लतिका रेणु जी का फणीश्वरनाथ 'रेणु' जी पर लिखा अंतरंग संस्मरण ।
भागलपुर जेल से कुछ राजनीतिक-बन्दी पटना अस्पताल में इलाज के लिए भेजे गए थे। मैं यहाँ नर्स-इंचार्ज थी। थोडे दिनों में इलाज कराकर वापस भेज दिए गए। एक दिन वार्ड का चक्कर लगाते हुए देखती हूँ, भागलपुर जेल से आए कुछ सिपाही आपस में गप्पें मार रहे है। मैंने उनसे पूछा, "आप लोगो के साहब लोग तो चले गए, फिर आप सब अब तक यही हैं?" "एक साहब अभी है" एक सिपाही ने बेड की तरफ इशारा करते हुए कहा। मैंने देखा एक बढ़ी दाढी और बालवाला दुबला-पतला नौजवान आँखे बन्द किए पड़ा है। मेरे कुछ पूछने पर उसने आँखें खोलीं, और मुझे मिनटों देखता रहा। कुछ बोला नहीं। मैं आगे बढ गई। शाम को एक नर्स ने आकर बताया- भागलपुर जेल से आया राजयक्ष्मा का वह बन्दी मरीज मेरे बारे पूछ रहा था। पहले तो मरीज खुद ही पूछ लिया करता था, बाद में कुछ स्वास्थ्य सुधरा तो पर्ची पर लिखकर किसी के मार्फत भिजवाता-" आप मुझे देखने क्यों नही आतीं।" मैं जाती। बहुत पूछने पर अपनी तबीयत के बारें में दो एक बात बतलाता और चुप। उसकी आँखो में जी पाने की लालसा झलकती होती थी और कई बार तो उस मासूम से चेहरे को देखकर मैं सोचती यह आदमी, इस कदकाठी और उम्र का क्रांतिकारी भी हो सकता है? डा. बनर्जी की देखरेख में मरीज एक दिन ठीक-ठाक होकर वापस भेज दिया गया। बाद को, साल छह महीने में कभी अस्पताल में ही वह दिख जाता। देखकर सोचती, किसी को देखने आया होगा, लेकिन तब क्या जानती थी कि वह मुझे ही देखने पूर्णिया से यहाँ चला आता है। बस, वैसे ही चुप, नि:शब्द वार्ड के इधर-उधर विचरकर वापस हो जाता। कभी नजरें मिलतीं तो मैं महज औपचारिकतावश पूछ लिया करती,"आपनी ठीक-ठाक तो?" " हाँ..." बहुत संक्षिप्त सा उत्तर। एक बार मिला तो कहने लगा-" देखिए, मैं स्वस्थ नजर आने लगा हूँ न? डाक्टर ने कहा था, घर जाकर खूब आम, दही, दूध, मछली खाओ, सो मैंने अपनी खुराक बढ़ा दी है और ....... मरीज सचमुच स्वस्थ नजर आ रहा था। मैंने कहा " इसी तरह खाने पीने पर ध्यान रखना होगा।" और वह हँसने लगा था। चार वर्ष बाद एक दिन एक नर्स ने मुझे एक पुर्जा थमाया-" मैं फिर बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हूँ, आप मुझे देखने नही आएँगी?" और देखने गई, सुना बीमारी अबकी बढ गई है, मुँह से खून गिरता है, मैंने कहा-" आपने बदपरहेजी की?" " इस बार मैं बचूँगा नहीं" -मेरे सवाल के बदले हताश होकर उसने कहा। तो मैंने सांत्वना दी-" ठीक-ठाक रहिए, आप जरुर बचेंग़े" जाने दुबारा उसे देखकर मन को कैसा तो लगा था, शायद यही कुछ कि इसे बचना चाहिए। पिछली बीमारी से वापस जाने के बाद, बीच-बीच में उसका आकर मिलना, अपने स्वास्थय के बारें मेरे हल्के फुल्के निष्कषों पर खुश होना उसे अच्छा लगता था और अच्छी लगने वाली उस बात ने ही शायद उसके मन में मेरे लिए स्नेह के बीज बो दिए थे। दुबारा भर्ती होने पर मेरी सांत्वना के बदले कहा- " इस बार बच गया तो फिर जीवन में कभी बदपरहेजी नहीं करुँगा।"
उसके ठीक-ठाक होकर अस्पताल से निकलने तक जाने क्यों मेरे मन में भी मोह पैदा हो गया, और हम दोनों एक-दूसरे को ज्यादा समझने लगे थे। वह अनजान मरीज मेरे मन में अपने लिए श्रद्धा जगाकर खुद वह यह पालने लगा था कि मरणांतक दौरे से उसे डाक्टर और दवा ने नही, मैंने बचाया है। वह वापस अपने गाँव लौट गया। इस बार बीच-बीच में उसके पत्र मिलते रहे। कभी मैं भी लिख देती। फिर एक दिन परिवार वाले उसे अस्पताल ले आए। सुन-देख कर पहले तो गुस्सा आया लेकिन उसका सूना, सपाट और म्लान चेहरा देख, खुद ही सहम गई। "इस बार, अब और बचने की उम्मीद नहीं"- मेरे आक्रोश के बदले उसकी आँखो से आँसू झरने लगे थे। होंठ नि:शब्द। एकांत मे जाकर आदिशक्ति माँ को याद किया-"या तो इसे पूर्ण स्वस्थ कर दो, या उठा लो माँ। बार बार क्यों?" पिछले वर्षों में आत्मीयता का एक रिश्ता जुड़ा था सो साधिकार डाँटा-डपटा-" हर बार मरने लगते हो तो यहीं एक जगह देखी है?" "और कहाँ जाऊँ?" भरे गले से उसकी आवाज निकली थी। नही कह सकती, उसके इस एक वाक्य ने मुझे किस गहराई तक बाँध डाला था मैं करती भी क्या सेवा में जुटी। डयूटी के अलावा जो समय बचता, उसी के पास बैठी होती। अपने हाथ का बना खाना उसे खिलाती, उसके कपड़ॆ, शरीर साफ करती, उसके लिए प्रार्थनाएँ करती-बचा लो माँ। और बचा, यानी स्वस्थ हुआ तो एक दिन जिद पकड़ बैठा-" अब कहीं नहीं जाऊँगा। यही रहूँगा, तुम्हारे पास।" मैंने समझा, भावुकता में बोल रहा है। एक शाम डेरे से खाना लेकर अस्पताल जाने की तैयारी में थी, कि वह अपना सामान रिक्शा पर लादे पहुँचा-"अस्पताल से डिस्चार्ज-सर्टिफिकेट ले लिया है, और सचमुच मुझे अब कहीं नहीं जाना है।" उस बाल सुलभ जिद का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था- ठीक है बाबा। शादी की बात तय हुई तो मैंने अपने बड़े भाई को खबर की। उन्हें सारी जानकारी मिली तो समझाया-" इतने भयानक मरीज के साथ शादी मत करो।" लेकिन मुझे अपने निर्णय पर अडिग देख वह झुके और 5 फरवरी 1952 को मेरे मकान पर हम दोनों की विधिवत शादी हो गई। शादी के दिन उनकी शारीरिक हालत कैसी थी -जानते है "इतने कमजोर, कि शादी की तमाम रस्में उन्होंने दीवार से टिककर पूरी कीं। हम कुछ महीनों के लिए औराही-हिंगना गए। मैंने पहली बार उनका गाँव-घर देखा। पटना आए तो जिद पकड़ ली- "तुम नौकरी छोड़ दो।" लेकिन जब तक कोई आर्थिक विकल्प नहीं मिलता, मैं नौकरी कैसे छोड़ देती? अजीब पसोपेश में थी कि एक दिन उन्होंने फैसला सुनाया-" अब मैं लिखूँगा। जीने के लिए विकल्प तो ढूढ्ना ही होगा, लेकिन मुझे तुम्हारी नौकरी पसन्द नहीं।" और "मैला आँचल" लिखने की शुरुआत वहीं हुई- सब्जी बाग स्थित मकान पर। "मैला आँचल" के डा. प्रशांत की कल्पना उन्होंने डा. प्रसून बनर्जी- डा. टी.एन. बनर्जी के लड़के, जो तब हाऊस सर्जन थे, के व्यक्तितव, चलने, हँसने, बोलने के अन्दाज से ली। ममता के रुप में मुझे खींचा और कमली के रुप में गाँव वाली पत्नी पदमा जी को। बाकी की पृष्ठभूमि रही उनका ग्रामीण क्षेत्र। एक वर्ष में जब लेखन पूरा हो गया तब समस्या खड़ी हुई उसके प्रकाशन की। उन दिनों यहाँ रामेश्वर बाबू का यूनियन प्रेस हुआ करता था। तय हुआ, खुद ही छापेंगे। रामेश्वर बाबू छापने पर सहमत हुए। शर्त यह रखी गई कि सात सौ रुपए का कागज पहले देंगे, छपाई के नौ सौ रुपय धीरे धीरे उपनयास बेच कर सधा देंगे। और "मैला आँचल" छप गया।
छपने के बाद रामेशवर बाबू के पैंतरे बदले। कहा, रुपए दीजिए तब उपन्यास को हाथ लगाने देंगे। एक शाम लौटे तो दुखी थे- "मैला आँचल" बिक रहा है, और मुझे बताया नहीं जाता। कोई बात नहीं, दूसरा लिख दूँग़ा। मैंने कोई सलाह दी तो खीझ उठे- "पैसा ही तुम्हारे पास कि बची प्रतियाँ उठा लाऊँ? दो हजार रुपए की माँग करते हैं वे।" मैंने इधर उधर से रुपए जुगाड किए और 'मैला आँचल' की सही सलामत और दीमक खाई प्रतियाँ तक घर में रख दी गई। एक दोपहर राजकमल प्रकाशन के मालिक ओमप्रकाश जी घर ढूँढ़ते हुए पहुँचे। रेणु थे नहीं, ओमप्रकाश जी स्लिप छोड़कर चले गए- "वह आएँ तो कहिऐगा, मैं डेढ़ दो घंटे में फिर आऊँगा। दिल्ली से उन्हीं से मिलने आया हूँ। लौटे तो ओमप्रकाश जी की स्लिप देखकर कूदने लगे " बहुत बड़े प्रकाशक 'मैला आँचल' छापने की अनुमति लेने आए हैं।" शाम को ओमप्रकाश जी, मैं और इनमें बातचीत हो ही रही थी कि नागार्जुन जी श्री श्यामू सन्यासी को लेकर पहुँचे। 'मैला आँचल' इन्हें चाहिए। और लीजिए, मोल-भाव शुरु। दो दो प्रकाशक इकटठे - किस दें न दें। वह मुझे अन्दर के कमरे में ले गए। कहा- फैसला तुम्हीं पर छोड़ दूँगा। तुम्हारा पैसा लगा है। कहना-'मैला आँचल' हम ओमप्रकाश जी को ही देंगे। बाहर आकर कहा- "छपवाने में सारा पैसा लतिका जी का खर्च हुआ है, सो यही जाने, किसे देंगी।" मैंने फैसला सुनाया तो नागार्जुन जी दुखी हुए। सन्यासी जी दुगनी रायल्टी देने पर तैयार हो गए, लेकिन मैने कहा- "जो हो गया, हो गया।" और रात को ओमप्रकाश जी ने बची प्रतियों का बंडल बाँधा, रिक्शे पर लादा, स्टेशन चले गए। इस तरह वह उपन्यास लोगों के सामने आया। 1973 में दिल्ली गए। डा आत्मप्रकाश ने इलाज किया। कहा आपरेशन करवा लीजिए। वापिस आए तो चीर-फाड़ के डर से फिर वहाँ नही गए। 4 नवम्बर को घर जाने लगे। मैंने कहा -"आज गुरुवार है, यात्रा पर निकलना शुभ नहीं।" "घर जाने में यात्रा का शुभ अशुभ कैसा?" कहकर मुझे तो चुप कर दिया, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ था। अच्छे बुरे का योग मानने वाले उनको आज यह कैंसी झक सवार हो गई? शुभ अशुभ बहुत मानते थे। घर गए तो चुप्पी लगा दी- न चिट्ठी न पत्री। जैसी पुरानी आदत थी। किसी ने आकर खबर दी, गाँव में बुरी तरह बीमार है, फार्बिसगंज लाया गया है खून चढ़ाया जा रहा है। बाद को टैक्सी में पटना लाए गए। देखा- स्लाइन की बोतलें साथ लगी हैं, साथ में डाक्टर, कम्पाउण्डर, घर का नौकर, दो एक और लोग। पेट कड़ा हो गया था, पाखाना-पेशाब बन्द। डाक्टर ने कहा है "तुरंत आपरेशन।" तो मन में हुआ इतनी जल्दी आपरेशन क्यों? थोड़ा ठहर लेते हैं। 1969 में भी हालत ऐसी ही हो गई थी- लगातार तीन दिन, तीन रात हिचकी आती रही, खून-ग्लूकोज चढ़ाया गया तो ठीक हो गये। इस बार भी मैंने ग्लूकोज चढ़्वाया तो पेशाब हुआ। लगा ठीक हो रहे हैं। पर होमोग्लोबिन बहुत कम था। डाक्टर ने कहा " होमोग्लोबिन सौ प्रतिशत हो जाए तब आपरेशन करेंगे।" हीमोग्लोबिन ठीक हुआ तो आपरेशन की तारीख तय कर दी गई। चुनाव की घोषणा हो चुकी थी, सो कहा- अब चुनाव के बाद ही। आपरेशन की तारीख से पहले अस्पताल से भागकर डेरे आ गए। काफी हाऊस जाना, चुनाव-कार्यालय में बैठना। चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित थे। चार दिनों तक यह सब चला और फिर पाँचवे दिन उल्टी शुरु। फिर अस्पताल पहुँचाया गया। आपरेशन से बहुत डरते थे, सो इरादा था किसी तरह छुटकारा मिले, लेकिन कष्ट बढ़ा तो कहा- "नहीं, अब करा ही दूँगा।"
डाक्टर से 24 अप्रैल की तारीख तय कर दी। 24 तारीख गुरुवार था। मैंने याद दिलाया तो बोलें- "कोई बात नहीं, हो लेने दो। मुझे कुछ नहीं होगा।" ऊपर-ऊपर बुलन्दी थी लेकिन अन्दर ही अन्दर नर्वस हो रहे थे। सुबह में कहा-" कोकाकोला पीऊँगा।" मैंने मना किया। "कोकाकोला पी लेने में क्या है? आपरेशन में तो पेट चीर कर डाक्टर निकाल ही देगा।" फिर भी मैंने नहीं दिया तो बोले-"रामवचन जी को कह दिया है, आइसबैग ले आने को। कोकाकोला उसमें रखना, होश आने पर पीऊँग़ा।" और होश क्यों कर आता? सप्ताह से ज्यादा बेहोशी की हालत में गुजर गए तो एक दिन कोकाकोला की दो चार बूँदे मैंने होठों पर टपकाई। वे इधर उधर होकर फैल गई। उसके खाने पीने की बच्चों वाली जिद। क्या कहूँ? दो चार दिन बीमार होकर उठते तो जिद पकड़ लेते- कई दिन हो गए चिकन मँगवाओ। नहीं मँगवाओ तो पथ्य नहीं लूँगा, यह नहीं खाऊँगा, वह नहीं खाऊँगा और न जाने क्या क्या ......... अब सोचती हूँ तो लगता है अब से तैंतीस वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े एक मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। यह नहीं कहती कि उसे जीवन दिया था। मैं ऐसा कहने वाली कौन होती हूँ? तब से लेकर आज 11 अप्रैल की 1977 रात तक उसे अनवरत सेती रही और अंतत: वह चला गया। मैं किससे कहूँ कि इतने वर्षों की इस सेवा ने मुझे क्या दिया? जब तक जीवित हूँ, उनकी याद सेती रहूँगी- दो कमरों का यह फ्लैट , दीवारों पर लगी उनकी तस्वीरें, उनके दैनिक उपयोग के सामान और पुस्तकें...... यही सब छोड़ कर तो गए हैं वह - पिछले तैंतीस वर्षों की भुलाई न भूलने वाली यादें। आज भी लोग आते है। दरवाजे की कुण्डी खटकती है लगता है शायद वह ही हों।
"के?".............. पूछती हूँ।
जवाब में "आमि.... आमरा....... जैसे शब्द नहीं होते। अब वह मरीज कभी यह दरवाजा खटखटाने नहीं आएगा। दरवाजा, चाहे तीमारदार लतिका का हो, या खुद फणीश्वरनाथ 'रेणु' का।
नोट- लतिका रेणु जी का फणीश्वरनाथ 'रेणु' जी पर लिखा यह अंतरंग संस्मरण "रेणु का जीवन" किताब से लिया गया है जिसका संपादन किया है "भारत यायावर जी" ने और छापा है "वाणी प्रकाशन" ने। इन सबका शुक्रिया कहते हुए साथ में माफी भी चाहूँगा क्योंकि पोस्ट ज्यादा बड़ी हो रही थी इसलिए कुछ लाईनों को हटाना पड़ा। पर जब से इस संस्मरण को पढ़ा तो तब से बैचेन हो रहा था इसे ब्लोग साथियों से बाँटने के लिए।
एक सूचना- आगे से "जिदंग़ी के रंग" वाली पोस्ट महीने के पहले और तीसरे सोमवार को ही पेश की जाऐगी।
26 comments:
bahut achcha laga yeh sansmaran....
itna achcha sansamaran padhaane ke liye bahut bahut dhanywaad .... aapka........
Ekek panktee dil me utartee gayee...sach jeeva kee saugaat to unhen 'nurse' ne hee dee...shayad eeshwar ne uske haathon dilwaayee...33 saal ka wardaan kam nahee..jis ne khoya use utna saath shayad pal bhar kaa lage..lekin jo paya wo khone se kaheen adhik hai...aisa priy zindagee me kitne logon ko milta hai?
Lajawab sansmaran hai..jise bina palak jhapkaye padh liya..
इसे हम लोगों के साथ साझा करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
अभी १ सप्ताह पहले ही 'मैला आँचल' खरीदी है और आजकल वही पढ़ रहा हूँ
और आज देखो उनके बारे में इतना सबकुछ पढने को मिला
इस संस्मरण को साझा करने के लिए बहुत शुक्रिया
आजकल "मैला आँचल" पढ़ रहा हूँ
ये क्या पढ़ाया सुशील जी आज....! आँखें नम हो गईं...! बहुत नज़दीक थी ये मेरे अपने दिल के...!!
तब से लेकर आज 11 अप्रैल की 1977 रात तक उसे अनवरत सेती रही और अंतत: वह चला गया। मैं किससे कहूँ कि इतने वर्षों की इस सेवा ने मुझे क्या दिया? जब तक जीवित हूँ, उनकी याद सेती रहूँगी- दो कमरों का यह फ्लैट , दीवारों पर लगी उनकी तस्वीरें, उनके दैनिक उपयोग के सामान और पुस्तकें...... यही सब छोड़ कर तो गए हैं वह - पिछले तैंतीस वर्षों की भुलाई न भूलने वाली यादें। आज भी लोग आते है। दरवाजे की कुण्डी खटकती है लगता है शायद वह ही हों।
"के?".............. पूछती हूँ।
इन शब्दों का मन पर कहाँ असर हुआ, ये बताने के लिये शब्द किससे उधार माँगू...???????
बहुत मार्मिक.
रामराम.
साथियों शनिवार को ये संस्मरण पढा था। पता नहीं कितनी बार पढा होगा तब से लेकर अब तक। और हर बार गहराई में डूबता चला गया। हर बार आँखे बोलने लगती पर फिर भी और पढता रहा। और तब ही एक लाईन जहन में आई कि " ना जाने किस मिट्टी के बने होते है ये लोग" लतिका जी का प्यार, सेवा, समर्पण्,त्याग.......रेणु जी का रहन सहन, जिदंगी से लड़ने की हिम्मत, देखप्रेम, शब्दों से प्यार, बच्चों सी जिद,...... हर भाव, हर चीज दिल को छूती गई। और तब से लेकर सुबह तड़फता रहा इसे पोस्ट करने के लिए........ फिर आता हूँ कुछ कहने के लिए।
मिट्टी के बने तो होते हैं
पर मिट्टी में कहां फना होते हैं
यादों में बस जाते हैं
जीने का हौसला दे जाते हैं
प्यार की परिभाषाएं एकदम नई
दिल को छूती गढ़ जाते हैं
शब्द ब्रह्म बन जाते हैं।
is net ko kos raha hoon bus.....
Nirmala ji ki 'Betiyon' wali post padhne ke baad jaise hi aaiya maano aankho ko vyast rehne ka koi aur saaman mil gaya !!
bahut kuch likha tha us tippani main .....
abki baar itna hi kahoonga ki bus aankhein num kar gayi aapki ye post !!
us betiyon wali kahani ke baad !!
is comment ko (ctrl+c) kar liya hai taaki agar na post ho to doobara....
संस्मरण मन को व्यथित कर गया !
आप के इस संस्मरण का एक एक शव्द पढा, बांधे रखा इस लेख ने, क्या प्यार यही होता है... सोचने पर मजबुर हो गया, बहुत मार्मिक.
धन्यवाद
prem,tyaag, samarpan....esa jeevan.../ aasaan he kaya? magar unke liye he jo 'esi kesi mitti ke bane hote he'/bharat bhoomi me hi ese log peda ho sakate he, yanhi janm leta he prem..bhavnaye../ me sochata hu..jiska jeevan samarpit ho, jo jiyaa so jiyaa magar..jab vo likhane bethi hongi tab? kyaa haal rahaa hoga???????? jab ham padhh kar apni aankho ko nam kar lete he, to jab unhone sansmaran likha hoga tab????????
fir nahi ji gai hongi ve? yaa roti rahi hongi.....,?????
yah sansmaran naa to man ko vyathith karne ke liye he, na hi udaas ho jaane ko aour naa hi padhh kar aankhe nam karne ke liye..yah to hamaare liye ek seekh he..jise jeevan me utaarne ki jaroorat he/ yadi prem karna ho to pahle samarpit ho,, tyaag ke liye tayyaar rahe...aour fir.../ me to kuchh esa hi sochtaa hu, isliye kareeb 8 baar padhha hoga mene aour har baar yahi sochne me aayaa ki ...ise to jeevan me utaarkar jeenaa chaahiye..sirf padhh kar me aapko badhaai nahi de sakta, aour naa hi apni aankhe nam karke is post ki taarif kar lene bhar se kaam pooraa ho jaayegaa..../ me samjhtaa hu, agar sahi maayane me ise koi padhhtaa he to use apne jeevan me bhi tayaar rahanaa chahiye..prem ke prati samarpit rahne ke liye prerit hona chaahiye, tab to he is poori post ki saarthakta/ pata nahi log sochenge ki nahi?????kher...
बेहद ही मर्मस्पर्शी संस्मरण आपने हमसे बांटा है... सच में हम सोचते हैं की हमारा दर्द, हमारा गम सबसे ज्यादा है... पर लतिका जी के बारे में पढ़ कर ऑंखें भीग गयी...
इस लेख के आगे मैं निशब्द हूँ....
@ नैना...
बिटिया मिठाई शिठाई ना खाना... उसमे मिलावट है...
पापा ने इसबार तो सही किया है... और हमारी दिवाली सही रही...
मीत
वाकई, बात कहीं गहरे छू गई..अच्छा रहा यह संस्मरण पढ़ना.
मार्मिक संस्मरण, पढ़वाने का शुक्रिया...
अब क्या लिखें, ऐसे मार्मिक संस्मरण के लिए?
बहुत मार्मिक है यह शुक्रिया इसको पढ़वाने के लिए
रेणू जी का मै बहुत बड़े वाला फेन हूं....मैला आंचल मेरा फेवरेट उपन्यास है ...परती परिकथा से लेकर मारे गए गुलफाम को लेकर बनायीं गयी तीसरी कसम के बाद शैलेन्द्र जी दुखदायी म्रत्यु ओर उससे उपजे कई पन्ने अलग अलग जगह पढ़ चूका हूं ....ये पन्ना बुक मार्क करने जैसा है .इंटर नेट पे ऐसे दस्तावेज बहुत जरूरी है ......
sushil you have done a wonderful job....
dard ,dard aur sirf dard..........iske siwa jana kahan.
dil bhar aaya.............kahne ko shabd nhi hain...........tyag,sewa,samarpan .........kya nhi hai..........jyada kuch nhi kah paungi.
naina bitiya,
khhansi to thik bhi ho jaati he, aap to khoob khaao toffiya vagerah..par ab to saari khatm ho gai hongi? so fir se shuru kar do apni ZID.../papa naa maane to hame batao..aour agar hamse bhi vo nahi maanenge to fir batao..tab ham post se bhej dete he dher saari tofiya..chocklet..../ to bolo maza aayaa naa...../
लतिका जी का संस्मरण वाकई बहुत अच्छा है......आपको इस संस्मरण पहुचने के लिए बधाई .
जब पहली बार मैंने पढ़ा था तो जाने कैसा-कैसा मन हो उठा था...आज फिर से कुछ वैसा ही हो गया हूं इसका अंश आपके पृष्ठ पर पढ़कर।
...और तारीफ़ करता हूं आपकी कि आपने इतनी मेहनत से इस अंश को टाइप किया है। नेट पे तो अन्यत्र ये कहीं मिलेगा नहीं।
हमारे पड़ोस का ही गाँव है रेणु जी का। सुनते हैं युवा शोधकर्ताओं और लेखकों की टीम जब भी रेणु जी के घर पर जाती हैं, तो लतिका जी खूब डाँट लगाती हैं कि लेखक मत बनो।
रेणु जी की कहानियों में खास कर 'ठेस', आदम रात्रि की महक आदि में अक्सर भागलपुर, बिहपुर, कटिहार, नवगछिया आदि जिले आते हैं... यह बड़ा भागलपुर का है... आज भी आदम रात्रि की महक पढता हूँ तो ख़तम किये बिना नहीं छोड़ता... इतनी अच्छी लेख बांटने के लिए धन्यवाद...
बेहद माम्र्स्पर्शी लगा ये संस्मरण -
- आभार
आपने इसे पढवाया
- लावण्या
Behtreen Prastuti.... sadhuwaad..
Thanks to Facebook जिसने मुझे यहाँ तक पहुंचाया, नहीं तो ये मुझसे छूट ही गया था..
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