जब से पैदा हुआ हूं. तब से दिल्ली को दिखाता आया हूं. उसकी गलियों में घूमता आया हूं. दिल्ली के चौराहों पर खड़े होकर दिल्ली के हर रंग को देखा है. यानि कुल मिलाकर दिल्ली से इश्क है. पर ये ‘दिल्ली वाला लहजा’, ‘ये दिल्ली वाला ह्यूमर’ क्या होता है? सच मुझे पहले पता नहीं था. ऐसा नहीं है कि ये सब मैंने सुना नहीं होगा. देखा नहीं होगा. लेकिन ऐसे गौर करके पहचाना नहीं.
बेटी ने कई बार कहा,’ क्या पापाजी. कितने साल के हो गए हो आप. 40-45 साल के तो होगे ही. आपको ना
कभी ‘दिल्ली वाले लहजे’ में बात करते देखा. ‘दिल्ली वाले ह्यूमर’ की तो बात ही छोड़ दो! मैं
बचपन से आपको सुनती आ रही हूं. आपके शब्दों से दिल्ली वाली फील नहीं आती. कई बार
ऐसे शब्दों (हिंदी के कम प्रयोग वाले और कठिन शब्द, और उर्दू के शब्द, ऐसा वो कहती है.) का यूज़ करते हो कि सर के ऊपर से चले जाते
हैं. आप दिल्ली वाले लगते ही नहीं हो. वो देखो शाहरुख खान को. उनकी बातचीत में आज
भी ‘दिल्ली वाली फील’ आती है. उनके मजाक से ‘दिल्ली वाला ह्यूमर’ झलकता है. आज से पहले बहुत
बार इस टॉपिक पर अपन दोनों की बातचीत हो चुकी है. वो फिलहाल अब याद नहीं. लेकिन
अभी ‘तापसी पन्नू’ को सुन रहा था. वे भी शाहरुख
खान के 'दिल्ली वाले ह्यूमर' की बात कर रही थीं.
फिर बैठा-बैठा सोचने लगा कि ऐसा क्या और कैसे हुआ है कि मैं इतने सालों में ये सब नहीं पहचान पाया. उसे देख-समझ नहीं पाया. जिसे बेटी ने दो साल में पहचान लिया. इस बात पर बेटी को गर्व-सा फील हो रहा था कि जो बात उसने गौर की, वो बात उसके पापा नहीं कर पाए, जोकि उसकी नज़रों में बेहद इंटेलीजेंट हैं. यानि इस मामले में वो अपने पापा से आगे निकल गई!
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