दो अक्तूबर और दो महान इंसान
आज दो अक्तूबर हैं दो महान इंसानो का जन्मदिन । एक ने सत्य और अहिंसा का संदेश दिया। दूजे ने सरलता और नैतिकता का उदाहरण पेश किया। हमें वो तो याद रहे पर उनके संदेश और उदाहरण हम भूल गए। और आज के दिन हम बड़ी बड़ी बात ना करके बस उनके संदेशो को फिर से जाने, समझे और अपनाए तो इससे बड़ी कोई बात ना होगी। इसलिए पेश हैं दो बातें। पढे और अपनी बात भी रखे।
1. अधिकार या कर्तव्य ?
मैं आज उस बहुत बड़ी बुराई की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसने समाज को मुसीबत में डाल रखा हैं। एक तरफ पूंजीपति और जमींदार अपने हकों की बात करते हैं, दूसरी तरफ मजदूर अपने हकों की। अगर सब लोग सिर्फ अपने हकों पर ही जोर दें और फर्जों को भूल जाए, तो चारों तरफ बडी गड़बड़ी और अंधाधुंधी मच जाए। अगर हर आदमी हकों पर जोर देने के बजाय अपना फर्ज अदा करे, तो मनुष्य जाति में जल्दी ही व्यवस्था और अमन का राज्य कायम हो जाए। इसलिए यह जरुरी हैं कि हम हकों और फर्जों का आपसी सम्बंध समझ लें। मैं यह कहने की हिम्मत करुंगा कि जो हक पूरी तरह अदा किये गये फर्ज से नहीं मिलते, वो प्राप्त करने और रखने लायक नहीं हैं। वे दूसरों से छीने गये हक होंगे। उन्हें जल्दी से जल्दी छोड़ देने में ही भला हैं। जो अभागे माँ-बाप बच्चों के प्रति अपना फर्ज अदा किये बिना उनसे अपना हुक्म मनवाने का दावा करते हैं, वो बच्चों की नफरत को ही भड़कायेंगे। जो बदचलन पति अपनी वफादार पत्नी से हर बात मनवाने की आशा करता हैं, वह धर्म के वचन को गलत समझता हैं; उसका एकतरफा अर्थ करता हैं। लेकिन जो बच्चे हमेशा फर्ज अदा करने के लिए तैयार रहने वाले माँ-बाप को जलील करते हैं, वो कृतघ्न समझे जायेंगे और माँ-बाप के मुकाबले खुद का ज्यादा नुकसान करेंगे। यही बात पति और पत्नी के बारे में भी कही जा सकती हैं। अगर यह सादा और सब पर लागू होनेवाला कायदा मालिकों और मजदूरों, जमींदारों और किसानों, राजाओं(सरकार) और हिन्दू, मुसलमानों, सिख, ईसाई पर लगाया जाय, तो हम देखेंगे कि जीवन के हर क्षेत्र में अच्छे से अच्छे सम्बंध कायम किये जा सकते हैं। और, ऐसा करने से न तो हिन्दुस्तान या दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह सामाजिक जीवन या व्यापार में किसी तरह की रुकावट आयेगी और न गड़बड़ी पैदा होगी।
एक हिन्दू का अपने मुसलमान पड़ोसी के प्रति क्या फर्ज होना चाहिऐ ? उसे चाहिऐ वह एक मनुष्य के नाते उससे दोस्ती करे और उसके सुख-दुख में हाथ बंटाकर मुसीबत में उसकी मदद करे। तब उसे अपने मुसलमान पड़ोसी से ऐसे हे बरताव की आशा रखने का हक प्राप्त होगा। और शायद मुसलमान भी उसके साथ वैसा ही बरताव करे जिसकी उसे उम्मीद हो। मान लीजिये कि किसी गाँव में हिन्दुओं की तादाद बहुत ज्यादा हैं। और मुसलमान वहाँ इने-गिने ही हैं, तो उस ज्यादा तादादवाली जाति की अपने थोडे से मुसलमान पड़ोसीयों की तरफ की जिम्मेदारी कई गुनी बढ जाती है। यहाँ तक कि उनहें मुसलमानों को यह महसूस करने का मौका भी न देना चाहिये कि उनके धर्म के भेद की वजह से हिन्दू उनके साथ अलग किस्म का बरताव करते हैं। तभी, इससे पहले नहीं, हिन्दू यह हक हासिल कर सकेंगे कि मुसलमान उनके सच्चे दोस्त बन जायें और खतरे के समय दोनों कौमें एक होकर काम करें। लेकिन मान लीजिये कि वे थोड़े से मुसलमान ज्यादा तादाद वाले हिन्दुओं के अच्छे बरताव के बावजूद उनसे अच्छा बरताव नहीं करते और हर बात में लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो यह उनकी कायरता होगी। तब उन ज्यादा तादादवाले हिन्दुओं का क्या फर्ज होगा ? बेशक, बहुमत की अपनी दानवी शक्ति से उन पर काबू पाना नहीं। यह तो बिना हासिल किये हुए हक को जबरदस्ती छीनना होगा। उनका फर्ज यह होगा कि वे मुसलमानों के अमानुषिक बरताव को उसी तरह रोकें, जिस तरह वे अपने सगे भाइयों के ऐसे बरताव को रोकेंगे। इस उदाहरण को और ज्यादा बढ़ाना मैं जरुरी नहीं समझता। इतना कहकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ कि जब हिन्दुओं की जगह मुसलमान बहुमत में हो और हिन्दु सिर्फ इने-गिने हों, तब भी बहुमत वालों को ठीक इसी तरह का बरताव करना चाहिये। जो कुछ मैंने कहा हैं उसका मौजूदा हालत में हर जगह उपयोग करके फायदा उठाया जा सकता हैं। मौजूदा हालत घबड़ाहट पैदा करने वाली बन गई हैं, क्योंकि लोग अपने बरताव में इस सिन्द्धात पर अमल नहीं करते कि कोई फर्ज पूरी तरह अदा करने के बाद ही हमें उससे सम्बंध रखनेवाला हक हासिल होता है।
2. गुड, बच्चा और गाँधी
एक बार एक औरत अपने बच्चे के साथ गाँधी जी से मिली । और उसने कहा कि गाँधी मेरा बच्चा गुड बहुत खाता है आप इसे मना कर देगे बहुत अच्छा होगा और ये आपका कहा नही टालेगा। गाँधी जी बोले कि आप कल आना अपने बच्चे के साथ। वह औरत अगले दिन पहुँच गई अपने बच्चे के साथ। और बोली कि गाँधी जी मै आ गई हूँ। गाँधी जी बच्चे को अपने पास बुलाया और कहा कि ज्यादा गुड खाना अच्छा नही होता है। पर वह औरत तुरंत बोली कि गाँधी जी ये तो आप कल भी बोल सकते थे हमें आज क्यों बुलाया। गाँधी जी बोले कल तक तो मैं भी बहुत गुड खाता था पर अब मैंने खाना छोड़ दिया हैं। जो काम मैं खुद नही करता उसी काम के लिए ही तो मैं किसी को मना कर सकता हूँ। और वह औरत अपने बच्चे के साथ खुशी खुशी अपने घर को चल दी।
जरा विचार भी करें।
नोट- फोटो गूगल से लिए गये हैं और विचार गाँधी साहित्य से।
1. अधिकार या कर्तव्य ?
मैं आज उस बहुत बड़ी बुराई की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसने समाज को मुसीबत में डाल रखा हैं। एक तरफ पूंजीपति और जमींदार अपने हकों की बात करते हैं, दूसरी तरफ मजदूर अपने हकों की। अगर सब लोग सिर्फ अपने हकों पर ही जोर दें और फर्जों को भूल जाए, तो चारों तरफ बडी गड़बड़ी और अंधाधुंधी मच जाए। अगर हर आदमी हकों पर जोर देने के बजाय अपना फर्ज अदा करे, तो मनुष्य जाति में जल्दी ही व्यवस्था और अमन का राज्य कायम हो जाए। इसलिए यह जरुरी हैं कि हम हकों और फर्जों का आपसी सम्बंध समझ लें। मैं यह कहने की हिम्मत करुंगा कि जो हक पूरी तरह अदा किये गये फर्ज से नहीं मिलते, वो प्राप्त करने और रखने लायक नहीं हैं। वे दूसरों से छीने गये हक होंगे। उन्हें जल्दी से जल्दी छोड़ देने में ही भला हैं। जो अभागे माँ-बाप बच्चों के प्रति अपना फर्ज अदा किये बिना उनसे अपना हुक्म मनवाने का दावा करते हैं, वो बच्चों की नफरत को ही भड़कायेंगे। जो बदचलन पति अपनी वफादार पत्नी से हर बात मनवाने की आशा करता हैं, वह धर्म के वचन को गलत समझता हैं; उसका एकतरफा अर्थ करता हैं। लेकिन जो बच्चे हमेशा फर्ज अदा करने के लिए तैयार रहने वाले माँ-बाप को जलील करते हैं, वो कृतघ्न समझे जायेंगे और माँ-बाप के मुकाबले खुद का ज्यादा नुकसान करेंगे। यही बात पति और पत्नी के बारे में भी कही जा सकती हैं। अगर यह सादा और सब पर लागू होनेवाला कायदा मालिकों और मजदूरों, जमींदारों और किसानों, राजाओं(सरकार) और हिन्दू, मुसलमानों, सिख, ईसाई पर लगाया जाय, तो हम देखेंगे कि जीवन के हर क्षेत्र में अच्छे से अच्छे सम्बंध कायम किये जा सकते हैं। और, ऐसा करने से न तो हिन्दुस्तान या दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह सामाजिक जीवन या व्यापार में किसी तरह की रुकावट आयेगी और न गड़बड़ी पैदा होगी।
एक हिन्दू का अपने मुसलमान पड़ोसी के प्रति क्या फर्ज होना चाहिऐ ? उसे चाहिऐ वह एक मनुष्य के नाते उससे दोस्ती करे और उसके सुख-दुख में हाथ बंटाकर मुसीबत में उसकी मदद करे। तब उसे अपने मुसलमान पड़ोसी से ऐसे हे बरताव की आशा रखने का हक प्राप्त होगा। और शायद मुसलमान भी उसके साथ वैसा ही बरताव करे जिसकी उसे उम्मीद हो। मान लीजिये कि किसी गाँव में हिन्दुओं की तादाद बहुत ज्यादा हैं। और मुसलमान वहाँ इने-गिने ही हैं, तो उस ज्यादा तादादवाली जाति की अपने थोडे से मुसलमान पड़ोसीयों की तरफ की जिम्मेदारी कई गुनी बढ जाती है। यहाँ तक कि उनहें मुसलमानों को यह महसूस करने का मौका भी न देना चाहिये कि उनके धर्म के भेद की वजह से हिन्दू उनके साथ अलग किस्म का बरताव करते हैं। तभी, इससे पहले नहीं, हिन्दू यह हक हासिल कर सकेंगे कि मुसलमान उनके सच्चे दोस्त बन जायें और खतरे के समय दोनों कौमें एक होकर काम करें। लेकिन मान लीजिये कि वे थोड़े से मुसलमान ज्यादा तादाद वाले हिन्दुओं के अच्छे बरताव के बावजूद उनसे अच्छा बरताव नहीं करते और हर बात में लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो यह उनकी कायरता होगी। तब उन ज्यादा तादादवाले हिन्दुओं का क्या फर्ज होगा ? बेशक, बहुमत की अपनी दानवी शक्ति से उन पर काबू पाना नहीं। यह तो बिना हासिल किये हुए हक को जबरदस्ती छीनना होगा। उनका फर्ज यह होगा कि वे मुसलमानों के अमानुषिक बरताव को उसी तरह रोकें, जिस तरह वे अपने सगे भाइयों के ऐसे बरताव को रोकेंगे। इस उदाहरण को और ज्यादा बढ़ाना मैं जरुरी नहीं समझता। इतना कहकर मैं अपनी बात पूरी करता हूँ कि जब हिन्दुओं की जगह मुसलमान बहुमत में हो और हिन्दु सिर्फ इने-गिने हों, तब भी बहुमत वालों को ठीक इसी तरह का बरताव करना चाहिये। जो कुछ मैंने कहा हैं उसका मौजूदा हालत में हर जगह उपयोग करके फायदा उठाया जा सकता हैं। मौजूदा हालत घबड़ाहट पैदा करने वाली बन गई हैं, क्योंकि लोग अपने बरताव में इस सिन्द्धात पर अमल नहीं करते कि कोई फर्ज पूरी तरह अदा करने के बाद ही हमें उससे सम्बंध रखनेवाला हक हासिल होता है।
2. गुड, बच्चा और गाँधी
एक बार एक औरत अपने बच्चे के साथ गाँधी जी से मिली । और उसने कहा कि गाँधी मेरा बच्चा गुड बहुत खाता है आप इसे मना कर देगे बहुत अच्छा होगा और ये आपका कहा नही टालेगा। गाँधी जी बोले कि आप कल आना अपने बच्चे के साथ। वह औरत अगले दिन पहुँच गई अपने बच्चे के साथ। और बोली कि गाँधी जी मै आ गई हूँ। गाँधी जी बच्चे को अपने पास बुलाया और कहा कि ज्यादा गुड खाना अच्छा नही होता है। पर वह औरत तुरंत बोली कि गाँधी जी ये तो आप कल भी बोल सकते थे हमें आज क्यों बुलाया। गाँधी जी बोले कल तक तो मैं भी बहुत गुड खाता था पर अब मैंने खाना छोड़ दिया हैं। जो काम मैं खुद नही करता उसी काम के लिए ही तो मैं किसी को मना कर सकता हूँ। और वह औरत अपने बच्चे के साथ खुशी खुशी अपने घर को चल दी।
जरा विचार भी करें।
नोट- फोटो गूगल से लिए गये हैं और विचार गाँधी साहित्य से।
16 comments:
इंसानियत से बड़ा
न धर्म है
न कर्म है।
पहले व्यवहार में लाएं सब
फिर ज्ञान बांटें जन में सब
गांधी जी ने अमल करके सिखलाया
शास्त्री जी सदा शांत सबने बतलाया
- अविनाश वाचस्पति
आज के दिन के लिए बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने सुशील ..जरुरत है आज के समाज को यह सब समझने की ..यह कहानी मुझे भी अच्छी लगती है की जब तक हम ख़ुद किसी बात को सीख नही पाते हैं ..दूसरो को वह बात कैसे सीखा सकते हैं ..बधाई आपको आज ईद की और गांधी जयंती की भी ..
बहुत बढ़िया जी ।अच्छा आलेख
आप सभी को गाँधी जी, शास्त्री जी की जयंति व ईद की बहुत बहुत बधाई।
आज ही मै शास्त्री जी के बड़े बेटे का संस्मरण कही पढ़ रहा था की एक बार बचपन में प्रधानमंत्री निवास पर रहते उसने अपने नौकर को दंत दिया स्कूल जाने से पहले की उसने ढंग से जूते पोलिश नही किये,रात को डिनर के वक़्त शास्त्री जी ने उन्हें प्यार से समझाया की नौकरों से भी सम्मान से बातचीत करनी चाहिए ,ओर नौकर से फ़िर उन्होंने शमा मांगी ...ऐसे लोग अब पैदा नही होगे ...
बहुत सुंदर लेख लिखा है आपने ! और आज के दिन इसका महत्त्व भी बढ़ गया है !
शुशील जी अत्यन्त ही सामयिक लेख है आपका ! गांधी जी जैसा व्यक्ति भी अब शायद पैदा नही होगा ! और डा. अनुराग जी की टिपणी में शास्त्री जी का दृष्टांत भी पढा ! यकीन मानिए अब शास्त्री जी भी नही आयेंगे ! ये क्या करेंगे अब आकर ? लोग फ़िर
इनकी हत्या कर देंगे ! मुझे आज तक ये समझ नही आया की ये लोग आपस में लड़ते कौन २ हैं ! हमारे साथ तो बहुत मुस्लिम हैं पर उनमे किसी को लड़ते नही देखा ! ये लड़ने वाले सब किराए के हैं जो ना हिंदू हैं ना मुसलमान ! सिर्फ़ स्वार्थो की वजह से
ये लड़वाते हैं जिस रोज स्वार्थ ख़त्म हो जाएंगे ये झगडा भी बंद हो जायेगा !
एक अद्वितीय लेख, जो बहुत ही विचार मग्न हो बहुत ही मेहनत से लिखा गया है.
एक अच्छे लेख को हम तक पहचाने के लिए धन्यवाद.
चन्द्र मोहन गुप्त
www.cmgupta.blogspot.com
लेख के लिये धन्यवाद।
शास्त्री जी को अचानक काश्मीर के दौरे में जाना पड़ा। उनके पास गर्मकपड़े नहीं थे। नेहरू जी ने अपना ओवरकोट उन्हें दिया, उसे पहन कर शास्त्री जी कश्मीर जा पाये। कहॉं नेहरू जी की इतनी बड़ी कद काठी, और कहॉं शास्त्री जी छोटा सुकुमार शरीर।
पर उसी कोट को लटकाये वे काश्मीर के दौरे पर गये।
अब न तो वे लोग् रहे और न ही उनके जीवन मूल्य रहे।
बाजारवादी ताकतों ने आज गांधी को भी लेबल बना दिया है अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए....आज गांधी याद किये जा रहे हैं तो सिनेमा की वजह से, टीआरपी की वजह से या किसी और नोटखेंचू वजह से....कांग्रेस को भी अपना घिनौना चेहरा छिपाने के लिए ही इनकी जरूरत पड़ती है...वरना तो गांधीजी का नामलेवा भी नहीं बचता
आपने उनसे संबंधित बहुत ही अच्छे प्रसंगों को अपने ब्लॉग पर जगह दी....बहुत अच्छा लगा पढ़कर....गांधीजी पर आज शाम को शायद किसी चैनल पर बहस हो रही थी कि सरकारी दफ्तरों से उनकी तस्वीर हटा देनी चाहिए या नहीं
मेरे ख्याल से किसी महापुरूष की प्रासंगिकता उसके विचारों से है ना कि उसके पोस्टरों या तस्वीरों से....मूर्तियां, तस्वीरें हों इसमें कोई आपत्ति नहीं पर इसके अलावा कुछ ना हो तो इनका मतलब भी नहीं
लाल बाहदुर शास्त्री जी को प्राणाम अगर वह कुछ समय ओर रह जाते तो भारत की शकल ही कुछ ओर होनी थी, मेरा उन दोनो महान आत्मा कॊ प्राणाम, काश ऎसे लोग फ़िर से आये ओर हम भटके हुये को रास्ता दिखाये
धन्यवाद
बहुत अच्छा लेख ......शुभ दिवस की बधाई एवं शुभकामनाऐं.
बहुत सुंदर विचार हैं, धन्यवाद!
गाँधी जी और शास्त्री जी के जन्म दिवस पर अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सोचने को मजबूर करता लेख......
वाह! सुशिल जी! बहुत अच्छा लगा पढ़ कर...
और गुड़ वाला किस्सा तो बहुत ही अच्छा लगा...
वैसे आपसे देर से टिप्पणी करने के लिए माफ़ी चाहूँगा... क्योंकि इन दो हस्तियों के साथ-साथ मेरा भी जन्मदिन था...बस उसी में व्यस्त था, और अपनी बहन से मिलने भी गया था..
लेख बहुत उम्दा लगा...
महानता चरित्र से प्रकट होती है। चरित्र जीवटता से निखरता है। गान्धी को अगर महात्मा माना गया तो यही वजह थी कि वे एकमात्र ऐसे राजनीतिक संत थे जिन्होंने किसी पद की कोई लालसा नहीं की। दूसरी ओर लालबहादुर शास्त्री ने एक ऐसी मिसाल रखी जिसे पद पर बैठने के बावजूद कोई स्व लालसा नहीं थी। ऐसे महान आत्मा अब पैदा नहीं होते। राजनीतिक जीवन जीने का मतलब यह नहीं होता कि जनता की कमाई से अपना घर भर लिया जाये और जनता पर ही रौब दिखाया जाता रहे..अफसोस यह है कि आज ऐसे ही राजनेता दिखाई देते हैं। भ्रष्ट जैसे शब्द आज हज़म कर लिये जाते हैं। और यकीन मानिये न राजनेता और न जनता गांधी या शास्त्री जैसों के विचार कभी अमल में लायेगी। पढने-लिखने में ही अब यह अच्छे लगते हैं। क्या इसे विडम्बना नहीं माना जा सकता। खैर..कल कामनवेल्थ गेम्स का उद्घाटन है, दिल्ली बन्द रहने का आदेश है। रोजीरोटी वाले पेट भरें खेलों के उद्घाटन समारोह को देख कर जिसमे करोडो रुपय लगाये गये हैं। यानी अपनी कमाई किस तरह फूंकी जा रही है देखिये दिल्ली में...। वीवीआईपी राजनेता...लल्लू जनता..। जय हो भारत। गान्धीजी फिज़ूल ही जनता के लिये आन्दोलन, सत्याग्रह करते फिरे..., शास्त्रीजी फिज़ूल ही ताशकन्द चले गये और अपनी जान तक गंवा बैठे। कोफ्त होती है सुशीलजी, जिस देश में कुपोषण, भूखे-नंगे बिलखते बच्चे दो रोटी के लिये तरस रहे हैं वहां खेलों के बडे, दिखावे से भारत महान की तस्वीर पेश की जाती है।
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