनताना बीस रुपये से ज्यादा नहीं देताऔर तुम हो कि बीस रुपये भी हजम कर जाते हो। खैरतुम्हारी मर्जी। चाय पिला देते होयही बहुत है।प्रकाशक फिर भी चुपचाप सुनता रहा...

मैं उसी रोज शाम की गाड़ी से लायलपुर जा रहा था। होटल में पहुंचकर प्रकाशक ने मुझसे पूछा, 'आप वापस कब आऐंगे?' 'दो तीन रोज में।मैंने जवाब दिया। 'तुम कहीं बाहर जा रहे हो?' सत्यार्थी ने पूछा। 'हांदो रोज के लिए लायलपुर जा रहा हूँ।मैंने कहा। 'लायलपुर?' वह बोला और फिर न जाने किस सोच में डूब गया। फिर थोड़ी देर के बाद उसने पूछा, 'अगर मैं तुम्हें अपना कैमरा दे दूँ तो क्या तुम मेरे लिए किसानों के झूमर नृत्य की तस्वीरें उतार लाओगे?' 'मेरे लिए तो यह मुशिकल है।मैंने कहा, 'तुम खुद क्यों नहीं चलते।' 'मैंमेरा जी तो बहुत चाहता है।वह बोला, 'लेकिन' 'वह एक मिनट रुका और फिर थैले के कागजों का एक पुलिंदा निकालकर प्रकाशन से बोला, 'चौधरीयह मेरी नई कहानी हैअगर तुम इसके बदले में मुझे रुपये दे दो।प्रकाशक ने कहानी लेकर जेब में रख ली और बोला, 'आप साहिर से कर्ज ले लीजिए। जब आप लोग लौटेगे तो मैं उन्हें रुपये दे दूंगा।' 'तुम अपनी कहानी वापस ले लो, 'आजकल मेरे पास रुपए हैं।मैंने सत्यार्थी से कहा। लेकिन प्रकाशक ने कहानी वापस नहीं की। सत्यार्थी चुपचाप मेरे साथ चल पड़ा। रास्ते में मैंने उससे कहा,' तुम जल्दी से घर जाकर बतलाते आओ। अभी गाड़ी छूटने में काफी वक्त हैं।' 'नहीं। इसकी कोई जरुरत नहीं।वह बोला, 'मेरी बीवी मेरी आद्त जानती हैअगर मैं दो चार दिन के लिए घर से गायब हो जाऊं तो उसे उलझन या परेशानी नहीं होती।' 'तुम्हारी मर्जी।मैंने कहा और उसे साथ लेकर चल पड़ा। गाड़ी मुसफिरों से खचाखच भरी हुई थी और कहीं तिल धरने को स्थान नहीं था। बहुत से लोग बाहर पायदानों पर लटक रहे तेह और वे लोगजिन्हें पायदानों पर भी जगह नहीं मिली थीगाड़ी की छत पर चढ़ने का प्रयास कर रहे थे। सिर्फ फौजी डिब्बों में जगह थीलेकिन उनमें गैर फौजी सवार नहीं हो सकते थे। 'अब क्या किया जाए।मैंने सत्यार्थी से पूछा। ' ठहरोंमैं किसी सिपाही से बात करता हूँ।वह बोला। 'कुछ फायदा नहींमैंने कहा, 'वो जगह नहीं देंगे।' 'तुम आओ तो सही।वह मुझे बाजू से घसीटते हुए बोला और जाकर एक फौजी से कहने लगा, 'मैं शायर हूँलायलपुर जाना चाहता हूँ। आप मुझे अपने डिब्बे में बिठा लीजिए। मैं रास्ते में आपको गीत सुनाऊंगा।' 'नहीं-नहींहमको गीत-वीत कुछ नहीं चाहिए।डिब्बे में बैठे हुए सिपाही ने जोर से हाथ झटकते हुए कहा। ' क्या मांगता है?' दूसरे फौजी ने अपनी सीट पर से उठते हुए तीसरे फौजी से पूछा। तीसरे फौजी ने बंगला भाषा में उसे कुछ जवाब दिया। 'मैं सचमुच शायर हूँ,' सत्यार्थी ने कहा, ' मुझे सब भाषाएं आती है।और फिर वह बंगला भाषा में बात करने लगा। फौजी आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगे। ' तमिलजानता है?' एक नाटे कद के काले भुजंग फौजी ने डिब्बे कई खिड़की में से सिर निकालकर उससे पूछा। 'तमिलमराठीगुजराती.पंजाबी सब जानता हूँ।सत्यार्थी ने कहा, 'आपको सब भाषाओं के गीत सुनाऊंगा।' 'अच्छा?' तमिल सिपाही ने कहा 'हां!' सत्यार्थी बोला और तमिल में उससे बातें करने लगा। तभी इंजन ने सीटी दी। 'तो क्या मैं अंदर आ जाऊं?' सत्यार्थी ने पूछा। दरवाजे के पास बैठा हुआ सिपाही कुछ सोचने लगा। 'गीत पसंद न आएं तो अगले स्टेशन पर उतार देना।सत्यार्थी बोला। फौजी हंस पड़ा और बोला, 'आ जाओ!' सत्यार्थी मेरे हाथ से अटैची लेकर जल्दी से अंदर घुस गया। मैं डिब्बे के सामने बुत बना खड़ा रहा। 'आओ आओचले आओ।सत्यार्थी ने सीट पर जगह बनाते हुए दोनों हाथों के इशारे से मुझे बुलाया। फौजियों ने घूरकर मेरी तरफ देखा। मैं दो कदम पीछे हट गया। 'यह भी शायर है, ' सत्यार्थी ने कहा, 'यह भी गीत सुनाऐगा। हम दोनों गीत सुनाएंग़े।'

प्रीतनगर के कुछ व्यक्तियों की ओर से उर्दू और पंजाबी के साहित्यकारों को एक संयुक्त पार्टी दी गई। एक कवयित्री और सत्यार्थी साथ-साथ बैठे थे। चाय के बाद शायरी का दौर भी चल रहा था। सब शायरों ने एक एक नज्म सुनाई। लेकिन जब सत्यार्थी की बारी आई तो वह खामोश बैठा रहा। कवयित्री ने कहा, 'आप कुछ सुनाइए न।' ' छोड़िए जी,' सत्यार्थी बोला, ' मेरी कविता में क्या रखा है?' और उसने चाय की प्याली मुंह से लगा ली। तभी एक कोने से आवाज आई, 'घटनाघटना! ' सत्यार्थी से हंसी रोके न रुकी। भक से उसका मुंह खुला और सारी चाय दाढ़ी और कोट पर बिखर गई। वह मैले खाकी रुमाल से चेहरे पर ओट किए अपनी कुर्सी से उठा और नल पर जाकर मुंह धोने लगा। जब वह मुंह धोकर लौटा तो उसका चेहरा बेहद उदास था। कवयित्री के साथ की कुर्सी खाली छोड़कर वह एक कोने में दुबककर बैठ गया। फिर उसने कोई बात नहीं की। पार्टी खत्म होने के बाद मैंने सत्यार्थी से उसकी खामोशी का कारण पूछा तो वह बहुत दुखे दिल से कहने लगा: 'मैं सभ्य लोगों की सोसाईटी में बहुत कम बैठा हूँ। मैंने अपनी सारी उम्र किसानों और खानाबदोशों में बिताई है। और अबजब मुझे मार्डन किस्म की महफिलों में बैठना पड़ता है तो मैं घबरा जाता हूँ। मैं ज्यादा से ज्यादा सावधानी बरतने की कोशिश करता हूँ ,फिर भी मुझसे जरुर कोई न कोई ऐसी हरकत हो जाती हैजो समाज की नजर में आमतौर से अच्छी नहीं समझी जाती हैं।मुझे सत्यार्थी की इस बात से बहुत दुख हुआ। उसने सचमुच बहुत बड़ी कुर्बानी दी थी। लोकगीतों की तलाश में उसने हिंदुस्तान का कोना-कोना छान मारा था। अनगिनत लोगों के सामने हाथ फैलाया था। बीसियों किस्म की बोलियां सीखी थींकिसानों के साथ किसान और खानाबदोशों के साथ खानाबदोशों बनकर अपनी जवानी की उमंगो भरी रातों का गला घोंट दिया था। लेकिन उसकी सारी कोशिशसारी मेहनत और सारी कुर्बानी के बदलें में उसे क्या मिलाएक भुख भरी जिंदगी और एक अतृप्त प्यार...

एक दोपहर जब मैं दफ्तर में दाखिल हुआ तो एक खुशपोश नौजवान पहले से मेरा इंतजार कर रहा था। 'मैं देवेंद्र सत्यार्थी।उसने कहा। मेरी आंखे आश्चर्य से खुली की खुली रह गई। दाढ़ी -मूंछ साफ और सिर पर संक्षिप्त बाल। 'यह देवेंद्र सत्यार्थी को क्या हो गया !' मैंने सोचा। 'बैठो।उसने मुझे हैरान खड़े देखकर कहा। मैं बैठ गया। थोडी देर हम दोनों खामोश बैठे रहे। फिर मैं उसे अपने साथ पास के एक होटल में ले गया। जब बैयरा चाय ले आया तो मैंने पूछा, 'तुमने आखिर यह क्यों किया?' 'यों ही !' वह बोला। 'यह तो कोई जवाब न हुआ।मैंने कहा, 'आखिर कुछ तो वजह होगी।' 'वजह?..... वजह दरअसल यह है, 'वह बोला,' मैं उस रुप से तंग आ गया था। पहले पहल मैं गीत इकटठा करने निकला तो मेरी दाढ़ी नहीं थी। उस वक्त मुझे गीत इकटठे करने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। लोग मुझ पर भरोसा नहीं करते थे। लड़कियां मेरे साथ बैठते हुए हिचकिचाती थी। फिर मैंने दाढ़ी और सिर के बाल बढ़ा लिये और बिल्कुल कलनदरों की सी शक्ल बना ली। इस रुप ने मेरे लिए बहुत सी आसानियां पैदा कर दी। देहाती मेरी इज्जत करने लगे। लड़कियं मुझे दरवेश समझकर मुझसे ताबीज मांगने लगी। मैंने देखाअब उन्हें मेरे नजदीक आने में झिझक महसूस नहीं होती थी। मैं घंटो बैठा उनके गीत सुनता रहता। अब मेरी उदर पूर्ति भी आसानी से हो जाती थीऔर बिना टिकट रेल का सफर करने में भी सुविधा हो गई थी। धीरे धीरे दाढ़ी और जटाएं मेरे व्यक्तित्व का अंग़ बन गई। 'फिर?' मैंने पूछा। 'फिर मैं शहर आ गया, 'वह बोला,' और लिखने को रोजी का जरिया बना लिया। मैं दूसरे लेखकों को देखता तो उन्हें एकदूसरे से इंतहा बेतकल्लुफ पाता। सारे वक्त वो एक दूसरे से हंसते खेलते और मजाक करते रहते। लेकिन यही लोग मुझसे बात करते तो उनके लहजें में तकल्लुफ आ जाता। मुझमें और उनमें आदर का एक बनावटी सा पर्दा खड़ा हो जाता। मुझे यों लगताजैसे मैं उनके दिलों से बहुत दूर हूँआम लोग भी जब मेरे सामने आते तो अदब से बैठ जातेजैसे वो किसी देवता के सामने बैठे होंअपने से ऊंची और अलग हस्ती के सामने। 'फिर?' मैंने पूछा। 'आम मर्दों की निगाह पड़ते ही लड़कियों के चेहरों पर सुर्खी दौड़ जातीउनके गाल तमतमा उठते। लेकिन जब मैं उनकी तरफ देखता तो उनके गालों का रंग वहीं उतर जाता। वो फैसला न कर सकती कि मैं उनकी तरफ पिता की निगाह से देख रहा हूँ या प्रेमी के? 'मैं उस जिंदगी से तंग आ गया था।वह बोला,' मैंने फैसला कर लिया कि मैं अपनी इस शक्ल को बदल दूंगा। मैं देवता नहीं हूँइंसान हूँ और मैं इंसान बन कर ही रहना चाहता हूँ।' 'फिर?' मैंने आखिरी बार पूछा। 'फिरफिर मैं इस वक्त तुम्हारे सामने बैठा हूँ। क्या मेरी शक्ल आम इंसानों की सी नहीं है?' 'है और बिल्कुल है।मैंने कहा, 'लेकिन एक बात बताओ। हज्जाम ने तुमसे क्या चार्ज किया?' 'पांच रुपये।सत्यार्थी ने कहा. 'लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हों?' 'यों ही।मैंने कहा। और फिर हम दोनों मुस्कराने लगे।

फिर दो तीन महीने तक मैंने उस की सूरत नही देखी। एक दिन मैं सत्यार्थी से मिलने उसके घर गया। वह टेबुल लेम्प की हल्की रोशनी में अपने छोटे से कमरे में मेज पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था। कदमों की चाप सुनकर उसने दरवाजे की तरफ घूमकर देखा। 'हैल्लो साहिर!' मैं अंदर चला गया। सत्यार्थी ने दाढी और सिर के बाल् फिर से बढ़ा लिये थे। 'क्यों?' 'मैं कल शाम कई गाड़ी से जा रहा हूँ।मैंने कहा, 'मुझे एक फिल्म कम्पनी में नौकरी मिल गई है।' 'अच्छा?' उसने कहा, 'तब तो आज तुमसे लम्बी चोड़ी बातें होनी चाहिए।उसने फाउन्टेन पेन बंद करके रख दिया। इतने में सत्यार्थी की पत्नी अंदर आ गई। सूरत शक्ल से वह उनीतस-तीस बरस की लगती थी। मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते की। 'नमस्ते।वह बोली। सत्यार्थी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा, 'ये आज यहीं रहेंगे और खाना भी यहीं खाएंगे।वह जाकर खाना ले आई। सत्यार्थी की नौ बरस की बच्ची कविता भी आ गई। हम सब खाना खाने लगे। सत्यार्थी की बीवी हमारे करीब बैठी पंखे से हवा करती रही। ' खाना ठीक है?' उसने पूछा। 'सिर्फ ठीक ही नहीं , बेहद मजेदार है।मैंने कहा। 'हम लोग गरीब है।वह बोली। अचानक मुझे अपने सूट का ख्याल आ गया। 'मेरे पास यही एक सूट है।मैने कहा, 'और यह भी मेरे मामा ने बनवा कर दिया। वह हंसने लगीएक निहायत बेझिझक और पवित्र हंसी। और जब वह खाने खाये जूठे बर्तन उठाकर चली गई तब सत्यार्थी ने मुझसे कहा, 'इस औरत ने मेरे साथ अनगिनत दुख झेले है। हिंदुस्तान का कोई सूबा ऐसा नहींजहां वह भिखारी के साथ भिखारिन बनकर मारी-मारी न फिरी हो। अगर वह मेरा साथ न देती तो शायद मैं अपने उद्धेश्य में सफल न हो सकता।' 'तुम्हारी जिंदगी काबिले-रश्क है! ' मैंने कहा। 'जिंदगीशायद जिंदगी से तुम्हारा मतलब बीवी है। मेरी बीवी वाकई काबिले-रश्क हैहालांकि कई बार इसकी मामूली शक्ल सूरत से मैं बेजार भी हो गया हूँ।मैं दीवार पर लगी हुई तस्वीरों की तरफ देखने लगा। लेनिन...टैगोर...इकबाल....' इन तीनों की शक्ल सूरत के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?' मैंने मुस्कराते हुए पूछा। 'इन तीनों का मेरी जिंदगी पर गहरा असर है।सत्यार्थे बोला और फिर न जाने किस यादों में खो गया।

'जब मैं बिल्कुल नौ उम्र था,' थोडी देर बाद उसने कहा, 'तो मैंने आत्महत्या करने का इरादा किया था। कुछ दोस्तों को पता चल गया। वे मुझे पकड़ कर डाक्टर इकबाल के पास ले गए। इकबाल बहुत देर तक मुझे समझाते रहे। उनकी बातों ने मुझ पर गहरा असर किया और मैंने आत्महत्या का ख्याल को छोड़ दिया। फिर मैंने लेनिन को पढा। और मेरे दिल में गांव-गांव घूमकर लोकगीत इक्टठा करने का ख्याल पैदा हुआ। टेगौर ने मेरे इस ख्याल को सराहा। और मेरा हौंसला बढाया। मैं गीत जमा करता रहा और अबजब ये तीनों मर चुके हैं तो रातों की खामोश तन्हाई में उन गीतों को उर्दू ,हिंदी या इंगलिश में ढालते समय कभी-कभी ऐसा लगता हैजैसे किसान औरतें और मर्द मेरे गिर्द घेरा बनाए खड़े हों और कह रहे हों।अरे बाबाहमने तुम्हें अपना समझा थातुम पर भरोसा किया था। तुम हमारी सदियों की पूंजी को हम से छीनकर शहरों में बेच दोगेयह हमें भूलकर भी शक नही हुआ था। लेकिन तुम हममें से नहीं थे। तुम शहर से आये थे और शहर को लौट गए। अब तुम उन गीतों कोजो हमारे दुख-सुख के साथी थेजिन पर अबतक किसी व्यक्ति के नाम की मुहर नहीं लगी थीअपने नाम की छाप के साथ बाजार में बेच रहे होऔर अपना और अपने बीवी बच्चों का पेट पाल रहे हो। तुम बहुरुपिए होफरेबीधोखेबाजऔर फिर जलती हुई आंखों से मुझे घूरने लगते हैं।' 'यह तुम्हारी भावुकता है, 'मैने कहा, 'तुमने इन गीतों को गांव के सीमित वातावरण से निकालकर असीम कर दिया है। तुमने एक मरती हुई संस्कृति की गोद में महकने वाले फूलों को पतझड़ के पंजों से बचाकर उनकी महक को अमर बना दिया है। यह तुम्हारा कारनामा है। आजाद और समाजवादी भारत में जब शिक्षा आम हो जाऐगी और जीवन शबाब पर आऐगा तो यही किसानजो आज तुम्हारी कल्पना में तुम्हें जलती हुई आंखों से घूरते हैंतुम्हें मुहब्बत और प्यार से देखकर मुस्कराएंग़ेउनके  बच्चें तुम्हें आदर और श्रद्धा के भाव से याद कर सकेंगे।वह मुस्कराने लगा। मैं लाहौर से चला गया और बम्बई में फिल्मी गीत लिखने लगा।

थोड़े दिनों के बाद मैंने सुना कि सत्यार्थी ने लाहौर छौड़ दिया है। और दिल्ली के किसी सरकारी पत्र के सम्पादन विभाग में नौकरी कर ली है। मुझे विश्वास है कि अब सत्यार्थी का लिबास पहले की तरह मैला कुचैला नहीं होता होगा। उसके जूते भी अब लाहौर के प्रकाशक के जूतों की तरह कीमती और चमकीलें होंग़े। नन्ही-मुन्नी कविता अब बड़ी हो गयी होगी और तांगे में स्कूल जाती होगी। लेकिन किसानशायद अब भी सत्यार्थी उनके बारें में सोचता हो।

'साहिर लुधियानवी' का 'देवेन्द्र सत्यार्थी' पर लिखा प्रसिद्ध संस्मरण। जोकि 19 पेज का है पर यहां कुछ ही झांकियों को दिखाया गया है पर फिर भी लय टूटी हो तो माफी चाहूंगा। वैसे ये पूरा संस्मरण 'देवेन्द्र सत्यार्थी' की लिखी किताब "नीलयक्षिणीमें है। जोकि 'पराग प्रकाशन' से छ्पी है। और यही संस्मरण 'प्रकाश मनु' की किताब देवेन्द्र सत्यार्थी की चुनी हुई रचनाएं में भी है। 

Tuesday, June 28, 2011

असरारुल हक मजाज लखनवी

मजाज उर्दू शायरी का कीटस है। मजाज शराबी है। मजाज बड़ा रसिक और चुटकलेबाज है। मजाज के नाम पर गर्ल्स कॉलेज अलीगढ़ में लाटरियां डाली जाती थी कि मजाज किसके हिस्से में पड़ता है। उसकी कवितायें तकियों के नीचे छुपाकर आंसुओं से सींची जाती थीं और कंवारियों अपने भावी बेटों का नाम उसके नाम पर रखने की कसमें खाती थी। 'मजाज के जीवन की सबसे बड़ी टे्जिड़ी औरत है।' मजाज से मिलने से पूर्व मैं मजाज के बारे में तरह तरह की बातें सुना और पढ़ा करता था और उसका रंगारंग चित्र मैंने उसकी रचनाओं में भी देखा था। उसकी नज्म 'आवारा' में तो मैंने उसे साक्षात रूप में देख लिया था। जगमगाती जागती सड़कों पर आवारा फिरने वाला शायर! जिसे रात हंस—हंस कर एक ओर मैखाने और प्रेमिका के घर में चलने को कहती है तो दूसरी ओर सुनसान वीराने में। जो प्रेम की असफलता और संसार के तिरस्कार का शिकार है। जिसके दिल में बेकार जीवन की उदासी भी है। और वातावरण की विषमताओं के विरूद विद्रोह की प्रचंड़ अग्नि भी।

मजाज से मेरी मुलाकात बड़े नाटकीय ढ़ग से हुई। रात के दस का समय होगा। मैं और साहिर नया मुहल्ला पुल बंगश के एक नए मकान में डट रहे थे। हम नहीं चाहते थे कि किसी को कानों कान खबर हो। साहिर चुपके चुपके सामान ढो रहा था और मैं मुहल्ले के बाहर सड़क के किनारे सामान की रखवाली कर रहा था कि एकाएक एक दुबला पतला व्यक्ति अपने शरीर नामक हडिडयों के ढचर पर शेरवानी मढ़े बुरी तरह लड़़खड़ाता और बड़बड़ाता मेरे सामने आ खड़ा हुआ। 'अख्तर शीरानी मर गया— हाए 'अख्तर' ! तू उर्दू का बहुत बडा शायर था— बहुत बड़ा।' वह बार बार यही वाक्या दोहरा रहा था। हाथें से शून्य में पल्टी सीधी रेखायें बना रहा था और साथ-साथ अपने मेजबान को कोस रहा था जिसने घर मे शराब होने पर भी उसे और शराब पीने को न दी थी और अपनी मोटर में बिठाकर रेलवे पुल के पास छोड़ दिया था। ठीक उसी समय कहीं से जोश मलीहाबादी निकल आए और मुझे पहचान कर बोले ' इसे संभालो प्रकाश ! यह मजाज है।' मजाज का नाम सुनते ही मैं एकदम चौंक पड़ा और दूसरे ही क्षण सब कुछ भुलाते हुए मैं इस प्रकार उससे लिपट गया मानों वर्षों पुरानी मुलाकाता हो।

मजाज एक महीना हमारे साथ रहा। उसकी शराबनोशी के बारे में मैं पहले से सुन चुका था और पहली मुलाकात में मुझे इसका तजुर्बा भी हो गया था, लेकिन इस एक महीने में मुझे अनुभव हुआ कि मजाज शराब नहीं पीता, शराब बड़ी बेदर्दी से मजाज को पीती जा रही है। यह अनुभव और भी उग्र हो उठा जब मेरे मौजूदा चांदनी चौक वाले मकान में मजाज लगातार कई महीने मेरे साथ रहा। इस बार मजाज को मैं उर्दू बाजार की एक पुस्तकों की दुकान पर से अर्धमृतावस्था में उठाकर लाया था और मैंने निश्चय किया था कि जहां तक संभव होगा उसे शराब नहीं पीने दूंगा। लेकिन अफसोस! मेरे सभी प्रयत्न व्यर्थ हुए। खाट छोड़ते ही मजाज ने फिर से पीना शुरू कर दिया। इस बुरी तरह कि जीवन में तीसरी बार उस पर नर्वस ब्रेकडाउन का आक्रमण हुआ। विश्वास न आता था, यही वह मजाज है जो होश की हालत में किसी मामूली से छछोरपन को भी गुनाह का दर्जा देता था, जिसे हर समय छोटे बड़े का लिहाज रहता था ओर जो इतना शर्मीला और लजीला था कि स्त्रियों के सामने उसकी नजरें तक न उठती थी। उन दिनों मजाज को देखकर पथ भ्रष्ट महानता का ख्याल आता था। और शायद उसने ठीक ही कहा था कि:

मेरी बर्बादियों का हम—नशीनों।

तुम्हें क्या, खुद मुझे भी गम नहीं है।।

यों तो मजाज को शुरू से रतजगे की बीमारी थी और इसी कारण घर के लोगों ने उसका नाम 'जग्गन' रख छोड़ा था, लेकिन उन दिनों शराब की तंद्रा के अतिरिक्त मजाज को बिल्कुल निद्रा न आती थी। अक्सर रात के डेढ़ दो बजे घर पहुंचता या पहुंचाया जाता। दरवाजा खोलने ओर उसे उसके कमरे में पहुंचाकर खाना खिलाने को मैंने नौकर को ताकीद कर रखी थी। लेकिन मजाज पर उस समय किसी से बातें करने का मूड सवार होता था, अतएव दरवाजा खुलते ही वह सीधा हमारे सोने के कमरे की ओर लपकता। सोने के कमरे का दरवाजा चूंकि भीतर से बंद होता था, इसलिए वह बाहर ही से चिल्लाकर पुकारता ' हद है, अभी से सो गये।' और यह पुकार सुबह चार पांच बजे फिर सुनाई देती ' हद है, अभी तक सो रहे हो।' और यह सिलसिला 5 दिसम्बर 1955 को बलरामपुर हस्पताल, लखनऊ में उस समय समाप्त हुआ जब कुछ मित्रों के साथ मजाज ने बुरी तरह शराब पी। मित्र तो अपने अपने घरों को चले गए लेकिन मजाज रात भर शराबखाने की खुली छत पर सर्दी में पड़ा रहा और उसके दिमाग की रग फट गई।

हमारा देश चूंकि मृतपूजक है इसलिए मजाज की मृत्यू पर अनगिनत लेख लिखे गये और उन लोगों ने भी बड़ा शौक मनाया जो उसकी जबान से उसका कलाम और चलते हए वाक्य सुनने के लिए उसे शराब के रुप में जहर पिलाया करते थे। दिल्ली की महफिलें जहां ऊपर के वर्ग की सुन्दर तथा भद्र महिलायों का झुरमुट होता था, जहां मजाज को ताबडतोड पैग पेश किये जाते थे और उससे ताबड़-तोड़ नज्में और गजलें सुनी जाती थी। जब मजाज का सांस फूल जाता तब उसे ड्राइवर के हवाले कर देते थे कि वो उसके घर छोड़ आए या अगर यह ना होता तो अपने बंगले के किसी कमरें में बंद करके बाहर से ताला लगा देते थे।

मजाज की जिंदगी के हालात बड़े दुखद थे। कभी पूरी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जहां से उसने बी.ए किया, उस पर जान देती थी। गलर्स कालेज में हर जबान पर उसका जिक्र था। उसकी आंखे कितनी सुंदर हैं! उसका कद कितना अच्छा है! वह क्या करता है? कहां रहता है? किसी से प्रेम तो नहीं करता—ये लड़कियों के प्रिय विषय थे और वे अपने कहकहों, चूड़ियों की खनखनाहट और उड़ते हुए दुपटटों की लहरों में उसके शेर गुनगुनाया करती थीं। लेकिन लड़कियों का यही चहेता शायर जब 1936 में रेडियो की ओर के प्रकाशित होने वाली पत्रिका आवाज का सम्पादक बनकर दिल्ली आया तो एक लड़की के ही कारण उसने दिल पर ऐसा घाव खाया जो जीवन भर अच्छा न हो सका । एक वर्ष बाद ही नौकरी छोड़कर जब वह अपने शहर लखनऊ को लौटा तो उसके सम्बंधियों के कथनानुसार वह प्रेम का ज्वाला में बुरी तरह फुंक रहा था और उसने बेतहाशा पीनी शुरू कर दी थी। इसी सिलसिले में 1940 में उस पर नर्वस ब्रेकडाउन का पहला आक्रमण हुआ और यह रट लगी कि फलां लड़की मुझसे शादी करना चाहती है लेकिन रकीब जहर देने की फिक्र में हैं। यहां यह बताना वेमौका न होगा कि मजाज ने दिल्ली के एक चोटी के घराने की अत्यंत सुंदर और इकलौती लड़की से प्रेम किया था, लेकिन उसके विवाहिता होने के कारण यह बेल मंढे न चढ़ सकी थीं।

उपचार से मानसिक दशा सुधरी तो माता पिता ने दिल के घाव का इलाज करना चाहा। लड़की! कोई सी लड़की जो उसके जीवन का सहारा बन सके, जो उसके रिसते हुए नासूर पर मरहम रख सके। मजाज ने सामान्य जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। उसी जमाने में, उसकी छोटी बहिन हमीदा के कथनानुसार चोट पर तस और चोट पड़ी। घर वालों ने किसी प्रकार एक नाता तै किया और मजाज ने शायद आत्म समर्पण में हामी भर दी। लेकिन जब बर—दिखव्वे के तौर पर अपने ससुर की सेवा में उपस्थित हुआ तो हजारों रूपया मासिक कमाने वाले सरकारी पदाधिकारी को डेढ़ सौ रूपल्ली माहवार पाने वाले एसिस्टैंट लायब्रेरियन में कोई आकर्षण नजर न आया। यहां एक बार फिर धन की जीत और कला की हार हुई। शायर ने एक बार दिल की आवाज पर कदम उठाये थे और मुंह के बल गिरा था। अबके अक्ल पर भरोसा किया था, फूंक फूंक कर कदम रखा था, लेकिन फिर ठोकर खा गया और खसिया कर रो पड़ा। और उस पर पागलपन का दूसरा हमला हुआ। अब वह स्वयं ही अपनी महानता के राग अलापता था। शायरों के नामों की सूची तैयार करता और गालिब और इकबाल के नाम के बाद अपना नाम लिखकर सूची समाप्त कर देता था।

मजाज की शायरी का प्रारंभ बिल्कुल परम्परागत ढ़ंग से हुआ और उसने उर्दू शायरी के मिजाज का सदैव ख्याल रखा। खालिस इश्किया शायरी करते हुए भी वह अपने जीवन तथा सामान्य जीवन के प्रभावों तथा प्रकृतियों को विस्मृत नहीं किया। हुस्नो इश्क का एक अलग संसार बसाने की बजाय वह हुस्नों इश्क पर लगे सामाजिक प्रतिबंधो के प्रति अपना रोष प्रकट करता। आसमानी हूरों की ओर देखने की बजाय उसकी नजर रास्ते के गंदे लेकिन हृदयाकर्षक सौंदर्य पर पड़ती और इन दृश्यों के प्रे़क्षण के बाद वह जन साधारण की तरह जीवन के दुख दर्द के बारें में सोचता और फिर कलात्मक निखार के साथ जो शेर कहता, तो उस में केवल किसी जोहराजबी से प्रेम ही नहीं होता, विद्रोह की झलक भी होती। यह विद्रोह कभी वह वर्तमान जीवन व्यस्था से करता, कभी साम्राज्य से, और जीवन की वंचनाओं के वशीभूत कभी कभी इतना कटु हो जाता कि अपनी जोहराजबीनों के रंगमहलों तक को छिन्न भिन्न कर देना चाहता।

इस में संदेह नहीं कि मजाज के जीवन में जितनी कटुतायें थी वह स्वयं ही उन सबका जन्मदाता था, लेकिन वह सदैव अपनी कटुताओं से खेला और उन्हीं से अपने लिए रस भी निचोड़ता रहा। आश्चर्य होता है कि ऐसा दुख भरा जीवन व्यतीत करने पर भी उसने कभी अपनी स्वाभाविक प्रफुल्लता और चुटकलेबाजी को हाथ से न जाने दिया था।

एक बार मित्रों की महफिल में एक ऐसे मित्र आये जिनकी पत्नी का हाल में ही देहांत हो गया था। और वे बहुत उदास थे। सभी मित्र उन्हें धीरज धरने को कहने लगे। एक मित्र ने तजवीज रखी कि दूसरी शादी तो आप करेंगे ही, जल्दी क्यों नहीं कर लेते ताकि यह गम दूर हो जाए। उन महाशय ने बड़ी गंभीरता से कहा कि जी हां, शादी तो मैं करूंगा लेकिन चाहता हूं कि किसी बेवा से करूं। यह सुनना था कि मजाज ने बड़ी सह्दयता प्रकट करते हुए तुरंत कहा, ' भाई साहब, आप शादी कर लीजिये, वह बेचारी खुद ही बेवा हो जाएगी।' अब कौन था जो इस भरपूर वाक्य से आनदिंत हुए बिना रह सकता। स्वयं वह मित्र भी खिलखिला पड़े।

इसी प्रकार एक साहित्य सम्मेलन में भाषण देते हुए जब एक सज्जन ने इकबाल की शायरी के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उसे ध्वंसशील तथा प्रतिक्रिया वादी कह दिया तो श्रोताओं में से इकबाल के किसी ने चिल्लाकर कहा ' अपनी यह बकवास बंद कीजिये। इकबाल की रूह को सदमा पहुंच रहा है। जलसे में शायद गड़बड़ हो जाती, लेकिन मजाज ने तुरंत उठ कर माइक्रोफोन हाथ में लेते हुए कहा ' जनाब! सदमा तो आपकी रूह को पहुंच रहा है, जिसे आप गलती से इकबाल की रूह समझ रहे हैं।' और यों पूरी सभा कहकहा लगा उठी।

यह तो खैर महफिलों और जलसों की बातें है, मजाज रास्ता चलते हुए भी फुलझड़ियां छोड़ता जाता। एक बार एक तांगे को रोक कर तांगे वाले से बोला: 'क्यों मियां, कचहरी जाओगे?' तांगे वाले ने सवारी मिलने की आशा से प्रसन्न होकर उत्तर दिया, 'जायेंगे साब!'  'तो जाओ' मजाज ने कहा और अपने रास्ते पर हो लिया।

नोट- यह लेख "प्रकाश पंडित " के द्वारा लिखा गया है और "मजाज और उनकी शायरी" किताब से लिया गया है जिसे छापा "राजपाल प्रकाशन" हैं। और साथ ही सागर भाई का शुक्रिया जिन्होंने मजाज साहब से हमारा परिचय कराया। 

Tuesday, June 21, 2011

बचपन की गलियां

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मेरे बचपन की गलियां, थी बड़ी खुली-खुली
ट्रेन की आवाजें होती थी, मेरे मां की घंड़ी।
लिखता था तख्ती पर, मुलतानी मिट्टी पोत के
सरकड़ो की कलम बना, काली स्याही में डुबो के।
पाठशाला में जमीन पर बैठा करता था
टाट खुद ही घर से ले जाया करता था।
खट्टी-मीठी संतरे की गोली मुंह में डाल के
क से कलम, द से दवात बोला करता था।
टन-टन बजती जब पूरी छुटटी की घंटी
पीठ पर बस्ता टांगे, हाथ में तख्ती लिए
दौड़ जाता था, शोर मचाते हुए घर के लिए।

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फेंक फिर बस्ते को घर के एक कोने में
भाग जाया करता था भरी दोपहरी में,
गिल्ली-डंड़ा और कंचे खेलने के लिए।
वापिस जब आता था
कमीज की झोली कंचो से भर लाता था।
मां गुस्से में डांटती थी
सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती थी।
नलके पर हाथ मुंह धोते हुए
एक चपत भी लगा दिया करती थी।
लगा मेरी पीठ फिर दीवार पर, पढ़ने बैठा दिया करती थी
स्कूल का सारा काम अपने सामने ही करवाया करती थी।

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शाम ढलती थी, रात होती थी
मां के चूल्हे में आग होती थी।
खिलाकर फिर मुझे रोटी दाल
खाट पर सुला दिया करती थी।

                                             - सुशील छौक्कर

Monday, May 9, 2011

‘वह लड़का आज भी मुझमें बसा हुआ है’

दिल्ली की बेतहाशा गर्मियों वाली दोपहर को चिलचिलाती धूप से पुरानी दिल्ली स्थित हरदयाल सिंह लाइबेरी की छत तप रही थी, पंखे गर्म हवा फेंक रहे थे, बड़े बड़े कूलर भी हांफ रहे थे। मैं सुबह जल्दी ही लाइबेरी आ जाता था, इसलिए एक बजते ही पेट में चूहे हलचल मचाने लगते थे। लाइब्रेरी की बड़ी गोलाकार सफेद घड़ी में एक बजते ही बैग से खाने का डिब्बा निकालकर लाइब्रेरी में मौजूद लड़के लड़कियों के साथ मैं भी बाहर निकल आया। सबने अपने-अपने ठीए संभाल लिए, मैं बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर खाना खाता था। लिहाजा उसी बरगद के पेड़ के नीचे जाकर रोज की तरह वहीं से चायवाले को एक स्पेशल चाय के लिए आवाज लगा दी।
पता नहीं हमारे कुनबे में खाना खाते वक्त कुछ पीने (चाहे वह चाय हो, दूध, लस्सी या फिर रायता) की आदत किसने डाली थी। मैं भी इसे आज तक निभाए जा रहा हूं, या यूं समझिए कि एक आदत सी हो गई है और कहते हैं आदतें छुड़ाए नहीं छूटती हैं। बस चंद पलों में ही चायवाला चान लेकर आ गया। मै।ने खाना खाना शुरू किया। बीच बीच में चाय की चुस्कियां भी लेता रहा। खाना खाने के बाद मैं पुरानी दिल्ली का नजारा देखने लगा। सामने चांदनी चौक को जाने वाली सड़क पर गाड़ियां कम हो रही थी। भीड़ पर गर्मी का असर साफ नजर आ रहा था।
तभी एक सात आठ साल का सांवला सा लड़का, फअी हुई नीली कमीज और मैली सी सफेद निक्कर पहने मेरे पास आया। एक हाथ आगे बढ़ाकर बोला, “ अंकल, एक रूपया दे दो, भूख लगी है।” पहले तो मैं उसे अनदेखा कर इधर उधर देखता रहा। फिर मन में आया कि बोल दूं “परे हट, यह तेरे जैसे बच्चों का रोज का धंधा है” क्योंकि इस इलाके में भिखारियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। पर पता नहीं क्यों एक बार फिर उस पर नजर जाते ही मैं खुद से ही उलझ गया कि पैसे दूं या ना दूं। इसी बीच वह फिर से बोला, “अंकल, एक रूपया दे दो, भूख लगी है।” मैंने झट से अपनी जेब में हाथ डालकर एक सिक्का निकाला, जो दो रूपये का था। यह मैंने उस लड़के को दे दिया। लड़का सिक्का लेकर तुरंत सामने चांदनी चौक की तरफ जाने वाली सड़क की ओर भाग खड़ा हुआ। मैं वहां खड़े होकर खाना खाने के बाद आए नींद के झोंके को भगाने की कोशिश में जुटा था, लू के गर्म गर्म थपेड़ों का मुझसे टकराकर निकलने का सिलसिला जारी था।
लगभग पांच सात मिनट बाद वही लड़का सामने से आता हुआ नजर आया। उसके हाथ में डबल रोटी के टुकड़े और चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। मेरे पास आकर बोला, ” ये लो अंकल,” ना जाने क्यों मेरा हाथ भी एक भिखारी की तरह आगे बढ़ गया और उसने मेरे हाथ पर एक रूपये का चमकता हुआ सिक्का रख दिया। वह जिधर से आया था उसी तरफ चल दिया। मैं एक बुत की तरह खड़ा हुआ, कभी उसे जाते हुए देखता, कभी अपने हाथ पर रखे हुए चमकते सिक्के की तरफ। कुछ ही पलों में वह मेरी आंखो से ओझल हो गया। मगर मेरे दिलो-दिमाग में वह अब भी था।
मैं सोचने लगा कि क्य वह भिखारी था। यदि भिखारी था, तो क्या कोई भिखारी इतना ईमानदार भी हो सकता है? जितना मांगा, उतना ही लिया, जबकि मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं था कि यह दो रूपये का सिक्का है, इसमें से एक रूपया लौटा देना। और अगर भिखारी न भी हो तो भी ले जा चुके पैसों को वापस लौटा देने की मानकिकता कितनों की रहती है? फिर सोचने लगा कि क्या पेट की भूख ने उसे भिखारी बना दिया था क्योंकि आजकल तो धन की भूख में भिखारी ज्यादा बनते दिखाई देते हैं, यदि ऐसा भी नहीं था तो क्या इस देश में ईमानदारी बची है? और बची भी है तो क्या सिर्फ बच्चों में बची है?
कई सारे सवाल दिमाग में दौड़ने लगे थे, यह लाजिमी भी था क्योंकि जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां चारों सिवाय लूट मारी के कुछ नजर नहीं आता। अगर बच्चों में ही ईमानदारी बची है तो मुझे लगता है कि ईश्वर हमें बड़ा होने ही न दें। और यदि हम बड़े हो भी जाएं तो ईमानदार रहना भी सीख जाएं।
यह चमकता हुआ सिक्का सिर्फ सिक्का नहीं रहा। यह उस बच्चें की ईमानदारी का आईना बन गया था जिसमें मैं अपना चेहरा देख सकता था और सोच सकता था कि ईमानदार होने का एक यह भी उदाहरण होता है, जिसके बूते आप किसी के जेहन में हमेशा के लिए बसे रह सकते हैं।
जैसे वह लड़का आज भी मुझमें बसा हुआ है।
नोट- इस बच्चे की ईमानदारी को "तहलका हिंदी" ने 15 मई 2011 के संस्करण के  अपने "आपबीती स्तंभ" में सलाम किया है। और साथ ही ऊपर दिया गया स्केच भी "तहलका" से लिया गया है। शुक्रिया तहलका ।

Friday, April 15, 2011

महाभारत का अरावनी रंग

भारत की परंपराओं, उसके साहित्य और संस्कृति का चित्रण जब भी मंचित होता है तो लगता है जैसे पूरा भारत सिमट कर सामने आ खड़ा हुआ हो । हम उसके रंग में सराबोर होकर झूमने लगते हैं, और अनुभव करते हैं कि भिन्न भिन्न संस्कृतियों के इस महान देश में जन्म लेना कितना सौभाग्यशाली होता है । पिछले दिनों जब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में मेरा जाना हुआ तो अपने देश की अद्धुत छटा बिखेरती हुई उस एक विशेष कला का प्रत्यक्षदर्शी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो महाभारत की कथा के ढेरों प्रसंगों को समेटे हुए थी । जिन कथाओं से हमारी नई पीढ़ी लगभग अनभिज्ञ हैं उसे जानने और समझने का मौका तो प्राप्त हुआ ही साथ ही लोगों की चहल पहल से उस पूरे परिसर के उत्सव जैसे माहौल ने मुझे पूरी तरह रोमांचित कर दिया । कई राज्य के संगठन इसमें हिस्सा ले रहे थे और उनको उपलब्ध कराई गई जगहों के आंगनों में महाभारत की परम्पराओं का सुन्दर चित्रण का रंग चारों तरफ बिखरा हुआ था, जो दिल को बहुत भा रहा था।

प्रभा यादव अपने साथियों के साथ चमकती दमकती साड़ी में अपने वाद्य यंत्र को एक हाथ में लिए महाभारत की कथा का एक प्रसंग सुना रही थी, बिल्कुल ठीक इसके दाएं सामने मैदान में सोलन शिमला, हिमाचल प्रदेश वाले बड़े बड़े सफेद चमड़े के जूते और यु़द्ध की पोशाक पहने धनुश बाण से आपस में दो टोली साठी कौरव और पाशी पांडव बनाए पांडवो और कौरवों की भांति रण में जूझ रहे थे, और घुटनों के नीचे दे दनादन तीर मार रहे थे, इसे ठोड़ा या बिसू युद्ध कला कहा जाता है । ठीक इसके पीछे राजस्थान वाले सफेद कुर्ता, धोती और सिर पर साफा पहने ढोल नगाड़ो की धुनों पर अग्नि नृत्य कर रहे थे, वहीं कुछ दूरी पर आंध्रा वाले एक मंच पर द्रोपदी अम्मन उत्सव को मंचित कर रहे थे, इन्हीं के बीच भीम की रसोई की ओर से आने वाली भोजन की महक ने लोगों को अपनी ओर खींच लिया था, कोई चूरमा बाटी खा रहा था, कोई कचोड़ी का आनंद ले रहा था और कोई कुल्फी का मजा ले रहा था । जिधर देखे उधर ही लोग ही लोग नजर आ रहे थे, क्या बच्चे क्या बूढ़े सब के सब उत्साह में डूबे इस नजारे को चार चांद लगा रहे थे । वही दूसरी ओर इंदिरा कला केंद्र में वर्षो से खड़े वृ़क्ष भी मानों अपने देश की इस अलौकिक पंरपराओं के रंग में डूबे हुए थे, वे सब रंग बिरंगे कपड़ो से ढंके फब रहे थे, और बिजली की बल्बों की पीली रोशनी में ऐसे चमक रहे थे मानो इस पूरे आलम का असली आनंद वे ही उठा रहे हों । रास्ते के किनारों पर लगे राज्यों के प्राकृतिक सौंदर्य वाले बड़े बड़े साईन बोर्ड लोगों को अपनी ओर आकर्शित कर रहे थे, जहां पर खड़े होकर वो लोग इस दृश्य को अपने कैमरों में कैद करने का अवसर नहीं गंवा रहे थे ।

मै इन सब को अपने दिलोदिमाग में रचा-बसा कर अब अरावनियों के आरावन उत्सव का आनंद लेने जा पहुंचा था, जहां एक विशालकाय पेड़ के चारों तरफ लाल, नीले, हरे रंग के कागजों की झालर लगी हुई थी और पेड़ के नीचे बड़ी बड़ी मूछों, चमकती आंखो, कानों में बालियां डाले, माथे पर वैष्णवी तिलक लगाए आरावन देवता की एक मूर्ति सजी हुई रखी थी, जिसके आगे एक दीपक प्रजजवलित था और पेड़ के आसपास चकौर आंगन को लीप कर उसके बीचों बीच सारा, श्वेता, सालिनी, और मेघा मिलकर रंगोली से एक बड़ा सतरंगी फूल बना रही थी । बगल ही में कुछ किन्नर पारम्पारिक कपड़े साड़ी और आधुनिकता की पहचान जींस पहने तमिल भाशा में प्यारे प्यारे गीत गा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ प्रिया मिटटी के घड़ों पर हल्दी लगा रही थी । मुझे बताया गया कि बाद में इन घड़ों में मीठे चावलों को पकाया जाऐगा और आरावन देवता को अर्पित किया जाऐगा । फिर इस प्रसाद को सबसे पहले अपने गुरू को दिया जाऐगा और बाद में सभी को बांट दिया जाऐगा । मेरे मन में जिज्ञासा थी कि आखिर ये आरावन उत्सव है क्या? क्योंकि इतना तो मैं अवश्य जान चुका था कि यह हमारे महाभारत कालीन किसी प्रसंग का हिस्सा है किंतु एक ऐसा हिस्सा है जिसे मुझ जैसे कई लोग नहीं जानते हैं । लिहाजा इस उत्सव के माध्यम से मैं भी उस काल के रंग में डूब जाना चाहता था। और उत्सव के जरिए अपने ऐतिहासिक ग्रंथ के उस विशेष हिस्से से भी परिचित हो जाना चाहता था । मैने जो कुछ भी जाना, समझा उसने मुझे रोमांचित किए बगैर नहीं छोड़ा।

महाभारत की कथा के एक प्रसंग के अनुसार पांडवों को जीत की खातिर पाड़वों को काली माता के मंदिर में एक बलि देनी थी पर उस बलि के लिए कोई भी योदधा आगे नही आया और श्रीकृष्ण उलझन में फंस गए पर तब अर्जुन और नागा राजकुमारी उलुपी के पुत्र आरावन सामने आए और बलि देने को तैयार हुए । किंतु उन्होंने बलि देने के साथ ही अपनी आखिरी इच्छा भी बताई कि वह शादीशुदा होकर मरना चाहता है और पत्नी सुख प्राप्त करना चाहता है । परंतु कोई भी राजा अपनी लड़की की शादी अरावान से करने को तैयार नहीं हुआ । क्योंकि अगले ही दिन उसे विधवा हो जाना पड़ता । कहा जाता है तब श्रीकृष्ण ने मोहनी नामक स्त्री का रूप धारण किया और एक रात अरावन के साथ बिताई । और अगले ही दिन अरावन का खुद को बलि देने के कारण श्रीकृष्ण विधवा हो जाना पड़ा । अरावनी लोग इसी कारण श्रीकृष्ण को अपना पहला पूर्वज मानते है, क्योंकि श्रीकृष्ण पहले पुरूष थे और बाद में स्त्री बने। और अरावन को अपना देवता ।

अरावन को संस्कृत में इरावन कहा जाता है साथ ही इसे इरावत के नाम से भी जाना जाता है । तमिलनाडू के विल्लुपुरम जिले में एक छोटा सा गांव है कूवगम, जहां आरावन का मंदिर है । इस गांव में तमिल के नव वर्ष की पहली पूर्णिमा को हजारों किन्नर और अन्य देखने वाले हजारो लोग हर साल 18 दिन के इस उत्सव के लिए इकटठे होते हैं । पहले 15 दिन मधुर गीतों पर खूब नाच गाना होता है। किन्नर गोल घेरे बनाकर नाचते गाते है, बीच बीच में ताली बजाते है । और हंसी खुशी शादी की तैयारी करते हैं। चारों तरफ घंटियों की आवाज, उत्साही लोगों की आवाजें गूंज रही होती हैं । चारों तरफ के वातावरण को कपूर और चमेली के फूलों की खूशबू महकाती है । 17 वे दिन पुरोहित दवारा विशेष पूजा होती है और अरावन देवता को नारियल चढाया जाता है । उसके बाद आरावन देवता के सामने मंदिर के पुराहित के दवारा किन्नरों के गले में मंगलसूत्र पहनाया जाता है । जिसे थाली कहा जाता है । फिर अरावन मंदिर में अरावन की मूर्ति से शादी रचाते है । अतिंम दिन यानि 18 वे दिन सारे कूवगम गांव में अरावन की प्रतिमा को घूमाया जाता है और फिर उसे तोड़ दिया जाता है । उसके बाद दुल्हन बने किन्नर अपना मंगलसूत्र तोड़ देते है साथ ही चेहरे पर किए सारे श्रृंगार को भी मिटा देते हैं । और सफेद कपड़े पहन लेते है और जोर जोर से छाती पीटते है और खूब रोते है, जिसे देखकर वहां मौजूद लोगों की आंखे भी नम हो जाती है और उसके बाद आरावन उत्सव खत्म हो जाता है । और अगले साल की पहली पूर्णिमा पर फिर से मिलने का वादा करके लोगों का अपने अपने घर को जाने कार्यक्रम शुरू हो जाता है ।

नोट्- आप वाकई  अरावनी  रंग से रुबरु  होना चाहते है तो नीचे दिए लिंक पर जाकर फोटो  भी  देख  सकते हैं। मुझे पूरा  विशवास है कि  आपको  फोटो  पसंद  आऐगी। और हाँ ये  पोस्ट लिखी तो काफी दिनों से  पडी थी बस कुछ निजी समस्याओं के कारण पोस्ट  नहीं हो सकी।

फोटो देखने के लिए नीचे क्लीक करें।

http://boltee-images.blogspot.com/

Monday, January 17, 2011

मंटो मरा नहीं, जिंदा है हम सबके दिलों में!

एक अजीब हादिसा हुआ है। मंटो मर गया है, गो वह एक अर्से से मर रहा था। कभी सुना कि वह पागलखाने में हैं,कभी सुना कि बहुत ज्यादा शराब पीने के कारण अस्पताल में पड़ा है, कभी सुना कि यार-दोस्तों  ने उससे सम्बंध तोड़ लिया है। कभी सुना कि वह और उसके बीबी-बच्चे फ़ाकों गुजर रहे हैं। बहुत‌-सी बातें सुनीं। हमेशा बुरी बातें सुनीं,लेकिन यकीन न आया, क्योंकि इस अर्से में उसकी कहानियाँ बराबर आती रहीं। अच्छी कहानियाँ भी और बुरी कहानियाँ भी। ऐसी कहानियाँ भी जिन्हें पढ़कर मंटो का मुँह नोचने को जी चाहता था, और ऐसी कहानियाँ भी, जिन्हें पढ़कर उसका मुँह चूमने को भी जी चाहता था। मैं समझता था,जब तक ये खत आते रहेंगे,मंटो खैरियत से है। क्या हुआ अगर वह शराब पी रहा है, क्या शराबखोरी सिर्फ साहित्यकारों तक ही सीमित है? क्या हुआ अगर वह फाके कर रहा है, इस देश की तीन चौथाई आबादी ने हमेशा फाके किये है। क्या हुआ अगर वह पागलखाने चला गया है, इस सनकी और पागल समाज मे मंटो ऐसे होशमंद का पागलखाने जाना कोई अचम्भे की बात नहीं। अचम्भा तो इस बात पर है कि वह आज से बहुत पहले पागलखाने क्यों नहीं चला गया। मुझे इन तमाम बातों से न तो कोई हैरत हुई, न कोई अचम्भा हुआ। मंटो कहानियाँ लिख रहा है, मंटो खैरियत से है, खुदा उसके कलम में और जहर भर ​दें। मगर आज जब रेडियो पाकिस्तान यह खबर सुनायी कि मंटो दिल की धड़कन बंद होने के कारण चल बसा तो दिल और दिमाग चलते चलते एक लमहे के लिए रूक गए। दूसरे लमहे में यह यकीन न आया। दिल और दिमाग ने विश्वास न किया कि कभी ऐसा हो सकता है। निमिष भर के लिए मंटो का चेहरा मेरी निगाहों में घूम गया। उसका रोशन चोड़ा माथा,वह तीखी व्यंग्य भरी मुस्कराहट, वह शोले की तरह भड़कता हुआ दिल कभी बुझ सकता है? दूसरे क्षण यकीन करना पड़ा।....आज स​र्दी बहुत है और आसमान पर हल्की हल्की सी बदली छायी हुई है, मगर इस बदली में बारिश की एक बूंद भी नहीं है। मंटो को रोने—रूलाने से इंतहाई नफरत थी। आज मैं उसकी याद में आंसू बहाकर उसे परेशान नहीं करूंगा। मैं आहिस्ता से अपना कोट पहन लेता हूं और घर से बाहर निकल जाता हूं…

घर के बाहर वही बिजली का खम्भा है, जिसके नीचे हम पहली बार मिले थे। यह वही अंडरहिल रोड है,जहां आल इंडिया रेडियो का दफतर था, जहां हम दोनो काम किया करते थे। यह मेडन होटल का बार है,यह मोरी गेट,जहां मंटो रहता था, यह जामा मस्जिद की सीढ़ियां है, जहां हम कबाब खाते थे, यह उर्दू बाजार है। सब कुछ वही है,उसी तरह है। सब जगह उसी तरह से काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है,मेडन होटल का बार भी और उर्दू बाजार भी, क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह एक गरीब साहित्यकार था। वह मंत्री न था कि कहीं कोई झंडा उसके लिए झुकता.… वह एक सतायी हुई जबान का गरीब और सताया हुआ साहित्यकार था। वह मोचियों,तवायफों और तांगेवालों का साहित्यकार था। ऐसे आ​दमी के लिए कौन रौयेगा, कौन अपना काम बंद करेगा? इसलिए आल इंडिया रेडियो खुला है,जिसने उसके डरामे सैकड़ो बार ब्राडकास्ट किये है। उर्दू बाजार भी खुला है, जिसने उसकी हजारों किताबें बेची है और आज भी बेच रहा है। आज मैं उन लोगों को भी हंसता देख रहा हूं,जिन्होने मंटो से हजारों रूपयों की शराब पी है। मंटो मर गया तो क्या हुआ, बिजनेस बिजनेस है? क्षण भर को भी काम नहीं रूकना चाहिए। वह जिसने हमें अपनी सारी जिं​दगी ​दे दी, उसे हम अपने समय का एक क्षण भी नहीं दे सकते। सिर झुकाये क्षण भर के लिए उसकी याद को हम अपने दिलों में ताजा नहीं कर सकते। ....हमने मंटो पर मुकदमे चलाये, उसे भूखा मारा,उसे पागलखाने में पहुंचाया, उसे अस्पतालों में सड़ाया और आखिर में उसे यहां तक मजबूर किया कि वह इंसान को नहीं, शराब की एक बोतल को अपना दोस्त समझने पर मजबूर हो गया। यह कोई नयी बात नहीं। हमने गालिब के साथ यही किया था, प्रेमचंद के साथ यही किया था, हसरत के साथ यही किया था और आज मंटो के साथ भी यही सलूक करेंगे, क्योंकि मंटो कोई उनसे बड़ा साहित्यकार नहीं है, जिसके लिए हम अपने पांच हजार साल की संस्कृति की पुरानी परम्परा को तोड़ दें। हम इंसानो के नहीं, मकबरों के पुजारी हैं….

मंटो एक बहुत बड़ी गाली था। उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं था,जिसे उसने गाली न दी हो। कोई प्रकाशक ऐसा न था, जिससे उसने लड़ाई मोल न ली हो,कोई मालिक ऐसा न था, जिसकी उसने बेइज्जती न की हो। प्रकट रूप से वह प्रगतिशीलों से खुश नहीं था, न अप्रगतिशीलों से, न पाकिस्तान से,न हिंदुस्तान से, न चचा साम से, न रूस से। जाने उसकी बेचैन और बेकरार आत्मा क्या चाहती थी। उसकी जबान बेहद तल्ख थी। शैली थी तो कसैली और कंटीली,नश्तर की तरह तज और बेरहम,लेकिन आप उसकी गाली को,उसकी कड़ी बातों को,उसके तेज,नोकीले,​कंटीले शब्दों को जरा—सा खुरच कर तो ​देखिए,अंदर से जिंदगी का मीठा—मीठा रस टपकने लगेगा। उसकी नफरत में मुहब्बत थी, नग्नता में आवरण,चरित्रहीन औरतों की दास्तानों में उसके साहित्य की सच्चरित्रता छिपी थी। जिंदगी ने मंटो से इंसाफ नहीं किया,लेकिन तारीख जरूर उससे इंसाफ करेगी। ....शाम के वक्त तांगे से मैं,जोय अंसारी,एडीटर शाहराह के साथ जामा मस्जि​द से तीस हजारी अपने घर को आ रहा था। रास्ते में मैं और जोय अंसारी आहिस्ता—आहिस्ता मंटो की शख्सियत और उसके आर्ट पर बहस करते रहे। सड़क पर बहुत गढ़े थे,इसलिए बहस में बहुत—से— नाजुक मुकाम भी आए। एक बार पंजाबी कोचवान ने चौंककर पूछा—क्या कहा जी, मंटो मर गया? जोय अंसारी ने आहिस्ता से कहा, हां भाई! और फिर अपनी बहस शुरू कर दी। कोचवान धीरे—धीरे अपना तांगा चलाता रहा। लेकिन मोरी गेट के पास उसने अपने तांगे को रोक लिया और हमारी तरफ घूमकर बोला— साहब, आप लोग कोई दूसरा तांगा कर लीजिए। मैं आगे नहीं जाउंगा। —उसकी आवाज में एक अजीब—सा दर्द था। इसके पहले कि हम कुछ कह सकते,वह हमारी तरफ देखे बगैर अपने तांगे से उतरा और सीधा सामने की बार में चला गया।

नोट— यह संस्मरण मंटो:मेरा दुश्मन किताब—लेखक अश्क जी,से लिया गया है। इस संस्मरण को कृष्ण चंद जी ने लिखा है। आप मंटो पर लिखी पिछली पोस्टों को भी नीचे दिए लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

मंटो की दो छोटी कहानियाँ

मंटो के किस्से कृष्ण चंद जी की जुबानी

मंटो की पुण्यतिथि पर मंटो को याद करते हए।

Monday, January 3, 2011

सुख हासिल करने का राज !

मैं सुखी होना चाहता हूँ। घंटे भर  के  लिए नहीं। न ही एक या दो दिनों के लिए। बल्कि पूरी जिंदगी के वास्ते। मेरा ख्याल है हर इंसान सुख प्राप्त करना चाहता है।... दुनिया के अंदर सुख हासिल करने के उतने ही तरीके है जितने इस धरती पर इंसान हैं। पहले तो मुझे दो चीजों में फ़र्क बता लेने दीजिए। पहली, सुखी जीवन, या स्थायी सुख की अवस्था । दूसरी, कुछ क्षणों का मजा या स्वादिष्ट अहसास। मैं बड़ा सुखी  महसूस करता हूँ जब मुझे शाहाना खाना मिल जाए या बढिया फिल्म देख लूं , या पुराना यार-दोस्त मिल जाए या जब  मौसम सुहाना हो जाए। मगर इन सब चीजों को मैं सुखी जीवन का आदि और अंत बिल्कुल नहीं मानता। ये तो तेज उड़ जाने वाले क्षण हैं। इनसे उस दिमाग का अंधेरा कतई दूर नहीं हो सकता जो दुखी रहने का आदी हो चुका है। मेरे विचार में, सुख तो एक सोचने की आदत हैं,स्थायी तौर पर अच्छा महसूस करने की हालत है। यह छोटी-मोटी तकलीफों से आजाद हैं; जैसे खराब मौसम, या ज्यादा सैंक लगा हुआ भोजन। सुख तो कभी  न छूटने वाली वो आदत है जिसके जरिए आप हमेशा चीजों के रौशन रुख को ताकते हैं। ...वे कौन-सी चीजें हैं जिनकी मुझे जरुरत है,या कौन-से कार्य हैं जो मुझे करने चाहिएं,ताकि मेरा जीवन सुखी व्यतीत हो सके?...सबसे अधिक महत्व मैं देता हूं अपनी बुनियादी जरुरतों की पूर्ति को। सुखी होने के लिए लाजमी है कि आदमी के पास उचित आराम के साधनों के वास्ते धन हो। वे वस्तुएं जो धन से खरीदी जा सकती हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि मेरे पास करोड़ो रुपए हों, धन दौलत हो-ताकि  मैं निठल्लों वाली सुस्त और ऐशो इशरत वाली जिंदगी काट संकू। नहीं! मैं पैसे का गुलाम ,ऐशपरस्ती का कैदी नहीं बनना चाहता ।  अकेली दौलत इंसान को सुखी नहीं बना सकती। धन से मुझे सिर्फ दो चीजें चाहिएं। पहली, सुरक्षित होने की भावना। दूसरी, फ़ुर्सत, खाली समय।  मैं यूनानी फिलासफर डाओजनीज नहीं हूं -जिसने सिकंदर महान से अपनी धूप के सिवा और कुछ नहीं था मांगा। मेरा ख्याल है, धन के बगैर बंदा सुखी  नहीं हो सकता। खुराक और पोशाक और सिर पर  छत संपूर्ण जीवन के वास्ते  उतने ही आवश्यक हैं जितनी  हमारे सांस लेने के वास्ते हवा। अगर डाओजनीज ने लंबे-चौड़े परिवार के पेट भरने होते, मगर गांठ में धेला न होता, उसको अपनी सुख प्राप्त करने की फिलासफी के अंदर की मूर्खता झट पता लग जाती।... जैसा मैंने पहले कहा, फालतू धन हमें अधिक सुख देने की बजाए हमारे सुख को घटा भी सकता है। आदमी की इच्छाओं का कोई अंत नहीं। धन उसके जीवन को आलसी और निकम्मा बना सकता है। इसी वजह से, इंसान को चौकन्ना  रहना चाहिए। वह अपनी ख्वाहिशों को न बढ़ाए। क्योंकि हमारी सारी-की-सारी तमन्नाएं कभी पूरी नहीं हो सकतीं,अक्ल इसी में है कि हम ख्वाहिशों को घटा के रखें।नहीं तो यकीनी तौर पर हम निराश और दुखी हो जाएंग़े।

अपनी बुनियादी जरुरतों के पूरा होने के बाद, जिस चीज की हमें सुख प्राप्ति के हेतु, सबसे ज्यादा जरुरत है वह है: सब्र ! संतोष ! संतुष्टि के अंदर वह भेद छुपा हुआ है जो हमें चिरंजीव सुख प्रदान करा सकता है। मुझे याद आ रहा है गांधीजी  का जवाब जो उन्होंने एक अग्रेंज लड़्की को दिया था। लड़की ने पूछा: सुख हासिल करने का राज क्या है?..."यह तो बहुत सरल है", गांधीजी बोले। "जिस दिन तुम्हें रोज सवेरे मिलने वाला दूध का प्याला नहीं मिलता, तुम पानी का गिलास पी लो और उसी से संतुष्ट महसूस करो।" इसका मतलब  यह नहीं कि गांधीजी  कहते हैं तुम हर रोज का दूध पीना बंद कर दो, तो ही सुखी रहोगे। सिर्फ  एक दिन , जब तुम्हें दूध नहीं मिलता, हल्ला मत मचाओ। संक्षेप में: अपनी जिंदगी में सब्र संतोष से रहना सीखो। नन्ही-नन्ही मुशिकलों के कारण , दुखी मत हो। एक और चीज जो मैं सुखी जीवन के लिए अनिवार्य समझता हूं, वह है : काम-लगातार मेहनत। जो सुख  अत्यंत दिलचस्प काम दे सकता है, वह और कहीं से नहीं मिल सकता। नाट्ककार बरनर्ड शॉ ने एक बार लिखा: " दुखी होने का भेद जानना चाहते हो? बेकार बैठो  और सोचो: मैं सुखी हूं कि दुखी हूं ?" -यह सही है। निठल्लेपन से जनमते हैं दुखद विचार, जैसे टिड्डी द्लों से जनमते हैं टिडिडयों के बादलो के बादल। इंसान को किसी लाभदायक कार्य में जुटे रहना चाहिए। महान वैज्ञानिक न्यूटन के बारे में एक कहानी सुनाई जाती है। एक बार न्यूटन ने कुछ दोस्तों को खाने पर बुलाया। वह शराब की बोतल लाने के लिए मेज से उठ गया। लेकिन वह लौटकर नहीं आया। चौबीस घंटो के बाद , उसके नौकर ने देखा, न्यूटन अपनी प्रयोगशाला के अंदर तजुरबे करने में मग्न है। वह अपने मेहमानों को, खाने को,आराम और नींद को,पूरी तरह भूल चुका है। इस तरह का हर्षोन्माद हर कामगार को हासिल नहीं होता। लेकिन इससे यह जरुर जाहिर हो जाता है कि हमारे ढेर सारे फिक्र और मुशिकलें कभी पैदा ही नहीं होते अगर हमारे जीवन में महान लक्ष्य हो तथा करने के वास्ते अंतहीन काम  हो।

जिस काम को आदमी करे वो काम अपने  फायदे के वास्ते तो होना ही हुआ। साथ ही यह कार्य समाज की भलाई के वास्ते भी हो। एक खुदगर्ज बंदा कभी सुखी नहीं हो सकता । मिसाल के तौर एक चोर को ले लो। दूसरों को लूटने के वास्ते जितनी मुशक्कत चोर करता है, उसमें से उसे सुख कभी हासिल नहीं हो सकता। सुखी जीवन स्वार्थहीन जीवन होता है। जरुरतमंदो की मदद करने  से, इंसानियत की खुशियों में बढोतरी करने से आनंद प्राप्त होता है। किसी मुजरिम को, डाकू को, गरीबों का शौषण करने वाले को, कभी मन की शांति नहीं  मिल सकती । और इसके उलट अपने आपकी कुर्बानी हमें नेक बनाती है। हमारा आत्मसम्मान बढ़ाती है। दूसरों के लिए जीने वाला महापुरुष सदा के लिए सुखी रहेगा। गांधीजी और नेहरु ने अपनी जिंदगियां  अपने देशवासियों को सुखी बनाने के वास्ते खर्च कर  दी। उन्होंने कई बरस फिरंगी की जेलों में काटे। अनगिनत कष्ट झेले। लेकिन वे दुखी  नहीं थे। जालिम उनके शरीरों को यातना दे सकते थे मगर  उनकी रुहें स्थायी उजाले में रहती थीं। दूसरों की भलाई के लिए काम करने की ललक उनको हर वेला सुखी और उत्साहित रखती थी। भगत सिंह को अंग्रेंजो ने  फांसी पर चढ़ाया, लेकिन उससे ज्यादा सुखी मौत और किसी को भी नसीब नहीं हुई। सुख वह शै है जो आपको मिलती है जब आप इसे दूसरों में बांट देते हैं। स्वार्थी बनो और दूसरों का सुख छीनने की कोशिश करो, तुम कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकते। असल में सुख और दिल की नेकी एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। जो मनुष्य दूसरों से नफरत करता है और नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है, वह अवश्य ही दुखी होगा। दूसरों को दुख देने का एक भी  विचार आपकी खुशी तबाह कर सकता है। "अपने पड़ोसियों से प्यार करो।" यह मात्र धार्मिक शिक्षा नहीं है। यह तो जीवन का सदाबहार सत्य है। इसको सुखी जीवन का सूत्र स्वीकार करना चाहिए।"किसी से नफरत नहीं, हर एक से प्यार।"(अब्राहम लिंकन)

जीवन के लिए प्यार जरुरी है। सिर्फ बाहर  की दुनिया के लिए प्यार नहीं चाहिए। केवल पराए लोगों के  वास्ते ही जीना नहीं चाहिए। बल्कि,इंसान को अपने यारों-दोस्तों से, सगे-संबंधियों से भी घनिष्ट प्रेम-बंधन गांठने चाहिए। अपने परिवार के सदस्यों की मुहब्बत के बगैर इंसान सुखी नहीं हो सकता । वह सबका प्रेम प्राप्त करे। और सबको मोह प्यार दे। दोस्ती जैसी सुखदायक  वस्तु दुनिया में दूसरी कोई नहीं। हमारे मित्र हमें सैकड़ो दुखो तकलीफो से बचा सकते हैं। जबकि मित्रहीन जिंदगी  कइयों को आत्महत्या करने पर  मजबूर कर देती है।
संक्षेप में: मेरी दृष्टि में, एक सुखी जिंदगी वो होती है जिसमें जरुरी  आराम की चीजें हों, मगर ऐशपरस्ती न हो। इसमें किसी किस्म का अभाव महसूस न हो। सब्र संतोष हो। इसके लिए आवश्यक है कि आदमी तगड़ा काम करे जो इंसानियत  की भलाई की खातिर हो। सबसे अहम बात-एक सुखी  जीवन रिश्तेदारों  और दोस्तों की संगत में, दूसरों के वास्ते  जिया जाए।

 नोट-यह अंश सी.डी सिंद्धू सर की किताब-नाट्ककार चरणदास सिंद्धू शब्द-चित्र से लिया गया है जिसका संपादन रवि तनेजा सर ने किया है और श्री प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है। इस अंश को यहाँ पोस्ट करने का मकसद केवल ये है कि अक्सर यार दोस्तों और नजदीकीयों से सुनने को मिलता है " यार जिंदगी में मजा नहीं आ रहा। " उनके पास सवाल है जवाब नहीं। इसलिए मुझे लगा इस लेख में कुछ हद तक जवाब है। इंसान जिंदगी मजे से जीए बस यही चाहते है हम।  

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