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Monday, January 17, 2011

मंटो मरा नहीं, जिंदा है हम सबके दिलों में!

एक अजीब हादिसा हुआ है। मंटो मर गया है, गो वह एक अर्से से मर रहा था। कभी सुना कि वह पागलखाने में हैं,कभी सुना कि बहुत ज्यादा शराब पीने के कारण अस्पताल में पड़ा है, कभी सुना कि यार-दोस्तों  ने उससे सम्बंध तोड़ लिया है। कभी सुना कि वह और उसके बीबी-बच्चे फ़ाकों गुजर रहे हैं। बहुत‌-सी बातें सुनीं। हमेशा बुरी बातें सुनीं,लेकिन यकीन न आया, क्योंकि इस अर्से में उसकी कहानियाँ बराबर आती रहीं। अच्छी कहानियाँ भी और बुरी कहानियाँ भी। ऐसी कहानियाँ भी जिन्हें पढ़कर मंटो का मुँह नोचने को जी चाहता था, और ऐसी कहानियाँ भी, जिन्हें पढ़कर उसका मुँह चूमने को भी जी चाहता था। मैं समझता था,जब तक ये खत आते रहेंगे,मंटो खैरियत से है। क्या हुआ अगर वह शराब पी रहा है, क्या शराबखोरी सिर्फ साहित्यकारों तक ही सीमित है? क्या हुआ अगर वह फाके कर रहा है, इस देश की तीन चौथाई आबादी ने हमेशा फाके किये है। क्या हुआ अगर वह पागलखाने चला गया है, इस सनकी और पागल समाज मे मंटो ऐसे होशमंद का पागलखाने जाना कोई अचम्भे की बात नहीं। अचम्भा तो इस बात पर है कि वह आज से बहुत पहले पागलखाने क्यों नहीं चला गया। मुझे इन तमाम बातों से न तो कोई हैरत हुई, न कोई अचम्भा हुआ। मंटो कहानियाँ लिख रहा है, मंटो खैरियत से है, खुदा उसके कलम में और जहर भर ​दें। मगर आज जब रेडियो पाकिस्तान यह खबर सुनायी कि मंटो दिल की धड़कन बंद होने के कारण चल बसा तो दिल और दिमाग चलते चलते एक लमहे के लिए रूक गए। दूसरे लमहे में यह यकीन न आया। दिल और दिमाग ने विश्वास न किया कि कभी ऐसा हो सकता है। निमिष भर के लिए मंटो का चेहरा मेरी निगाहों में घूम गया। उसका रोशन चोड़ा माथा,वह तीखी व्यंग्य भरी मुस्कराहट, वह शोले की तरह भड़कता हुआ दिल कभी बुझ सकता है? दूसरे क्षण यकीन करना पड़ा।....आज स​र्दी बहुत है और आसमान पर हल्की हल्की सी बदली छायी हुई है, मगर इस बदली में बारिश की एक बूंद भी नहीं है। मंटो को रोने—रूलाने से इंतहाई नफरत थी। आज मैं उसकी याद में आंसू बहाकर उसे परेशान नहीं करूंगा। मैं आहिस्ता से अपना कोट पहन लेता हूं और घर से बाहर निकल जाता हूं…

घर के बाहर वही बिजली का खम्भा है, जिसके नीचे हम पहली बार मिले थे। यह वही अंडरहिल रोड है,जहां आल इंडिया रेडियो का दफतर था, जहां हम दोनो काम किया करते थे। यह मेडन होटल का बार है,यह मोरी गेट,जहां मंटो रहता था, यह जामा मस्जिद की सीढ़ियां है, जहां हम कबाब खाते थे, यह उर्दू बाजार है। सब कुछ वही है,उसी तरह है। सब जगह उसी तरह से काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है,मेडन होटल का बार भी और उर्दू बाजार भी, क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह एक गरीब साहित्यकार था। वह मंत्री न था कि कहीं कोई झंडा उसके लिए झुकता.… वह एक सतायी हुई जबान का गरीब और सताया हुआ साहित्यकार था। वह मोचियों,तवायफों और तांगेवालों का साहित्यकार था। ऐसे आ​दमी के लिए कौन रौयेगा, कौन अपना काम बंद करेगा? इसलिए आल इंडिया रेडियो खुला है,जिसने उसके डरामे सैकड़ो बार ब्राडकास्ट किये है। उर्दू बाजार भी खुला है, जिसने उसकी हजारों किताबें बेची है और आज भी बेच रहा है। आज मैं उन लोगों को भी हंसता देख रहा हूं,जिन्होने मंटो से हजारों रूपयों की शराब पी है। मंटो मर गया तो क्या हुआ, बिजनेस बिजनेस है? क्षण भर को भी काम नहीं रूकना चाहिए। वह जिसने हमें अपनी सारी जिं​दगी ​दे दी, उसे हम अपने समय का एक क्षण भी नहीं दे सकते। सिर झुकाये क्षण भर के लिए उसकी याद को हम अपने दिलों में ताजा नहीं कर सकते। ....हमने मंटो पर मुकदमे चलाये, उसे भूखा मारा,उसे पागलखाने में पहुंचाया, उसे अस्पतालों में सड़ाया और आखिर में उसे यहां तक मजबूर किया कि वह इंसान को नहीं, शराब की एक बोतल को अपना दोस्त समझने पर मजबूर हो गया। यह कोई नयी बात नहीं। हमने गालिब के साथ यही किया था, प्रेमचंद के साथ यही किया था, हसरत के साथ यही किया था और आज मंटो के साथ भी यही सलूक करेंगे, क्योंकि मंटो कोई उनसे बड़ा साहित्यकार नहीं है, जिसके लिए हम अपने पांच हजार साल की संस्कृति की पुरानी परम्परा को तोड़ दें। हम इंसानो के नहीं, मकबरों के पुजारी हैं….

मंटो एक बहुत बड़ी गाली था। उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं था,जिसे उसने गाली न दी हो। कोई प्रकाशक ऐसा न था, जिससे उसने लड़ाई मोल न ली हो,कोई मालिक ऐसा न था, जिसकी उसने बेइज्जती न की हो। प्रकट रूप से वह प्रगतिशीलों से खुश नहीं था, न अप्रगतिशीलों से, न पाकिस्तान से,न हिंदुस्तान से, न चचा साम से, न रूस से। जाने उसकी बेचैन और बेकरार आत्मा क्या चाहती थी। उसकी जबान बेहद तल्ख थी। शैली थी तो कसैली और कंटीली,नश्तर की तरह तज और बेरहम,लेकिन आप उसकी गाली को,उसकी कड़ी बातों को,उसके तेज,नोकीले,​कंटीले शब्दों को जरा—सा खुरच कर तो ​देखिए,अंदर से जिंदगी का मीठा—मीठा रस टपकने लगेगा। उसकी नफरत में मुहब्बत थी, नग्नता में आवरण,चरित्रहीन औरतों की दास्तानों में उसके साहित्य की सच्चरित्रता छिपी थी। जिंदगी ने मंटो से इंसाफ नहीं किया,लेकिन तारीख जरूर उससे इंसाफ करेगी। ....शाम के वक्त तांगे से मैं,जोय अंसारी,एडीटर शाहराह के साथ जामा मस्जि​द से तीस हजारी अपने घर को आ रहा था। रास्ते में मैं और जोय अंसारी आहिस्ता—आहिस्ता मंटो की शख्सियत और उसके आर्ट पर बहस करते रहे। सड़क पर बहुत गढ़े थे,इसलिए बहस में बहुत—से— नाजुक मुकाम भी आए। एक बार पंजाबी कोचवान ने चौंककर पूछा—क्या कहा जी, मंटो मर गया? जोय अंसारी ने आहिस्ता से कहा, हां भाई! और फिर अपनी बहस शुरू कर दी। कोचवान धीरे—धीरे अपना तांगा चलाता रहा। लेकिन मोरी गेट के पास उसने अपने तांगे को रोक लिया और हमारी तरफ घूमकर बोला— साहब, आप लोग कोई दूसरा तांगा कर लीजिए। मैं आगे नहीं जाउंगा। —उसकी आवाज में एक अजीब—सा दर्द था। इसके पहले कि हम कुछ कह सकते,वह हमारी तरफ देखे बगैर अपने तांगे से उतरा और सीधा सामने की बार में चला गया।

नोट— यह संस्मरण मंटो:मेरा दुश्मन किताब—लेखक अश्क जी,से लिया गया है। इस संस्मरण को कृष्ण चंद जी ने लिखा है। आप मंटो पर लिखी पिछली पोस्टों को भी नीचे दिए लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

मंटो की दो छोटी कहानियाँ

मंटो के किस्से कृष्ण चंद जी की जुबानी

Monday, May 11, 2009

मंटो का जन्मदिन और उनसे जुड़ॆ किस्सें

मंटो का जन्मदिन
आज मंटो जी का जन्मदिन हैं सोचा आप साथियों के साथ मनाया जाए। कहानियाँ तो आपने पढ़ी ही होगी इसलिए आज कहानी ना देकर उनसे जुड़ॆ किस्से दे रहा हूँ जो कृशन चन्दर जी ने लिखे है। "मंटो: मेरा दुश्मन " किताब में। मैं मंटो के लेखन के लिए बैचेन इसी किताब को पढकर हुआ था। और फिर जब कहानियाँ पढ़ी तो मंटो के मुरीद हो गए हम। तो पेश हैं वो किस्सें। आप भी कमेंट देते वक्त अपने अनुभव लिख सकते है मंटो के बारे में। शायद पोस्ट बडी हो गई है उसके लिए माफ़ी।

पहला किस्सा
मंटो के पास टाइपराईटर था और मंटो अपने तमाम ड्रामे इसी तरह लिखता था कि काग़ज़ को टाइपराईटर पर चढ़ा कर बैठ जाता था और टाइप करना शुरु कर देता था। मंटो का ख्याल है कि टाईपराइटर से बढ़कर प्रेरणा देने वाली दूसरी कोई मशीन दुनिया में नहीं है। शब्द गढ़ॆ-ग़ढाये मोतियों की आब लिए हुए, साफ़-सुथरे मशीन से निकल जाते है। क़लम की तरह नहीं कि निब घिसी हुई है तो रोशनाई कम है या काग़ज़ इतना पतला है कि स्याही उसके आर-पार हो जाती है या खुरदरा है और स्याही फैल जाती है। एक लेखक के लिए टाइपराइटर उतना ही ज़रुरी है जितना पति के लिए पत्नी। और एक उपेन्द्र नाथ अश्क और किशन चन्दर है कि क़लम घिस-घिस किए जा रहे है। " अरे मियाँ, कहीं अज़ीम अंदब की तखलीक़ (महान साहित्य का सृजन) आठ आने के होल्डर से भी हो सकता है। तुम गधे हो, निरे गधे।" मैं तो ख़ैर चुप रहा, पर दो-तीन दिन के बाद हम लोग क्या देखते है कि अश्क साहब अपने बग़ल में उर्दू का टाईपराईटर दबाये चले आ रहे है और अपने मंटो की मेज़ के सामने अपना टाइपराइटर सजा दिया और खट-खट करने लगे। " अरे, उर्दू के टाइपराइटर से क्या होता है? अँग्रेजी टाइपराइटर भी होना चाहिए। किशन, तुमने मेरा अँग्रेज़ी का टाइपराइटर देखा है? दिल्ली भर में ऐसा टाइपराइटर कहीं न होगा। एक दिन लाकर तुम्हें दिखाऊँगा।" अशक ने इस पर न केवल अँग्रेजी का, बल्कि हिन्दी का टाइपराइटर भी ख़रीद लिया। अब जब अशक आता तो अकसर चपरासी एक छोड़ तीन टाइपराइटर उठाये उसके पीछे दाखिल होता और अश्क मंटो के सामने से गुज़र जाता, क्योंकि मंटो के पास सिर्फ दो टाइपराइटर थे। आख़िर मंटो ने ग़ुस्से में आकर अपना अँग्रेजी टाइपराईटर भी बेच दिया और फिर उर्दू टाईपराइटर को भी वह नहीं रखना चाहता था, पर उससे काम में थोड़ी आसानी हो जाती थी, इसलिए उसे पहले पहल नहीं बेचा- पर तीन टाइपराइटर की मार वह कब तक खाता। आख़िर उसने उर्दू का टाइपराइटर भी बेच दिया। कहने लगा, " लाख कहो, वह बात मशीन में नहीं आ सकती जो क़लम में है। काग़ज़, क़लम और दिमाग में जो रिश्ता है वह टाइपराइटर से क़ायम नहीं होता। एक तो कमबख़्त खटाख़ट शोर किए जाता है- मुसलसल, मुतवातिर- और क़लम किस रवानी से चलता है। मालूम होता है रोशनाई सीधी दिमाग़ से निकल कर काग़ज की सतह पर बह रही है। हाय, यह शेफ़र्स का क़लम किस क़दर ख़ूबसूरत है। इस नुकीला स्ट्रीमलाईन हुस्न देखो, जैसे बान्द्रा की क्रिशिचयन छोकरी।" और अश्क ने जल कर कहा, " तुम्हारा भी कोई दीन-ईमान है। कल तक टाइपराइटर की तारीफ़ करते थे। आज अपने पास टाइपराइटर है तो क़लम की तारीफ़ करने लगे। वाह। यह भी कोई बात है। हमारे एक हजार रुपये ख़र्च हो गये।"
मंटो ज़ोर से हँसने लगा।

दूसरा किस्सा
आज से चौदह साल पहले मैंने और मंटो ने मिलकर एक फिल्मी कहानी लिखी थी, "बनजारा" । मंटो ने आज तक किसी दूसरे साहित्यकार के साथ मिलकर कोई कहानी नहीं लिखी- न उसके पहले, न उसके बाद। लेकिन वे दिन बडी सख्त सर्दियों के दिन थे । मेरा सूट पुराना पड़ गया था और मंटो का सूट भी पुराना पड़ गया था। मंटो मेरे पास आया और बोला-" ए किशन । नया सूट चाहता है?" मैंने कहा, हाँ। "तो चल मेरे साथ।" "कहाँ?" "बस, ज़्यादा बकवास न कर, चल मेरे साथ।" हम लोग एक डिस्ट्रीब्यूटर के पास गये। मैं वहाँ अगर कुछ कहता, तो सचमुच बकवास ही होता, इसलिए मैं ख़ामोश रहा। वह डिसृट्रीब्यूटर फ़िल्म प्रोडेक्शन के मैदान में आना चाहता था। मंटो ने पन्द्रह बीस मिनट की बातचीत में उसे कहानी बेच दी और उससे पाँच सौ रुपये नकद ले लिये। बाहर आकर उसने मुझे ढाई सौ दिये , ढाई सौ रुपये खुद रख लिये। फिर हम लोगों ने अपने-अपने सूट के लिए बढिया कपड़ा खरीदा और अब्दुल गनी टेलर मास्टर की दुकान पर गये। उसे सूट जल्दी तैयार करने की ताक़ीद की। फिर सूट तैयार हो गए। पहन भी लिये गए। मगर सूट का कपड़ा दर्ज़ी को देने और सिलने के दौरान में जो समय बीता, उसमें हम काफ़ी रुपये घोल कर पी गये। चुनांचे अब्दुल ग़नी की सिलाई उधार रही और उसने हमें सूट पहनने के लिए दे दिये। मगर कई माह तक हम लोग उसका उधार न चुका सके। एक दिन मंटो और मैं कशमीरी गेट से गुजर रहे थे कि मास्टर ग़नी ने हमें पकड़ लिया। मैंने सोचा, आज साफ-साफ बेइज़्ज़ती होगी। मास्टर ग़नी ने मंटो को गरेबान से पकड़ कर कहा, "वह 'हतक' तुमने लिखी है?" मंटो ने कहा, "लिखी है तो क्या हुआ? अगर तुमसे सूट उधार लिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम मेरी कहानी के अच्छे आलोचक भी हो सकते हो। यह गरेबान छोड़ो।" अब्दुल ग़नी के चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कराहट आयी। उसने मंटो का गरेबान छोड़ दिया और उसकी तरफ अजीब-सी नजरों से देखकर कहने लगा, " जा, तेरे उधार के पैसे माफ़ किये।" वह पलटकर चला गया। चंद लम्हों के लिए मंटो बिल्कुल ख़ामोश खड़ा रहा। वह इस तारीफ़ से बिल्कुल खुश नहीं हुआ। बड़ा संजीदा और दुखी और खफ़ा-ख़फ़ा सा नजर आने लगा, "साला क्या समझता है। मुझे सताता है। मैं उसकी पाई-पाई चुका दूँगा। साला समझता है 'हतक' मेरी अच्छी कहानी है। 'हतक'? 'हतक' तो मेरी सबसे बुरी कहानी है।"

पिछले जन्मदिन पर भी एक पोस्ट की थी आप चाहे तो उसे भी पढ सकते है। नीचे दिये लिंक में।

सआदत हसन मंटो का जन्मदिन और उनकी दो छोटी कहानियाँ

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