कभी-कभी मैं सोचता
हूं कि सिद्धू सर मुझे अक्सर क्यों याद आते हैं? जहां कहीं गुरु-टीचर, प्रोफेसर की
बात हो, मैं उनको याद किए बिना क्यों नहीं रहता? दोस्तों में उनकी चर्चा किए बिना क्यों
नहीं रहता? बेटी को उनके किस्से सुनाए बिना क्यों नहीं रहता? उनकी लिखी किताबों को
पढ़ता क्यों रहता हूं? इंटरनेट की दुनिया में उनके बारे में लिखे-कहे को क्यों ढूढ़ता
रहता हूं? किसी के मुंह से उनके किस्से-संस्मरण सुनने को मिल जाएं तो सुनकर बेहद खुश
क्यों हो जाता हूं? शायद यह सब इसलिए होता है कि वे मेरे दिल के बेहद करीब हैं.
दिल के करीब इसलिए हैं कि वे दिल के बहुत अच्छे इंसान थे. उनके लिए ना कोई छोटा
था. ना कोई बड़ा था. ना कोई अपना था. ना कोई पराया था. जो उनसे मिला वो उनका अपना
था. किसी की भी मदद करने से वे पीछे नहीं हटते थे. जो उनसे बन सकता था वो वे कर
देते थे. खासकर हम जैसे छात्रों की तो वे खुलकर मदद करते थे.
मुझे याद है. तब तक
मेरी और उनकी चंद मुलाकातें ही तो हुई थीं. एक दिन जब मैं हंसराज कॉलेज के उनके
कमरे से निकलने लगा तो वे पूछ बैठे कि 'अब कहां जाएगा?' मैंने कहा, 'सर अब मैं सीधे हरदयाल सिंह लाइब्रेरी जाऊंगा.
जहां बैठकर मैं पढ़ाई करता हूं. कुछ एक फार्म भर हुए हैं सरकारी नौकरी के. बस उन्हीं की तैयारी कर रहा हूं वहां जाकर.’ वे
बोले, 'घर पर नहीं पढ़ते?' मैं बोला, ‘सर नहीं. उधर पढ़ाई हो नहीं पाती है. इसलिए उधर चला जाता हूं.' फिर वे एक
चाबी निकालते हुए बोले,' जा इसकी एक डुप्लीकेट चाबी बनवाकर ले आ.' चाबी वाले सरदारजी की दुकान का रास्ता बताकर उन्होंने
मुझे भेज दिया. मैं गया. सरदारजी से चाबी बनवाकर मैंने उन्हें दे दी. वे फिर
डुप्लीकेट चाबी मुझे देते हुए बोले,' ये चाबी तू रख. जब भी तेरा मन करे, यहां बैठकर पढ़ लिया कर. किसी भी वक्त तू आ सकता और
किसी भी वक्त तू जा सकता. ये समझ ये तेरा ही कमरा है.’ (उन्हें यह क्वार्टर कॉलेज
की तरफ से मिला हुआ था. लेकिन वे तब वसुंधरा में रहने लगे थे.) मैंने मना नहीं
किया और वो चाबी रख ली. वो अलग बात है. मैंने उस चाबी का कभी प्रयोग नहीं किया. आज
भी मैंने वो चाबी संभालकर रखी हुई है. मैं तब उस चाबी से उस घर और उस दिल को देख
पाया था जो हम जैसे बच्चों के लिए सदा खुला रहता था. जैसे-जैसे समय बीतता रहा है.
मेरे दिल में उनके लिए एक घर बनता रहा, जिसमें वे आज भी रहते हैं. बस वे अब पहले-सी लंबी-लंबी बातें नहीं करते. मेरा
पहले जैसा हौसला नहीं बढ़ाते. मुझे पहली-सी शाबासी नहीं देते. बस उस घर में मौजूद रहते
हैं.
मुझे याद है. पहले
जब भी कोई किताब या अन्य चीज मुझे डाक से भेजते थे तो मेरा नाम उस पर होता था. जब मेरी
शादी हो गई तो मेरी पत्नी का नाम भी उसमें आने लगा. वो भी मेरे नाम से ऊपर. फिर
बेटी हुई तो उसका नाम हम दोनों के नाम से ऊपर. एक दिन क्या देखता हूं. उनकी एक नई
किताब ‘ड्रामेबाजियां’ डाक से आई. किताब खोली तो अंदर लिखा था. 'सुनयना के लिए, प्यार से नानी सिद्धू, नाना सिद्धू.' (मेरी बेटी का नाम ‘नैना’ से ‘सुनयना’ उन्होंने
ही रखा था.) ऐसा था उनका प्यार. जिस प्यार में मैं भाव-विभोर हो जाता था. उस प्यार
में बह जाता था. जैसा वे प्यार करते थे. वैसे ही हम बच्चों का हौसला भी बढ़ाते थे.
मुझे याद नहीं कभी उन्होंने किसी छात्र को हतोत्साहित किया हो. आप चाहे कितनी ही
बड़ी गलती कर दें. या आपसे हो जाए. मैंने उन्हें कभी गुस्सा करते नहीं देखा. इवन एक
बार की बात है. एक नाटक में एक किरदार निभाते हुए मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई थी.
फिर भी उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा. मुझ पर गुस्सा नहीं हुए. बस यही कहा ‘बहुत
अच्छे’. मेरा वो रोल पहला और आख़िरी था. ये अलग बात वे ये जरुर कहते थे कि ऐसा
करोगे तो और अच्छा हो जाएगा. जब नाटक की रिहर्सल होती थी तो वे ऐसे ही हौसला बढ़ाते
थे. और अगर किसी छात्र की एक्टिंग उन्हें बहुत ज्यादा पसंद आ जाती थी तो वे इनाम
के रूप में अपनी जेब से एक रुपया निकालकर छात्र को दे देते थे. फिर 11 रुपए देने
लगे. बल्कि एक बार तो एक लड़के की एक्टिंग देखकर इतने खुश हुए कि उसे शायद 101
रुपया दे दिए. ऐसा था उनका हौसला बढ़ाने का तरीका. बाद में वो 101 रुपए पाने वाला लड़का
बम्बई भी गया था. फिल्मों में काम करने. अजय देवगन की एक फिल्म में एक किरदार
निभाते नजर भी आया था. मैंने तो बच्चों को उस एक इनाम के लिए बहुत मेहनत करते भी
देखा है. वो बात अलग है कि मुझे वो इनाम कभी नहीं मिला! मिलता कैसे एक रोल मिला था
वो भी सही से नहीं कर सका! सच में बहुत निराशा हुई थी तब मुझे!
मैंने उनकी सीधी-सपाट
जुबान में खूब कहानी-किस्से सुने हैं. अपनी घुमक्कड़ी की बातें जमकर सुनाते थे. कैसे
वे एक बार हाथ देखने वाले पंडित बन गए. कैसे एक रात उन्होंने भिखारियों के साथ
गुजारी थी आदि-आदि. दरअसल वे अक्सर कॉलेज की छुट्टियों में घूमने निकल जाते थे.
कभी-कभी रूप बदलकर भी. ये उनका तरीका था. लोगों की कहानियां सुनने का. उनकी तकलीफ
को जानने-समझने का. जिस रस के साथ वे किस्से कहते थे सच में उन्हें सुनने में बहुत
आनंद आता था. बीच-बीच में गालियाँ का तड़का भी होता था. लेकिन कभी उनके मुंह से कड़वापन
सुनने को नहीं मिला. ‘उल्लू के पट्ठे कागज तो बाद में बचाना. पहले तू अपनी आँख तो बचा.
कागज तो बन जाएगा आँख ना बनेगी दूसरी तेरी.’ (कागज बचाने के चक्कर में मेरे छोटे-छोटे अक्षर में लिखने पर.) हरामजादा
मुशर्रफ गोल-गोल घूमा रहा है. (तब अटल जी की सरकार थी और मुशर्रफ दिल्ली और आगरा
के बीच घूम रहे थे.) उनकी गालियों के कुछ किस्से किताबों में दर्ज हैं. कुछ समकालीन
लोगों को याद भी हैं. याद से याद आया एक बार जब मैं उनसे मिलने गया तो उनके कमरे
का मैदान की तरफ वाला गेट खुला हुआ था. मेज पर टेबल लैंप जल रहा था. सर अपने हाथ
में मैग्नीफाई गिलास से अपनी किसी आने वाली किताब की प्रूफ रीडिंग कर रहे थे.
मैदान से खेलते बच्चों का शोर आ रहा था. मैं यूं ही पूछ बैठा कि ‘सर आप डिस्टर्ब
नहीं होते इस शोर से’. वे बोले, ‘उल्लू के पट्ठे इधर से मुझे नई-नई गालियां सीखने
को मिलती हैं. और तू कहता है कि सर डिस्टर्ब नहीं होते इस शोर से.’ और फिर वे जोर
से खिलखिलाकर हंस पड़े.
रिटायर्ड होने के बाद भी वे खूब काम किया करते थे. कई नाटक तो उन्होंने रिटायर्ड होने के बाद ही लिखे. वो अलग बात है वे नाटक उनके दिमाग में सालों से पक रहे होंगे. सच में वे काम को बहुत महत्व देते थे. उनका मानना था कि काम से बड़ा कुछ नहीं. जब तक साँसे हैं काम करते रहो. वे अपने आखिर समय तक नाटक लिखते रहे. वो कहते थे आखिर वक्त में जब तुम पीछे मुड़कर देखो तो लगना चाहिए कि तुमने कुछ किया है. चाहे तुमने लालकिले पर झंड़ा ना फ़हराया हो. लेकिन तुमने अपने काम का झंड़ा तो गाड दिया ना बस. मैं जब भी उनसे कहता था कि सर ये परेशानी है या ये तकलीफ है तो हमेशा हल तो देते ही थे साथ ही साथ में ये भी कहते थे कि कुछ ना कुछ काम करता रह. अपने मन का काम करता रह. अपने मन का काम करता रहेगा तो ध्यान हटेगा. जब ध्यान हटेगा तो तकलीफ-परेशानी भी कम महसूस होगी. और कोई नया काम भी बनेगा. उनका हमेशा ही ये मानना था ‘ WORK is a great HEALER.’ ये पंक्ति उन्होंने अपने बेड के सामने रखी किताबों की अलमारी पर लगा रखी थी. पिछले साल एक विडियो देख रहा था, जिसमें उनकी बेटी प्रमिला जी उनके बारे बात कर रही थीं. जिसमें उन्होंने बताया कि वे अपने आखिर समय में अस्पताल के बिस्तर पर थे. ना चल सकते थे. ना उठ सकते थे. एक दिन उन्होंने मिलने आई अपनी बेटी से कहा कि ‘एक काम करना, वीणा (उनकी बड़ी बेटी) को बोलना कि वो एक गीत है ना जो मैंने चौथी क्लास में लिखा था उसमें एक जगह ‘प्रीतम’ आया हुआ है. उसकी जगह ‘सिरजनहार’ कर दें.’ मतलब कि वे अपने आखिर समय, तकलीफ में भी काम कर रहे थे. पुराना उधेड़ रहे थे. नया गढ़ रहे थे. फिर आप ही बताओ ऐसे इंसान को कोई क्यों ना याद करे, क्यों ना प्यार करे!
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