एक बेहद गर्म शाम, आज जब हम दोनों (दुष्यंत, और मोहन राकेश) अपनी-अपनी ख़ाली जेबों को कोसते हुए उसके घर जा रहे थे। गर्मी के कारण वह बुरी तरह हाँफ रहा था और जेब के कारण वह बेतरह परेशान था। मगर ठहाकों पर ठहाके लगा रहा था। मैंने पूछा, "क्यों खुश हो रहा है?" तुम समझते नहीं, वह बोला, " मैं गरीबी को ब्लफ़ कर रहा हूँ। कहीं साली यह न समझे कि मैं उसके रोब में आ गया...दरअसल यह राकेश की अदा थी और इसी पर लोग मरते भी थे। अगर उसकी जेब में अंतिम दस रुपए बचे हैं तो वह यह नहीं सोचता था कि इन्हें खर्च न करुँ, बल्कि यह सोचता था कि इन्हें जल्दी से जल्दी कैसे ठिकाने लगाऊँ ! वह साढ़े सात रुपए टैक्सी में खर्च करके ओमप्रकाश के पास पहुँचता और अपने ठेठ अमृतसरी पंजाबी लहजे में, उन्हे पुकारकर, बचे हुए पैसे उनके सामने पटक देता, " ले भाई, अब यह ढाई रुपए बचे हैं, बोल अब क्या करना है इनका?"
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