रविवार की सुबह देर तक मैं चाहकर भी सो नही पाता। क्योंकि रविवार है। और किसी चीज का इंतजार है। आँख खुलते ही मुँह से आवाज निकलती है पेपर। नीचे से कोई पेपर लेकर आता। पाँच पेपरों में से जिस पेपर की तलाश है उसे सबसे पहले निकाल संपादकीय पेज खोलता हूँ। जिस रविवार यह पेपर नही मिलता तो सुबह बासी सी लगती है। फिर बस एक आवाज निकलती है "जीतू"(छोटा भाई) वो पेपर कहाँ है।" नीचे से ही आवाज आती है "आज नही आया, पेपर वाला कह रहा था कि आज ये पेपर नही आया।" (पेपर वाला अक्सर यह पेपर नही लाता) मैं बिस्तर से निकल पड़ता हूँ। ना बाथरुम जाने की जरुरत, ना ही टूथ ब्रश करने की जरुरत। और ना ही नाशता करने की इच्छा। बस एक ही काम कि ये पेपर कैसे लाया जाए। फिर से जीतू को आवाज लगती। और वो पैर पटकता हुआ आता है और पैसे लेकर पेपर लाने के लिए बाईक से निकल जाता है। अक्सर घर में चर्चा रहती है कि ऐसा क्या है इस पेपर में जो हमें धक्के खाने पड़ते है। जब तक पेपर नही आऐगा ये बैचेन क्यों रहता है? थोडी देर बाद मेरी आवाज फिर से गूँजती है "क्या हुआ अभी तक पेपर नही आया। कितनी देर हो गई। पेपर लेने गया है या अमेरिका गया है। कल से इस पेपर वाले को बदल दो, .... एक यही पेपर नही लाता बाकी सब ले आता है, नही चाहिए मुझे ऐसा पेपरवाला.....................। फिर घर का एक सदस्य कहेगा कि "तसल्ली भी रखा करो।" फिर दूसरा सदस्य कहेगा "पेपर पेपर पेपर..., पेपर हो गए या ......."पर माँ तो माँ होती है ना" आ गई अपने बड़े बेटे का पक्ष लेने। और बोलने लगेगी "एक पेपर नही ला सकते तुम, मैं तो अनपढ ठहरी, नही तो खुद जाकर ले लाती।" वो पेपर कोई और नही "जनसत्ता" है। और उस पेपर के जिस कालम को पढने के लिए मैं सुबह सुबह बैचेन रहता हूँ वो कालम है "कागद कारे" बाकी के सारे काम इसको पढने के बाद .................
आज का दिन
आज "जनसत्ता" आया हुआ है। पर प्रभाष जी के जाने की खबर सुबह किसी समाचार चैनल से मिली। एकदम से स्तम्भ रह गया। और एकटक टीवी को देखता रहा। पर फिर अपनी भावानाओं पर काबू पाया। ना जाने कैसा रिश्ता था मेरा और उनका। कभी कभी सोचता हूँ तो लगता है कि शब्दों और विचारों का एक रिश्ता है। एक भावनात्मक रिश्ता। पता नही कब कैसे "कागद कारे" से परिचय हुआ और एक रिशतें में बदल गया। उनके लिखे "कागद कारे" कभी होंसला दे जाते, कभी कुछ सीखा जाते, कभी अनदेखी तस्वीर को देखा जाते, कभी आँखो में आँशु ले आते और कभी जीने का जज़्बा दे जाते। उनके लिखे शब्दों से मिट्टी की खूशबू आती है। उनका "अपन" शब्द अपना सा लगता है। उनकी खरी खरी बातों ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगो की जमीन को हिला जाती है। पता नही उनके लिखे कितने लेखों की कटिंग आज भी फाईल में लगी हुई है। आज जब उस फाईल को निकाला तो उनके शब्दों और विचारों की लहरों में बहता चला गया। कई बार प्रभाष जी से आमना सामना पर कभी बात नही हुई। सोच रहा हूँ कि परसो रविवार है। क्या सचमुच "कागद कारे" नही आऐगा? क्या अब भी मैं रविवार की सुबह का बेसर्बी से इंतजार करुँगा? उस बैचेनी का अब क्या होगा? प्रभाष जी अब कौन हर रविवार सुबह मेरे संग बैठकर चाय पीऐगा। इस रविवार सुबह जनसत्ता तो आऐगा, प्रभाष जी क्या आप सचमुच नही आऐंगे?...................................
प्रभाष जी की खरी खरी जिसके हम कायल थे।
कहते है आज अगर बालको उधोग खड़ा किया जाता तो उसमें कम से कम पाँच हजार करोड़ रुपय लगते। बालको के इक्यावन प्रतिशत शेयर यानी उसकों चलाने की मिलकियत और उस पर नियंत्रण साढे पाँच सौ करोड रुपयों में स्टारलाइट कंपनी को सौंप दिया गया। इस उधोग के पास अपने दो बिजली घर है जिनमें प्रत्येक पाँच सौ करोड़ का माना जाता है। विनिवेश मंत्री अरुण शौरी ने सब आंकड़े बताए लेकिन मानने वाले नहीं मानते कि यह सौदा साफ और पारदर्शी है। छतीशगढ के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री निवास के एक असंवैधानिक सत्ता केंद्र ने सौ करोड़ रुपय इस सौदे में लिए है। लेकिन अरुण शौरी इसे बकवास बताते है। वीपी सिंह और बोफर्स वीर अरुण शौरी अब तक नहीं बता सके कि वे चौंसठ करोड़ किसने खाए? पंद्रह साल हो गए। लेकिन बालको के सौदे में कोई गडबड वे नही देखते। अरुण शौरी जब पत्रकार हुआ करते थे तो गाँधी के लंबे-लंबे उद्धरण दे-देकर राजनेताओं को कोड़े मारा करते थे। क्या बालको स्टरलाइट कंपनी को इसलिए सौंपा गया है कि उसके मालिक ने गाँधी के टृस्टीशिप सिद्धांत को मान लिया है? तब एक लेख में नेताओं को दुतकारते हुए अरुण शौरी ने लिखा था- काके ये थूक के चाट जाएंगे। उनके मुहावरे और मंतव्य को अब उन्हीं पर लागू किया जाए तो कहना पड़ॆगा- काके, ये विश्व बैंक के पले-पनपे एडम स्मिथ के सपूत है। ये गाँधी को थूक कर हेडगेवार को चाट जाएंगे। बालको, तुम देखना ये बड़ी ईमानदारी से देश को बेच खाएंगे। |
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नोट- ऊपर बाक्स में लिखा हुआ अंश प्रभाष जी के एक लेख से लिया गया है जो जनसत्ता में छपा था। जिसकी कटिंग मेरे पास है और वहाँ से उतारा गया है। इसलिए "जनसत्ता" पेपर का शुक्रिया। और फोटो गूगल और रविवार डाट काम से लिया गया है। साथ ही ये पोस्ट कल लिखी गई थी पर किन्हीं कारणों से आज पोस्ट की जा रही है।
14 comments:
रविवार की सुबह "कागद कारे" का ऐसे इंतजार होता था।
खुब कहा आपने...
बहुत दुखद .. उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !!
कभी कभी सोचता हूँ तो लगता है कि शब्दों और विचारों का एक रिश्ता है। एक भावनात्मक रिश्ता। पता नही कब कैसे "कागद कारे" से परिचय हुआ और एक रिशतें में बदल गया.....
बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ लगी ......!!
सुशील जी सच कहूँ तो प्रभाष जी को सच्ची श्रद्धांजलि आपने दी है ...उनका लिखा सम्पादकीय पढने की ये बेचैनी ...जीतू को आवाज़ .....माँ की सहानुभूति ....सब संवेदित कर गया ....!!
प्रभाष जी को अश्रु पूर्ण श्रद्धांजलि.....!!
bahut hi dukhad .........prabhash ji ko hardik shraddhanjali.
aapke man ke gahre udgar hamari bhi aankhein nam kar gaye.
प्रभाष जी को सच्ची श्रद्धांजलि....उन जैसे लोगों की बदौलत ही पत्रकारिता महज व्यवसाय बन कर नहीं रह गयी है...थी।
-मुझे ब्लॉग के ज़रिये ही यह दुखद खबर मिली थी .
प्रभाष जी को हार्दिक श्रद्धांजलि.
सच है, अब कौन साथ बैठ कर चाय पियेगा?
चैनलो के इस दौर में पेपर की उत्सुकता ही यह साबित करता है कि आज भी लेखन पठन पाठन का महत्व है। खैर, प्रभाष जी गये कहां हैं, वो तो आपके हमारे दिल में पैठ चुके हैं। पत्रकारिता की इस दुनिया में विशुध्द बने रहना कठिन हो गया है किंतु प्रभाषजी पवित्र बने रहे। वे सच्मुच कमाल के थे। मुझे याद है प्रभाषजी कहा करते थे कि यदि मैं साहित्य में होता तो कबीर होता, क्रिकेट में होता तो सी के नायडु होता, संगीत में होता तो कुमार गन्धर्व होता। वे पत्रकारिता में थे और सच्मुच महान थे। हां मेरे साथ उनके कुछ संस्मरण जुडे हैं, बहुत करीब से। या यह कहूं कि उनकी कुछ बातों पर अमल करते हुए आज तक चल रहा हूं। मेरे लिये वो कहीं नहीं गये है, बस थोडा दूसरी किसी दुनिया के भ्रमण पर.....।
उनकी यात्रा सफल रहे...।
सुशील जी,
शायद कागद कारे तो आएगा लेकिन प्रभाष जी नहीं आयेंगे. और ज्यादा नहीं.
ये इनकी साफगोई ही का नतीज़ा है कि एसे लोग अपने से लगने लगते हैं
हमने तो दुनिया को देखना ही उनकी भाषा से सीखा है ...
प्रभाष जी को हार्दिक श्रद्धांजलि.मुझे आप के ब्लांग से ही इस खबर का पता चला... बहुत दुखद
अहसासों को शिद्दत से उकेरती। जीवन में कब कहां कैसे किसका कितना बड़ा स्थान बन जाता है इसे तभी महसूस सकते हैं जब वो न रहे। दिल को भीतर तक झकझोर दिया है आपने। विनम्र श्रद्धांजलि प्रभाष जोशी जी को। पर मैं कहता हूं कि वे यहीं हैं और यहीं रहेंगे आपके पास उनके लेखों की कतरनों के रूप में। किसी के पास स्मृतियों में, किसी के पास संस्मरणों में, प्रसंगों में ... वे यहीं मिलेंगे सदियों तक।
its an bitter truth...
meet
Jansatta padhe huye mujhe 15 varsh beet chuke hain. Kabhie delhi mein rahte waqt ise padha karta tha aur tab man mein yahi aaya karta tha ki Hindi ke anya akhbaaron ko bhi aisa hi hona chahiye.
Prabhash ji ki lekhni se jyada parichit nahin hoon par aap jaise paathkon dwara unke liye prakat kiye gaye samman se pata lagta hai ki hindi patrkarita ne apna ek mazboot stambh kho diya.
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