भूखा लड़का
एक दोपहरी मैं लंच करके हरदयाल लाइब्रेरी के बाहर खडा था
खाली रिक्शे ढाबे की तरफ दोडे चले जा रहे थे
दो एक प्रेमी जोडे हाथो में टिफिन थामे बरगद के पेड की तरफ चले जा रहे थे
तभी एक सात आठ साल का लडका फटी सी कमीज पहने मेरे पास आकर रुका
एक हाथ बढा बोला अंकल एक रुपया दे दो भूख लगी है
तभी जी किया कि बोल दू कि चले परे हट ये तुम जैसे बच्चो का रोज का धंधा है
पर दिल नही माना उसने मेरी जुंबा पर हाथ धर दिया
मैने जेब में हाथ डाल दो रुपया का सिक्का निकाल उसके हाथ पर रख दिया
बच्चे का चेहरा फूल की तरह खिल उठा और उसके पैर दोड पडे
मैं फिर से सडक की तरफ दोडती, भागती, रेंगती जिंदगीयों को देखने लगा
सडक किनारे बैठे दर्जी कपडे सिलने में लगे थे
चँद मिनट बाद ही वही लडका हाथ में ब्रेड थामे मेरी तरफ चला आ रहा था
पास आकर एक हाथ आगे बढा कर बोला लो अंकल, एकदम मेरा भी एक हाथ आगे बढ गया
देखा मेरे हाथ पर एक रुपया का सिक्का चमक रहा था
मैं एकदम दंग रह गया, कभी चमकते सिक्के को और कभी लडके के चेहरे को देखता
मैं एक रुपया थामे बुत की तरह खडा रहा , और वह ब्रेड खाते खाते चल दिया और मेरी आँखो से ओझल हो गया
यह तुकंबदी एक घटना पर आधारित है जो 1992 के आस पास की है। जब मैं प्रतियोगिता परीक्षाओ की तैयारी कर रहा था और हरदयाल लाइब्ररी पुरानी दिल्ली जाया करता था। वहाँ मैं अक्सर लंच के बाद रोज ही बाहर खडा हो जाया करता था। उस दिन ये लडका आया और बोला कि अंकल एक रुपया दे दो भूख लगी । मैने उसे दो का सिक्का दे दिया। उसने वो सिक्का लिया और दोड गया। फिर कुछ देर बाद वह आया उसके हाथ में ब्रेड थी और उसने एक का सिक्का मेरे को दे दिया और बगैर कुछ कहे चला गया। उसका एक रुपया वापिस करना मेरे दिल को छू गया। उसको एक रुपये में शायद चार ब्रेड पीस आऐ थे। और वह उसी को पाकर खुश था। रखने को वह बचे एक रुपया को रख सकता था। पर उसने वह रुपया नही रखा। इसी बात ने यह तुकंबदी करने और यह बात सामने लाने को प्रेरित किया।
एक दोपहरी मैं लंच करके हरदयाल लाइब्रेरी के बाहर खडा था
खाली रिक्शे ढाबे की तरफ दोडे चले जा रहे थे
दो एक प्रेमी जोडे हाथो में टिफिन थामे बरगद के पेड की तरफ चले जा रहे थे
तभी एक सात आठ साल का लडका फटी सी कमीज पहने मेरे पास आकर रुका
एक हाथ बढा बोला अंकल एक रुपया दे दो भूख लगी है
तभी जी किया कि बोल दू कि चले परे हट ये तुम जैसे बच्चो का रोज का धंधा है
पर दिल नही माना उसने मेरी जुंबा पर हाथ धर दिया
मैने जेब में हाथ डाल दो रुपया का सिक्का निकाल उसके हाथ पर रख दिया
बच्चे का चेहरा फूल की तरह खिल उठा और उसके पैर दोड पडे
मैं फिर से सडक की तरफ दोडती, भागती, रेंगती जिंदगीयों को देखने लगा
सडक किनारे बैठे दर्जी कपडे सिलने में लगे थे
चँद मिनट बाद ही वही लडका हाथ में ब्रेड थामे मेरी तरफ चला आ रहा था
पास आकर एक हाथ आगे बढा कर बोला लो अंकल, एकदम मेरा भी एक हाथ आगे बढ गया
देखा मेरे हाथ पर एक रुपया का सिक्का चमक रहा था
मैं एकदम दंग रह गया, कभी चमकते सिक्के को और कभी लडके के चेहरे को देखता
मैं एक रुपया थामे बुत की तरह खडा रहा , और वह ब्रेड खाते खाते चल दिया और मेरी आँखो से ओझल हो गया
यह तुकंबदी एक घटना पर आधारित है जो 1992 के आस पास की है। जब मैं प्रतियोगिता परीक्षाओ की तैयारी कर रहा था और हरदयाल लाइब्ररी पुरानी दिल्ली जाया करता था। वहाँ मैं अक्सर लंच के बाद रोज ही बाहर खडा हो जाया करता था। उस दिन ये लडका आया और बोला कि अंकल एक रुपया दे दो भूख लगी । मैने उसे दो का सिक्का दे दिया। उसने वो सिक्का लिया और दोड गया। फिर कुछ देर बाद वह आया उसके हाथ में ब्रेड थी और उसने एक का सिक्का मेरे को दे दिया और बगैर कुछ कहे चला गया। उसका एक रुपया वापिस करना मेरे दिल को छू गया। उसको एक रुपये में शायद चार ब्रेड पीस आऐ थे। और वह उसी को पाकर खुश था। रखने को वह बचे एक रुपया को रख सकता था। पर उसने वह रुपया नही रखा। इसी बात ने यह तुकंबदी करने और यह बात सामने लाने को प्रेरित किया।
5 comments:
ये देश बहुत बड़ा है सुशील जी यहाँ बच्चे एक रुपये पैसे लौटा देंगे और इंसान दो रुपये के लिए दो की जान ले लेगा
हर तरह के लोग हैं.
ऐसी घटना के बाद दिल को तसल्ली होती है कि शराफत और इमानदारी अभी भी किसी ना किसी के खून में तो है...
यही तो है बचपना
जो है बच्चों के दिल में भरा
हम ही देते हैं उसे भगा
पर अनजाने में ही.
जैसे चींटी कुचली जाती है
सुबह पार्क में सैर के दौरान
पैरों तले, जब वो सैर नहीं
कर रही होती, राशन लेकर
चल रही होती है, ढोती है.
आपकी घटना है एक मोती
इससे सच्चा मोती और
क्या होगा
नहीं हो सकता कोई.
कहाँ होगा अब वह बच्चा? मुझे बार-बार लगता है ऐसे लोगों को इकठ्ठा करके एक स्कूल खोला जाए जहाँ ये लोग हमें पढ़ाएं कि जीना कैसे चाहिये।
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