वह
रोज इंतजार किया करता था वह मेरा
डी.टी.सी की बस नम्बर 234 में
पहनकर काली पेंट और सफेद कमीज़
लगाकर आँखो पर काला चश्मा
लेकर साथ अपने एक काला बैग
चढ़ते ही बस में मेरे
बैठने की जगह बना दिया करता था
बतलाता था
खिलखिलाता था
यूँ तो शादीशुदा था
पर बातें बच्चों सी किया करता था
ना जाने कैसे और कहाँ से
सारे जहान के दुखों की खबर भी रखा करता था
खड़ा होकर स्टैण्ड से पहले ही
गेट पर पहुँच जाया करता था
उतर कर स्टैण्ड पर
छड़ी बैग से निकाल
सड़क पार किया करता था
सोचता हूँ तो सिरह उठता हूँ
कैसे हर पल वह जिया करता था
28 comments:
अंतिम पंक्तियों ने दिल में अजीब सी हलचल पैदा कर दी ....बहुत ही संवेदनशील पोस्ट
जिंदगी के करीब से गुजरती रचना कही है आपने बधाई।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
achi rahi sirji
susheel ji bahut hi touchy poem hai .. bheed me ek aadmi ,ek pahchaan de deta hai .. wah bhai wah ..
ek choti si typographical error hai .. ant me sihar ke badle me sirh likha hai .. use theek kar lijiye ..
bahut sakun mila .. is post ko padhkar , ki kahin aadmi aaj bhi zinda hai ..
ज़िंदगी जीने का जज़्बा जो लोग पा लेते है वो हर चुनौती का सामना कर लेते है.. ऐसे ही किरदार से आज मिलवा दिया आपने.. बहुत ही उम्दा लिखा है.. वाकई
एक रेखा चित्र है उस आम आदमी का जो रोज की भीड़ में इस कदर शामिल है की गुम हुआ लगता है
बहुत गहरी बात कह दी आपने.
रामराम.
उसे ही ऑंखें कब से ढूंढ रही हैं और ढूँढती रहेंगी...
मीत
जीवन से जूझती हुयी कविता, हकीकत के करीब, आपने जिंदगी को बहुत करीब से देखा है बहुत ही सुन्दर और सार्थक लिखा है.
आदमी जिंदा है
पर यहां आदमीयत
जिंदा दिखाई दे रही है
इस जज्बे को सलाम
।
इसी को ज़िन्दगी जीना कहते हैं ज़िन्दगी गुजारना नहीं ..बच्चो सी बाते और आगे बढ़ने का होंसला ..जिन्दगी को राह दिखा ही देते हैं ..अच्छा लिखा आपने सुशील जी
मार्मिक प्रंसगगत रचना । इस दुनिया में ऐसे बहुत लोग है पर चलने का जज्बां कम में ही दिखता है ।
संवेदन शील कविता।
एक आम आदमी की तस्वीर शायद ऐसी ही है...
जीवन की मुश्किलें अक्सर उनसे लड़ने का होसला भी देती हैं..
अंतिम पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं.
अच्छी कविता है.
मुश्किलो से लड कर जीना इसे ही तो कहते है, लेकिन अन्तिम पक्तियां ने झझंकोर कर रख दिया.
धन्यवाद
inki gumshudgi ki report koi nahin likhwata...chaliye accha hua aapne milwa diya...bada accha laga
bahut gahri soch ko darshati kavita.......ek aam aadmi ke jeevan ko samajhna itna aasan nhi hota aur aapne wo kar dikhaya.
ना जाने कैसे और कहाँ से
सारे जहान के दुखों की खबर भी रखा करता था
खड़ा होकर स्टैण्ड से पहले ही
गेट पर पहुँच जाया करता था
उतर कर स्टैण्ड पर
छड़ी बैग से निकाल
सड़क पार किया करता था
सोचता हूँ तो सिरह उठता हूँ
कैसे हर पल वह जिया करता था
अन्तिम पक्तियां ने झझंकोर कर रख दिया....
न उनकी कोई रंगीन दुनिया है न सतरंगी सपने....फिर भी तो जिए जा रहे हैं....एक हम हैं जो सब कुछ होते हुए भी न होने का रोना ...!!!
हमें कहते हो कि आपकी रचनाओं में मंटो की झलक दिखाई देती है...अब आपकी इस रचना में क्या है?....
अच्छी रचना
सुशील जी, कहाँ से ले आते हो आप ऐसे टोपिक? कभी बस वाली लड़की और आज सहयात्री?
shusil ji nice post
shushilji,
bahut achche dhang se ek jindgi ko ujaagar kiya he, ek esi jindgi jo akeli hone ke baad bhi aankh valo ko bahut kuchh sochne par mazboor kar deti he.
uss 'kaale chashme' ke vyaktitva ka barhe hi manovaigyanik dhang se adhyayan kiya hai aapne...
aur khoobsurat alfaaz mei piro kar
ek achhi rachna ka swaroop diya hai
badhaaee.
---MUFLIS---
Gahra asar chodti hai aapki yah rachna.Likhte rahiye.
sushil ji aap bhi humari tarh ati samvednsheel prani ho..apne mitr gourav solanki ji ke blog se aap link mila aur laga ki ab tak aapse n mil ker apna hi bura ho rha tha..kabhi kabhi main kuch panktiya likh liya karta hoon aap jaisa paripakv to nahi bus jaisa hoon vaisa hi hoon..
mera blog ka pata hai
www.shesh-fir.blogspot.com
Dr.Ajeet
बहुत ही मार्मिक लिखा है आपने। मन की संवेदनाएँ जागृत हो गईं।
aapka naya photo bahut badhiya he sushilji,
dhnyavaad, meri kavita par apne baat kahne ke liye..
par ek baar fir kahunga photo shandaar he.
Those last lines were great.
Excellent climax.
I am really touched.
Thanks for such nice poetry.
~Jayant
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