Monday, October 5, 2009

जिंदगी के रंग अनिल जी के संग।

आज अनिल जी अपनी "ज़िदगी के रंगो" से हमारी मुलाकात करा रहे हैं।


जीने के लिए साँसों की जरूरत होती है, हर एक नया पल जीने के लिए आपको नयी साँसे चाहिए और अगर आपको किसी एक ऐसी छोटी सी जगह बँद कर दिया जाए जहाँ साँस लेने के लिए कोई आवागमन न हो, उस पर से एक दो महीने के बाद बारीक छेदों को भी धीरे धीरे बंद कर दिया जाने लगे तब या तो आप हार मानकर मौत को गले लगा लो या फिर उसमें नए सुराख बना लो या पुराने बंद सुराखों को पूरी ताकत से खोल दो.

संघर्ष का रंग : "हार को जीत में बदलने के लिए डटे रहो"


5 साल पहले मेरे लिए भी ऐसा ही हाल था, हाँ ठीक बिल्कुल ऐसा ही. अचानक जिंदगी ने करवट ली और सब कुछ बदल गया. मेरे साथ बस माँ थी, भाई और बहन थे. वो मेरे एम.सी.ए. का अंतिम वर्ष था. और फीस भरने के लिए बस 15 दिन शेष थे, जिनमें से 10 दिन बैंक मैनेजर के सामने लोन के लिए गिड़गिड़ाने में और सगे सम्बन्धियों के मुँह फेरने में जा चुके थे. मैंने भी   सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए हार नहीं मानूँगा. फीस के इंतज़ाम के सिलसिले में मैं अपने एक पुराने दोस्त के पास जाने का कह कर घर से सर्दियों की गुनगुनी धूप में पैंट और शर्ट में निकल गया. जब आगरा पहुँचा तो जिस दोस्त के घर गया था उसके पिताजी का तबाबला हो गया और वो बनारस पहुँच गए थे. उनके पड़ोसियों से उनका पता मालूम किया तो बस इतना पता चला कि दोस्त के पिताजी बनारस के फलाँ पुलिस स्टेशन में हैं. रात के अंधेरे ने अपनी दस्तक देना शुरू कर दिया था. मेरे पास अब एक फूटी कौडी नहीं बची थी. अचानक से मेरे कदम आगरा के रेलवे स्टेशन की ओर मुड़ गए, खाली पेट और खाली जेब के साथ में मरुधर एक्सप्रेस में चढ़ गया जो बनारस जा रही थी. सर्दियों की ठंडी रातों का ट्रेन के जनरल डिब्बे में कैसा एहसास होता है ये मुझे उस रात पता चला जब ठिठुरते-काँपते हुए हाथ पैर और कपड़ो के नाम पर शर्ट-पेंट. मन ही मन ख्याल आता कि घर से गर्म कपड़े पहन कर क्यों ना चला. जब रात को ठंड़ बर्दाश्त से बाहर होने लगी तो सीट के नीचे अखबार बिछा कर लेट गया. चलती हुई ट्रेन की आवाज़ के साथ जब बदन का कोई हिस्सा ट्रेन के लोहे को छू जाता तो जान सी निकल जाती और उस पर से ट्रेन की खुली खिड़कियों से आती हुई हवा. वो रात थी कि बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी. जब अगले रोज़ बनारस के रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मुँह में जाने के लिए बस पानी ही था जो मुझे सबसे पहले नसीब हुआ. स्टेशन से बाहर निकल कर उस पुलिस स्टेशन का पता किया जो कि वहाँ से 6-7 किलोमीटर दूर था. वहाँ से तेज़ क़दमों से चलता हुआ मैं उस थाने जैसे तैसे पहुंचा, वहाँ मालूम करने पर पता चला कि सिंह साहब तो दूसरे थाने में चले गए हैं जो वहाँ से 8-9 किलोमीटर दूर था. धक्के खाता हुआ मैं उस थाने पहुंचा और वहाँ मालूम करने पर पता चला कि सिंह साहब तो अपने घर पर होंगे इस वक़्त. उनका घर वहाँ से करीब 4-5 किलोमीटर रहा होगा. कदम ठीक से साथ नहीं दे रहे थे. बुरी तरह से थक गया था बीच रास्ते में कुछ सीढियां थी उन पर बैठ गया. सर को अपने घुटनों में झुकाए. पास ही आकर एक साधू बैठ गया और अपने थैले से निकाल कर कुछ खाने लगा. मेरी नज़र उस पर गयी तो उसने प्रसाद के नाम पर मुझे दो लड्डू दिए. जो उस वक़्त मेरे लिए अमृत सामान थे.कुछ देर बैठे रहने के बाद वहाँ से उठ मैं गिरता पड़ता अपने दोस्त के घर पहुँच गया. उसे मैंने अपने घर के हालात, उन हालातों की वजह बताई और अपने आने का कारण भी बताया. उसने मुझे अगले रोज़ ना जाने कहाँ से लाकर 20,000 रुपये दिए. जो मेरे लिए एक बहुत बड़ी मदद थी. अगले रोज़ जब लौटा तो उसने एक मोटा कम्बल और एक स्वेटर मुझे दिया. इन चंद दिनों के संघर्ष ने मुझे ये सिखा दिया था कि हार को जीत में बदलने के लिए डटे रहना और संघर्ष करते रहना बहुत जरूरी है.
शब्दों का रंग : संघर्ष और साँसे साथ साथ चलती है। 

 हार को जीत में बदलने के लिए
संघर्ष करते रहना उतना ही जरूरी है
जितना कि साँस लेते रहना"
                       अनिल कान्त  

हँसी का रंग : मिश्रा जी क्या मैं हँस सकता हूँ

हम छटवीं कक्षा में पढ़ते थे. पी.टी. के अध्यापक मिश्रा सर जो कि उप प्रधानाचार्य की हर बात में बिना सोचे समझे हाँ में हाँ मिलाते थे. परीक्षाएं चल रही थीं. कुछ छात्र परीक्षाओं में पानी पीने और मूत्राशय के बहाने नक़ल करने की कोशिश करते. हर कमरे में उप प्रधानाचार्य ने आकर कहा कि मेरी बिना अनुमति के किसी को भी कोई अनुमति न दी जाए.  संयोगवश हमारे कमरे में मिश्रा सर थे. कुछ देर बाद एक लड़के को जो कि दोनों हाथ से लिख सकता था, उसको ना जाने क्या सूझी. वो खड़ा होकर पूँछने लगा कि सर क्या मैं अब बायें हाथ से लिख सकता हूँ. मिश्रा जी ने बिना सोचे समझे बोल दिया कि अभी पूँछ कर आता हूँ और बाहर निकल गए. उनके बाहर जाते ही पूरी क्लास जोर से हँस पड़ी.( अब आप भी हँसने के लिए ये मत कह देना कि मिश्रा जी से पूँछकर आते है।) 


कैसे लगे अनिल जी की ज़िंदगी के रंग। अगर आपको इनकी जिंदगी के और भी रंग देखने है तो मेरा अपना जहान पर घूम आईए।

20 comments:

Alpana Verma said...

ज़िन्दगी के रंग का यह अंक भी अच्छा लगा .
अनिल जी के लिखे संस्मरण भी रोचक होते हैं कवितायेँ भी अच्छी लिखते हैं.
आप की यह प्रस्तुति भी सराहनीय है.ज़िन्दगी के संघर्ष और फिर हास्य रंगों का मिश्रण खूब रहा.
आभार.

[नैना के लिए--हाँ नैना तुम्हारी चोकोलेट तो बनती है.इतनी अच्छी report card है...
एक दो chocolate खाने से दांत खराब नहीं होंगे..और मिल्क चोकोलेट तो सब से ठीक rahegi..ok..?]

अमिताभ श्रीवास्तव said...

आदमी की जिजीविशा उसे हारने नहीं देती और यदि वो मानसिक रूप से हारने भी लग जाता है तो प्रुक्रति उसे जीने के लिये ललायित करती है। यानी पराजय आदमी के लिये बना ही नहीं है, फिर भी जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आते है जब हम खुद को हारा हुआ मान लेते हैं, ऐसे में अनिलजी का प्रयास ही मंजिल तक पहुंचा सकता है। बहुत खूब होता है जीवन का रंग भी। क्या क्या नज़ारे दिखाते है जो जीने का सम्बल बन जाते हैं। दरअसल जीवन का नाम ही यही है। हर पल एक नया रंग। मुझे लगता है एसे नाज़ुक मोडों पर अचानक जो हमे मिल जाता है जिसके कारण हमे अपना आगे का मार्ग दिखने लगता है, वह संयोग नही बल्कि उस उपरवाले की शक़्ति ही है जो उठाता है, लडाता है। जितवाता है।
सुशीलजी बधाई के पात्र हैं जो इस तरह के रंगों से हम सब को सराबोर कर रहे हैं।
वैसे पोस्ट पढ्ने की जल्दी में मैं ओफिस जाने में लेट हो गया,क्या अब जाऊं, पूछ कर आता हूं..., अरे भई हमारी प्राचार्य तो हमारी घरवाली ही है न...।

और हां, नैना को चाकलेट का बडा डिब्बा खरीदवा देना, दांत वैसे भी अभी दूध के है जो गिरने ही वाले हैं, गिरे उसके बाद सोचेगे चाकलेट खाना है या नहीं, ओके जी।

राजीव तनेजा said...

कभी हार ना मानने की सीख देता बहुत ही बढिया संस्मरण...

रंजू भाटिया said...

जिन्दगी इस तरह से चलने का नाम है .अच्छे लगे दोनों संस्मरण ..नेना की चाकलेट बनती है जी ..मेरे लिए भी रख लेना ..:)

मीत said...

ज़िन्दगी है का यह रंग भी बेहद अच्छा था.... सच कहा अनिल जी ने जिस तरह सांस लेना जरुरी है उसी तरह जीने के लिए संघर्ष भी उतना ही जरुरी है...
और सुशील जी आपको धन्यवाद... क्योंकि आपके इस कदम से इन पोस्ट के द्वारा कितने ही लोगो को प्रेरणा मिल रही है...
उम्मीद है... कमेन्ट देने वाले सभी लोग हमें अपनी ज़िन्दगी के रंगों से प्रेरणा देंगे...
मीत

vandana gupta said...

zindagi ke rang ..........sach bahut hi anokhe hote hain aru hal pag par hamein aage badhne ko prerit karte hain..........anil ji ki zindagi ke rnag bhi na jaane kitne logon ko hosla denge.aap badhayi ke patra hain jo aapne itni badhiya shuruaat ki hai.

naina ko hamari taraf se badhayi.........itni badhiya report card kya sabke aati hai ........nhi na........phir chocolate to banti hai......uska haq hai........jaldi se chocolate laiye use khilaiye aur aap bhi khaiye aur uske sath un palon ji lijiye.

अशरफुल निशा said...

Jeevan chalne ka naam.
Think Scientific Act Scientific

kshama said...

Aapko jo mehsoos hota raha...sang,sang hame bhee..us raah pe aapke saath, aapke sansmaran dwara ham bhee chalte rahe...dil kiya, ye abhi khatm kyon hua...aur padhne kee chahat thee...

अनिल कान्त said...

नैना की चोकलेट तो बनती है !!

Gyan Darpan said...

बढ़िया लगे अनिल जी की जिन्दगी के रंग |

राज भाटिय़ा said...

हार को जीत में बदलने के लिए डटे रहो, भई तुम अकेले नही मैने भी बहुत सी मुस्किले हंसते हुये सही है, आप कि कहानी भी मुझे अपनी सी लगी, लेकिन हिम्मत आज भी बर्करार है.

धन्यवाद

Anil Pusadkar said...

रंग हो तो ऐसा।

शरद कोकास said...

इसीलिये तो ज़िन्दगी को रंगीन कहते है

kshama said...

Phir ekbaar, der raat jab neend jane kahan ud gayee, phir ekbaar aapke sansmaran padhne chalee aayee..
'duniya rang rangrageelee baba, duniya rang raglee...."

vijay kumar sappatti said...

anil ji ki zindagi ka ye rang dekhkar hame to hausla mila hi hai .. unke shbd ka rang bhi bahiut sundar hai .. man ko choo gaya ..

aur ye punch line to bahut hi acchi hai ki haar ko jeet me badalne ke liye date raho ..

susheel ji , aapne ye jo coloumn shuru kiya hai , mujhe bahut accha pasand aaya hai .. isi ke sahare hum saare blogger bhai ek dusare ko aur kareeb se jaan le..

regards

vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com

Manish Kumar said...

वाह! इसे कहते हैं जीवटता, बेहद प्रेरणादायक संस्मरण रहा ये...

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

इन चंद दिनों के संघर्ष ने मुझे ये सिखा दिया था कि हार को जीत में बदलने के लिए डटे रहना और संघर्ष करते रहना बहुत जरूरी है.
शब्दों का रंग : संघर्ष और साँसे साथ साथ चलती है।


yahi main kahta hoon........... aur meri philosophy yahi hai........

kai baar rongte bhi khade huye padhte waqt.........

गौतम राजऋषि said...

अरे वाह, सुशील जी ये तो बड़ी अच्छी श्रंखला शुरू की है...
अनिल को तो अच्छे से जानता समझता हूं..उसकी अद्‍भुत प्रेम-कहानियां मेरे दिल के करीब होती हैं....उसका ये रंग भी खूब भाया।
keep it up, anil!!!

...और नैना बिटिया को खूब सारा प्यार।

आपकी समस्त शुभकामनाओं का शुक्रगुजार हूं...काफी सुधार है अब तो।

हरकीरत ' हीर' said...

अनिल जी को ढेरों मुबारकबाद .....!!

Satish Saxena said...

बहुत अच्छा, संघर्ष और मुसीबत लोग कैसे झेलते हैं, यह एक जीवंत उदाहरण है , अछि अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनायें!

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