दो किलकारी
दो किलकारीयाँ घर में गूँजने से पहले
बीच रास्तें में ही कहीं दफ़न हो गई
कोई अनदेखी अनजानी डोर उन्हें खींच ले गई
बहना काका काका पुँकारती रही
माँ दर्द में कराहती हुई आवाज़ लगाती रही
दादी कहती मेरे दो फूल आओ और खिल जाओ
दादा रुँधे गले से बोल रहे
ओ मेरे राम लक्ष्मण मेरे बुढ़ापे के साथी बन जाओ
मैं ना आवाज़ मार सका, ना हाथ ही बढ़ा सका
मैं दो दो हाथ लिए भी पत्थर की मूर्ति बना खड़ा
बस देखता रहा, बस देखता रहा, बस देखता रहा ....
15 comments:
kya kahu...bhaavuk kar diya aapne.
भावुक दिल को छू लेने वाली रचना ..निशब्द कर दिया इसने
सच्चे दिल से आत्माभिव्यक्ति।
बहुत सहज...नैसर्गिक
और
संवेदनशील प्रस्तुति.
आपके गुरुदेव का मंतव्य बिल्कुल सही है.
===============================
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
"When you come to the edge of all the light you know and you are about to step off in the darkness of the unknown, faith knows one of two things will happen: There will be something solid to stand on, or you will be taught how to fly." Anonymous
आप भी सेंटी आदमी हो यार .....
मित्र....
समय हर दुख....
हर परेशानी को हर लेता है....
फिर नया सवेरा होगा...
फिर पंछी चहकेंगे....
उनकी किलोल से पूरा घर-आंगन महकेगा....
ऐसे समय में भी पोस्ट लिखने के बहुत हिम्मत चाहिए....
आपको एक नहीं...दो नहीं....
सौ-सौ सलाम....
नमन मेरा भी.
तनेजा जी की टिप्पणी
और उनकी मेल से हकीकत जान पाया.
मुझे लगता है जिंदगी और जिंदादिली को
चरितार्थ कर दिखाया है आपने.....सलाम आपको.
====================================
चन्द्रकुमार
सुशील जी आपकी हिम्मत को सलाम यही कह सकती हूँ ..ईश्वर सब अच्छा करेगा |
बहुत संवेदनशील रचना है!
bahut hi saahas ka kaam hai ,apni sachhi bhavnao ko saamne laana.....
मार्मिक अभिव्यक्ति....
नीरज
अच्छा लिखा है बंधु।
अच्छा लिखा है बंधु।
apke dil ki tees likhi hai is lekh mein....
pr ye bhi to sach hai ki jo hota hai ache ke liye hota hai...
Post a Comment