Monday, November 3, 2008

यह दीपावली भी आई और चली गई।

ऐसी रही मेरी दीपावली

हर बार की तरह यह दिवाली आई और चली गई। बेटी अब समझने और जानने लगी हैं। इसलिए उमंग थी, खुशी थी, और मेरी नैना की मुस्कराहटों की फुलझड़ियाँ थी। मेल राकेट की तरह आ रहे थे फोन छोटे बमों की तरह बज रहे थे। इसी हँसी खुशी में हमने भी ऐलान कर दिया कि आज शाम को हम कुर्ता पाजामा पहनेंगे। पत्नी भी कह उठी कि ये आवाज किस लोक से आई हैं। कुर्ता पाजामा निकाल प्रेस वाले को भेज दिया गया।

तभी घड़ी ने 11 बजे के 11 बम फोडे और मोबाईल भी क्यूँ पीछे रहता तो वो भी बज उठा। और उसमें से आवाज आई Happy Diwali" बेटा। मैं झट से बोल उठा "साले तेरे को भी, और सुना क्या हो रहा है।" वो बोला " क्या होना है? शादी हुई नही, जो कुछ होता भी और नौकरी बजा रहे है आज दिवाली के दिन भी, हाँ पता है बेटा आज उसका फोन आया था" मैं बोला "किसका साले" वो बोला वही जैन साहब का, बोल रहा था "कि हम तो सबको साथ लेकर चलने वाले है जी", आज से पहले तो कभी नही किया आज कैसे क्यूँ किया।" मैं बोला बेटा तू जो जी न्यूज में चला गया है इसलिए किया है उसने बधाई फोन, "आजकल आदमी को नहीं उसके रुतबे को सलाम किया जाता हैं" आज से पहले तो नही किया था ना उसने फोन।" वो बोला "अरे बेटा हम कौन से कम हैं।" मैं समझ नही सका कौन कम और कौन नहीं। दिल की जाने वाली बातें कहाँ गायब हो गई। और बातें करके फोन रख दिया गया।

नीचे गया देखूँ कि शाम के खाने के लिए क्या तैयारी चल रही हैं। देखा तो मम्मी नही थी, पूछा तो बताया कि " वो है ना .... उसके साले को किसी ने मार दिया पैसे की खातिर, कल सुबह पैसे लेके निकला था और आज सुबह लाश मिली गटर में।" चंद पैसे की खातिर एक जान, कितनी सस्ती हो गई हैं एक जान। जिदंगी भर हर दिवाली याद आऐगी इस परिवार को इस इंसान की।

शाम के खाने का मेन्यू तैयार हो चुका था मैं बोला पत्नी से "यार उसके यहाँ हो आता हूँ इस बार वह लेट हो गया, मैं ही आज पहले निकल जाता हूँ दिवाली की मुबारक दे आता हूँ।" वो बोली " कि ठीक है आप चले जाओ पर फोन कर लो एक बार जाने से पहले कहीं भाई साहब हमारे घर ही ना आ रहे हो।" मैं बोला " हाँ ये ठीक रहेगा।" फोन किया गया तो पहले तो बधाईयों का आदान प्रदान हुआ। फिर वो बोला " यार मैं यहाँ मेरठ में शिफ्ट हो गया हूँ राजेन्द्र नगर से" मैं एकदम दंग रह गया बोल उठा " तुने पहले क्यों नही बताया" वो बोला "यार तू परेशान होता इसलिए नही बताया बस और बताने को था ही क्या जो बताता, ये बताता कि यार कर्जा बहुत हो गया है घर दुकान बेच कर मेरठ जा रहा हूँ। " मेरी जुबान चुप हो गई और उसकी आवाज भारी हो गई, कुछ पल की दोनो के बीच की चुप्पी बहुत कुछ कह रही थी।
इन सबके बीच बेटी उछल खुद माचती रही, जो भी डिब्बा नजर आता उसे खुलवाती और थोड़ा खाकर फिर उस डिब्बे को हाथ भी नही लगाती। बेटी पास आकर बोली कि " पापा मार्किट चलो" उसे लेकर घर के पास वाली मार्किट में गया जहाँ भीड़ ही भीड़ थी। और मेरी बेटी हाथ के इशारे मुझे समझाती जाती। एक दुकान पर रुका एक जानी पहचानी 10 या 15 साल की लड़की को देखकर । उससे पूछा "बेटा क्या हाल हैं कैसे चल रही है दुकान।" वो बोली "ठीक ठाक हैं बस" और उसका बाबा हाफंता हुआ खड़ा था एक तरफ। वो बोला कि बस काट रहे है जिदंगी को। ये लडकी और एक इसका भाई वो भी 10 या 15 के बीच का होगा। ( दोनो की सही उम्र का मुझे पता नहीं) अपने दादा दादी और एक छोटी बहन का पेट पाल रहे हैं। इस लड़की का पिता कभी मेरे साथ क्रिकेट खेला करता था। कुछ के साल पहले किसी बिमारी से निधन हो गया था उसका । और फिर चंद महीनों बाद ही लड़की की माँ भी गम करती करती यह दुनिया छोड़ गई। और फिर इन तीनों बच्चों के पालने का जिम्मा आ गया इनके बुढे दादा दादी पर जिन्हें खुद ही जरुरत थी किसी के सहारे की। धीरे धीरे ये बच्चे बडे हुए और अपने पापा की दुकान सभांल ली । इनकी दादी से चला नही जाता और दादा चल फिर रहा है बस वो भी कापंता हाफंता। एक इन बच्चों का ताऊ है पर ........। अगर आज इनका बाप होता तो ये भी नये नये कपडे पहने होते और इनके चेहरे खुशी से चमक रहे होते। और मैं अपनी बेटी को देखने लगा पता नही क्या सोचकर ......।

शाम हुई तो मम्मी नही आई इसलिए पापा , बहन और पत्नी दीये जलाने लगे। पर उनकी सख्या कम थी पहले की अपेक्षा और मोमबतियाँ तो और भी कम थी। छत पर जाकर देखा छतों पर दिये नही थे ना ही मोमबतियां बस एक आध नजर आ रहे थी । जिधर देखो बिजली की लडियाँ थी वो भी पहले से कम । क्या हो रहा था पता नहीं, दिवाली की पहले वाली रौनक कहाँ चली गई । दिये रखकर नीचे आए तो देखा कि जो परात कभी खिल और मीठे खिलोनो से भरी होती थी वो आज आधी भी नही थी। समझ नही आ रहा था इस दिवाली क्या हो रहा हैं। दिये नही, मोमबतियां नही, खिल नही, मीठे खिलोने नही, है भी तो बस शगुन के लिए। खाना खाकर छत पर गए कि एक आध अनार छोड़ेगे। छोटा भाई खरीद लाया था मेरा मन कभी हुआ नही कि बम फोडू। चारों तरफ आकाश में आतिशबाजी चमक रही थी और मेरी बेटी अनार, फुलझड़ी, फिरकनी को देखकर झूम रही थी।
नीचे आए सोने के लिए तो वो कुर्ता पजामा खुंटी पर टंगे हुए थे और ऐसा लग रहा जैसे मुझे घुर रहे हो और पूछ रहे क्यूँ जी हमें पहना क्यों नहीं।

19 comments:

डॉ .अनुराग said...

देखना अगली दीवाली पर ये नन्ही फुलझडी घुमाती घूमेगी

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत बढिया साहब ! आपने दीपावली के इतने सारे रंग देखे ! बच्ची बड़ी क्यूट लग रही है ! उसे आशीष !
शुभकामनाएं !

मीत said...

हाँ! ये दीवाली ऐसी ही थी की...
कहीं दीप जले कहीं दिल...
बहुत सुंदर लेख है...

भूतनाथ said...

बहुत बढिया लिखा आपने ! धन्यवाद !

वर्षा said...

हर किसी की अपनी दीपावली। अच्छा लिखा।

रंजू भाटिया said...

सच में अब वह रौनक दिवाली की तो दिखती ही नही ...फोटो बहुत क्यूट हैं ..और लिखा आपने बढ़िया है इस पर ..

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छा लेखन ।
आशा है अगली दीवाली ढेरों खुशियाँ लेकर आएगी । बिटिया भी दीये फुलझड़ियाँ जलाएगी ।
घुघूती बासूती

travel30 said...

bahut acha rang biranga lekh :-) kash kuch aisa hota ki samet lete hum sare pal apne past aur jab mann karata jakar dobara jee lete use

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खो देना चहती हूँ तुम्हें..

Anil Pusadkar said...

अगली दीवाली अच्छी रहेगी और छुटकी भी खूब फुलझडियां जलायेगी।बहुत अच्छा लिखा आपने।

अविनाश वाचस्पति said...

इसे ही कहते हैं

जो महसूसना

उसे उतार देना

सच महसूसा है

सच ही उतारा है

कुर्ता पायजामा

पहना नहीं
,
वक्‍त का इशारा है।

आलोक साहिल said...

kya kahun sunil bhai,aapko padha to apni benur diwali yad ho aayi.bahut mushkil se ye diwali tanhaayi ke aalam mein gujari,ab main apne sath aapke liye bhi dua karunga ki agli diwali mein ham dono milkar fuljhadiyan jalayein.
ALOK SINGH "SAHIL"

नीरज गोस्वामी said...

दीवाली के अंधेरे चेहरे से परदा हटाया है आपने...बहुत अच्छा लिखा है..
नीरज

राज भाटिय़ा said...

एक सुंदर पोस्ट,अगली दिपावली पर बिटिया खुद ही फ़ुलझडी चलायेगी..
धन्यवाद इस खुशी को बांटने के लिये

Smart Indian said...

एक दिन में इतने रंग? फोटो बहुत अच्छे लगे.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन लिखा..कुछ पुरानी यादें ताजा सी हो गई हैं. बहुत शुभकामनाऐं.

राजीव तनेजा said...

ये जीवन है....

इस जीवन का...

यही है...

यही है रंग-रूप...


सभी को कोई ना कोई गम है...

किसी के अपने नहीं रहे तो किसी को काम-धन्धे में नुकसान हो गया...

ऊपर से मँहगाई की मार ने सभी की दिवाली फीकी कर दी है मित्र

रेवा स्मृति (Rewa) said...

Ab diye aur baati ki jagah tubelight ne le liya hai :)


Shukriya for visiting my blog. happy chath puja!

समीर यादव said...

अच्छा लिखा आपने...हम भी अपनी यादों से कुछ पल को जुड गए.

admin said...

यह जानकर प्रसन्नता हुई आपकी दिवाली बढिया रही। इन खुशियों को शेयर करने के लिए धन्यवाद।

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