मुझे अच्छी तरह याद है। उस रोज दिनभर बारिश होती रही।शाम के वक्त बूंदे ज़रा थम गई थीं, लेकिन आकाश पर अभी तक बादल छाए थे। ऐसा लगता था कि अभी-अभी मेह फिर बरसने लगेगा। मैं और गोपाल मित्तल ‘मकतबा उर्दू’ से ब्रांडर्थ रोड़ की तरफ जा रहे थे। अनारकली के चौक पर किसी ने 'मित्तल' का नाम लेकर आवाज दी। हमने मुड़कर देखा, बांए हाथ, 'मुल्ला हुसैन हलवाई' की दुकान के सामने, एक सिक्ख युवक हमें बुला रहा था। वह युवक 'राजेन्द्र सिंह बेदी' था, जिसे एक बार पहले मैं एक गोष्ठी में देख चुका था। उसके साथ एक और व्यक्ति था लम्बे बाल, लम्बी और लम्बी दाढ़ी , मैला और लम्बा ओवर कोट। ‘आओ, तुम्हे एक बहुत बड़े फ्रॉड से मिलाएं।’ 'गोपाल मित्तल' ने कहा। ‘किससे ?’ मैंने पूछा. ‘देवेन्द्र सत्यार्थी' से।’ उसने जवाब दिया। सत्यार्थी उस वक्त गाजर का हलवा खाने में तल्लीन था, इसलिए जब गोपाल ने मेरा परिचय कराया तो उसने विशेष ध्यान न दिया। सत्यार्थी ने हलवे की प्लेट खत्म करने के बाद बेदी की तरफ देखा और कहा, ‘ बड़ी मजेदार चीज है, दोस्त! एक प्लेट और नहीं ले दोगे? बेदी उस वक्त गोपाल से किसी साहित्यक विषय पर बातें कर रहा था। ‘ले लो।’ उसने जल्दी से कहा. ‘लेकिन पैसे?’ सत्यार्थी बोला,’तुम पैसे दो, तब ना! ‘ओह!’ बेदी ने ज़रा चौंकते हुए कहा और हलवाई को पैसे अदा करके हलवे की दूसरी प्लेट सत्यार्थी के हाथ में थमा दी। सत्यार्थी फिर हलवा खाने में लीन। बेदी और मित्तल बातें करने लगे। मैं खामोश एक तरफ खड़ा रहा। हलवे की दूसरी प्लेट खत्म करने के बाद सत्यार्थी ने अपनी जेब से एक मैला खाकी रुमाल निकालकर हाथ पौंछा। पास पड़ी हुई टीन की कुर्सी पर से अपना कैमरा और चमड़े का थैला उठाया और गोपाल मित्तल की तरफ बढ़ते हुए बोला,’यार मित्तल, एक खुशखबरी सुनोगे?’ ‘क्या?’ उसने कहा. ‘मैं प्रगतिशील हो गया हूं।’ ‘हूं! तो गोया तुमने फिर एक कहानी लिखी है?’... यह मेरी उससे पहली मुलाकात थी।
इसके बाद वह मुझे कई बार मिला कभी किसी जनरल मर्चेंट की दुकान के सामने, कभी किसी डाकघर के द्वार पर, कभी किताबों की किसी दुकान में, कभी मैकलोड रोड और निस्बत रोडा के चाय-घरों में और कभी यों ही राह चलते चलते...फिर बहुत दिनों तक मेरी और उसकी भेंट नहीं हुई। इसके बाद वह मुझे लाहौर के एक प्रसिद्ध उर्दू प्रकाशक की दुकान पर मिला। सत्यार्थी प्रकाशक की दुकान पर उससे क्षमा याचना करने आया था। कुछ दिन पहले उसने उस प्रकाशक के खिलाफ एक गोष्ठी में एक कहानी पढकर सुनाई थी, जिस पर प्रकाशक बेहद खफ़ा था। लेकिन जब सत्यार्थी ने उसे बताया कि यह कहानी वह उसकी पत्रिका में बिना पारिश्रमिक के देने को तैयार है तो प्रकाशक ने उसे माफ कर दिया और उसे अपने साथ निजाम होटल में चाय पिलाने ले गया। मैं और फिक्र तौंसवी भी साथ थे। रास्ते में देवेंद्र सत्यार्थी प्रकाशक के कंधे पर हाथ रखकर चलने लगा और बोला-'चौधरी! तुम्हारी पत्रिका उस जिन्न के पेट की तरह है, जो एक बस्ती में घुस आया था। और उस वक्त तक उस बस्ती से बाहर जाने को राजी नहीं हुआ था, जब तक वहां के निवासियों ने उसे यह विश्वास नहीं दिला दिया कि वे प्रतिदिन गुफा में एक आदमी भेंट के तौर पर भेजते रहेंग़े....तुम भी वैसे ही एक जिन्न हो और तुम्हारी पत्रिका तुम्हारा पेट है। हम बेचारे अदीब और शायर हर महीने उसके लिए खाना जुटाते हैं, लेकिन उसकी भूख मिटने में नहीं आती।' प्रकाशक चुपचाप सुनता रहा। 'अब मेरी तरफ देखो।' सत्यार्थी बोला, 'मैंने तुम्हारे खफा होने के डर से तुम्हें मुफ्त कहानी देना स्वीकार कर लिया। लेकिन तुम ही बताओ, क्या मेरा जी नहीं चाहता कि मैं साफ और सुथरे कपड़े पहनूँ, और मेरे जूते तुम्हारे जूतों की तरह कीमती और चमकीलें हों। मेरी बीवी रेशमी साड़ी पहने और मेरी बच्ची तुम्हारी बच्ची की तरह तांगे में स्कूल जाए। लेकिन कोई मेरी भावनाओं पर ध्यान नहीं देता, कोई मुझे मेरी कहानी का मेहनताना बीस रुपये से ज्यादा नहीं देता, और तुम हो कि बीस रुपये भी हजम कर जाते हो। खैर, तुम्हारी मर्जी। चाय पिला देते हो, यही बहुत है।' प्रकाशक फिर भी चुपचाप सुनता रहा...
मैं उसी रोज शाम की गाड़ी से
लायलपुर जा रहा था। होटल में पहुंचकर प्रकाशक ने मुझसे पूछा, 'आप वापस कब आऐंगे?' 'दो तीन रोज में।' मैंने जवाब दिया। 'तुम कहीं बाहर जा रहे हो?' सत्यार्थी ने पूछा। 'हां, दो रोज के लिए लायलपुर जा रहा हूँ।' मैंने कहा। 'लायलपुर?' वह बोला और फिर न जाने किस सोच में डूब गया। फिर थोड़ी देर के बाद उसने
पूछा, 'अगर मैं तुम्हें अपना कैमरा दे दूँ तो क्या तुम मेरे
लिए किसानों के झूमर नृत्य की तस्वीरें उतार लाओगे?' 'मेरे
लिए तो यह मुशिकल है।' मैंने कहा, 'तुम खुद क्यों नहीं चलते।' 'मैं? मेरा जी तो बहुत चाहता है।' वह बोला, 'लेकिन' 'वह एक मिनट रुका और फिर थैले के कागजों का
एक पुलिंदा निकालकर प्रकाशन से बोला, 'चौधरी, यह मेरी नई कहानी है, अगर तुम इसके बदले में
मुझे रुपये दे दो।' प्रकाशक ने कहानी लेकर जेब में रख
ली और बोला, 'आप साहिर से कर्ज ले लीजिए। जब आप लोग लौटेगे
तो मैं उन्हें रुपये दे दूंगा।' 'तुम अपनी कहानी वापस ले लो,
'आजकल मेरे पास रुपए हैं।' मैंने
सत्यार्थी से कहा। लेकिन प्रकाशक ने कहानी वापस नहीं की। सत्यार्थी चुपचाप मेरे
साथ चल पड़ा। रास्ते में मैंने उससे कहा,' तुम जल्दी से
घर जाकर बतलाते आओ। अभी गाड़ी छूटने में काफी वक्त हैं।' 'नहीं।
इसकी कोई जरुरत नहीं।' वह बोला, 'मेरी
बीवी मेरी आद्त जानती है! अगर मैं दो चार दिन के लिए घर
से गायब हो जाऊं तो उसे उलझन या परेशानी नहीं होती।' 'तुम्हारी
मर्जी।' मैंने कहा और उसे साथ लेकर चल पड़ा। गाड़ी
मुसफिरों से खचाखच भरी हुई थी और कहीं तिल धरने को स्थान नहीं था। बहुत से लोग
बाहर पायदानों पर लटक रहे तेह और वे लोग, जिन्हें
पायदानों पर भी जगह नहीं मिली थी, गाड़ी की छत पर चढ़ने
का प्रयास कर रहे थे। सिर्फ फौजी डिब्बों में जगह थी, लेकिन
उनमें गैर फौजी सवार नहीं हो सकते थे। 'अब क्या किया
जाए।' मैंने सत्यार्थी से पूछा। ' ठहरों, मैं किसी सिपाही से बात करता हूँ।' वह बोला। 'कुछ फायदा नहीं' मैंने कहा, 'वो जगह नहीं देंगे।' 'तुम आओ तो सही।' वह मुझे बाजू से घसीटते हुए
बोला और जाकर एक फौजी से कहने लगा, 'मैं शायर हूँ, लायलपुर जाना चाहता हूँ। आप मुझे अपने डिब्बे में बिठा लीजिए। मैं रास्ते
में आपको गीत सुनाऊंगा।' 'नहीं-नहीं, हमको गीत-वीत कुछ नहीं चाहिए।' डिब्बे में बैठे
हुए सिपाही ने जोर से हाथ झटकते हुए कहा। ' क्या
मांगता है?' दूसरे फौजी ने अपनी सीट पर से उठते हुए
तीसरे फौजी से पूछा। तीसरे फौजी ने बंगला भाषा में उसे कुछ जवाब दिया। 'मैं सचमुच शायर हूँ,' सत्यार्थी ने कहा,
' मुझे सब भाषाएं आती है।' और फिर
वह बंगला भाषा में बात करने लगा। फौजी आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगे। ' तमिल, जानता है?' एक
नाटे कद के काले भुजंग फौजी ने डिब्बे कई खिड़की में से सिर निकालकर उससे पूछा। 'तमिल, मराठी, गुजराती.पंजाबी सब जानता हूँ।' सत्यार्थी ने कहा,
'आपको सब भाषाओं के गीत सुनाऊंगा।' 'अच्छा?' तमिल सिपाही ने कहा 'हां!' सत्यार्थी बोला और तमिल में उससे बातें करने लगा। तभी इंजन ने सीटी दी। 'तो क्या मैं अंदर आ जाऊं?' सत्यार्थी ने पूछा।
दरवाजे के पास बैठा हुआ सिपाही कुछ सोचने लगा। 'गीत
पसंद न आएं तो अगले स्टेशन पर उतार देना।' सत्यार्थी
बोला। फौजी हंस पड़ा और बोला, 'आ जाओ!' सत्यार्थी मेरे हाथ से अटैची लेकर जल्दी से अंदर घुस गया। मैं डिब्बे के
सामने बुत बना खड़ा रहा। 'आओ आओ, चले आओ।' सत्यार्थी ने सीट पर जगह बनाते हुए दोनों हाथों के इशारे से मुझे बुलाया। फौजियों ने घूरकर मेरी
तरफ देखा। मैं दो कदम पीछे हट गया। 'यह भी शायर है,
' सत्यार्थी ने कहा, 'यह भी गीत सुनाऐगा।
हम दोनों गीत सुनाएंग़े।'
प्रीतनगर के कुछ व्यक्तियों
की ओर से उर्दू और पंजाबी के साहित्यकारों को एक संयुक्त पार्टी दी गई। एक
कवयित्री और सत्यार्थी साथ-साथ बैठे थे। चाय के बाद शायरी का दौर भी चल रहा था। सब
शायरों ने एक एक नज्म सुनाई। लेकिन जब सत्यार्थी की बारी आई तो वह खामोश बैठा रहा।
कवयित्री ने कहा, 'आप कुछ
सुनाइए न।' ' छोड़िए जी,' सत्यार्थी
बोला, ' मेरी कविता में क्या रखा है?' और उसने चाय की प्याली मुंह से लगा ली। तभी एक कोने से आवाज आई, 'घटना! घटना! ' सत्यार्थी
से हंसी रोके न रुकी। भक से उसका मुंह खुला और सारी चाय दाढ़ी और कोट पर बिखर गई।
वह मैले खाकी रुमाल से चेहरे पर ओट किए अपनी कुर्सी से उठा और नल पर जाकर मुंह धोने
लगा। जब वह मुंह धोकर लौटा तो उसका चेहरा बेहद उदास था। कवयित्री के साथ की कुर्सी
खाली छोड़कर वह एक कोने में दुबककर बैठ गया। फिर उसने कोई बात नहीं की। पार्टी
खत्म होने के बाद मैंने सत्यार्थी से उसकी खामोशी का कारण पूछा तो वह बहुत दुखे
दिल से कहने लगा: 'मैं सभ्य लोगों की सोसाईटी में बहुत कम
बैठा हूँ। मैंने अपनी सारी उम्र किसानों और खानाबदोशों में बिताई है। और अब, जब मुझे मार्डन किस्म की महफिलों में बैठना पड़ता है तो मैं घबरा जाता
हूँ। मैं ज्यादा से ज्यादा सावधानी बरतने की कोशिश करता हूँ ,फिर भी मुझसे जरुर कोई न कोई ऐसी हरकत हो जाती है, जो समाज की नजर में आमतौर से अच्छी नहीं समझी जाती हैं।' मुझे सत्यार्थी की इस बात से बहुत दुख हुआ। उसने सचमुच बहुत बड़ी कुर्बानी
दी थी। लोकगीतों की तलाश में उसने हिंदुस्तान का कोना-कोना छान मारा था। अनगिनत
लोगों के सामने हाथ फैलाया था। बीसियों किस्म की बोलियां सीखी थीं, किसानों के साथ किसान और खानाबदोशों के साथ खानाबदोशों बनकर अपनी जवानी की
उमंगो भरी रातों का गला घोंट दिया था। लेकिन उसकी सारी कोशिश, सारी मेहनत और सारी कुर्बानी के बदलें में उसे क्या मिला? एक भुख भरी जिंदगी और एक अतृप्त प्यार...
एक दोपहर जब मैं दफ्तर में
दाखिल हुआ तो एक खुशपोश नौजवान पहले से मेरा इंतजार कर रहा था। 'मैं देवेंद्र सत्यार्थी।' उसने कहा। मेरी आंखे आश्चर्य से खुली की खुली रह गई। दाढ़ी -मूंछ साफ और सिर पर संक्षिप्त बाल। 'यह देवेंद्र
सत्यार्थी को क्या हो गया !' मैंने सोचा। 'बैठो।' उसने मुझे हैरान खड़े देखकर कहा। मैं
बैठ गया। थोडी देर हम दोनों खामोश बैठे रहे। फिर मैं उसे अपने साथ पास के एक होटल
में ले गया। जब बैयरा चाय ले आया तो मैंने पूछा,
'तुमने आखिर यह क्यों किया?' 'यों ही !' वह बोला। 'यह तो कोई जवाब न हुआ।' मैंने कहा, 'आखिर कुछ तो वजह होगी।' 'वजह?..... वजह दरअसल यह है, 'वह बोला,' मैं उस रुप से तंग आ गया था। पहले
पहल मैं गीत इकटठा करने निकला तो मेरी दाढ़ी नहीं थी। उस वक्त मुझे गीत इकटठे करने
में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। लोग मुझ पर भरोसा नहीं करते थे। लड़कियां
मेरे साथ बैठते हुए हिचकिचाती थी। फिर मैंने दाढ़ी और सिर के बाल बढ़ा लिये और
बिल्कुल कलनदरों की सी शक्ल बना ली। इस रुप ने मेरे लिए बहुत सी आसानियां पैदा कर
दी। देहाती मेरी इज्जत करने लगे। लड़कियं मुझे दरवेश समझकर मुझसे ताबीज मांगने
लगी। मैंने देखा, अब उन्हें मेरे नजदीक आने में झिझक
महसूस नहीं होती थी। मैं घंटो बैठा उनके गीत सुनता रहता। अब मेरी उदर पूर्ति भी
आसानी से हो जाती थी, और बिना टिकट रेल का सफर करने में
भी सुविधा हो गई थी। धीरे धीरे दाढ़ी और जटाएं मेरे व्यक्तित्व का अंग़ बन गई। 'फिर?' मैंने पूछा। 'फिर
मैं शहर आ गया, 'वह बोला,' और
लिखने को रोजी का जरिया बना लिया। मैं दूसरे लेखकों को देखता तो उन्हें एकदूसरे से
इंतहा बेतकल्लुफ पाता। सारे वक्त वो एक दूसरे से हंसते खेलते और मजाक करते रहते।
लेकिन यही लोग मुझसे बात करते तो उनके लहजें में तकल्लुफ आ जाता। मुझमें और उनमें
आदर का एक बनावटी सा पर्दा खड़ा हो जाता। मुझे यों लगता, जैसे मैं उनके दिलों से बहुत दूर हूँ! आम लोग
भी जब मेरे सामने आते तो अदब से बैठ जाते, जैसे वो किसी
देवता के सामने बैठे हों- अपने से ऊंची और अलग हस्ती के
सामने। 'फिर?' मैंने पूछा। 'आम मर्दों की निगाह पड़ते ही लड़कियों के चेहरों पर सुर्खी दौड़ जाती, उनके गाल तमतमा उठते। लेकिन जब मैं उनकी तरफ देखता तो उनके गालों का रंग
वहीं उतर जाता। वो फैसला न कर सकती कि मैं उनकी तरफ पिता की निगाह से देख रहा हूँ
या प्रेमी के? 'मैं उस जिंदगी से तंग आ गया था।' वह बोला,' मैंने फैसला कर लिया कि मैं अपनी इस
शक्ल को बदल दूंगा। मैं देवता नहीं हूँ, इंसान हूँ और
मैं इंसान बन कर ही रहना चाहता हूँ।' 'फिर?' मैंने आखिरी बार पूछा। 'फिर? फिर मैं इस वक्त तुम्हारे सामने बैठा हूँ। क्या मेरी शक्ल आम इंसानों की
सी नहीं है?' 'है और बिल्कुल है।' मैंने कहा, 'लेकिन एक बात बताओ। हज्जाम ने तुमसे
क्या चार्ज किया?' 'पांच रुपये।' सत्यार्थी
ने कहा. 'लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हों?' 'यों ही।' मैंने कहा। और फिर हम दोनों मुस्कराने
लगे।
फिर दो तीन महीने तक मैंने
उस की सूरत नही देखी। एक दिन
मैं सत्यार्थी से मिलने उसके घर गया। वह टेबुल लेम्प की हल्की रोशनी में अपने छोटे
से कमरे में मेज पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था। कदमों की चाप सुनकर उसने दरवाजे की
तरफ घूमकर देखा। 'हैल्लो साहिर!' मैं अंदर चला गया। सत्यार्थी ने दाढी और सिर के बाल् फिर से बढ़ा लिये थे। 'क्यों?' 'मैं कल शाम कई गाड़ी से जा रहा हूँ।' मैंने कहा, 'मुझे एक फिल्म कम्पनी में नौकरी मिल गई
है।' 'अच्छा?' उसने कहा,
'तब तो आज तुमसे लम्बी चोड़ी बातें होनी चाहिए।' उसने फाउन्टेन पेन बंद करके रख दिया। इतने में सत्यार्थी की पत्नी अंदर आ
गई। सूरत शक्ल से वह उनीतस-तीस बरस की लगती थी। मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते की। 'नमस्ते।' वह बोली। सत्यार्थी ने मेरी तरफ इशारा
करते हुए कहा, 'ये आज यहीं रहेंगे और खाना भी यहीं खाएंगे।' वह जाकर खाना ले आई। सत्यार्थी की नौ बरस की बच्ची कविता भी आ गई। हम सब
खाना खाने लगे। सत्यार्थी की बीवी हमारे करीब बैठी पंखे से हवा करती रही। ' खाना ठीक है?' उसने पूछा। 'सिर्फ ठीक ही नहीं , बेहद मजेदार है।' मैंने कहा। 'हम लोग गरीब है।' वह बोली। अचानक मुझे अपने सूट का ख्याल आ गया। 'मेरे पास यही एक सूट है।' मैने कहा, 'और यह भी मेरे मामा ने बनवा कर दिया। वह हंसने लगी- एक निहायत बेझिझक और पवित्र हंसी। और जब वह खाने खाये जूठे बर्तन उठाकर
चली गई तब सत्यार्थी ने मुझसे कहा, 'इस औरत ने मेरे साथ
अनगिनत दुख झेले है। हिंदुस्तान का कोई सूबा ऐसा नहीं, जहां
वह भिखारी के साथ भिखारिन बनकर मारी-मारी न फिरी हो। अगर वह मेरा साथ न देती तो
शायद मैं अपने उद्धेश्य में सफल न हो सकता।' 'तुम्हारी
जिंदगी काबिले-रश्क है! ' मैंने
कहा। 'जिंदगी? शायद जिंदगी
से तुम्हारा मतलब बीवी है। मेरी बीवी वाकई काबिले-रश्क है, हालांकि कई बार इसकी मामूली शक्ल सूरत से मैं बेजार भी हो गया हूँ।' मैं दीवार पर लगी हुई तस्वीरों की तरफ देखने लगा। लेनिन...टैगोर...इकबाल....' इन
तीनों की शक्ल सूरत के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?' मैंने मुस्कराते हुए पूछा। 'इन तीनों का मेरी
जिंदगी पर गहरा असर है।' सत्यार्थे बोला और फिर न जाने
किस यादों में खो गया।
'जब मैं बिल्कुल नौ उम्र था,' थोडी देर बाद उसने कहा, 'तो मैंने आत्महत्या करने का
इरादा किया था। कुछ दोस्तों को पता चल गया। वे मुझे पकड़ कर डाक्टर इकबाल के पास
ले गए। इकबाल बहुत देर तक मुझे समझाते रहे। उनकी बातों ने मुझ पर गहरा असर किया और
मैंने आत्महत्या का ख्याल को छोड़ दिया। फिर मैंने लेनिन को पढा। और मेरे दिल में
गांव-गांव घूमकर लोकगीत इक्टठा करने का ख्याल पैदा हुआ। टेगौर ने मेरे इस ख्याल को
सराहा। और मेरा हौंसला बढाया। मैं गीत जमा करता रहा और अब, जब ये तीनों मर चुके हैं तो रातों की खामोश तन्हाई में उन गीतों को उर्दू ,हिंदी या इंगलिश में ढालते समय कभी-कभी ऐसा लगता है, जैसे किसान औरतें और मर्द मेरे गिर्द घेरा बनाए खड़े हों और कह रहे हों।, अरे बाबा, हमने तुम्हें अपना समझा था, तुम पर भरोसा किया था। तुम हमारी सदियों की पूंजी को हम से छीनकर शहरों
में बेच दोगे, यह हमें भूलकर भी शक नही हुआ था। लेकिन
तुम हममें से नहीं थे। तुम शहर से आये थे और शहर को लौट गए। अब तुम उन गीतों को, जो हमारे दुख-सुख के साथी थे, जिन पर अबतक किसी
व्यक्ति के नाम की मुहर नहीं लगी थी, अपने नाम की छाप
के साथ बाजार में बेच रहे हो, और अपना और अपने बीवी
बच्चों का पेट पाल रहे हो। तुम बहुरुपिए हो, फरेबी, धोखेबाज! और फिर जलती हुई आंखों से मुझे घूरने
लगते हैं।' 'यह तुम्हारी भावुकता है, 'मैने
कहा, 'तुमने इन गीतों को गांव के सीमित वातावरण से निकालकर
असीम कर दिया है। तुमने एक मरती हुई संस्कृति की गोद में महकने वाले फूलों को
पतझड़ के पंजों से बचाकर उनकी महक को अमर बना दिया है। यह तुम्हारा कारनामा है।
आजाद और समाजवादी भारत में जब शिक्षा आम हो जाऐगी और जीवन शबाब पर आऐगा तो यही
किसान, जो आज तुम्हारी कल्पना में तुम्हें जलती हुई
आंखों से घूरते हैं, तुम्हें मुहब्बत और प्यार से देखकर
मुस्कराएंग़े, उनके बच्चें
तुम्हें आदर और श्रद्धा के भाव से याद कर सकेंगे।' वह
मुस्कराने लगा। मैं लाहौर से चला गया और बम्बई में फिल्मी गीत लिखने लगा।
थोड़े दिनों के बाद मैंने
सुना कि सत्यार्थी ने लाहौर छौड़ दिया है। और दिल्ली के किसी सरकारी पत्र के
सम्पादन विभाग में नौकरी कर ली है। मुझे विश्वास है कि अब सत्यार्थी का लिबास पहले
की तरह मैला कुचैला नहीं होता होगा। उसके जूते भी अब लाहौर के प्रकाशक के जूतों की
तरह कीमती और चमकीलें होंग़े। नन्ही-मुन्नी कविता अब बड़ी हो गयी होगी और तांगे
में स्कूल जाती होगी। लेकिन किसान? शायद अब भी सत्यार्थी उनके बारें में सोचता हो।
'साहिर लुधियानवी' का 'देवेन्द्र सत्यार्थी' पर लिखा प्रसिद्ध संस्मरण। जोकि 19 पेज का है पर यहां कुछ ही झांकियों को दिखाया गया है पर फिर भी लय टूटी हो तो माफी चाहूंगा। वैसे ये पूरा संस्मरण 'देवेन्द्र सत्यार्थी' की लिखी किताब "नीलयक्षिणी" में है। जोकि 'पराग प्रकाशन' से छ्पी है। और यही संस्मरण 'प्रकाश मनु' की किताब देवेन्द्र सत्यार्थी की चुनी हुई रचनाएं में भी है।
4 comments:
देवेन्द्र सत्यार्थी सरीखे सरल लोग आज साहित्य में तो नहीं ही मिलते.
उफ़्फ........। यकीन कीजिये..खोया हुआ हूं और दिमाग के तार झंकृत हैं..उसकी आवाज दिमाग के हर तंतु को झकझोर सी रही है.जो दिल में शब्द पर शब्द छोड रही है..ऐसे शब्द जो निशब्द हैं। हैन अज़ीब सी स्थिति..और इस स्थिति में लाने वाले आप हैं..। क्यों पोस्ट कर दी? देवेन्द्र सत्यार्थी के उन पन्नों को क्यों खोल दिया जो हकीकत बयां करते हैं एक उम्दा साहित्यकार की उन मजबूरियों को खोलती हैं जिनमे कोई रहना नहीं चाहता। देवेन्द्र सत्यार्थी पूरा एक जीवन है। ऐसा जीवन जिसमे सिर्फ और सिर्फ कमियां रही..बेहतरीन फनकार होने की सज़ा।
मुझे इस पोस्ट से उनकी किताबें पढने की लालसा जाग उठी है..और अब आपको ही मेरी क्षुधा शांत करनी होगी। कुछ भी करें..उपलब्ध करवायें क्योंकि इस मायानगरी में देवेन्द्र जैसे साहित्यकारों को ढूंढना न केवल कठिन है बल्कि न के बराबर है. यहां मिलते हैं सपने, जो बेचे जाते हैं और लूटा जाता है मस्तिष्क को..आधुनिकता के नाम पर तो कभी मनोरंजन के नाम पर..। यहां देवेन्द्र सत्यार्थी की तरह का कौन साहित्यकार? और कौन उसको सहेजकर रखने वाला व्यक्ति? खैर ..
सचमुच बाबा है सत्यार्थी. अगर यह साहित्यकार बाबा नहीं होता तो शायद होता भी नहीं.., उस काल और जीने की जिजिविषा..का खूबसूरत वर्णन है..साहिल लुधियानवी द्वारा अगर लिखा गया है तो समझ में आता है कि देवेन्द्र क्या चीज है..।
दिनभर में तीन-चार बार पढ गया..और आपकी लिखने की मेहनत को सार्थक कर गया। उम्दा वर्क किया है आपने.आपको लख लख धन्यवाद दूंगा।
बेहद अफसोसजनक ...जिस आदमीं को उसके काम से लिए सराहा जाना चाहिए था..वो भूख से बिलबिलाता रहा..एक एक चाय के लिए अपनी कहानिया कुर्बान करता रहा .....बेहद अफसोसजनक... ऐसा इस देश में ही शायद हो सकता है,......शुक्रिया साहिर के इस संस्मरण को साझा करने के लिए
ओह, सही किया मैंने जो इसे आराम से पढ़ा..बिना कोई हड़बड़ी के...
किताब पढ़ने का अब बहुत दिल कर रहा है..
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