Sunday, June 29, 2008

हरियाणवियों के हंसी के ठट्ठे

कल मै साहित्य अकादेमी की लाइब्रेरी बुक वापिस करने गया तो एक मैगजीन हाथ लगी "म्हारा हरयाणा". हरियाणा साहित्य अकादमी की। क्योंकि मैं खुद भी हरियाणा से हूँ। पर परवरिश दिल्ली में होने की वजह अपनी हरियाणा की भाषा नही बोल पाया। पर जब भी कोई हरियाणा में बात करता हुआ मिल जाता है तो बडे चाव से सुनता हूँ । इस भाषा का रस अलग ही है। भाषा कोई भी हो आनंद देती है। कुछ दिनो पहले एक गाना सुना "बिदेसिया " शायद भोजपुरी भाषा मे था। दिल को छू गया। तो मन किया आपको भी हरियाणा भाषा का स्वाद दिलाऊ। इसलिए ये पोस्ट कर दी। मैने आनंद लिया आप भी लिजिए। और बताइये कि कैसा स्वाद आया।

नोट- नीचे का भाग "म्हारा हरयाणा " नवम्बर 2007 मैगजीन से लिया गया है जोकि " श्री शमीम शर्मा " जी ने लिखा है। हरियाणा साहित्य अकादमी और शमीम शर्मा जी का धन्यवाद।

एक बर की बात हैं अक ताऊ सुरजा हरियाणा रोडवेज की बस मैं बैठ्या कित जावै था अर बस खचाखच न्यूं भर री थी जाणूं कोठे मैं तूड़ी । ताऊ पिछले दरवाजे की सीढ़िया मैं खड्या होग्या। थोड़ी हाण मैं कंड्क्टर नैं देख्या अक कोय बुड्ढा मोटर कै कती बाहर लटकै है। उसनैं रूक्का मारया - ओ ताऊ माड़ा सा भीतर नैं हो ले। ताऊ किमें नी वोल्या अर न्यूं का न्यूं खड्या रहया। कंड्क्टर नैं थीडी बार मैं फेर रूक्का मारया- आं रैं सुणता कोनीं के ? हो ले नैं भीतर नैं। ताऊ ट्स तैं मस नीं होया। कंडकटर नैं कसूता छोह आग्या तो फेर बोल्या- अरै ओ बूढले मरले भीतर नैं। पड़ ज्यैगा, मर ज्यैगा। या सुण कैं ताऊ कैं चिरमिरी सी उठी अर बोल्या - ओ कसाई । मर ज्यांगा तो तेरी के मां रांड हो ज्यैगी?


एक बर की बात हैं बस मैं पांव टेकण की भी जगहां नही थी। खडी सवारियाँ के धक्के लाग्गैं थे अर इस रेलपेल मैं नत्थू का हाथ धोंरे खडी रामप्यारी कै लाग ग्या। वा अंग्रजी मैं गालियां बकण लाग्गी। नत्थू गुस्सा करता होया बोल्या - घणी राजकुमारी है तो आग्गै नैं सरक ले। रामप्यारी बोल्ली - तुम्हें बोलने की भी तमीज नहीं है? नत्थू दीददे पाड़ते होये बोल्या - के किमें गलत कह दिया, तैं बता दे के कहणा है? राम प्यारी उसतैं समझाते होये बोल्ली - यूं नही कह सकते कि दीदी जरा आगे हो जाओ। थोड़ी बेर मैं फेर धक्का लाग्या तो नत्थू बोल्या - दीदी जरा सी आगे नैं हो ले। एक मोड्डा नत्थू की धोंरे खड्या था। कंडक्टर उसतैं भी बोल्या - अरै ओ जीज्जा तैं भी माड़ा सा आग्गै नैं हो ले।

एक बर की बात है अक नत्थू बस मैं चढ्या पर बैठण की किते जगहां नही मिली । कई देर तो खड्या रहया पर कती बेहाल हो लिया। अचानक देख्या अक एक सीट पै एक लुगाई डेढ़ -दो साल के टाब्बर नैं धोंरे आली सीट पै बिटाकै चैन तैं बैठी थी। नत्थू नै सोच्ची ईब उसनैं जगहां मिल ज्यैगी । वो उस धोंरे जाकै कड़क सी आवाज मैं बोल्या - इस एक बिलात के सौदे नैं गोड्डा मैं गेर ले नैं। इतणा था अर वा लुगाई ताव मैं आगी अर दनदनाती होई बोल्ली - तैं ओड़ बड्डा माणस अर तन्नैं तमीज नहीं है बात करण की भी। एक बिलात के सौदे का के मतलब? धोंरे बैठ्या सुरजा बोल्या - बेब्बे। इसनैं बोल्लण का लक्खण कोनीं, यो अरडू है, बैठ लेण दे अर या तेरी महरौली की लाट मन्नैं पकड़ा दे, मैं ले ल्यूंगा इसनैं अपणे गोड्यां मैं।

एक बर की बात है अक नत्थू नैं बस मैं बैठते ही बीड़ी सुलगा ली अर आराम तैं पीण लाग्या। धोंरे बैठ्या सुरजा बोल्या - भाई क्यूं नास्सां मैं धुआं बगावै है, बंद करदे इसनैं। ताऊ नै टेढी सी नजर करकै न्यू देख्या जाणूं सुण्या ए नहीं। ईब भाई नैं फेर कही - रै इस बीड़ी नैं तलै जा कै फूंक ले। नत्थू बोल्या - भाई तलै उतरण मैं गोड्यां का जोर लगै है, मैं तो पीऊंगा, पीसे लागरे हैं। सुरजा बोल्या- यो देख सामनैं लिख राख्या बीड़ी सिगरेट पीना मना है। नत्थू नैं छोह आग्या अर बोल्या - तूं के तेल का पीप्पा है जो मेरी बीड़ी तैं सुलग ज्यैगा।

जब एक कंडक्टर ने बकाया राशि देते हुए एक गला हुआ सा दस का नोट किसी सवारी को दिया तो सवारी बोली - ये नोट बदल दो। उसकी बात सुनकर कंडक्टर ने ताना - क्यूं इसकी के आंख दुखणी आ री है।

Saturday, June 28, 2008

जीवन क्या है?

जीवन


जीवन क्या हैं?

मैं अक्सर सोचता हूँ

क्या?

जीवन एक पाठशाला है

इसका एक हेड्मास्टर भी होता है

पाठशाला में हम

हंसते है रोते हैं

खेलते है गाते है

हर कक्षा में नये नये पाठ पढ़ते जाते है

पाठशाला हमारा इम्तिहान भी लेता है

हम पास होते है फेल होते है

और कभी हम कम्पार्टमेंट भी होते है

यहाँ हम साथी भी बनाते है दुश्मन भी बनाते है

किसी ने अगर प्यार की घंटी बजा दी

तब उसे अपना जीवन साथी बनाते है

पाठशाला के कुछ कयादे नियम भी होते है

कभी उन्हें तोड़ हम खुश होते है

कभी उन्हें तोड़ हम पशताते हैं

फिर एक दिन ऐसा भी आता है

जब हम ना चाहते हुए यह स्कूल छोड़ जाते है

Thursday, June 26, 2008

वह कौन हैं?

वह कौन 


वह नही पहनती सूट-सलवार
वह पहनती नीली जिंस जिस पर सफेद शर्ट।

वह नहीं चलती आँख झुका के
वह चलती सर उठा के।

वह नही माँगती चीजें सँवरने के लिए
वह माँगती एक हेयर बैंड बालों में लगाने के लिए।

वह नही बनाती सिर्फ सहेली
वह बनाती दोस्त भी।

वह नही बतयाती धीरे-धीरे
वह बतयाती खिलखिला के।

वह नही जाती फिल्में देखने
वह जाती नाटक देखने।

वह नही लिखती प्रेम भरी कविता
वह लिखती अपनी कहानी।

वह घर नहीं लौटती सूरज छीपने के पहले
वह घर लौटती चाँद निकलने के बाद।

वह कौन है? एक बोला
वह तेज है? दूसरा बोला
वह चालू है? तीसरा बोला
वह बदचलन हैं? चौथा बोला
वह अंवा-गार्द बिंदास हैं? पाँचवा बोला
वह एक इंसान हैं। छठा बोला

Tuesday, June 17, 2008

मेरी प्रेमिका का नाम बरखा है


बरखा


रिम झिम बरसती बूंदे आँखो से इशारा करती है
अपने पास आने को बार बार ये कहती है
अपने आस पास से डरी सहमी मेरी आँखें किसी दूजे को देखने का बहाना करती है
फिर वह झम झमाझम बरस हाथ से इशारा करती है
पास आता है या मचा दूँ शोर बिजली सी कड़क कर वह बोलती है
आस पास ताकता डरता मैं पहुँचा उसके पास
उससे मिलते ही शरीर में एक फुरहरी सी उठती हैं
जैसे जब कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के होठों पर अपने होठ धर देती हैं
वह झट अपने मुँह के पट खोल प्यार से बोलती हैं
चल फिर से बचपन को ताज़ा करते है
अपनी अपनी उम्र को आधा करते है
तू साईकिल के टायर के गाड़ी बना, मुझे इंडिया गेट घुमा कर ला
मैं कागज़ की कश्ती बना, तुझे यमुना की सैर कराऊँ
तू मेढ़क की टर टर सुनता जा
मैं साँप की छतरी ढूढ़ती जाऊँ
तू जामुन के पेड़ पर चढ़ टहनियाँ हिलाता जा
मैं नीचे खड़ी अपनी चुनरी में जामुन इकट्ठे करती जाऊँ

छोड़ अब ये दुनिया दारी चल यार ऐसा करते है

तू धरती बन जा

मैं उस पर गिरती जाँऊ


नोट-यह फोटो www.earthalbum.com से है उनका शुक्रिया।

Thursday, June 12, 2008

छोटी उम्र के बड़े बच्चे


गरीब बच्चे

झुग्गी-झोपिड़यो के बच्चे छोटी सी उम्र में बड़े हो जाते है
दोड़ती भागती सड़को पर जल्दी ही कमाने लग जाते है।
कोई ज्ञान बढाता,कोई प्यास बुझाता, कोई फूलों से महका जाता
ग्राहक हाथ लगते ही चेहरा मोनालिसा सा खिल जाता।
कभी कभी ग्राहक पकड़ने की चाह में आपस मे ही भिड़ जाते
बस दो चार पुरानी गाली देकर चंद मिनटों मे ही फिर से दोस्त हो जाते।
जब कभी आँखो में नींद के बादल उमड़ आते
बना हाथों को तकिया वही सड़क किनारे झट से सो जाते।
गर्मी हो, सर्दी हो या हो फिर बरसात
इनके तन के कपड़े सदा एक ही से नजर आते।
जब कभी कोई अपने रोब में इनको झिड़क देता
तब ये फिल्मी हीरो की तरह मुकाबला करने को तैयार हो जाते।
ग्राहक की बस एक आवाज़ पर
दोड़ती गाड़ियों के बीच से बेधड़क सड़क पार कर जाते।
शाम होते ये अपनी जेबो से दिन की कमाई निकालते
किसी के हाथ चंद सिक्के और किसी के हाथ रुपये आते।

साभार- फोटो www.earthalbum.com से है।

Thursday, June 5, 2008

बुल्लेशाह की याद

बुल्लेशाह रह रह कर याद क्यों आता है?



माटी कुदम करेंदी

माटी कुदम करेंदी यार
वाह-वाह माटी दी गुलज़ार।
माटी घोडा, माटी जोडा,
माटी दा असवार।
माटी माटी नूं दौडावे,
माटी दा खडकार।
माटी माटी नूं मारन लग्गी,
माटी दे हथियार।
जिस माटी पर बहुती माटी,
सो माटी हंकार।
माटी बाग़ बग़ीचा माटी,
माटी दी गुलज़ार।
माटी माटी नूं वेखण आई,
माटी दी ए बहार।
हस खेड फिर माटी होवै,
सौंदी पाउं पसार।
बुल्ल्हा एह बुझारत बुज्झें,
तां लाह सिरों भुईं मार।


हिंदी में इसका अर्थ


माटी की उछल-कूद


माटी उछल-कूद रही है मित्र
इस माटी की रौनक़ भी क्या खूब है।
माटी का घोडा है, उस पर माटी का ही झोल है
और माटी का ही सवार है।
माटी को माटी ही दोडा रही है।
माटी का ही कोडा है
और उसकी चटाख आवाज़ भी माटी की है।
माटी माटी को पीट रही है।
उसके हथियार भी माटी के ही हैं।
जिस माटी के पास कुछ अधिक ही माटी है,
उसे व्यर्थ का अहंकार हो जाता है।
यह बाग़-बग़ीचा भी माटी का है,
फूलों की क्यारी भी माटी की है।
माटी ही माटी को देखने आई है,
यह सारी रौनक़ माटी ही ही है।
संसार के भौतिक आनन्द लूटकर (मनुष्य) पुन: माटी हो जाता है।
और पांव पसारकर म्रत्यु की गोद में सो जाता है।
बुल्लेशाह कहता है कि इस पहेली को समझना चाहते हो,
तो सारा बोझ सिर से उतारकर धरती पर पटक दो।




यह काफ़िया हिंद पाकेट की किताब बुल्लेशाह से है। इस किताब को प्रस्तुत किया है डा. हरभजन सिंह और डा. शुएब नदवी जी ने।

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