Wednesday, July 16, 2008

जीवन का एक लम्हा

कभी कभी जीवन में ऐसा भी लम्हा आता हैं

"खुशी" सामने बाहें फैलाऐ खड़ी होती हैं

आदमी खुलकर उसे गले लगा नही पाता हैं

दिल खुश हो झूमने को कहता हैं

पर दिमाग झट से हाथ पकड़ लेता हैं

दिल और दिमाग के इन अहसासों में

वो खुशी का लम्हा कहीं दब कर रह जाता हैं ।

11 comments:

डॉ .अनुराग said...

theek kahte ho bhai.......

नीरज गोस्वामी said...

सुशील जी
बहुत सच्ची बात लिख दी आप ने इन चंद असरदार पंक्तियों में...मुझे इन्हें पढ़ कर उर्दू का एक पुराना शेर याद आगया..आप भी सुनिए.
"अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल (अक्ल का पहरेदार)
लेकिन कभी कभी इसे तनहा भी छोडिये"
नीरज

रंजू भाटिया said...

दिल और दिमाग की इसी ज़ंग में वक्त आगे निकल जाता है .सही कहा आपने

महेन said...

सही फ़रमाया बंधु, ऐसे मौके कभी-कभी नहीं रोज़ ही आते हैं मगर हम खुद के प्रति ही इतने संगदिल हो जाते हैं कि पहचान तक नहीं पाते ऐसे मौकों को।

Anonymous said...

sahi baat ko kam sabdo me kahane ke liye badhai. jari rhe.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया!!

"खुशी" सामने बाहें फैलाऐ खड़ी होती हैं

आदमी खुलकर उसे गले लगा नही पाता हैं

मीत said...

bahut acha likha hai sushil bhai...
ajkal zindagi main kuch isi tarah ke halat se guzar raha hoon...
padhkar bahut acha laga..

Udan Tashtari said...

सही कहा आपने. बहुत बढिया!

राजीव तनेजा said...

कम शब्द ...असरदार बात कोई आपसे सीखे

pallavi trivedi said...

bahut achcha laga aapka andaaz...

vandana gupta said...

kam shabdon mein gahri baat kah di aapne

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