Friday, April 15, 2011

महाभारत का अरावनी रंग

भारत की परंपराओं, उसके साहित्य और संस्कृति का चित्रण जब भी मंचित होता है तो लगता है जैसे पूरा भारत सिमट कर सामने आ खड़ा हुआ हो । हम उसके रंग में सराबोर होकर झूमने लगते हैं, और अनुभव करते हैं कि भिन्न भिन्न संस्कृतियों के इस महान देश में जन्म लेना कितना सौभाग्यशाली होता है । पिछले दिनों जब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में मेरा जाना हुआ तो अपने देश की अद्धुत छटा बिखेरती हुई उस एक विशेष कला का प्रत्यक्षदर्शी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो महाभारत की कथा के ढेरों प्रसंगों को समेटे हुए थी । जिन कथाओं से हमारी नई पीढ़ी लगभग अनभिज्ञ हैं उसे जानने और समझने का मौका तो प्राप्त हुआ ही साथ ही लोगों की चहल पहल से उस पूरे परिसर के उत्सव जैसे माहौल ने मुझे पूरी तरह रोमांचित कर दिया । कई राज्य के संगठन इसमें हिस्सा ले रहे थे और उनको उपलब्ध कराई गई जगहों के आंगनों में महाभारत की परम्पराओं का सुन्दर चित्रण का रंग चारों तरफ बिखरा हुआ था, जो दिल को बहुत भा रहा था।

प्रभा यादव अपने साथियों के साथ चमकती दमकती साड़ी में अपने वाद्य यंत्र को एक हाथ में लिए महाभारत की कथा का एक प्रसंग सुना रही थी, बिल्कुल ठीक इसके दाएं सामने मैदान में सोलन शिमला, हिमाचल प्रदेश वाले बड़े बड़े सफेद चमड़े के जूते और यु़द्ध की पोशाक पहने धनुश बाण से आपस में दो टोली साठी कौरव और पाशी पांडव बनाए पांडवो और कौरवों की भांति रण में जूझ रहे थे, और घुटनों के नीचे दे दनादन तीर मार रहे थे, इसे ठोड़ा या बिसू युद्ध कला कहा जाता है । ठीक इसके पीछे राजस्थान वाले सफेद कुर्ता, धोती और सिर पर साफा पहने ढोल नगाड़ो की धुनों पर अग्नि नृत्य कर रहे थे, वहीं कुछ दूरी पर आंध्रा वाले एक मंच पर द्रोपदी अम्मन उत्सव को मंचित कर रहे थे, इन्हीं के बीच भीम की रसोई की ओर से आने वाली भोजन की महक ने लोगों को अपनी ओर खींच लिया था, कोई चूरमा बाटी खा रहा था, कोई कचोड़ी का आनंद ले रहा था और कोई कुल्फी का मजा ले रहा था । जिधर देखे उधर ही लोग ही लोग नजर आ रहे थे, क्या बच्चे क्या बूढ़े सब के सब उत्साह में डूबे इस नजारे को चार चांद लगा रहे थे । वही दूसरी ओर इंदिरा कला केंद्र में वर्षो से खड़े वृ़क्ष भी मानों अपने देश की इस अलौकिक पंरपराओं के रंग में डूबे हुए थे, वे सब रंग बिरंगे कपड़ो से ढंके फब रहे थे, और बिजली की बल्बों की पीली रोशनी में ऐसे चमक रहे थे मानो इस पूरे आलम का असली आनंद वे ही उठा रहे हों । रास्ते के किनारों पर लगे राज्यों के प्राकृतिक सौंदर्य वाले बड़े बड़े साईन बोर्ड लोगों को अपनी ओर आकर्शित कर रहे थे, जहां पर खड़े होकर वो लोग इस दृश्य को अपने कैमरों में कैद करने का अवसर नहीं गंवा रहे थे ।

मै इन सब को अपने दिलोदिमाग में रचा-बसा कर अब अरावनियों के आरावन उत्सव का आनंद लेने जा पहुंचा था, जहां एक विशालकाय पेड़ के चारों तरफ लाल, नीले, हरे रंग के कागजों की झालर लगी हुई थी और पेड़ के नीचे बड़ी बड़ी मूछों, चमकती आंखो, कानों में बालियां डाले, माथे पर वैष्णवी तिलक लगाए आरावन देवता की एक मूर्ति सजी हुई रखी थी, जिसके आगे एक दीपक प्रजजवलित था और पेड़ के आसपास चकौर आंगन को लीप कर उसके बीचों बीच सारा, श्वेता, सालिनी, और मेघा मिलकर रंगोली से एक बड़ा सतरंगी फूल बना रही थी । बगल ही में कुछ किन्नर पारम्पारिक कपड़े साड़ी और आधुनिकता की पहचान जींस पहने तमिल भाशा में प्यारे प्यारे गीत गा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ प्रिया मिटटी के घड़ों पर हल्दी लगा रही थी । मुझे बताया गया कि बाद में इन घड़ों में मीठे चावलों को पकाया जाऐगा और आरावन देवता को अर्पित किया जाऐगा । फिर इस प्रसाद को सबसे पहले अपने गुरू को दिया जाऐगा और बाद में सभी को बांट दिया जाऐगा । मेरे मन में जिज्ञासा थी कि आखिर ये आरावन उत्सव है क्या? क्योंकि इतना तो मैं अवश्य जान चुका था कि यह हमारे महाभारत कालीन किसी प्रसंग का हिस्सा है किंतु एक ऐसा हिस्सा है जिसे मुझ जैसे कई लोग नहीं जानते हैं । लिहाजा इस उत्सव के माध्यम से मैं भी उस काल के रंग में डूब जाना चाहता था। और उत्सव के जरिए अपने ऐतिहासिक ग्रंथ के उस विशेष हिस्से से भी परिचित हो जाना चाहता था । मैने जो कुछ भी जाना, समझा उसने मुझे रोमांचित किए बगैर नहीं छोड़ा।

महाभारत की कथा के एक प्रसंग के अनुसार पांडवों को जीत की खातिर पाड़वों को काली माता के मंदिर में एक बलि देनी थी पर उस बलि के लिए कोई भी योदधा आगे नही आया और श्रीकृष्ण उलझन में फंस गए पर तब अर्जुन और नागा राजकुमारी उलुपी के पुत्र आरावन सामने आए और बलि देने को तैयार हुए । किंतु उन्होंने बलि देने के साथ ही अपनी आखिरी इच्छा भी बताई कि वह शादीशुदा होकर मरना चाहता है और पत्नी सुख प्राप्त करना चाहता है । परंतु कोई भी राजा अपनी लड़की की शादी अरावान से करने को तैयार नहीं हुआ । क्योंकि अगले ही दिन उसे विधवा हो जाना पड़ता । कहा जाता है तब श्रीकृष्ण ने मोहनी नामक स्त्री का रूप धारण किया और एक रात अरावन के साथ बिताई । और अगले ही दिन अरावन का खुद को बलि देने के कारण श्रीकृष्ण विधवा हो जाना पड़ा । अरावनी लोग इसी कारण श्रीकृष्ण को अपना पहला पूर्वज मानते है, क्योंकि श्रीकृष्ण पहले पुरूष थे और बाद में स्त्री बने। और अरावन को अपना देवता ।

अरावन को संस्कृत में इरावन कहा जाता है साथ ही इसे इरावत के नाम से भी जाना जाता है । तमिलनाडू के विल्लुपुरम जिले में एक छोटा सा गांव है कूवगम, जहां आरावन का मंदिर है । इस गांव में तमिल के नव वर्ष की पहली पूर्णिमा को हजारों किन्नर और अन्य देखने वाले हजारो लोग हर साल 18 दिन के इस उत्सव के लिए इकटठे होते हैं । पहले 15 दिन मधुर गीतों पर खूब नाच गाना होता है। किन्नर गोल घेरे बनाकर नाचते गाते है, बीच बीच में ताली बजाते है । और हंसी खुशी शादी की तैयारी करते हैं। चारों तरफ घंटियों की आवाज, उत्साही लोगों की आवाजें गूंज रही होती हैं । चारों तरफ के वातावरण को कपूर और चमेली के फूलों की खूशबू महकाती है । 17 वे दिन पुरोहित दवारा विशेष पूजा होती है और अरावन देवता को नारियल चढाया जाता है । उसके बाद आरावन देवता के सामने मंदिर के पुराहित के दवारा किन्नरों के गले में मंगलसूत्र पहनाया जाता है । जिसे थाली कहा जाता है । फिर अरावन मंदिर में अरावन की मूर्ति से शादी रचाते है । अतिंम दिन यानि 18 वे दिन सारे कूवगम गांव में अरावन की प्रतिमा को घूमाया जाता है और फिर उसे तोड़ दिया जाता है । उसके बाद दुल्हन बने किन्नर अपना मंगलसूत्र तोड़ देते है साथ ही चेहरे पर किए सारे श्रृंगार को भी मिटा देते हैं । और सफेद कपड़े पहन लेते है और जोर जोर से छाती पीटते है और खूब रोते है, जिसे देखकर वहां मौजूद लोगों की आंखे भी नम हो जाती है और उसके बाद आरावन उत्सव खत्म हो जाता है । और अगले साल की पहली पूर्णिमा पर फिर से मिलने का वादा करके लोगों का अपने अपने घर को जाने कार्यक्रम शुरू हो जाता है ।

नोट्- आप वाकई  अरावनी  रंग से रुबरु  होना चाहते है तो नीचे दिए लिंक पर जाकर फोटो  भी  देख  सकते हैं। मुझे पूरा  विशवास है कि  आपको  फोटो  पसंद  आऐगी। और हाँ ये  पोस्ट लिखी तो काफी दिनों से  पडी थी बस कुछ निजी समस्याओं के कारण पोस्ट  नहीं हो सकी।

फोटो देखने के लिए नीचे क्लीक करें।

http://boltee-images.blogspot.com/

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