दिल्ली में मेरा बचपन
मेरे बचपन की दिल्ली थी बड़ी खुली खुली
ट्रेन की आवाजें थी मेरी माँ की घड़ी
लिखता था तख़्ती पर, मुलतानी मिट्टी पोत के
सरकड़ो की कलम बना, काली स्याही की दवात में डुबो के
पाठशाला में ज़मीन पर बैठ पढ़ा करते थे
टाट भी खुद ही घर से ले जाया करते थे
वो खट्टी मीठी संतरे की गोली मुँह में डाल
क से कलम, द से दवात बोला करते थे
पाठशाला की जब बजती टन टन पूरी छुट्टी की घंटी
पीठ पर बस्ता टांगे, हाथ में तख़्ती लिए
दौड़ जाते थे शोर मचाते हुए घर के लिए
फैंक बस्ता एक कोने में, खा जल्दी जल्दी एक दो रोटी
भाग जाते थे भरी दोपहरी में गिल्ली डंडा और कंचे खेलने
वापिस आते वक्त भरी होती कंचो से कमीज़ की झोली
माँ डाटँती सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती
हाथ मुँह धो, लगा पीठ दीवार पर
स्कूल का सारा काम थोड़ी देर में ही कर जाया करते थे
शाम ढलती रात होती माँ के चूल्हे में आग होती
खा माँ के हाथों की रोटी, लेट खाट पर सपनों में खो जाते थे
11 comments:
sir good writing. ma ke hath ki roti hamesha achi lagti hai.
अहा! कितना सुंदर वर्णन किया आपने.. बचपन का.. बहुत चमकीला रहा..
दिल को छू लेने वाला वर्णन है आपकी कविता में, बधाई स्वीकारें।
बचपन के दिन भी क्या दिन थे ..उड़ते फिरते थे तितली बन ..:) बेहद प्यारी रचना लिखी है आपने
bahut acchha likha hai. apne bachpan ke din yaad aa gye. mitti ki saundhi mahak se bhar gya dil ka har kauna.
bahut accha laga padhna..kuch apne beete din yaad aa gaye....spl ...vo scholl ka homework....na janey ase pal kanah ab kho gaye hai....
keep it up
बस पढ़ रहा हूँ......पढ़ रहा हूँ.....
बचपन को याद करना हमेशा अच्छा लगता है
माँ डाटँती सारे के सारे कंचे नाली में बहा डालती...
सही में, मेरी मां भी मेरी घंटों की मेहनत के बाद रेत से खोजी सीपीयां और शंख...एक सैकंड में नाली में बहा देती थी...और मेरा रोते रोते बुरा हाल हो जाता था। इसीलिए बाद में मैं बाहर से ही कुछ टूटी फूटी अलग और अच्छी अलग कर लेती थी और इन्हें पीछे के रास्ते से रख कर, आगे के दरवाजे से टूटी शंख लेकर जाती थी, ताकि मां भी उन्हें फेंककर खुश और मैं भी।
बहुत उम्दा, क्या बात है!
जाने कहाँ गए वो दिन..... :-(
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