Thursday, November 6, 2008

कोई हिजड़ा कह बुलाता और कोई किन्नर कह पुकारता , लेकिन कोई भी अपना कह नही दुलारता हमें।

एक ही कोख से जन्में हम
एक ही खून से बनें हम
भूख लगती तो खाना खातें हम
दुख होने पर रोते हम
खुश होने पर हँसते हम
एक ही मिट्टी में मिलते आखिर में हम
परंतु
अपने परिवार से ठुकराए जाते सिर्फ हम
बाहर निकलकर मजाक बनते सिर्फ हम
सब रिश्तों की आँखो में चुभते सिर्फ हम
ताली बजाकर पेट की आग बुझाते सिर्फ हम
प्यार, दुलार को तरसते सिर्फ हम
सदियों से लेकर आजतक उपेक्षित रहें सिर्फ हम

नोट: ऊपर दिये फोटो http://www.pijushphotography.blogspot.com/ और गूगल से लिए गए। इसलिए इस पोस्ट के लिए उनका भी शुक्रिया।

19 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

अपने परिवार से ठुकराए जाते सिर्फ हम
बाहर निकलकर मजाक बनते सिर्फ हम
बहुत मार्मिक और अफसोसजनक !

राजीव तनेजा said...

"कोई हिजड़ा कह बुलाता और कोई किन्नर कह पुकारता,लेकिन कोई भी अपना कह नही दुलारता हमें"

एक अच्छी और सच्ची कविता

रंजू भाटिया said...

अभी परसों अजित कौर की आत्मकथा "कूड़ा -कबाडा" पढ़ रही थी ....उस में इतना अच्छा लिखा है इस बारे में कि पढ़ के लगा सच ही तो है ..कि किस की बातों में आ कर तुम अपने को घटिया मानते हो ..जीवन को समझो यह तो कुदरत की एक भूल है और तुम कई लोगों से बेहतर हो ...और बाद में उन्होंने उन में से एक को अपने घर में रखा भी ..आज आपकी लिखी यह रचना पढ़ी तो याद आ गया ..बहुत सही सुंदर लिखा है आपने ...

मीत said...

बहुत बढ़िया सुशिल जी....
पढ़कर बहुत अच्छा लगा....
बहुत ही संवेदनशील रचना है...

फ़िरदौस ख़ान said...

बेहतरीन और मार्मिक है...ये भी सम्मान और स्नेह के हक़दार हैं...

अविनाश वाचस्पति said...

Haqeeqat jo vicharne ko mazboor karti hai.

कुश said...

एक सशक्त रचना सुशील जी.. सबको बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए

makrand said...

bahut vicharniye post

डॉ .अनुराग said...

संवेदनशील रचना....एक फ़िल्म भी आई थी ..कल्पना लाजिमी की ....दरमियाँ

सागर नाहर said...

सचमुच कई बार भगवान के इस अन्याय पर बहुत दुख: होता है।
बहुत मार्मिक रचना।


॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
तकनीकी दस्तक

Anonymous said...

bahut hi marmik aur sach dikhati rachana.

जितेन्द़ भगत said...

अनछुए वि‍षय पर सुंदर कवि‍ता लि‍खी है आपने।
मण्‍डी हाउस में एक नाटक देखा था- जानेमन, शायद मराठी नाटककार की रचना थी, हि‍जड़ों की जिंदगी पर, अब तक देखे गए नाटकों में सबसे ज्‍यादा अच्‍छा लगा था।

Girish Kumar Billore said...

सुबीर जी अच्छे ब्लॉग की बेहतरीन पोस्ट को **** देता हूँ

pallavi trivedi said...

मैं बहुत दिनों से इस विषय पर लिखने का सोच रही थी...धन्यवाद, आपने लिखा! सचमुच बहुत अफ़सोस होता है इनकी स्तिथि देखकर! गाने बजाने और ठहाकों के पीछे कितना दर्द छुपा होता है!और सबसे अफसोसजनक तो ये है की सरकार इन्हे मुख्य धारा में लाने के लिए कोई योजना नही चला रही है...काश इन्हे भी सम्मान से जीने का मौका मिल पाये समाज में!

राज भाटिय़ा said...

एक बार मेने कही इस बारे टिपण्णी भी दी थी, क्यो लोग ऎसे बच्चे को अपने घर से निकाल देते है, ऎसे दोष मै इन बच्चो का तो कोई कसुर नही, फ़िर क्यो... भगवान ने जो किया सो किया.... लेकिन हम इन के साथ जुलम करते है..साथ मै किसी भी मां बाप को ऎसे बच्चो को घर से अलग नही ब्लकि ज्यादा प्यार देना चाहिये इन्हे, ओर समाज को भी चाहिये की इन को अपने से अलग ना समझे, इन्हे भी इज्जत दे.

आप का लेख बहुत ही भावुकता लिये है इस बात पर , बहुत अच्छा लिखा है आप ने.
धन्यवाद

PREETI BARTHWAL said...

सुशील जी बहुत ही अच्छा और सही लिखा है।

bhuvnesh sharma said...

ये भी एक सच्‍चाई है...

jamos jhalla said...

Aaj kal samaanya purush bhi nakli kinner ban kar asli kinneron ka haq maar rahe hain .Yeh lekh us nainsaafi ke khilaaf ek Aavaaj ho saktaa hai .Sadhuvaad.

Dr. Nazar Mahmood said...

बढ़िया लिखा

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