मन होता नहीं, किसी
से मिलने के लिए
दिल पसीजता नहीं,
जरुरतमंदो के लिए.
खुली आंखें देखती हैं,
जुल्म होते हुए
हाथ उठते नहीं,
जुल्मी लोगों के लिए.
जुबान खुलती नहीं,
अपने हक के लिए
पैर चलते नहीं, सत्य
की आवाज़ के लिए.
दिमाग सोचता नहीं, अपने
देश के लिए
फिर भी लोग कहते हैं
कि, मैं जिंदा हूँ !
5 comments:
हां देख लीजिए फिर भी ज़िन्दा हैं हम
पता नही कैसे कह देते हैं ज़िन्दा हैं हम
जब रोज़ अपनी चिता को खुद आग देते हैं हम
करारी बात है / आवाम की बात/ सीधे और सरल शब्दों में कटाक्ष/ सोचने और विचारने योग्य/ बहुत बढ़िया लिख गए है आप सुशील जी
जिन्दा तो है ही .. कभी तो चेतना जागेगी ... शायद अभी अती आने में देर है कुछ ...
सोचने को विवश करती ...
ज्यादातर का यही हाल है। बहुत गहरा विचार।
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