अगर कहीं एक ऐसा शख्स दिखाई पड़े, जो सिल्क की निहायत लंबे कालरवाली कमीज पहने हो, जिसके कफ कोट की बांहों से छह अंगुल बाहर निकले हों और उनमें एकदम पुरानी चाल के कफ-बटन हों, जिसकी टाई की गांठ ढीली मुट्ठी की तरह गर्दन में बेतरतीबी से कसी हो, कीमती कपड़े की पैंट जिस पहननेवाले से पनाह मांग रही हो और जो गोल्ड फ्लैक की सिगरटें जला-जलाकर खा रहा हो और माचिस की तीलियां, राख और टुकड़े निहायत साफ-सुथरी और सजी जगहों में फेंकता जा रहा हो और बात-बात पर आसमान-फाड़ ठहाके लगाता हो और लेखक के बजाय किसी बार का रईस, पर पहली नजर एकदम गावदी प्रोपराइटर लगता हो, तो समझ लीजिए कि वह राकेश है। अगर वह राकेश न भी हुआ तो वह राकेशनुमा आदमी आपको उसका अता-पता बता देगा,“ आप उन साहब को पूछ रहे हैं! जी हां, कल ही उन्होंने यहां टेबल रिजर्व कराई थी, चार-पांच दोस्तों के लिए ... पैसे भी दे गए थे, पर आए नहीं! “..
दिल्ली
से कटा हुआ कीर्ति नगर इधर-उधर खाली पड़े हुए प्लॉट, जहां शाम सात बजे से खामोशी छा
जाती थी। जब भी वहां बैठता, तो कुछ देर के लिए उसके ठहाकों
से दीवारें हिलने लगतीं, पर के क्षण बाद ही बड़ी गहरी खामोशी
छा जाती। भीतर से बुलावा आता,“ राकेश जी.... और जब वह
लौटता, तो उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में एक अजीब-सा बेगानापन दिखाई
पड़ता और फिर अपनी परेशानी को दबाता हुआ कहता, “चलो डियर, कनॉट प्लेस
चलते हैं!” और घर
से बाहर आते ही वह अपने फॉर्म में आ जाता। वही चुभती हुई बातें, यारों के किस्से और ठहाके! वह हंसता, तो तारों पर
बैठी हुई चिड़ियां पंख फड़फड़ाकर उड़ जातीं, और राह चलते ऐसे
चौंककर देखते, जैसे किसी को दौरा पड़ गया हो ! .......
7
फरवरी 62 की सर्द सुबह जब वह मेरे घर आया, तो एकदम टूटा हुआ था, पैसे के दुश्मन ने अपना पर्स देखा और साठ-सत्तर रुपए देखकर बोला, “ राजपाल
से पैसे लेने हैं! जेब में आज पाई नहीं है......” मै गौर
से उसे देख रहा था, अभी-अभी उसने अपनी आंखे चोरी से सुखाई थी,
कुछ क्षण खामोश रहकर सोचा था और तंगद्स्ती में भी टैक्सी लेकर मेरे
साथ निकल पड़ा था.... टैक्सी से उतरते ही उसने टैक्सी वाले को पांच रुपए इनाम के
थमा दिए थे और आगे बढकर गोल्ड फ्लैक का एक टिन खरीद लिया था। दोपहर में हम अलग हो
गए। वापस घर आया, तो राकेश की एक चिट पड़ी थी और बियर की दो
बोतलें- दोनों खाली- एक में दो घूंट बियर और सिगरेट के टिन में एक सिगरेट –
बाकी वह सब पी गया था और चिट पर लिखकर छोड़ गया था, “ कोशिश
करुंगा कि रात नौ-साढे नौ बजे फिर आऊं। स्थिति काफी गंभीर है। तुम्हें एक काम
अवश्य करना है। सुबह फ्रंटियर मेल पर पुरानी दिल्ली स्टेशन से अम्मा को रिसीव कर
लेना और उन्हें साथ यहीं ले आना... मैं किसी भी समय आकर मिल लूंग़ा ! “और इस मुसीबत के समुद्र में
डूबते-उतरते हुए भी उसकी विनोद वृति मरी नहीं थी, अंत में चिट पर लिख गया था, “तुम्हारे हिस्से की बियर और
सिगरेट छोड़े जा रहा हूं।“ उसे उस वक्त कोसकर सिगरेट तो मैंने सुलगा ली थी, पर
तली में पड़ी हुई दो घूंट बियर बोतल समेत फेंक दी थी।......
वह
इस बात का भूखा है कि कोई उसका है! यही उसकी अनवरत तलाश है ... कोई उसका है और वह
किसी का है – चाहे वह मां हो, दोस्त हो, बीवी
हो, या दो दिन का मुलाकाती! वह एकाएक अपना सब कुछ दे बैठता
है, कहता कुछ भी नहीं, पर जिससे एक बार
मिल लेता है, उसे वह गैर नहीं समझता। वह उसकी जिंदगी के दायरे
में आ जाता है। अगर ऐसा न होता, तो कश्मीर में वह तीन दिन
परेशान न घूमता। राकेश जब पहलगाम पहुंचा, तो तय यही था कि सब
दोस्त तम्बू लगाकर रहेंगे और सबके तम्बू अलग-अलग होंगे। राकेश पिछले साल भी पहलगाम
आ चुका था और एक तम्बूवाले से तम्बू लगवाकर रह चुका था। पहलगाम पहुंचने पर पता लगा
कि वह तम्बूवाला श्रीनगर गया हुआ है। वहां और भी बहुत-से तम्बूवाले थे, जो उसे घेर रहे थे, पर वह तीन दिन तक उस जरा-सी
जान-पहचान के तम्बूवाले के लिए इंतजार करता रहा और जब वह वापस आया, तभी उसने अपना तम्बू लगवाया। और गुरुद्वारा रोड के टैक्सी स्टैंड पर जब आठ
महीने बाद एक दिन फिर वह मेरे साथ पहुंचा, तो वह उसी
टैक्सीवाले को खोज रहा था, जिसने उसे मुसीबतजदा दिनों में
बहिफाजत पूरी दिल्ली घुमाई थी और जिसका नाम तक उसे याद नहीं था। और इस मायने में
कम्बख्त की किस्मत भी जोरदार है – जिसे वह चाहता है, वह मिल भी जाता है।.........
जिंदगी
की गंभीर-से-गंभीर और अहम बातों को सुलझाने के लिए उसके पास कई नुसखे हैं। एक
नुसखा बहुत ही लाजवाब है और उन सभी साहित्यकारों के लिए फायदेमंद है, जो नौकरियों
में लगे हुए हैं और हर क्षण नौकरी छोड़ने की बात करते हैं। वह आपसे गंभीरता से
पूछेगा, “नौकरी छोड़ने की बात सोच रहे थे? ”
“हां !”
“कुछ तय नहीं कर पा रहे हो ?”
“ हां ! “
“सुबह दस बजे कपड़े पहनकर
दफ्तर जाने का उत्साह मन में होता है ?”
“इसका क्या मतलब ?”
“अगर कपड़े बदलकर दफ्तर जाने
को मन करता हो, तो तुम्हें नौकरी करनी चाहिए, अगर न करता हो ,
तो छोड़ देनी चाहिए! और कुछ सोचने की जरुरत नहीं है- सीधा-सादा नुसखा
है....
भविष्य
की चिंता कीजिए तो एक और नुसखा उसके पास है, “कम-से-कम पांच सौ में गुजारा हो जाएगा ! है ना ? तो सूद पर तीन हजार कर्ज लो और आराम से बेफिक्र
होकर छह महीने में छह हजार का काम करो, फिक्र किस बात की है। “........
भारतीय
डेलीगेशन का अपना लीडर चुना जा रहा है। कोई साहब कहते हैं – मिनिस्ट्री
की राय है कि अमुक को चुना जाए। वह अमुक अभी अनुपस्थित है। आने वाला है। राकेश
भन्नाता हुआ सिगरेट का पैकेट निकालता है । उसमें सिगरेट नहीं है। एक क्षण वह
सिगरेट के लिए झुंझलाता है, फिर वहीं से बहुत ऊंची आवाज में
नाराजी से बोलता है- अगर सरकार ही सब तय करेगी तो हम यहां किसलिए हैं? हम जो लीडर चुगेंगे वह लीडर होगा। अगर इस तरह सरकार के डिक्टेट्स माने
जाऐंगे तो मैं इसके विरोध में वाकआऊट करता हूं। मैं उसे हाथ के दवाब से समझाकर
बैठा लेता हूं। धीरे से कहता हूं- सिगरेट लाने के लिए वाकआउट करने की जरुरत नहीं
है। वह यों भी आ सकती है। वह हंस देता है- तू नस पकड़ लेता है, पर यहां दूसरा मसला भी है.......
एयरपोर्ट
चलने से पहले वह परेशान है। पुरवा के लिए खिलौना लेना है। इतवार। बाजार बंद है। सोचा, दादर से
होते हुए निकल जाऐंगे। वह खुला होगा। फिर वक्त नहीं रहा। सीधे एयरपोट पहुंच गए।
लाऊंज में पहली कतार की आखिरी तीन कुर्सियों में से अतिंम वाली छोड़कर शेष दो पर
बैठे हम कॉफी पी रहे है। वह बहुत उदास है। भरा-भरा, थका-थका।
इस
बार बहुत थक गया हूं, दिल्ली जाकर खूब सोऊंगा।
-मैं
शायद पहली तारीख को आऊं।
-आना
तो जगा लेना। वह फिर चश्मे के भीतर से झांककर कहता है।.......
फोन
पर एक आवाज –दिल्ली में कुछ हो गया है। फौरन मालूम करिए......
दिल्ली
का वही एयरपोर्ट है। वही रास्ता है। और वही राजेन्द्रनगर है। शायद जिंदगी की हलचल
भी वही रही हो। पर भयानक सन्नाटा है। आज हलचल में कोई आवाज नहीं है। पेड़ो में हवा
नहीं है। हवा में जान नहीं है। वही छोटा-सा फाटक। वही टूटी हुई प्राम, बाईं दीवार
से लगी खड़ी। जीने का दरवाजा खुला हुआ। ऊपर घर का दरवाजा खुला हुआ। जैसे यहां कोई
नहीं रहता। गलत घर तो नहीं है? मैं अपने इस घर का पता तो
नहीं भूल गया? पहला कमरा- सब हैं। जैसे कोई नहीं पहचानता।
दूसरा कमरा-वहां भी कुछ हैं। वे भी नहीं पहचानते। बरामदा- दो-तीन लोग वहां भी हैं,
वे भी नहीं पहचानते। मैं ही किसी को कहां पहचान पा रहा हूं। आखिरी कमरा- उसमें सफेद चादर ओढ़े कोई लेटा है-वह भी नहीं पहचानता। शायद
देख नहीं पाया। मैं सिरहाने बैठकर चादर हटाता हूं।
सुन!
राकेश नहीं सुनता।
-देख तो..
वह नहीं
देखता।
-अरे
जाग तो।
वह
नहीं जागता....
कुछ
भी बीता नहीं है। लोग कहते हैं, वह सैंतालीस साल का था। दोस्त की कोई
उम्र होती है? दोस्त और मां- ये हमेशा
अपनी उम्र के होते हैं। बाकी सबकी उम्रों में फर्क होता है।.....
और जो अपने वक्त की उम्र हासिल कर ले, वह क्या होता है। उसका क्या नाम होता है ? एक नाम मोहन राकेश होता है।
(
नोट- मोहन राकेश पर लिखा कमलेश्वर का यह संस्मरण " मेरा हमदम मेरा दोस्त
" किताब से लिया गया है। इस किताब का प्रकाशन " किताबघर" ने किया
है। और यह संस्मरण 14 पेज का है इसलिए इसके कुछ हिस्से लाया हूँ।)
2 comments:
दिल को छू गया प्रसंग आगे भी पढवाते रहियेगा।
वाह. पता चला है कि कितने मस्ततबीयत थे मोहन राकेश. कमलेश्वर के लिखने में भी कुछ बात है कि अंत में एकदम सन्न कर छोड़ता है यह शख्स.
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