उठ जाग मुसाफिर
उठ जाग मुसाफिर
सुबह को ना जागा , अब तो जाग
जीवन की दोपहर होने को आई है।
सुन साथी
दुनिया पहुँची मंगल पर
फ़िर क्यूं तू ठहरा पेड़ की छाँव में
देख , परख , चल उठ
उठ जाग मुसाफिर
सुबह को ना जागा , अब तो जाग
जीवन की दोपहर होने को आई है।
सुन साथी
जीवन की दोपहर होने को आई है।
सुन साथी
किस गली गुम हो गये तेरे सपने
किस कर टूट गये माँ बाप से किये वादे
किधर खो गई तेरी इन्कलाबी बातें
"किसान है कमजोर, आम जन है बीमार और व्यापारी रहते सदा जवान।
इसलिए नही होती कोई क्रांति अपने देश "
सोच समझ , चल दिल में भर इक जोश
उठ जाग मुसाफिर
सुबह को ना जागा , अब तो जाग
जीवन की दोपहर होने को आई है।
सुन साथी
जीवन की दोपहर होने को आई है।
सुन साथी
शरीर क्या है। इक मिटटी
आत्मा क्या है। इक अमर तत्व
तू क्या है ? तू क्या होगा ?
इक मिटटी या इक अमर तत्व
शेष अभी भी दोपहर और शाम
चल बढ़ा फ़िर से एक कदम
2 comments:
अच्छा है. कोई दिक्कत हो तो मुझे निश्चिंत होकर इमेल करिए.
आगे बढने की प्रेरणा देती सुन्दर कविता....
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