Monday, August 30, 2010

परदेसन

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो

मैक्समूलर भवन में टकराई थी
"सॉरी" की मीठी आवाज़
कानों में मेरे आई थी।
चेहरे पर उसके लाली थी
कानों में उसके बाली थी,
बालों की दो चोटी झूले से झूल रही थी,
नाक की नथ सूरज सी चमक रही थी।
गले में चेग्वारा टंगा था
इक पैर सूना,
दूजे में पाजेब सा कुछ पहना था।
आकर मेरे सामने की कुर्सी पर
आलथी-पालथी मार बैठ गई थी।
गाँधी की फोटो लगे झोले से निकाल एक किताब
सिमोन द बोवुआर के काले अक्षरों में डूब गई थी
उसकी ये अपूर्व तस्वीर मेरी आँखो में बस गई थी।
याद उसकी रह-रह कर आती रही
सपनों में आकर बार-बार बुलाती रही।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

एक बार मिली
दो बार मिली,
अलग-अलग राहों पर, 
बार-बार मिली।
उस दिन मिली थी
इंडिया हैबिटेट की कला दीर्घा में,
"बावली लड़की" टाइटल वाली पेंटिंग में खोई,
शायद अपना अक्स ढूढ़ रही थी,
मैं भी पेंटिंग के बावरी रंगो में खो गया।
कुछ पल बाद मुझे देख वो चौंकी, 
और इंगलिश टच  हिंदी जबान में बोली,
"गॉड कुछ चाहता है,
इसलिए बार-बार मिलाता है,
लगता है वो दोस्ती कराना चाहता है,
आओ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं,
मैं ........................ और आप।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

आँखो को मटकाकर
बालों को फूँक से उड़ाती थी।
भरकर चिकोटी मेरे
जीभ निकाल चिढ़ाती हुई दौड़ जाती थी।
मेरी सी बातूनी थी
देर रात तक बतलाती थी,
कभी मेरे ख्वाबों के रंगो की पेंटिंग बनाती थी,
कभी अपने सपनों के घुँघरु बाँध नाचती थी,
मैं देखता-सुनता जाता और अच्छा- अच्छा ..... कहता जाता,
"अच्छे की ऐसी-की-तैसी सुबह हो गई है।" वो कहती थी।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

अल्हड़ थी
घूमक्कड़ थी।
टाँग पीठ पर पिटठू बैग
दूर गाँवों में,
अकेले ही निकल जाती थी।
आकर फिर पास मेरे
लोगों के किस्से,
दर्द सुनाती थी।
बीच-बीच में सुनाते-सुनाते
कभी मुस्कराती थी,
कभी उदास हो जाती थी,
ना जाने ज़िंदगी से क्या चाहती थी।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

आखिर वो दिन आ ही गया
जिस दिन उसे अपने देश जाना था।
उस दिन
ऊपर-ऊपर हँस रही थी,
अंदर-अंदर रो रही थी,
रखकर मेरी गोद में सिर अपना
घंटो रोती रही थी, 
फिर आँसू पोंछकर बोली,
"प्यार का मतलब साथ-साथ रहना ही नहीं,
साथ-साथ जीना भी होता है,
और हम साथ-साथ जीएगें।

ना जाने किस देश की थी वो
पर लगती थी अपनी सी वो।

                                                   सुशील कुमार छौक्कर

12 comments:

vandana gupta said...

सुशील जी,
गज़ब कर दिया……………पढते पढते उसी मे खो गयी और कविता कब पूरी हो गयी पता ही नही चला……………इसे तो और बढाना था और एक नया इतिहास बनाना था…………………सिर्फ़ इतना ही……………।वाह वाह वाह वाह वाह वाह्………………………………हो सके तो कोशिश कीजिये ।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

बेहद सादगी और इमानदार रचना कही जायेगी यह। वैसे जब भी लम्बी रचना लिखी जाती है तो उसकी धारा को पकडे रखने की जरूरत होती है। सुशीलजी, आपने यह जरूरत पूर्ण की। मर्म को छूती सी जाती है रचना। इनकी पंक्तियों में एक प्रकार की कशिश है। और वन्दनाजी सच कहती हैं कि क्या और लम्बी नहीं बन सकती थी? बाद में आप कोशिश कीजियेगा इसे बढाने की। अबके पढी तो ज्यादा आनंद आया।

नैना बिटिया की राखी। शायद मुंह में मीठाई होगी इसलिये इस बार बात नहीं की। उसके नन्हें सवाल नहीं

vijay kumar sappatti said...

susheel ji , subah se naa jane kitni baar padh chuka hoon , kya likhi ,kuch samjah nahi aata . aapne itni acchi rachna likh di haiki kya kahun aur aapne sach kaha hai ki ek painting ban gayi hai , bahut se frames ko liye hue ..
susheel ji , man prasann ho gaya

aabhar aur aapki lekhni ko salaam

रंजू भाटिया said...

सुन्दर कहानी सी लगी यह रचना बहुत बढ़िया तरीके से लिखा है आपने इसको ....बहुत पसंद आई यह सुशील जी

कंचन सिंह चौहान said...

सुशील जी कविता का जो मूलभाव था, वो अच्छा था...! वही भाव कविता की जान हैं..!!

हरकीरत ' हीर' said...

ओये होए ......!!

सुशील जी मैं भी कहूँ आजकल किधर गायब रहते हैं .....

बधाइयां जी बधाइयां.......!!

@ न जाने किस देश की थी वो .....

अब तक तो पता ठिकाना सब लग गया होगा ...
मुझे अलग से मेल कर बता दीजियेगा .....!!

उस दिन
ऊपर-ऊपर हँस रही थी,
अंदर-अंदर रो रही थी,
रखकर मेरी गोद में सिर अपना
घंटो रोती रही थी,
फिर आँसू पोंछकर बोली,
"प्यार का मतलब साथ-साथ रहना ही नहीं,
साथ-साथ जीना भी होता है,
और हम साथ-साथ जीएगें।

वाह...वाह ...क्या बात है ....
ऐसा चाहने वाला तो किस्मत वालों को ही मिलता है .....
रहा होगा कोई पिछले जन्म का रिश्ता ....शायद ....!!

और ये आपकी मासूमियत भरी रचना आपकी सादगी बताती है ....!!

राज भाटिय़ा said...

अति सुंदर कविता जी धन्यवाद

आपका अख्तर खान अकेला said...

kyaa khub likhte ho bhaayi kmaal he mubaark ho. akhtar khan akela kota rajsthan

अनिल कान्त said...

कविता पढ़ते पढ़ते कई बार तो भूल ही सा गया कि कविता पढ़ रहा हूँ...
वाह !

siddheshwar singh said...

ढाई आखर...
बस्स

Manish Kumar said...

हम्म्म वही कहूँ आप कला दीर्घा, रंगशालाओं के बराबर चक्कर क्यूँ लगाते हैं। यूँ ही टकराते रहिए और हमें दिल का हाल बताते रहिए :)

मीत said...

ise padhne mein to mein wakai late ho gya...
ye mujhe pahle padhni chahiye thi...
kya bhav hain is rachna mein.. behad gahre..
sunder...
bahut sunder...
meet

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