Monday, September 5, 2011

शिक्षक दिवस पर, गुरु की बातें

माननीय प्रधान जी ते साथियों:

पहला धिआंवां बाबा नानक,

जिन प्यार दा सबक सिखाया

दूजे धिआंवां भगत सिंध नूं

जालम नूं ललकारे....

C.D.Sidhu Sir

ये दोनों सतरें मेरे नाटक भाइया हाकम सिंह के गीत का हिस्सा हैं। मेरे पूरे नाटकों का विषय पक्ष यही है। बाबा नानक का आपसी प्यार का सबक  सरबत के भले की कामना। और महान क्रांतिकारी भगत सिंह शहीद का शोषण के खिलाफ युद्ध। जालिमों से टक्कर लेना। ये सबक सदियों पुराने हैं। कुल दुनिया के बुजुर्गों ने, कवियों ने, कलाकारों ने, दोहराए हैं। विषय पक्ष, किसी भी लेखक का  संदेश , नितांत नया नहीं हो सकता। तो मेरे 33 नाटकों का नयापन क्या है। मेरी कोशिश रही है कि मैं अपने गांव के लोगों को, अपने इलाके के लोगों को, अपनी बोली के अंदर, मंच पर जीवंत कर सकूँ। और अपने लोगों को उनके पड़ोसियों के किस्से देखा कर, उनके इतिहास की घटनाएं दोहरा कर, जीवन के बारे में अधिक  चौकस कर सकूं- ताकि वे हिम्मत करके, अपनी कमजोरियों से, सामाजिक कुरीतियों से, वहमों-भ्रमों से, आजाद हो सकें। बेइंसाफी सए,जुलम सितम से, जूझ सकें। मैं सतलुज और व्यास दरियाओं की बाहों में पनपते, जरखेज इलाके, दुआबा का जन्मा पला हूँ। गांव  भाम, जिला होशियारपुर। दुआबा हमेशा लोक नाटक का गढ़ रहा है। मैं नकल  और रासलीला खेलने वाली टोलियों का वारिस हूँ। मैंने दुआबा को पूरी  तरह जानने की कोशिश की है। मेरे अधिकतर पात्र  जाने पहचाने जीवन से लिए गए है। उनकी बोली भी वही है  जो मैं बचपन से सुनता आया हूँ।अपने लोगों की सच्ची तस्वीर खेंचने के वास्ते मैं कई बरस देहात में घूमा हूँ। देहाती कपड़े पहनकर। फेरी वाला बनकर , साधु के लिबास में, या कोई दूसरा किरदार बनकर। मैंने अपने लोगों के साथ एकरुप होने की कोशिश की है।मुझे लगातार अहसास रहा है कि मैं दिल्ली में बसते हुए , कॉलेज में पढ़ाते हुए , अपने पिछले जीवन  को, अपनी  जड़ो को, न भूलूं। मैं बे-जमीन गरीब परिवार का पहला बंदा हूँ जो कॉलेज की पढ़ाई करने दिल्ली तक पहुंचा। और वहां से पी.एच.डी करने अमरीका तक गया। मेरे पिता की सदा मुझे ताड़ना रही –" चार  अक्खर अंग्रेजी के पढ़कर कभी अपने आपको गरीबों से ऊंचा मत समझना।" मैं धरती पुत्र हूँ। सदा धरती से जुड़ा रहा हूँ। मेरे नाटकों के पात्र मेरे परिवार के बंदे है। रिश्तेदार हैं। पड़ोसी है। वे दलित लोग जिन्होंने सदियों से जमीन वालों का, रजवाड़ो का, पुजारियों का जुल्म सहा है।उनकी मुशिकलों को, संताप को, मैंने नजदीक से देखा है, झेला है। शायद इसी कारण मैं गरीबों को मंच पर जिंदा खड़ा करने में कामयाब हुआ हूँ। मेरे कुछ दोस्त बताते है, मैं पंजाब का पहला लेखक हूँ जिसने दृढ होकर सेपी का काम करने वाले, बागवान, मोची, जुलाहे, नाई, कहार, कुम्हार,  मिस्तरी, बाजीगर नायक नायिकाओं का सृजन किया है। शायद यही मेरी नाटकों का नयापन है।

बाबा नानक के जीवन ढ़ग का मेरे ऊपर बहुत असर है। अपनी जिंदगी के कई बरस नानक ने दुआबा में बिताए। अपने प्यार के संदेश को उसने हिंदुस्तान के कोने कोने में पहुंचाया।नानक ईमानदार कामगार  के घर की सूखी रोटी खाकर खुश था। बेईमान अमीरों को सरेबाजार  फटकारता था।बाबर जैसे हमलावारों के सताए हुए गरीबों की वेदना  को नानक ने लफ्ज दिए। नानक सरीखे शायर के रास्ते पर  चलते हुए, अगर मैं अपनी कलम से, मजदूरों को जबान दे सकूं, मं अपनी जिंदगी सार्थक समझूंगा। अपने जमाने का नानक बहुत  बहादुर शायर था। हरिद्वार पहुंचकर , नानक ने पाखंडी ब्राहम्णों को ललकारा। गरीबों को इन ठगों से आजाद  करने  की कोशिश की। क्या मैं,आज  अयोध्या  पहुंचकर , मक्का पहुंचकर , कटटरपंथियों को धर्म का सही अर्थ समझाने का हौंसला रखता हूँ। संतो  की वाणी ने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है। खासकर कबीर जुलाहे के ये बोल:


पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़।

तांते  तो चक्की भली, पीस खाये संसार॥

इंकलाब का सबक मुझे इंग्लैंड या अमरीका से लाने की जरुरत नहीं थी। मेरे मुल्क के बुजुर्ग सदियों तक हमें पाखंडियों से, पुजारियों से, खबरदार रहने की शिक्षा देते रहें। अगर मैं अपने नाटकों में उन्हीं की शिक्षा दोहरा सकूं तो मुझे फखर होगा। संत रविदास, नामदेव, सदना, कबीर सब  गृहस्थी थे।इनसे मैंने लेखन के बारें में,कला के सृजन की बाबत, बढ़िया सबक सीखा। कलाकार कोई अलग किस्म का जानवर नहीं होता। कविता के गैबी ताकत की जरुरत नहीं। कला का सृजन  और जूते बनाना, कपड़ा बुनना, खेत  में हल चलाना, बीज  बोना, फसल समेटना एक ही इंसान  कर सकता है। खाली समय में एक कामगार गीत बना सकता है, गा सकता है.... अपने देहात में,परिवार में, मैंने बहुत बंदे देखे है जो रोटी कमाने के धंधे के साथ साथ , नाचने गाने का काम भी कर सकते हैं। मैं भी उन साधारण लोगों जैसा हूँ। 43 बरस मैंने  हंसराज कॉलेज दिल्ली में अग्रेंजी पढ़ाई। नाटक लिखते वक्त , खेलते वक्त, मैंने इसे अपने अध्यापन का ही हिस्सा माना। किताब है?कोई भी बंदा लिख सकता है। नाटय निर्देशन ? हर  बशर कर सकता है। सिर्फ लग्न  चाहिए। मेहनत चाहिए। मैं  इसी किस्म  का मजदूर लेखक हूँ। रंगकर्मी हूँ। अध्यापक हूँ।

बोली के बारे में भी मेरा पक्का अकीदा है: चंगा साहित्य सिर्फ अपनी मां-बोली में रचा जा सकता है। साहित्य  अपने लोगों के साथ अपनी बोली में रचाया हुआ संवाद है। मैं अग्रेंजी में नाटक लिखकर, हिंदुस्तानियों के बारे में, उनकी अच्छाइयों या बुराइयों की बाबत,  इंग्लैंड या अमरीका वालों को रिपोर्ट नहीं भेजनाअ चाहता। मैं भंगी बाबा बंतू के, जुलाहे किरपा राम के, चमार खुशिया राम के, बेटे बेटियों संग सीधी बातचीत करना चाहता हूँ। उनका हौंसला बढ़ाना चाहता हूँ। उनमें बेहतर भविष्य  की कामना जगाना चाहता हूँ। और इस  काम  के लिए सबसे कारगर  माध्यम हमारी मादरी जबान हो सकती है। मेरे सभी नायक-नायकाओं का शिखर है शहीद भगत सिंह। बचपन से मैं अपने इलाके में जन्मे इस सूरमें के किस्से सुनता आया हूँ। मेरी भगत सिंह शहीद:नाटक तिक्कड़ी मेरी पूरी  कृतियों का सार है। तत्व है। भगत सिंह मेरा आदर्श है। जुल्म के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए, सामराजी शाषकों संग जूझने के लिए, मजहब के पाखड़ों को तर्को की तलवार से कत्ल करने के लिए, भगत सिंह हमेशा मेरा प्रेरणा स्त्रोत  रहा है। इन तीन नाटकों में इस महापुरुष का सच्चा  स्वरुप पेश करके मुझे बहुत संतोष मिला है। साहित्य अकादमी ने,  हमारे काम को सराहा है। हम तहदिल से शुक्रगुजार हैं। 

केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा साल 2003 में, "भगत सिंह शहीद: नाटक तिक्कड़ी" को दिए गए सम्मान पर, मेरे गुरु श्री चरणदास सिद्धू जी द्वारा पढा गया पर्चा। और यह पर्चा पुस्तक "ड्रामेबाजियां" से लिया गया है जिसे प्रकाशित किया है "बुकमार्ट पब्लिशर्स" ने , लिखा  है "श्री चरणदास सिद्धू जी" ने। नाटक नाटक लिखने वाले,खिलने वाले और नाटक पढने वालों को यह किताब पसंद आऐगी। 

1 comment:

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails