किसी को फसल के अच्छे दाम की तलाश,किसी को काम की तलाश,किसी को प्यार की तलाश, किसी को शांति की तलाश, किसी को खिलौनों की तलाश,किसी को कहानी की तलाश,किसी को प्रेमिका की तलाश, किसी को प्रेमी की तलाश,................ तलाश ही जीवन है
Monday, February 9, 2009
पत्र के बहाने से
पत्र के बहाने से
तुम्हारा
और बाबू जी का
दोनों पत्र एक साथ
पकड़ाया, डाकिया ने।
पहले बाबूजी...
एक बार बाँच कर
सिरहाने की जगह
उसके लिए माक़ूल पाया
तुम्हारा पत्र जेब में भरकर निकल आया
एक
बहुत छाँहवाली पेड़ के नीचे
जमकर बैठा,
एक नुकीली-सी चट्टान पर।
पेड़ की शाख़ें
तुम्हारी बाँहे बन गई
पत्तियाँ आँखे
हाँ... पीछे से तुम भी
झुक आओ पत्र पर...
कई बार पढ़ गया
इत्ता छोटा पत्र !
और एक बार फिर से
बहुत बार पढ़ने के लिए
पढ़ने लगा तुम्हारा पत्र
बहुत देर बाद
अनमना-सा वहाँ से उठा
और दूसरे पेड़ के नीचे जा बैठा
एक और छायादार पेड़
एक और चट्टान
तुम्हारी बाँहे, तुम्हारी आँखे
और तुम्हारी बातें
तुम्हारे साथ बैठकर
पढ़ता रहा तुम्हारा पत्र
बड़ी ममता से देखती रहीं तुम
मुझे पढ़ते हुए
राह चलते
मिलते रहे लोग
होती रहीं बातें
उन बातों के बीच
बार्-बार
हाथ देकर देख लेता जेब में
फिर निकालकर दूसरी जेब में रखता
और पत्र के ऊपर रख देता अपना हाथ
हाँ... साथ-साथ चल रही हो तुम
तुम्हें छू रहा हूँ मैं
पिता का पत्र सिरहाने टिकाकर
सो रहा
तुम्हारा पत्र, दुआ की तरह
चादर बनाकर ओढ़ ली
आओ... आओ न अब याद
तुम्हें सपने में पाना चाहता हूँ
(कम से कम!)
सोने-जागने के बीच पड़ा
जरा-सा बुदबुदाया
'पगली!'
और जोरों से हँस पड़ा
अंधेरे कमरे में
लाखों जुगनू जाग पड़े
सिटपिटाकर चुप हो गया
थपक-थपककर सुलाता रहा
जुगनुओं को और
तुम्हें आँखो ही आँखो में
लाड़ से डाँटता रहा
कि हँसाना मत
फिर धीरे-से उठा
बत्ती जलाया, और
तुम्हारा पत्र निकालकर पढ़ने लगा
दरअसल
यह याद नहीं कर पा रहा था
रोज़ समय पर खाने की बात
तुमने लिखा है
या बाबूजी ने?
-हाँ,
तुम्हीं ने लिखा है
तो बाबूजी ने क्या लिखा?
उनका पत्र निकालकर देखता हूँ-
ओ
उन्होंने तो रुपयों के लिए लिखा है
कि और ज़रुरत तो नहीं !
मैं मुस्कुराते हुए बत्ती बुझात हूँ
सोते-सोते उलाहना देता हूँ:
'बस, यही फ़िक्र रह गई
कि खाता कैसे हूँ!
जीता कैसे हूँ तुम्हारे बग़ैर
... क्यों नहीं पूछा?'
कुछ ही देर बाद
अंधेरे में आँखे गड़ाकर देखता हूँ
कोई देख तो नहीं रहा
कुछ नहीं सूझता
धीरे-से बत्ती जलाता हूँ
लगता है, तुम खड़ी थीं सिरहाने
खुद से ही कहता हूँ-
'कब तक यों ही खड़ी रहोगी
मैं आज सारी रात नहीं सोने वाला
इसी तरह कटती है हर रात।'
इस बार दोनों पत्र साथ ही उठाया
एक बात फिर याद नहीं कर पा रहा था
कि आने के लिए किसने लिखा है
कि 'देखने को मन करता है'
कई-कई बार छान मारा तुम्हारा पत्र
कहीं नहीं मिला
तो किसने लिखा ऐसा?
लिख ही कौन सकता है और?
हार कर
बाबूजी का पत्र उठाया
दूसरी ही पंक्ति थी-
"माँ बुला रही हैं
आ जाओ एक बार
तुम्हें देखने को मन करता है ।"
अजीब-सा अवसाद
छा जाता है मन पर
बुझा देता हूँ बत्ती
छुपा देता हूँ दोनों पत्र
तुमने क्यों नहीं लिखा आने को?
यही चाहती हो, कि नहीं आऊँ ?
अंधेरे में धीरे से कहता हूँ-
'अभी नहीं आऊँगा बाबूजी
छुट्टी नहीं है
ख़ूब जोरों पर है पढ़ाई।'
अंधेरा हँसता है मुझ पर
तकिए में मुँह गाड़ लेता हूँ
हिल रहा है पिंजर-पिंजर
रो रहा हूँ मैं
बँधा हुआ है गला
भर्रा रही है आवाज़
फिर भी चीख़ कर कहता हूँ -
'एक बार
तुम्हें देखने को मन करता है
आना चाहता हूँ मैं '
विपिन कुमार शर्मा
जेएनयू, नई दिल्ली
यह सुन्दर रचना "बया" के जून-नवम्बर 2008 के अंक में छपी थी। तब पढ़कर आनंद आ गया था। दो एक दिन पहले फिर से पढ़ी तो वही आनंद आया। सोचा चलो अपनी ब्लोग की दुनिया के साथियों को भी इस सुन्दर रचना से रुबरु करा दूँ। विपिन जी से अनुमति माँगी तो उन्होंने झटपट हाँ कह दी और वादा किया कि कुछ और अच्छी रचनाए दूँगा आपको। तो साथियों हो जाईए तैयार उनकी लिखी रचनाओं को पढ़ने के लिए।
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19 comments:
बहुत अच्छी और मन के भावों को लेकर लिखी हुई कविता को पढ़वाने का शुक्रिया ....सचमुच काबिले तारीफ़
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
वाकई कमाल की रचना है.. एक ही साँस में पूरी पढ़ गया... बहुत शुक्रिया इसे यहा बाँटने के लिए..
बेहतरीन रचना...बहुत मार्मिक और भावपूर्ण...
नीरज
बहूत ही मार्मिक, भावनाओं से भरी, एक काबिले तारीफ रचना ........अपने पर सोच कर देखा, लगा सच ही लिखा है.
susheel ji ,
aapne bahut hi badhiya kaam kiya hai , jo ye kavita padhwaayi hai .. bahut hi suljhe hue dhandh se kavi ne jeevan ki do raahon ke baaren me kaha hai .. meri badhai unko bhi aur aapko bhi
aapka
vijay
पेड़ की शाख़ें
तुम्हारी बाँहे बन गई
पत्तियाँ आँखे
हाँ... पीछे से तुम भी
झुक आओ पत्र पर....
***बहुत ही सुंदर कल्पना!
प्रस्तुति भी बेहद achchee है.उन्हें बधाई दिजीये और आप को शुक्रिया एक achchee कविता पढवाने हेतु.
भावों भरी यह कविता मानो बात कर रही है..बेहद संवेदनशील कवि हैं विपिन जी.
उन की यह रचना पढ़ कर थोडी देर के लिए कविता का एक द्रश्य सा बन गया.
मर्म स्पर्शी रचना .
सच में बहुत बेहतरीन रचना है इस को पढ़वाने का शुक्रिया
बहुत खूबसूरत...
दिल को छूने वाली...
इससे परिचय कराने के लिए शुक्रिया...
और विपिन जी को बधाई...
मीत
इस भावुक रचना के लिए बधाई स्वीकारें
---
गुलाबी कोंपलें
निशब्द हूँ दोस्त....क्या कहूँ ?
sushil ji
yeh kavita padhwane ke liye shukriya
bahut hi sundar kavita hai.........har bhav hai .........dorahe par khade man ko bahut hi sundar dhang se ukera hai vipin ji ne..........unhein badhayi dijiyega.
Aaj ek khaas darkhast leke aayee hun( blogpe to bohot kuchh padh liyaa, wo padhe binaa mai rehbhi nahee sakti)...! Aur aap jaise bloggers pe tippanee deneke qabil apneaapko nahee samajhtee...kshamaa prarthi hun iske liye...!
Maqsad hai, meree maalikaa " Duvidhaa" ke kamse kuchh antim charan padhen....apnee zindageeko maine benaqaab kiyaa hai....apne bachhon ki apraadhinee hun...khaas karke apnee beteeki...aur gar mere pathakon kaa faisala uskee or jhukegaa to krutaarth ho jaungee....mera maqsad safal ho jayegaa...
Hindi blog jagat ki sadaiv runee rahungee ke, ek maa ko apnee galtiyaan sweekaar, tatasth bhaavse, zindageekaa muaynaa karneka yahan mauqa mila...tahe dilse aapki sunwaeekee intezaarme hun...har faisala sar aankhon pe...
barson se sunwaayee hotee rahee hai...agalee taareekh miltee gayi aur mai hirasatme bandiwaan banee rahee....kamse kam ab shayad antar atmaa mukt ho....jism ho naa ho...
Bhole mun ki najuk rachna...! Bhot acchi lagi kacche pyar ki komal baten....!
bhavbheeni kavita...jnu ke din yaad dila gayi mujhe.padhwane ke liye shukriya.
बहुत खूबसूरत और लाजवाब रचना.
रामराम.
इस रचना के लिए विपिन जी का और आपका बहुत-बहुत धन्यवाद
एक बहुत भावुक ओर सुंदर कविता.
धन्यवाद
लम्बी किन्तु असरदार और प्रभाव कविता। बधाई।
अच्छी रचना की प्रस्तुति के लिये साधुवाद स्वीकारें छोक्कर जी...
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