Sunday, September 14, 2025

आलथी-पालथी और शादी का किस्सा...

आज सुबह काजल जी ने उकडू बैठने से संबधित पोस्ट लगाई. तो हमें अपना कुछ याद हो आया. वैसे तो हम बचपन से उकडू बैठते रहे हैं. वो अलग बात है कि अब शायद ही बैठ पाएं क्योंकि याद नहीं आख़िरी बार उकडू कब बैठा था. बचपन में हम सुबह-सुबह खेत (यमुना खादर के खेत) में ही जंगल होने ( जंगल होने मतलब दिशा मैदान यानि हल्के होने 😄 ) जाते थे. फिर बाद में घर में देसी टॉयलेट बनवा ली. लेकिन ये आलथी-पालथी वाला काम हमसे नहीं हो पाता था. दरअसल बचपन से ही दीवार से पीठ लगाकर ही खाना खाते थे और फिर पढ़ाई भी ऐसे ही दीवार से पीठ लगाकर ही कर लेते थे. फिर बाद में पढ़ाई के लिए कुर्सी मेज आ गए. फिर बाद में जब घर में नए कमरे बने तो हमने अपने बाथरूम में अपने लिए वेस्टन टॉयलेट बनवा ली. बस फिर क्या था हम उकडू बैठना भूल गए 😄 जिंदगी अपनी रफ्तार से चल ही रही थी. हम बड़े हुए. इतने बड़े कि शादी की चर्चा होने लगी. लेकिन जब शादी की बातचीत शुरू हुई तो घर-कुनबे में चर्चा शुरू हुई कि ये फेरों पर कैसे करेगा. फेरों में तो काफी देर तक आलथी-पालथी मारकर बैठना पड़ता है. खैर आपां ने ज्यादा परवाह नहीं की. लेकिन जब रिश्ता तय हो गया तो हमें भी लगा बेटा कुछ तो करना पड़ेगा. लेकिन फिर जो कुछ भी किया धरा गया. उससे बात नहीं बनी. बननी भी नहीं थी. जो आदमी बचपन से आलथी-पालथी लगाकर ना बैठता हो, वो चार दिन में कैसे आलथी-पालथी मारकर बैठने लगता. पैरों की स्टिफ़नेस बनी रही. जोकि आज भी बनी हुई है. खैर किस्सा तो अब शुरू होता है. वहीं फिर एक दिन लड़की वाले सगाई करने आ गए. छोटा सा कार्यक्रम था. हम आलथी-पालथी मारकर बैठ गए. दोनों टांगे ऐसे उठी हुईं थी कि जैसे किसी चारपाई को उलटा कर दो तो उसके पाए खड़े हो जाते हैं 😄 सिर पर रुमाल रखा हुआ था. कुछ देर बाद कंधे पर रखे तोलिये की झोली बनवा दी गई, जिसमें लड़की वालों की तरफ से कुछ सामान दिया गया था. फिर जब उठने का इशारा हुआ तो आपां ने एक हाथ से तौलिए की झोली पकड़ी और एक हाथ फर्श पर लगाकर उठ गए. कार्यक्रम खत्म होने से कुछ देर पहले ही कहानी में हमारी वाइफ के फूफा जी प्रकट हुए. आप समझ ही गए होंगे. फूफा जी मतलब. ये बात मुझे बाद में पता चली लेकिन हो उसी दिन गई थी कि फूफा जी कह रहे हैं कि लड़के के पैर ठीक नहीं हैं. खैर हमारे ससुर जी उन पर नाराज हुए. इतने नाराज कि उस दिन के बाद सिर्फ शादी के दिन ही फूफा जी ससुराल वाले घर में नजर आए.

खैर जब इस प्रकार की घटना हो जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है. हम परेशान कि क्या किया जाए. होना जाना तो कुछ नहीं था. आपां के वश में नहीं था कि पैरों की स्टिफ़नेस को इतनी जल्दी दूर कर दें. जब शादी का दिन नजदीक आया तो चिंता और बढ़ गई. खैर शादी के दिन फेरों के समय पिताजी ने कह कर मेरे बैठने की जगह को दूतई (चारपाई पर बिछाने वाला कपड़ा.) से थोड़ा ऊंचा-सा करवा दिया. हम उस पर बैठ गए. उधर हमारे जाट दोस्त चिंतित. वो पंडित जी से बार-बार कहे कि पंडित जी जल्दी करो जल्दी 😄 फिर पता नहीं हमें क्या सूझा हमने अपने एक पैर का घुटना वाइफ के एक पैर पर रख दिया. बहुत सहारा मिला 😍 तब से ही वे हमारा सहारा बनी हुई हैं 😍 खैर दोस्त को कह दिया कि वो चिंता ना करें मतलब कि पंडित जी को बार-बार जल्दी-जल्दी करने को ना कहे और ऐसे हमारे फेरे हो गए. वो भी सहारे वाली आलथी-पालथी मारकर 😄

Monday, September 8, 2025

सुनो...

1.

सुनो 

आ जाती हो अक्सर तुम मेरे सपनों में

इसका क्या मतलब है?

मैं ज्यादा याद करता हूं तुम्हें 

या फिर 

मैं ज्यादा याद आता हूं तुम्हें?


2.


सुनो 

जब सपने में आया करो 

कम से कम इनमें तो 

पल दो पल ही सही

बातें कर लिया करो 

सच बिना तुमसे बात किए  

ये सपने भी अच्छे नहीं लगते हैं.


3.


सुनो 

तमाम परेशानियों के बावजूद

‘कैसी हो तुम?’

पूछने पर

‘अच्छी हूं.’

क्या तुम आज भी कहती हो!


4.


सुनो 

रात सपने में 

मैंने तुमसे चाय मांगी थी

देखो ना तुम 

सपने में भी 

मैं तुम्हारे हाथों की 

चाय ना पी सका. 


5.


सुनो 

अच्छा एक बात तो बताओ 

क्या बारिशों में तुम आज भी 

अपना पसंदीदा गीत 

'मौसम है आशिकाना

ऐ दिल कहीं से उनको 

ऐसे में ढूंढ लाना....'

गुनगुनाती हो ?

Tuesday, August 26, 2025

प्यार के फूल किताबों में

एक दिन अस्पताल में अपनी बाईं गाल बार-बार दबा रहा था. उसने (गीता ने) पूछा: क्या हुआ? मैंने कहा : दांत दर्द. जो गीता तीन बार मेरे नरक-प्रवेश की कोशिश से नहीं डरी, जो गीता मेरे चालीस परसेंट जलने के कारण मुझे नहलाने से नहीं डरी, क्योंकि जले हुए शरीर से घिन आती है, दांत-दर्द की बात सुन उसके कंधे झुक गए. यह शायद उसकी अंतिम पराजय का एक अस्थायी क्षण था. मुझसे कहा: ओ दीपक, मैं क्या-क्या करूँ तुम्हारे लिए!

~'स्वदेश दीपक' के लिखे 'मैंने मांडू नहीं देखा' से  



अगले सप्ताह दफ्तर के पते पर 'कला' का पत्र मिला. बिना किसी संबोधन के उसने लिखा था. मैं ठीक-ठाक पहुंच गई थी. इजा को मैंने आपके सारे उधार के बारे में बतला दिया है. टिकट से लेकर हाथ-खर्च तक. और हाँ, आपका शाल आपके आदेशानुसार पहुंचा दिया है. मुझे बुरा लगा. 


मैं धीरे-धीरे पत्र मोड़ रहा था कि पिछली ओर कुछ लिखे पर नजर पड़ी. लिखा था, ‘बुरा लगा! नहीं रे! शाल उसने रख लिया है, जिसके लिए था. थैंक्यू! 


~'पंकज बिष्ट' के लिखे उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ से.

Saturday, August 23, 2025

'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' और हम बाप-बेटी

कल कनॉट प्लेस (सीपी) किसी काम से जाना हुआ. काम खत्म होने के बाद बेटी कहने लगी कि चलो पापाजी 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' चलते हैं. और हम उधर की ओर चल दिए. सालों के बाद जाना हुआ 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर'. पहले की अपेक्षा यह अब थोड़ा खुला-खुला सा लग रहा था.घुसते ही बेटी चहक-सी गई. फिर इसके बाद इसने ना जाने कितनी किताबों और लेखकों से परिचय कराया,जिनके बारे में मुझे पता नहीं था.सबके सब विदेशी लेखक थे. 

दो-चार नाम जो याद रह गए. 'Fredrik Backman', 'Haruki Murakami', 'Khalid Hoosseini', 'Kristin Hannah' आदि आदि.

बल्कि बेटी 'Before the Coffee Gets Cold-Toshikazu Kawaguch (आजकल इसी किताब को पढ़ रही है.) किताब को उठाकर मुझे दिखाते हुए बोली,'पापाजी देखो मेरी किताब भी यहां है.' 

मैं बीच ही में बोल उठा,' ये किताब आप ऐसे दिखा रही है जैसे आप ही की लिखी  हो.' 

वो कहां रुकने वाली थी झट से बोलीं,' ओ हो पापाजी! पता है जब आप किसी चीज या आदमी को पसंद करने लगते हैं तो वो चीज अपनी और इंसान अपना ही लगने लगता है.' 

'हां ये बात तो है. जैसे शाहरुख खान मुझे अपना-सा लगता है. उनकी फिल्म हीट हो जाए तो अच्छा लगता है. बेशक वो फिल्म आपने देखी हो या ना देखी हो.'

फिर वो बीच-बीच में अपनी पसंद की किताबें दिखाती रही. फिर एक जगह रुकी और बोली,' पापाजी ये देखो 'Rom-Com Books'.' 

'Rom-Com Books' मतलब.' मैं बोला. ' सच आपको 'Rom-Com Books' का नहीं पता. 'Rom-Com Books' मतलब 'रोमांटिक कॉमेडी' वाली किताबें.' वो बोली. 

सच मुझे आज से पहले 'Rom-Com' किताबों के बारे में नहीं पता था.और सच बताऊं तो मैंने विदेशी लेखकों की ज्यादा किताबें नहीं पढ़ी हैं, जिन्हें पढ़ा है उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है. लेकिन हां हिंदी के लेखकों को तो खूब पढ़ा है. और उनका परिचय बेटी से भी कराया था. उनके किस्से बेटी को सुनाएं भी थे. लेकिन तब जब उसे इतनी समझ नहीं थी,जितनी आज अब है. इसे यूं ही भी कह सकते हैं, मैंने पहले बेटी को हिंदी के लेखकों से मिलवाया था. बेटी कल विदेशी लेखकों से परिचय करवा रही थी.

बाद में जब हम 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' से निकलने लगे तो मैंने 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर'वालों के नोटिस में अपनी यह बात डाली कि यहां हिंदी की किताबें कम है.अगर हो सके इनकी संख्या को बढ़ा जाए. वहां के कर्मचारी ने यह विश्वास दिलाया कि आपकी बात को प्रबंधकों तक पहुंचा दिया जाएगा. सच में 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' में हिंदी किताबों की संख्या कम थी. बल्कि  यूं कहूं कि उससे ज्यादा हिंदी की किताबें तो मेरे कमरे में हैं. ये कहना ज्यादा सही होगा. 

Wednesday, June 25, 2025

पिता

1.
हांफती सांसों से
कांपते हाथों से
एक बुजुर्ग पिता
सुबह से शाम तक
लगा रहता है
एक मजदूर की तरह
कुछ पुराना तोड़ता हुआ
कुछ नया रचता हुआ
वहीं मैं बस
खड़ा रहता हूं
एक गिल्ट के सहारे.


















2.
बहुत से पिता अपनी जरूरतों के बारे में नहीं बताते. दरअसल उन्होंने शुरू से घर चलाने के चक्कर में अपनी जरूरतों को कम करके जीना सीख लिया होता है.  उनकी जरूरतों को समझने के लिए आपको उन्हें समय देना होता है.  उनसे बात करनी होती है. फिर बातों में से बातें निकालकर थोड़ा-थोड़ा समझना पड़ता है. फिर उनके लिए उन चीजों को बिना बताए लाना होता है. क्योंकि पूछने पर वे मना कर देते हैं. कहते हैं  'इसकी क्या जरूरत है.'  लेकिन एक बार चीज आ जाती है तो वे खुशी-खुशी उसका उपयोग करने लग जाते हैं. वरना तो वे समझते हैं कि बुढ़ापा है, बुढ़ापे में क्या ही करना इन सब चीजों का. बुढ़ापा है धीरे-धीरे कट जाएगा. [ तस्वीर प्रतीकात्मक है.]

Monday, April 14, 2025

यादें ननिहाल की

ये जो सुंदर तस्वीर आप देख रहे हैं. ये मैंने नहीं बनाई! ये तो अमिताभ श्रीवास्तव जी ने बनाई है. वे आजकल अपने बचपन के शौक को फिर से ज़िंदा करने में लगे हैं. मैंने सोचा क्यों ना मैं भी इस बहाने अपने बचपन के ननिहाल की  खूबसूरत यादों को फिर से ज़िंदा कर लूं. बस फिर क्या था मैंने उन्हें एक तस्वीर भेजकर निवेदन किया कि अगर हो सके तो इसकी पेंटिंग बना दें. जिसके परिणाम स्वरूप यह आर्ट वर्क सामने आया. 


ये मेरे ननिहाल का एक कुआं है. बचपन की बहुत सारी यादें इसके साथ जुड़ी हुई हैं. दरअसल बचपन में जब भी गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां आती थीं. तो साथ में मामा को भी बुला लाती थीं. मैं उनके साथ बस में बैठकर अपनी नानी-नाना के गांव जाता था. दो-तीन घंटे के इस सफ़र में मीठी-मीठी संतरे की गोलियां मेरा अच्छा साथ निभाती थीं. फिर गांव से थोड़ा पहले हम बस से उतर जाते थे. तब यहां से ही गांव के लिए तांगे मिला करते थे. तांगा सड़क के दोनों तरफ किकर के दरख्तों से बनी छाया में टक-टक करता हुआ गांव की ओर दौड़ता जाता था. रास्ते में कई गांव आते थे. सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक बस खेत ही खेत नजर आते थे. वहीं कहीं-कहीं सड़क के किनारे भेड़ों और बकरियों के झुंड भी देखने को मिल जाते थे. कोई पांच-एक किलोमीटर की दूर तय करके तांगा गांव के अड्डे पर रुक जाता था. मैं और मामा तांगे से उतरकर खेतों के बीच से होते हुए अपने नानी के घर की ओर चलते जाते थे. रास्ते में गांव की औरतें मुझे देख मामा से पूछा करती थीं कि ' यो छोरा किसका स.' 

मामा उनसे कहते कि 'यो क्रीशो को छोरा है. दिल्ली रह स.' 

तो फिर वे औरतें कहा करती थीं 'अच्छा दलवाली है.' यानि दिल्ली का है. 

(बातचीत में बिल्कुल यही शब्द तो नहीं हुआ करते थे. लेकिन भाव यही हुआ करता.) 

ऐसे हम अपनी मां के गांव पहुंच जाते थे. 


नानी-मामी मुझे घर के काम करती हुई मिलती थी. मैं उन्हें नमस्ते कहता था. वे मुझे प्यार से पुचकारने लग जाती थीं. दो नानी, तीन मामी के पुचकारने से सिर के बाल अस्त-व्यस्त हो जाते थे!  मैं फिर या तो हाथों से बालों को ठीक कर लिया करता था. या फिर घर की दीवारों में जगह-जगह लगे छोटे-छोटे शीशों के सामने कंघी कर लिया करता था! फिर थोड़ी ही देर में मुझे भूख लग जाती थी. मैं रोटी-रोटी करने लग जाता था. तब मामी झट से चूल्हा सुलगाकर गर्म-गर्म रोटी बना दिया करती थीं. वहीं नानी उस पर नूनी घी रख दिया करती थीं. साथ में एक कटोरी दही भी दे दिया करती थीं. सब्जी तब के समय गांव के घरों में रोज नहीं बनती थी. सब्जी केवल तब बनती थी, जब कोई मेहमान आया करता था. वरना तो दही-दूध या चटनी से ही रोटी खा ली जाती थी. गांव की दही बिल्कुल सफेद नहीं हुआ करती थी. उसका रंग पके हुए दूध की तरह हल्का-सा पीला होता था. लेकिन स्वाद ऐसा कि दिल खुश हो जाया करता था. 


कुछ देर बाद सब अपने-अपने कामों से इधर-उधर निकल जाते थे. मैं अकेला रह जाया करता था. तब घर की बेहद याद आती थी. वहीं गर्मी अपना जलवा भी दिखाने लग जाती थी. तब मेरे नाना के यहां बिजली नहीं हुआ करती थी. उन दिनों बैठक के बाहर एक 'जाल' का पेड़ हुआ करता था. मैं बस उसके नीचे खाट डालकर बैठ जाया करता था. एक पक्षी होता है, कबूतर के जैसा. शायद उसे  'घूघी' कहते हैं. दोपहरी में वह उसी जाल के पेड़ पर बैठा मिलता था. उसकी आवाजें कानों में पड़ती रहती थीं. मैं उसे ही सुनता रहता था. मुझे उसकी आवाज प्यारी लगती थी. कभी-कभी ननिहाल में लगे नीम के पेड़ से 'मोर' भी नीचे उतरकर, मेरे आजू-बाजू टहलते रहते थे. यूं तो सामने ही मुख्य सड़क थी लेकिन दोपहरी में एक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते नजर आते थे. सच में दोपहरी में समय काटना मुश्किल हो जाया करता था. लेकिन बाद के दिनों में मेरा दूसरे घरों की बैठकों में आना जाना शुरू हो गया था. जहां दोपहरी में 'ताश' के पत्तों की महफ़िल सजा करती थीं. एक तरफ लोग 'ताश' खेल रहे होते थे. वहीं दूसरी ओर टेप रिकॉर्डर पर 'रागनियां' बज रही होती थीं. कभी-कभी यूं भी होता था. मैं ट्रेक्टर पर घूमने की चाह में भरी दोपहरी में ट्रेक्टर से खेतों में चला जाया करता था. 


लेकिन फिर जैसे-जैसे घूप कम होती थी. गांव में कुछ रौनक-सी होने लगती थी. गांव के लोग अपने पशुओं को पानी पिलाने ले जाते दिखाई देने लग जाते थे. कोई अपनी भैंसों को ले जा रहा होता था. कोई अपने बैलों को ले जा रहा होता था. तब दिल लगने लगता था. तब तक दोपहर में गायब रहने वाले नाना-मामा भी घर आ जाया करते थे. आते ही पशुओं की सेवा-पानी में लग जाया करते थे. एक मामा नाना के साथ पशुओं का चारा कटवा रहे होते थे. दूसरे मामा पशुओं को पानी पिलाने ले जा रहे होते थे. कभी-कभी मैं भी मामा के साथ बैलों को पानी पिलाने ले जाता था. 


फिर जैसे-जैसे शाम होने को होती थी. घरों की औरतें भी कुएं से पानी लेने के लिए निकल पड़ती थी. अक्सर मामी मुझसे हंसते हुए कहती थी कि चल मेरे साथ, एक घड़ा पानी का तू भी उठाकर लाइयो. अक्सर मैं उनके साथ चला जाता था. वे कुएं से पानी लेने के लिए साफ़-सुथरे, नए-से कपड़े पहनकर जाती थीं. वे कपड़ों में 'घाघरा', 'कमीज','चुंदडी' पहना करती थीं. लेकिन जो 'घाघरा' होता था, वो घाघरा नहीं कुछ-कुछ 'पेटिकोट' टाइप होता था. वे उसके ऊपर हमेशा सफेद रंग की कमीज पहनती थीं. कालर वाली कमीज में दोनों तरफ बंद दो जेब हुआ करती थीं. वहीं सबसे ऊपर चुंदडी होती थी, जिस पर खूब सारे कांच या प्लास्टिक के गोल-गोल सितारे से लगे होते थे. जोकि चमकते थे. चुंदडी हर रोज अलग रंग,अलग डिजाइन की हुआ करती थीं. सिर पर गोल सुंदर रंगबिरंगी-सी एक चीज हुआ करती थी, जिस पर घड़ा रखा जाता था. अभी उसका नाम याद नहीं आ रहा. वहीं पैरों में घुंघरु वाली पाजेब होती थी. कभी-कभी मामी चांदी का कमरबंद भी पहना करती थीं. गले में भी कुछ-न-कुछ पहना होता था. अब याद नहीं कि मामी गले में क्या पहनती थीं. लेकिन इतना याद है वो सोने का हुआ करता था. जब वे घर से निकलती थीं तो गले तक घूंघट होता था. सिर पर कभी एक घड़ा, कभी दो घड़े होते थे. वहीं एक हाथ में एक और घड़ा और दूसरे हाथ में खाली पानी की बाल्टी होती थी, जिस पर रस्सी बंधी होती थी. इसी बाल्टी से कुएं से पानी निकाला जाता था. जब वे चलती थीं, तब पाजेब छम-छम करती थी. ऐसा नहीं कि मेरी मामी ही साफ़-सुथरे नए-से कपड़े पहन कर आती थीं. उस कुएं पर आई अधिकतर औरतें नए-से कपड़े पहनकर आती थीं. 


कुआं थोड़ा ऊंचाई पर था. काफी सीढियां चढ़कर ही उस तक पहुंचा जाता था. कुएं पर मेरे पहले दिन पहुंचने पर मैं ही चर्चा के केंद्र में होता था. हर कोई मेरे से ही सवाल पूछता था. कौन हूं मैं? क्या नाम है मेरा? कहां से आया हूं? ऐसे ही अनेक सवाल. फिर दूसरे दिन औरतों की चर्चाओं में दुनिया जहान की बातें आ जाती थीं. कुएं से पानी भरती जातीं और बातें करती जातीं. मैं एक कोने में खड़ा जोहड़ को देखता रहता था. उस कुएं से पूरा जोहड़ नजर आता था. जिसमें पशु डुबकी लगा रहे होते थे. कुछ पशु पानी पी रहे होते थे. कुछ लोग अपने पशुओं को जोहड़ में घुसकर निकाल रहे होते थे. कुछ बच्चे जोहड़ में उछलकूद मचा रहे होते थे. बगल में ही एक पीपल का विशाल पेड़ था. उससे अच्छी-खासी हवा आती थी. कुएं के बगल में एक मंदिर भी था. कभी-कभी बीच में उधर से घंटी के बजने की आवाजें भी आती थीं. जब मामी अपने पानी के सारे घड़े भर लेती थीं तो खाली बाल्टी, जिसमें रस्सी बंधी होती थी उसे मुझे दे देती थीं. इस तरह मैं और मामी कुएं से अक्सर पानी लाया करते थे. 


फिर कुछ ही देर में सूरज ढल जाता था. घर में दीपक जल उठता था. नानी रसोई के बाहर वाला चूल्हा सुलगा लिया करती थीं. कुछ देर में ही हम सबके के लिए मोटी-मोटी रोटियां बननी शुरू हो जाती थीं. हम सब के सब चूल्हे के पास बैठकर गर्म-गर्म दूध-रोटी खाते थे. आखिर में नाना आते थे, अपनी तांबे की लुटिया लेकर. वे दो रोटी और लुटिया भरकर दूध ले जाते थे. फिर बैठक में जाकर खाया करते थे. समय का तो पता नहीं लेकिन एक तह वक्त पर सब सोने चले जाया करते थे. मेरी खाट बैठक के बाहर जाल के पेड़ के पास नाना की खाट के बिल्कुल बगल में डली होती थी. अक्सर नाना ही मेरी खाट बिछाया करते थे, जिस पर एक तकिया, एक पतली चादर रखी हुआ करती थी. नाना ज्यादा बातें नहीं करते थे. बस थोड़ी बहुत बातों के बाद वे सो जाया करते थे. मैं लेटा-लेटा आसमान में चमकते चांद-तारों को देखा करता था. इतने तारे दिल्ली वाले घर में कभी नजर नहीं आते थे. कभी-कभी बीच में दूर कहीं से ट्रेक्टर की आवाजें भी आया करती थीं. कभी-कभी इक्का-दुक्का मोर भी रात को अपनी प्यारी आवाज निकाला करते थे. वहीं रात को बीच-बीच में सड़क पर कुत्ते भौंका करते थे. फिर नाना उन्हें गाली देकर भगाया करते थे! इन्हीं आवाजों के बीच कब नींद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था. फिर आंखें सुबह ही चिड़ियों की चहचहाहटों से खुला करती थीं.


Monday, April 7, 2025

पिताजी और इनका कबाड़खाना

दरअसल अभी काजल जी ने कबाड़खाने की बात की. और उनका मानना है कि इस कबाड़ में से कुछ ना कुछ काम का जरुर निकल जाता है, जोकि सच बात है. और कबाड़खाने की बात पढ़कर मुझे भी बहुत कुछ याद आने लगा.

अंकलजी, कोई छोटा-सा लकड़ी का गुटका है.
क्या करना है. 
बस यहां सपोर्ट के लिए चाहिए.
अच्छा देखता हूं.
ये लो. 
ऐसा ही तो चाहिए था.
***

चाचा एक तीन एक फुट का पाइप है क्या? 
क्या करना है?
यहां जोड़ना है.
देखता हूं. 
ये लो. 
***
अंकलजी.
हां. 
एक तार चाहिए. 
कितना बड़ा?
हो कोई तीन-एक मीटर का. 
देखता हूं.वैसे करना क्या है?
कम पड़ गया तार.
अच्छा देखता हूं. 
ये लो.

***

अंकलजी.
हां 
एक नट चाहिए था. एक-दो इंच का. 
देखता हूं. 
ये देखो. इससे काम बन जाएगा. 
हां बन जाएगा. 

जब भी कोई मिस्त्री हमारे घर आता है. तब इस प्रकार की बातचीत हमारे घर में सुनने को जरुर मिल जाती है.  वैसे हर घर की तरह एक कबाड़खाना हमारे घर में भी है, जिसके इंचार्ज हमारे पिताजी हैं. मजाल है कि कोई भी सामान बाहर फैंकने दें. उनका मानना है कि हर बेकार चीज का इस्तेमाल हो सकता है. बस फर्क इतना सा है कि उसका इस्तेमाल आज नहीं लेकिन एक ना एक दिन तो जरुर होगा. और यह बात सच है. और एक बार मुझे भी महसूस हुई. 

शायद कोरोना के समय 2020 के आखिर दिनों की बात है. घर में एक नई रसोई का निर्माण होना था.और उसकी जगह बननी थी हमारे कमरे में से, जिसकी वजह से हमारा कमरा छोटा होना था.  इसी वजह से हमारी किताबों की अलमारी को हटाना पड़ा था. तब मुझे ख्याल आया कि इस अलमारी को कबाड़ी को देने से अच्छा है कि इसे बेटी के स्कूल को दे दिया जाए. और इसके साथ कुछ किताबें भी. पिताजी कहते रह गए कि इसे स्टोर रूम में रख दो. बाद में काम आ जाएगी. माना करो मेरी बात.वे कहते रहे.लेकिन मैं नहीं माना. मुझे लगा कि स्कूल में अलमारी और किताबें जाएंगी तो ज्यादा अच्छा होगा. खैर अलमारी और किताबें स्कूल को दे दी गईं. लेकिन पिछले साल की बात है. जब किसी काम के लिए एक अलमारी की बेहद आवश्यकता हुई तो मुझे उस अलमारी की बहुत याद आई. नई अलमारी के लिए पैसे नहीं थे. तब पिताजी की कही बात भी याद आई कि इसे स्टोर रूम में रख दो. बाद में काम आ जाएगी. खैर! 

बल्कि एक बात और नमूने के तौर बताता हूँ कि एक लोहे का बहुत मजबूत, बड़ा पाइप था, जो हमारे घर तब आया था जब हमारे घर पहली बार बिजली आई थी. तब इस लोहे के पाइप के अंदर से बिजली के केबल के तार गए थे खंभे तक. ये पाइप इतना मजूबत है कि दो दिन पहले ही सबसे नीचे के लेंटर के सपोर्ट में काम आया है. सोचकर देखूं तो ये पाइप 45 साल से भी ज्यादा पुराना है, जोकि आजतक केवल पिताजी के कारण घर में रखा हुआ था.हमने कितनी बार कहा कि इसे बेच दो. इसे किसी को दे दो. लेकिन वे नहीं माने और आज ये घर के सपोर्ट में काम आया. ऐसे ही ना जाने कितने उदाहरण होंगे मेरे पास.बाकी आप तस्वीरों से भी अंदाजा लगा सकते हैं. वैसे तो पिताजी और इनके कबाड़ख़ाने पर लिखने के लिए बहुत कुछ है और बहुत मन भी है लेकिन फिलहाल इतना ही. बाकी फिर कभी.

Tuesday, January 14, 2025

यादें सर्दियों की...

टाइफाइड बुखार तो उतर गया लेकिन शरीर ऐसा हो गया है कि कमबख्त ठंड ऐसे सता रही है कि कुछ देर कंबल रजाई से बाहर रहने पर ठंड से सिर और छाती में दर्द-सा महसूस होता है. पैर बर्फ-से हो जाते हैं. और फिर पैर सीधे कंबल-रजाई की तरफ दौड़ जाते हैं! कंबल-रजाई में घुसे-घुसे किताब पढ़ने की सोचो तो चश्मा साथ नहीं देता. अक्षर धुंधले हो जाते हैं. फिर हाथ से किताब की दूरी को बढ़ाता हूं तो अक्षर कुछ-कुछ पढ़ने लायक हो पाते हैं लेकिन फिर हाथ जवाब दे जाते हैं. मोबाइल पर कुछ देर कुछ देखो-दाखो तो उसकी बैटरी बोल जाती है. आखिर एक आदमी कब तक कंबल-रजाई में पड़ा रहे. सच में इस ठंड ने उस एक आदमी का बुरा हाल कर रखा, जो कभी इस ठंड को इतना प्यार करता था कि मन ही मन सवाल करता था कि यार ये ठंड इतने कम दिन क्यूं रहती है?

कल रात रजाई में लेटे-लेटे सोच रहा था कि सर्दियों के वो भी क्या दिन थे. जब रूपनगर के स्कूल की सुबह की प्रार्थना में तू ही एक अकेला ही ऐसा लड़का होता था, जो सफ़ेद कमीज में नजर आता था. जैसे आजकल राहुल गांधी एक टी-शर्ट में नजर आते हैं! जैसे आजकल राहुल गांधी की टी-शर्ट की चर्चा हो रही है. ठीक वैसे ही उस वक्त स्कूल में तेरी कमीज की चर्चा हुआ करती थी. वो अलग बात है टीचर इस बात पर डांट भी दिया करते थे. मेरे क्लास टीचर 'जाट' ( हम उन्हें जाट ही कहते थे. जैसे एक दूसरे टीचर को बाऊ. बाऊ वाला किस्सा भी बहुत मजेदार है. शायद उसके बारे में तो मैंने लिखा भी है.) अक्सर कहते थे वो छोकरे कभी तो स्वेटर-जर्सी पहन आया कर. एक दिन वे बोले,'कल कमीज में नजर नहीं आना चाहिए.' एक दो बार प्रिंसिपल साहब ने भी टोका था. और मैं था कि स्कूल में कमीज में ही नजर आता था. 

बात दरअसल कुछ यूं थी. स्कूल में नीली जर्सी या स्वेटर लगा हुआ था, जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं था. तो मैं घर से दूसरे रंग का स्वेटर या जर्सी पहन कर निकलता था और स्कूल में उसे निकालकर डेस्क में डाल देता था. और ठंड से बचने के लिए कमीज के नीचे गर्म बनियान तो पहना ही करता था. और शायद कमीज के नीचे ही एक पतला स्वेटर भी पहना करता था. और मफलर तो था ही! जिससे सिर्फ कान और नाक ढंका करता था. सिर नहीं क्योंकि तब मेरे सिर पर बाल हुआ करते थे! और कभी जब ज्यादा ठंड होती थी तो क्लास में वो दूसरे रंग स्वेटर को पहन लिया करता था. और टीचर के आते उसे झट से उतार दिया करता था.

मुझे अच्छी तरह याद है. रूपनगर के स्कूली दिनों में हम बस से स्कूल जाया करते थे. या तो 234 नंबर  बस लेते थे. या फिर कभी बालकराम से 108 नंबर बस. लेकिन ज्यादातर हम किसी भी बस से माल रोड तक पहुंच जाते थे. और फिर माल रोड जहां से 212 नंबर बस आती है वहां से शायद 365 नंबर बस लिया करते थे. उस बस कई किस्से हैं. (उस बस के कंडक्टर जैसा दूसरा कंडक्टर मैंने आजतक नहीं देखा. कॉलेज के लड़कों  के पास बस पास ना होने पर वे बस रुकवाकर छात्र को बीच रोड़ पर उतार देते थे.अक्सर मैंने उन्हें छात्रों से  भिडते  हुए देखता था.) 

कभी-कभी जब अच्छा-खासा कोहरा होता था. तब मेरा मन माल रोड़ से पैदल ही स्कूल जाने को करता था. उस कोहरे में पैदल चलने का अलग ही आनंद होता था. मैं दोस्त से कहता था कि यार आज पैदल ही निकल पड़ते हैं. तो वो कहता था,'पागल हो गया है क्या तू. इतनी ठंड और कोहरे में कोई पैदल चलता है क्या!'  मैं बोलता था,'तुझे चलना है तो बता वरना मैं ही अकेले ही निकल जाता हूं.'और वो फिर मेरा साथ देता हुआ. साथ-साथ चलने लगता था. 

नाक और कान को मफलर से ढककर. हाथों को जेबों में डालकर. बोंटा पार्क के सामने से दिल्ली यूनिवर्सिटी के गेट से अंदर-अंदर चलते हुए. अब तो याद भी नहीं कि रास्ते में क्या-क्या पड़ता था. क्या-क्या मिलता है. शायद साइंस ब्लाक मिलता था. कुछ प्रोफेसर के घर मिलते थे. एक होस्टल भी मिला करता था. और फिर इन सबसे होते हुए हम आर्ट फैकल्टी वाली रोड से मोरिस नगर का स्टैंड से होते हुए स्कूल पहुंचते थे. पूरे रास्ते भर दोनों दोस्त दुनिया जहां की बातें किया करते थे. अब आप सोच रहे होंगे कि जब माल रोड से रूपनगर पैदल जाते थे तो फिर घर से कब निकलते थे. दरअसल हमारे घर के पास जो बस स्टैंड था. उस पर सुबह स्कूल टाइम पर इतनी भीड़ हो जाती थी कि उस वक्त बस पर चढ़ना मुश्किल होता था. और ऐसा ही मोरिस नगर के स्टैंड पर होता था स्कूल की छुट्टी होने के बाद. हम दोनों का फैसला था कि समय से पहले स्कूल पहुँचना और स्कूल से समय से पहले ही निकल जाना. यानि लास्ट पीरियड को छोड़ देना. कभी स्कूल में सख्ती होती थी तो अलग बात है. वरना तो ऐसा ही चलता था. 

सर्दियों से याद आया. हम दोनों सर्दियों में एक शरारत किया करते थे. जब कोई दोस्त बातों में व्यस्त होता था तो हम पीछे से जाकर उसके एक हिप पर दो उंगली से ऐसे मारा करते थे कि सामने वाला दोस्त 'ओ तेरी, ओ तेरी या फिर गाली देता' हुआ उछलने लगता था. जितनी ज्यादा ठंड होती थी उन दो उंगलियों के चोट उतनी ही ज्यादा लगा करती थी. और मैं था कि पेंट के नीचे गर्म पजामी पहनकर आया करता था. बस 'ओ तेरी' करके ही रह जाता था, गाली कभी नहीं निकली!!

Thursday, January 2, 2025

बस तुम सोचो

मैंने पूछा अपने आप से
ये भी कोई साल है यार
इस नए साल में नया क्या है?
वही सूरज है
वही चाँद है
वही तुम हो
वही मैं हूँ
वही तकलीफें हैं
वही मुश्किलें हैं
और
वही डर
सब संग-संग ही तो हैं।
फिर आई एक आवाज
ना-ना
सुनो तुम मेरी बात
नया जैसा कुछ नहीं होता है
नया तो बस एहसास होता है
तुम सोचा यह नया साल है
यह उसका सुंदर-सा पहला दिन
बस तुम सोचो
और चुरा लो
इन तकलीफों में से
इन मुश्किलों में से
एक पल
और फिर मुस्करा दो
अपनी ही किसी भी बात पर
और
बस तुम सोचो
यह नया साल है!

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