शुक्रवार को बैठे बैठे पत्नी की कही एक बात याद आ गई जो किसी दिन किसी बात पर कही गई थी कि " हे भगवान अगर बेटी दे तो धन भी दिया कर" इस बात में छिपा दर्द शब्द बनकर कलम से कागज पर उतर गया। पर भाव पूरी तरह से उभर नहीं पाए तो रंजू जी को याद किया गया और उन्हें वो तुकबंदी मेल कर दी गई। इस विनती के साथ कि अगर समय हो तो इसको अपने हाथों से तराश दें। फिर शाम को ईमेल चैक की तो वह तुकबंदी एक सुन्दर भावपूर्ण रचना में बदल चुकी थी। जो बात मैं कहना चाहता था वो बात यह रचना कह रही है इसलिए ज्यादा कुछ ना कहते हुए बस रंजू जी को दिल से शुक्रिया।
बढ़ रही है बेटी की उम्र जैसे जैसे
ढ़लती उम्र के पिता की
कदमों की चाल तेज हो रही है
बढ़ती माँगो को देखकर
उतर रहे हैं माँ के तन से जेवर धीरे-धीरे
आँखो से बेबसी बयान हो रही है
तक रही है आसमान को
बेटी नि:शब्द होकर
भाई के हाथ
बहन को दे रहे हैं दिलासा
घर के कोने-कोने में
खामोशी जज्ब हो रही है
हँसता नही अब यहाँ
कोई खिलखिला कर
मुस्कान की भी जैसे
कीमत तय हो रही है
गूँजते है बस अब
कुछ ही लफ्ज़ घर में
"सो गए क्या?"
"नही तो"
यह ज़िंदगी बस अब यूँ
नाम की व्यतीत हो रही है
35 comments:
बहुत मार्मिक रचना...साधुवाद रंजू जी को जिन्होंने इस रचना को संवारने में आप की मदद की...एक संवेदनशील व्यक्ति ही इतनी संवेदना एक रचना में भर सकता है...
नीरज
घर के कोने-कोने में
खामोशी जज्ब हो रही है
हँसता नही अब यहाँ
कोई खिलखिला कर
मुस्कान की भी जैसे
कीमत तय हो रही है
मर्म के साथ बहुत सुंदर रचना... एकदम सच्ची...
जिसे इतने नाजो से पालते हैं, बड़ा करते हैं... उसे फ़िर ख़ुद ही दूर भेजने के लिए कितने जतन करते हैं...
मीत
बढ़ रही है बेटी की उम्र जैसे जैसे
ढ़लती उम्र के पिता की
कदमों की चाल तेज हो रही है
बढ़ती माँगो को देखकर
"भावुक कर गयी ये पंक्तियाँ....बेहद भावनात्मक स्तर पर लिखे गये शब्द ..आभार"
Regards
सुशील जी आपकी लिखी पंक्तियों के भाव ही बहुत सुंदर थे ...मैंने तो बस उसको एक आकार दे दिया ..बड़ी होती बेटी के लिए जो फ़िक्र होती है वह इस से गुजरने वाला सहज ही समझ सकता है ...
दिल को छू गई आप की कविता.
बहुत अच्छे भाव हैं..यूँ तो बच्चे हर उम्र में माँ-बाप की किसी न किसी रूप में जिम्मेवारी रहते ही हैं.
लेकिन लड़कियां बड़ी होने लगती हैं तो उनके विवाह के बाद दूर होने की चिंता सताने लगती है...
घर के कोने-कोने में
खामोशी जज्ब हो रही है
हँसता नही अब यहाँ
कोई खिलखिला कर
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बहुत ही भावों भरी रचना है..मन के सीधे सच्चे भाव -शायद हर माँ -पिता के भाव..
सुशील जी
बहुत ही संवेदनशील, मार्मिक रचना, सीधे दिल में उतर गयी...............कुछ देर के लिए सोचता रह गया, हकीकत के करीब है यह रचना
सामाजिक विसंगतियों से उपजी एक मार्मिक रचना। बधाई।
beti shabd hi dil ko jhakjhor jata hai kyunki use pal poskar ek din vida karna hota hai ........yahi fikra umra se pahle ma baap ko boodha bana deti hai.
ye to ma baap ka dil hi janta hai ki wo kaise us pal ko sahan karte hain .
us dard ko shabdon mein bandhna itna aasan nhi hota.
main is waqt is kavita ko padh kar ro rahi hun aur comment de rahi hun.
sach un bhavnaon ko samajhna kya itna aasan hai jab tak hum khud us pal ko nhi jeete tab tak kaise samjhenge.
bahut hi uttam rachna.
दिल को छू गई ।
सुशील जी आपका और रंजना जी का शुक्रिया ।
एक मां बाप के मर्म और पीडा को वयान करती सशक्त रचना.
बहुत सुंदर रचना.....एक बेटी के मां बाप का दर्द का सही दर्शाती हुई ।
susheel ji ko badhai , ki unhone itni bhaavpoorn rachana ko likha aur ranjana ko double badhai , ki unhone is kavita ko ek shilpi ki tarah tarasha .. aap dono hi dil se badhai ke paatr hai ..
beti jab badhi hoti hai to saare ghar ka sama kuch aisa hi tabdeel ho jaata hai .. susheel ji ne bahut maarmik dhandh se zindagi ki ek sacchai ko apne shabdo men utaara hai ..
susheel ji ko abhaar ki unhone , saare zamaane ke maata -pita ka dukh ko shabd de diye ..
bahut marmik bhavpurn kavita
aaj ki ladhki aur unke ghar ke logon ki chinta sa sajeev chitran hai
Ranju ji ko bhi shukriya
Shushil ji aapke bhaav hamesha bhaut pravhavit karte rahe hain
"सो गए क्या?"
"नही तो"
सभी माँ बाप यही कहते हैं "बेटी तू यानी ही अच्छी लगती है. तू सयानी मत होना."
घर के कोने-कोने में
खामोशी जज्ब हो रही है
हँसता नही अब यहाँ
कोई खिलखिला कर
मुस्कान की भी जैसे
कीमत तय हो रही है
मर्म के साथ बहुत सुंदर रचना... एकदम सच्ची...सुशील जी आपका और रंजना जी का शुक्रिया
aap dono ka hi aabhaar , katu yatharth ko yathavat saarthak dhang se chitrir karne ke liye.
मेरे दिल से पूछो यार जिसे खुदा से एक बेटी की दरकार है......
इतनी भाव प्रवण रचना..फ़िर रंजू जी का शब्द संयोजन..एक जादू सा बिखेरती है ये रचना.
हर भारतिय मा-बाप के दिल की आवाज है ये. बहुत शुभकामनाएं और रंजू जी का बहुत आभार.
रामराम.
bahut bhavpurna kavita
दिल को छू लेने वाली मार्मिक रचना के लिए सुशील जी एवं रंजू जी...दोनों का आभार
छौक्कर साहब आपकी यह कविता दिल को छू गई !
बढ़ रही है बेटी की उम्र जैसे जैसे
ढ़लती उम्र के पिता की
कदमों की चाल तेज हो रही है
सुशील कुमार छौक्कर जी बहुत ही भावुक कविता कही आप ने, बहुत बहुत धन्यवाद
आँखो से बेबसी बयान हो रही है
तक रही है आसमान को
बेटी नि:शब्द होकर
बहुत ही भावपूर्ण कविता है।
हमारे मित्र अजय गुप्त कहते हैं:
"सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।"
मन को छूती हुई...अंदर तक उतराती संवेदना ये सुशील जी
बेटी का बाप बना हूँ अभी-अभी और इस से पहले दो बहनों की शादी में पिता को पिसते देख चुका हूं
"हँसता नही अब यहाँ
कोई खिलखिला कर
मुस्कान की भी जैसे
कीमत तय हो रही है "
बहुत सुंदर
मुस्कान की भी जैसे
कीमत तय हो रही है
सुशील भाई, बहुत ही भावुक रचना। रंजू जी का भी आभार इसे तराशने के लिए।
बेटी के माँ बाप का दर्द तो है ही .पर सोचिये बेटियों पर क्या गुज़रती है जब वो अपनों की हँसी को धूमिल होते देखती हैं. काश हम समाज की इस विसंगति को दूर कर पाते. भावुक कर दिया आपकी कविता ने .
बहुत सुन्दर भाव हैं.आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ, अच्छा लगा.अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा..
सुंदर रचना परन्तु मार्मिक सच्चाई! रंजना जी को भी बधाई!
kavita ki taariif ke liye mere paas shabd nahi hain. mere blog per aane ke liye shukriya. wo meri beti nahi bhanjii ki tasveer hai.vaise Betiyan sabhi ki sanjhi hoti hain...thik kha na...
सुशील जी,
बेटियों की चिंताए जताते एक जागरुक लेख के लिए बधाई।
और लोग कहते हैं कि समाज बदल गया है, परिस्थितियां बदल गई हैं। महिलाएं सशक्त हो गई हैं...कौनसी दुनिया में जीते हैं वो...
सुशील जी, बहुत बढ़िया और मर्मपूर्ण रचना।
रचना है
सच्चाई है
इसके कृति के लिए
दिल से बधाई है।
bahut hi achchhi lagi aap ki kavita jo beti pe likhi gayi hai hum aap ko dil se dhanyabad karte hai
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