आज सुबह काजल जी ने उकडू बैठने से संबधित पोस्ट लगाई. तो हमें अपना कुछ याद हो आया. वैसे तो हम बचपन से उकडू बैठते रहे हैं. वो अलग बात है कि अब शायद ही बैठ पाएं क्योंकि याद नहीं आख़िरी बार उकडू कब बैठा था. बचपन में हम सुबह-सुबह खेत (यमुना खादर के खेत) में ही जंगल होने ( जंगल होने मतलब दिशा मैदान यानि हल्के होने 😄 ) जाते थे. फिर बाद में घर में देसी टॉयलेट बनवा ली. लेकिन ये आलथी-पालथी वाला काम हमसे नहीं हो पाता था. दरअसल बचपन से ही दीवार से पीठ लगाकर ही खाना खाते थे और फिर पढ़ाई भी ऐसे ही दीवार से पीठ लगाकर ही कर लेते थे. फिर बाद में पढ़ाई के लिए कुर्सी मेज आ गए. फिर बाद में जब घर में नए कमरे बने तो हमने अपने बाथरूम में अपने लिए वेस्टन टॉयलेट बनवा ली. बस फिर क्या था हम उकडू बैठना भूल गए 😄 जिंदगी अपनी रफ्तार से चल ही रही थी. हम बड़े हुए. इतने बड़े कि शादी की चर्चा होने लगी. लेकिन जब शादी की बातचीत शुरू हुई तो घर-कुनबे में चर्चा शुरू हुई कि ये फेरों पर कैसे करेगा. फेरों में तो काफी देर तक आलथी-पालथी मारकर बैठना पड़ता है. खैर आपां ने ज्यादा परवाह नहीं की. लेकिन जब रिश्ता तय हो गया तो हमें भी लगा बेटा कुछ तो करना पड़ेगा. लेकिन फिर जो कुछ भी किया धरा गया. उससे बात नहीं बनी. बननी भी नहीं थी. जो आदमी बचपन से आलथी-पालथी लगाकर ना बैठता हो, वो चार दिन में कैसे आलथी-पालथी मारकर बैठने लगता. पैरों की स्टिफ़नेस बनी रही. जोकि आज भी बनी हुई है. खैर किस्सा तो अब शुरू होता है. वहीं फिर एक दिन लड़की वाले सगाई करने आ गए. छोटा सा कार्यक्रम था. हम आलथी-पालथी मारकर बैठ गए. दोनों टांगे ऐसे उठी हुईं थी कि जैसे किसी चारपाई को उलटा कर दो तो उसके पाए खड़े हो जाते हैं 😄 सिर पर रुमाल रखा हुआ था. कुछ देर बाद कंधे पर रखे तोलिये की झोली बनवा दी गई, जिसमें लड़की वालों की तरफ से कुछ सामान दिया गया था. फिर जब उठने का इशारा हुआ तो आपां ने एक हाथ से तौलिए की झोली पकड़ी और एक हाथ फर्श पर लगाकर उठ गए. कार्यक्रम खत्म होने से कुछ देर पहले ही कहानी में हमारी वाइफ के फूफा जी प्रकट हुए. आप समझ ही गए होंगे. फूफा जी मतलब. ये बात मुझे बाद में पता चली लेकिन हो उसी दिन गई थी कि फूफा जी कह रहे हैं कि लड़के के पैर ठीक नहीं हैं. खैर हमारे ससुर जी उन पर नाराज हुए. इतने नाराज कि उस दिन के बाद सिर्फ शादी के दिन ही फूफा जी ससुराल वाले घर में नजर आए.
खैर जब इस प्रकार की घटना हो जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है. हम परेशान कि क्या किया जाए. होना जाना तो कुछ नहीं था. आपां के वश में नहीं था कि पैरों की स्टिफ़नेस को इतनी जल्दी दूर कर दें. जब शादी का दिन नजदीक आया तो चिंता और बढ़ गई. खैर शादी के दिन फेरों के समय पिताजी ने कह कर मेरे बैठने की जगह को दूतई (चारपाई पर बिछाने वाला कपड़ा.) से थोड़ा ऊंचा-सा करवा दिया. हम उस पर बैठ गए. उधर हमारे जाट दोस्त चिंतित. वो पंडित जी से बार-बार कहे कि पंडित जी जल्दी करो जल्दी 😄 फिर पता नहीं हमें क्या सूझा हमने अपने एक पैर का घुटना वाइफ के एक पैर पर रख दिया. बहुत सहारा मिला 😍 तब से ही वे हमारा सहारा बनी हुई हैं 😍 खैर दोस्त को कह दिया कि वो चिंता ना करें मतलब कि पंडित जी को बार-बार जल्दी-जल्दी करने को ना कहे और ऐसे हमारे फेरे हो गए. वो भी सहारे वाली आलथी-पालथी मारकर 😄