Monday, December 2, 2024

'तू' और 'आप' की कहानी

 

एक बार बेटी ने कहा था..

पापाजी आपने मेरी 'आप-आप' कहकर आदत खराब कर दी.

क्यूं भई. क्या हुआ?

पता है. अब कोई मुझे 'तू' बोलता है तो अच्छा नहीं लगता! 


तब यह बात मैंने यूं ही हंसी-हंसी में सुनी-अनसुनी कर दी थी. लेकिन पिछले दिनों एक दोस्त के साथ एक वाक्य घटा देखा-सुना तो यह बात याद हो आई. 


दरअसल पिछले दिनों जब वह (मेरा दोस्त) अपने दोस्तों से मिलने जा रहा था. तो अपने एक दोस्त के घर के पास से जानबूझकर गुजरा कि क्या पता उसका उसके दोस्त से आमना-सामना हो जाए. क्योंकि पिछले कुछ सालों से उसकी राहें और उसके दोस्त की राहें अलहदा-अलहदा हो गई थीं. राहें बेशक अलग-अलग हो गई थीं लेकिन शायद 'कुछ था' जो उसे और उसके दोस्त को जोड़े हुए था. वैसे भी उन दोनों के बीच 32 साल पुरानी दोस्ती जो थी. और इसी 'कुछ' की वजह से जब-जब भी उसके दिल से मुलाक़ात की आवाज निकलती. तब-तब बेशक उन दोनों मुलाकात ना हो पाती हो लेकिन आमना-सामना तो हो ही जाता था. और उसे इसी बात से सुकून मिल जाता था कि वो ठीक है. स्वस्थ है.


और इस बार उसकी मुलाकात उसके दोस्त से हो गई थी. वो दोनों के कॉमन दोस्तों के बीच खड़ा था. उसका दोस्त आया और सबसे हाथ मिलाता रहा. जब उससे हाथ मिलाने की बारी आई तो उसके दोस्त का हाथ उससे हाथ मिलाने को बढ़ा ही नहीं. शायद कोई वजह रही होगी. कोई गिला रहा होगा.


खैर उसने यह बात कहकर बात को आगे बढ़ाया कि ' क्या बात जो मेरे से हाथ नहीं मिलाया.


' खैर उसके दोस्त का हाथ बढ़ा. यह कहते हुए कि ''आप' लोग तो वीआइपी हो. बड़े लोग हो. 'आप' लोगों से मैं कहां हाथ मिला सकता हूं.' 


'आप' शब्द की ध्वनि उसके कानों में से ऐसे गुजरी जैसे किसी ने उसे कुछ भला-बुरा कह दिया हो. या फिर किसी ने उसके दिल पर चोट कर दी हो. वो 'आप' शब्द की टिस लिए अपने दोस्त से बोल उठा कि 'मैं तेरे लिए कब से 'आप' हो गया.

' उसका दोस्त बोला,' जब से मुझे दुनियादारी की समझ आ गई है.


' वो कटाक्ष पर कटाक्ष सुनता रहा और अंदर ही अंदर बिलखता रहा. और फिर जब उससे रहा नहीं गया तो एक साइड होकर आसमां की तरफ देखता रहा. शायद दोस्ती के पुराने दिनों को याद कर मानो बोल रहा हो,'दोस्ती क्या सिर्फ लेन-देन से होती है! यानि जब तक एक दूसरे के काम आते रहो, एक हाथ दो, दूसरे हाथ लेते रहो.या फिर दूसरे हाथ से लेते रहो, पहले हाथ से देते रहो तो ठीक वरना एक बार साथ ना दे पाओ तो दोस्ती टूट जाती है!' 


खैर अपने मन को हल्का कर वो फिर से ग्रुप में शामिल हो गया. हम सब हंस बोल रहे थे. वो अब गूंगा-सा बिना बोले ही हम सबकी बातें सुनता रहा. और जब चलने यानि विदा होने की बारी आई तो उसके दोस्त ने अबकी बार भी सबसे हाथ मिलाया सिवाय इसके. और उसका दोस्त बायं राह की तरफ मुड़ गया. और ये मेरे साथ हाथ ना मिलाने की टिस लिए दाएं राह की तरफ चल दिया. 


और मैं यह सब लिखते हुए सोच रहा हूं कि  जीवन के रंग कितने अजीब होते हैं.  बेटी 'तू' कहने से परेशान थी. और मेरा दोस्त 'आप' कहने से परेशान है! 


Thursday, September 12, 2024

मेरी निम्मो

 

कोई-कोई फिल्म प्यार-सी मीठी, प्रेमिका-सी सुंदर और बच्चे-सी मासूम होती है. कुछ ऐसी ही मीठी,सुंदर और मासूम फिल्म है 'मेरी निम्मो'. यूं तो इस फिल्म की कहानी एक छोटे से गांव में जन्मी प्रेम की साधारण-सी कहानी है लेकिन यह साधारणता ही इस फिल्म की खूबसूरती है.इस सादी कहानी में गांव के एक नाबालिग लड़के 'हेमू' को एक बालिग लड़की 'निम्मो' से 'वैसा' वाला नहीं 'वो' वाला प्यार हो जाता है. फिल्म 'वैसे वाले प्यार' से शुरू होकर 'वो वाले प्यार' तक चलती है. और आखिर में गांव के एक बाहरी मोड़ से होकर एक दूसरे ही मोड़ को मुड़कर खत्म जाती है. बस इतनी-सी कहानी है इस फिल्म की. परंतु इस फिल्म में 'वैसे' और 'वो' वाले प्यार के बीच जो खट्टा-मीठा घटता है वो दिल को छू लेता है. ऐसा लगता है कि आप मासूमियत की नदी में रुक-रूककर डूबकी लगा रहे हैं. डूबकी से जो आनंद मिल रहा है. वो अद्भूत है. आपको इस फिल्म में गांव के खाली पड़े खेतों में क्रिकेट खेलने से पहले टॉस के लिए सूखे-गिले का इस्तेमाल करते बच्चे नजर आ जाएंगे. गांव की किसी गली के नुक्कड़ पर बच्चे पिठ्ठू खेलते दिख जाएंगे. गांव की एक सीधी गली में कुत्ते से डरता मेरे जैसा एक बच्चा मिल जाएगा. गांव के एक बड़े से घर से कोई लड़की लोकगीत 'झटपट डोलिया उठाओ रे कहरवा' गाते हुए मिल जाएगी. गांव में आई शहरी बारात में कोई शहरी 'एक्स्चुसे मी' कहता हुआ मिल जाएगा. फिल्म के इस गांव में घूमते हुए आपको कुछ ना कुछ अवश्य मिल जाएगा. जैसे मुझे ये सब मिला. आखिर में जब आप इस फिल्म को देखकर उठेंगे तो आपकी झोली खाली नहीं अलग-अलग एहसासों से भारी होगी. और ये एहसास ही मेरी निम्मोफिल्म की जान हैं.

नोट- फोटो गूगल से.

Tuesday, March 12, 2024

बचपन का दोस्त और बचपन की यादें

कभी कोई दोस्त अचानक से वर्षों बाद याद आ जाता है. याद आने के बाद मिलने या बात करने की तलब बेहद ज्यादा हो जाती है. लेकिन आपके पास ना उसका फोन नंबर होता है. और ना ही उसके घर का पता. बस तब आप मायूस होकर उसके साथ बिताए पुराने दिनों को याद करने लग जाते हैं.

खैर यह दोस्ती उन दिनों की है, जब सुबह-सुबह गली में दही ले लो दहीकी आवाज लगाते दही बेचने वाले आया करते थे. उनके सिर पर कपड़े की इंडी जैसी कुछ हुआ करती थी. और उसके ऊपर पतले कपड़े से ढकी दही की हांडी. अब तो याद भी नहीं कि दही कितने रूपए किलो मिला करती थी. लेकिन दही बेहद स्वादिष्ट हुआ करती थी. उसके स्वाद का कारण दही का मिट्टी की हांडी में जमना हुआ करता था.

फिर भरी दोपहरी में कुल्फी वालेघंटी बजाते हुए अपनी रेहड़ी लेकर आते थे, उनकी रेहड़ी में कुल्फी के पास एक लोहे की चरखी लगी होती थी. जिसके बीच में अंक लिखे होते थे. बच्चे लोग उसे घूमाते थे. और कोई-कोई बच्चा ऐसे घुमाता था कि दो-दो कुल्फी पा जाता था. और कोई एक आध तीन भी पा जाता था. और मेरे जैसा तो हमेशा बस एक ही कुल्फी पाता था.

उसी भरी दोपहरी में गली के नुक्कड़ पर एक भूस की टाल पर ताशखेलने वालों का मजमा भी लगा रहता था. वहां अक्सर ताश का गेम 'सीप' खेला जाता था लेकिन कभी-कभी दहला पकड़ भी खेला जाता था. ताश के 'सीप' के खेल में हम भी कभी-कभी हाथ आजमा लिया करते थे.

खैर मैं बात दोस्त की कर रहा था. मुझे इस वक्त उसकी शादी से जुड़ी एक घटना की याद आ रही है. हल्की वाली सर्दियों में दोस्त की शादी थी. कैमरा वाला करना उनके लिए संभव नहीं था. लेकिन शादी की फोटो याद के लिए हो जाएं तो ये भी हम दोनों की इच्छा थी. इसलिए कैमरे की तलाश शुरू हुई कि किसी दोस्त के पास कोई छोटा-मोटा कैमरा हो तो उसे शादी में ले जाया जाए. खैर हमारे एक किराएदार थे. वे एक बैंक में काम करते थे. और वे उत्तराखंड के थे. उनके पास कैमरा था. वो भी रील वाला. तब रील वाले कैमरे ही हुआ करते थे ज्यादातर. लेकिन वे कैमरामैन नहीं बनना चाहते थे. तब आपां दोस्त के लिए कैमरामैन बन गए थे.  बात बस इतनी-सी नहीं है. जो बात मैं बताना चाहता हूं वो दूसरी है.

खैर फिर क्या था शादी के दिन नए कपड़े पहनकर आपां कैमरामैन हो गए. बारात लुटियंस दिल्ली में किसी एमपी के घर के पीछे बने घरों में जानी थी. कैमरे की रील सीमित मात्रा में खरीदी गई थीं. तो फोटो भी हमारे द्वारा भी कम लिए जा रहे थे. शायद तीन-चार रील ही खरीदी गई थीं. और उस वक्त एक रील में 32-36 के करीब फोटो आती थीं. लेकिन जब फेरे के समय की बारी आई तो रील कम पड़ गईं. जहां तक मुझे याद है बस एक रील ही बची थी. तब मैंने यह बात दोस्त को बताई और कहा कि अब मैं क्या करूं? अब तो रील भी खरीदी नहीं जा सकती. क्योंकि उन दिनों उस लुटियंस इलाके में कोई दुकान भी नहीं थी. तब उसने कहा था, जो तुझे करना है वो तू कर ले. और फिर फेरों के वक्त जिसे देखो वही कहे कि मेरी फोटो ले लो दूल्हे के साथ. मैं फोटो लेने से मना कर दूं या अनदेखा कर दूं तो लोग गुस्से से देखने लगें. या गुस्सा हो जाएं. तभी मुझे ख्याल आया कि ऐसा करता हूं कि खाली फ़्लैश मार देता हूं. किसे पता चलेगा कि फोटो ली है कि नहीं. और ट्रिक काम कर गई. फिर फेरे के समय जो फोटो जरुरी लगती उसकी फोटो ले लेता था वरना तो फ़्लैश से काम चला लेता था. लेकिन तभी कोई महिला फेरों के बीच ही बोली, ' यो कैमरा वाला हमारी फोटो नहीं लेता खाली फ़्लैश मारे है बस.' और मेरी पोल खुल गई. आजतक पता नहीं यह पोल खुली तो कैसे खुली. फिर बाद में ही लड़कों वालों की तरफ से बताया गया कि ये कोई कैमरा वाला नहीं है ये तो दूल्हे का दोस्त है!!

खैर अब यहां ना वो दोस्त है. ना ही अब यहां वो दही वाले या कुल्फी वाले आते हैं। और ना ही अब वो भूस की टाल है. यहां तो अब बस मैं हूं, ये मोहल्ला है. या फिर पुरानी यादें हैं!!

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