काल सेंटर
बड़ी सी यह काँच की इमारत
दिखती हैं बड़ी चमकली हैं।
जहाँ खिलती टेलिफोन पर
खट्टी-मिट्ठी बातों की फुलझड़ी हैं ।
कोई माल बेचता
कोई सूचना देता
कोई पैसे वसूलता
कोई समस्या सुलझाता।
लड़के-लड़कियों यहाँ सब बराबर
लक्ष्य पर रहती इन सबकी नज़र।
खुदा का भय यहाँ नही चलता
बोस का डर हमेशा साथ-साथ रहता।
बिजली की दुधिया रौशनी में
सूरज कब छिपता
चाँद कब निकलता
पता ही नहीं चलता।
15 comments:
बहुत अच्छा सुशील जी!
हिन्दी को आप जैसे लोगों से उम्मीद है
आप के गुरु जी ने सही कहा.
हिन्दी मैं जिस तरह की एक रसता होती है उसे तोड़ना ही होगा
शायद इसी लिए बार बार हिन्दी से भागना पड़ता है.
अलग अलग क्षेत्र के लोग लिखें तो अच्छा लगेगा
सिर्फ़ मास्टरों और कवियों या पत्रकारों के जीवन की एक रसता बहुत बोर कराती है.
लगे rahiye बंधू!
call centre में मनुष्य कैसे मशीन बनता जा रहा है, आपकी कविता में यह दिखता है। बधाई।
अच्छी के साथ-साथ सच्ची कविता। बहुत खूब
ब तो पूरा महानगरीय जीवन ही कालसेन्टर की मानिन्द होता जा रहा है। अच्छा चित्र खीचा है। बधाई।
अच्छा चित्रण किया है, सुशील जी..
सच में काल सेंटर ऐसा ही होता है...
कम शब्दो मे बहुत सही बात कही आपने. जारी रहे.
बहुत बढिया लिखा।बिल्कुल सही।
बिजली की दुधिया रौशनी में
सूरज कब छिपता
चाँद कब निकलता
पता ही नहीं चलता।
कम शब्दों में पूरी बात कह दी आपने
वाह...एक कविता में पूरा कॉल सेंटर समा गया!
सही लिखा है आपने इस कविता में काल संस्कृति के बारे में ..यही सब तो हो रहा है ..बढ़िया लगी यह
अच्छी और काल सेंटर की दुनिया दिखाती हुई कविता ।
बिजली की दुधिया रौशनी में
सूरज कब छिपता
चाँद कब निकलता
पता ही नहीं चलता।
शुशील जी बहुत सुंदर कविता पुरे अर्थ के साथ लिखी है आपने ! एक सच्चाई
की तस्वीर है ! पता नही मेरे ब्लॉग पर ये पोस्ट आज दिखी है ! और अगर मैं
निचे तक नही देखता तो शायद इसे पढ़ने से वंचित ही रहता ! बहुत शुभ कामनाएं !
बिजली की दुधिया रौशनी में
सूरज कब छिपता
चाँद कब निकलता
पता ही नहीं चलता।
bahut achha
regards
अच्छा कालसेंटर है आपका!
भर के झोली अपनी...कर लो दुनिया मुट्ठी में
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