
दक्षिण के एक हिन्दी-प्रेमी चन्द्रहासन, प्रेमचंद से मिलने काशी आये। पता लगाकर शाम के वक्त उनके मकान पर पहुँचे। बाहर थोड़ी देर ठहरकर खाँ-खूँ करने पर भी कोई नजर न आया तो दरवाजे पर आये और झाँककर भीतर कमरे में देखा। एक आदमी, जिसका चेहरा बड़ी-बड़ी मूँछो में खोया हुआ-सा था, फर्श पर बैठकर तन्मय भाव से कुछ लिख रहा था। आगंतुक ने सोचा, प्रेमचंदजी शायद इसी आदमी को बोलकर लिखाते होंगे। आगे बढ़कर कहा- मैं प्रेमचंदजी से मिलना चाहता हूँ। उस आदमी ने झट नज़र उठाकर ताज्जुब से आगंतुक की ओर देखा, क़लम रख दी, और ठहाका लगाकर हँसते हुए कहा- खड़े-खड़ॆ मुलाक़ात करेंगे क्या। बैठिए और मुलाक़ात कीजिए .......
बस्ती के ताराशंकर 'नाशाद' मुंशीजी से मिलने लखनऊ पहुँचे। उन दिनों वह अमीनुद्दौला पार्क के सामने एक मकान में रहते थे। मकान के नीचे ही 'नाशाद' साहब को एक आदमी मिला, धोती-बनियान पहने। 'नाशाद' ने उससे पूछा- मुंशी प्रेमचंद कहाँ रहते हैं, आप बतला सकते हैं ? उस आदमी ने कहा - चलिए, मैं आपको उनसे मिला दूँ। वह आदमी आगे-आगे चला, 'नाशाद' पीछे-पीछे। ऊपर पहुँचकर उस आदमी ने 'नाशाद' को बैठने के लिए कहा और अंदर चला गया। ज़रा देर बाद कुर्ता पहनकर निकला और बोला- अब आप प्रेमचंद से बात कर रहे हैं ............
ऐसे थे प्रेमचंद । ये दोनो घटनाऐ किताब "कलम का सिपाही - लेखक अमृतराय" से ली गई हैं। और ऊपर दिया फोटो सहमत से साभार हैं।