Saturday, November 8, 2025

आप जिसे संयोग या इत्तेफ़ाक़ कहते हैं, हम उसे भगवान कहते हैं...

आपको किसी दिन सुबह जल्दी उठना होता है तो आप मोबाइल में अलार्म लगाते हैं. आप अलार्म लगा देते हैं. लेकिन आपकी आंखें अलार्म से पहले जाग जाती है. आपके साथ ऐसा होता है या नहीं ये मुझे नहीं पता लेकिन मेरे साथ अक्सर होता है. अपने को एम्स जाना था. सुबह 5.30 का अलार्म लगाया था. 5.15 बजे ही आंखें खुल गईं. 6.40 पर घर से निकला. 7.15 बजे एम्स के एक नंबर गेट पर पहुंच गया. राजकुमारी OPD अब दूर बन गई है. जल्दी से शेयरिंग वाले ऑटो में बैठा. वो खाली था. मन ही मन बोला कि पहले से देर हो गई है. और सवारी के इंतजार में और देर हो जाएगी. खैर ऑटोवाले ने एक दो बार आवाज तो लगाईं कि राजकुमारी OPD-राजकुमारी OPD. लेकिन वे जल्द ही एक ही सवारी बैठाकर चल दिए. लेकिन बीच में ऑटो रोककर पैदल चलते मरीजों को देखकर एक दो बार आवाज लगाईं राजकुमारी OPD-राजकुमारी OPD. इसी बीच में हम बोल दिए कि यहां से कौन जाएगा राजकुमारी OPD. खैर कोई नहीं चढ़ा. पीछे हम दो लोग ही बैठे रहे. ऑटोवाले कुछ दूर चले ही थे कि दूर से ही एक बुजुर्ग दंपति को देखकर बोले,' चलो फ्री में ही सवारी बैठा लेता हूं.' मैं बोला, 'हां बैठा लो.' ऑटोवाले ऑटो रोककर बोले,' आ जाओ बैठ जाओ. राजकुमारी OPD जाओगे ना.' वे बुजुर्ग पति-पत्नी मना करने लगे. या तो उनके पास पैसे नहीं थे. या फिर पैसे बचाना चाहते होंगे. लेकिन जब मैंने कहा कि ये फ्री में ले जाएंगे तो फटाफट से तैयार हो गए. मैं पीछे से उतरकर आगे बैठ गया जिससे वे दोनों पीछे बैठ सकें. जैसे ही राजकुमारी OPD आई मैं ऑटोवाले से पूछ बैठा, यहीं उतारेंगे कि गेट पर उतारेंगे? ' 'जब पैसे लिए हैं तो गेट पर ही उतारेंगे' ऑटोवाले बोले. खैर उन्होंने गेट के पास ही उतारा. हम झट से उतरे और फट से जेब से एक 50 रुपए का नोट निकालकर दे दिया. हमारा 20 रुपए किराया बना था. वे बैलेंस पैसे देने लगे तो हम बोले रहने दीजिए. समझिए ये पैसे फ्री सवारी वालों ने दिए हैं. वे बहुत खुश हुए. फिर ना जाने किन-किन शब्दों में दुआएं देने लगे. और हम भागकर लाइन में लग गए. 

इस बार पहली बार की अपेक्षा लाइन छोटी थी. थोड़ी देर में ही अपनी OPD में पहुंच गए. टाइम 7.45 हो चुका था. अपनी OPD में अपना नंबर छठा था. 8 बजे के करीब पीली जैकेट पहने पेशेंट केयर कोऑर्डिनेटर आए. जिनका काम मरीज को टोकन नंबर देना होता है. वे मरीज को कहते हैं कि अपने मोबाइल से सामने लगाए गए बार कोड को स्कैन करें. और फिर वे प्रोसेस पूरा करके टोकन नंबर ले लें. और जो मरीज ऐसा नहीं कर पाते हैं. उनकी वे सहायता करते हैं. मैं फिर से कह रहा हूं. मुझे ये टोकन नंबर का सिस्टम नहीं समझ आ रहा. इस टोकन नंबर से क्या होता है? अगर स्कैन करके टोकन नंबर दे रहे हैं तो फिर लाइन क्यों लगवा रहे हैं. या फिर जब लाइन लगवा रहे हैं तो टोकन नंबर क्यों दे रहे हैं. बहुत मरीजों ये सब करना नहीं आता. वे बेचारे परेशान होते हैं. खैर अपने पास स्मार्ट फोन नहीं होता. हम तो कह देते हैं कि फोन नहीं है. वे फिर हमारी अपॉइंटमेंट वाली पर्ची पर कुछ लिख देते हैं. क्या लिख देते ये वे ही जाने.खैर कार्ड पर स्टीकर लगवाने के बाद डॉक्टर के कमरे के बाहर हमारा पहला नंबर था. आज पहला नंबर पाकर हम खुश थे. कार्ड मेज पर रखकर सामने की कुर्सी पर बैठ गए. यह देखते रहे कि कहीं हमारा कार्ड कोई पीछे ना कर दे. जब भीड़ आई तो कार्ड को सही नंबर से लगाने का जिम्मा भी ले लिया. तीन डॉक्टर के तीन कमरे थे. उन्हीं कमरों के तीन जगह कार्ड जमा हो रहे थे. उन्हें संभालने के लिय कोई भी सरकारी कर्मचारी नहीं थी. लेकिन जब 9 बजे के पास एक लेडी सरकारी कर्मचारी आईं तो हम अपने सीट पर बैठकर डॉक्टर का इंतजार करने लगे. इंतजार लंबा होने लगा. अगल-बगल कमरे के डॉक्टर आ गए. बस हमारे ही डॉक्टर नहीं आए. खैर लंबे इंतजार के बाद पता लगा कि आज हमारे डॉक्टर नहीं आएंगे. दिमाग खराब हो गया. हमारे कार्ड दूसरे डॉक्टर के रूम में ट्रांसफर कर दिए. जहां पहले से काफी भीड़ थी. समझ नहीं आया. जिस डॉक्टर के पास 20 कार्ड के मरीज हैं. वहां कार्ड ना भेजकर, वहां कार्ड भेज दिए जहां डॉक्टर के पास करीब 50 कार्ड हैं. सच में गुस्सा आया. लेकिन हम गुस्सा पी गए. और अपना कार्ड वहां से वापिस ले आए. 


11 बजे वहां से OPD कार्ड लेकर फ़ारिग हुए तो सोचा जब जल्दी खाली हो गए हैं तो क्यों ना सर्जरी की अपॉइंटमेंट के बारे में पता करके चले. घर से ऑनलाइन अपॉइंटमेंट लेने की 10 दिनों से कोशिशें जारी थीं लेकिन अपॉइंटमेंट नहीं मिल रहा था. 'स्लॉट नोट ओपन एट' बार-बार लिखा आ रहा था. रात को 12 बजे भी और फिर एक बार 3 बजे रात को भी कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी. खैर जल्दी से 'सी-विंग' पहुंचे. 'सी-विंग' वो जगह से जहां अलग-अलग OPD के अपॉइंटमेंट लिए जा सकते हैं. वहां देखा भीड़ ना के बराबर थी. सर्जरी का पुराना कार्ड काउंटर पर दिया. दिल की धड़कने बढ़ने लगी क्योंकि सर्जरी का अपॉइंटमेंट बेहद जरुरी था. तब खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब सामने खिड़की से आवाज आई कि 13 का अपॉइंटमेंट दे दूं. हम दिल को थामे फ़टाफ़ट से बोले 13 नवंबर ना. वो बोले हां. फिर हम अपॉइंटमेंट की पर्ची लेकर खुशी से झूम उठे. और झूमते हुए  'सी-विंग' से बाहर निकले तो हमें सुबह उस ऑटोवाले की दी गईं दुआएं याद आने लगीं. ये उन्हीं दुआओं का असर था कि हमें सर्जरी की OPD का अपॉइंटमेंट मिल गया. हम मन ही मन नीली छतरी वाले और उस ऑटोवाले को शुक्रिया कहकर घर की ओर निकल पड़े. वो कहते है ना 'जिसे आप संयोग या इत्तेफ़ाक़ कहते हैं, हम उसे भगवान कहते हैं.'


Wednesday, October 8, 2025

भाई साहब एक साल हो गए एम्स आते हुए. आजतक इतनी लंबी लाइन नहीं देखी...

मैं साल-छह महीने एम्स ना जाऊं तो वो खुद ही बुला लेता है. पता नहीं उसका मन नहीं लगता है या फिर मेरा. 20 साल का याराना जो ठहरा हमारा. ऐसा ही याराना पहले RML हॉस्पिटल के साथ होता था. खैर सुबह घर से 6.30 बजे निकले. 7.30 बजे एम्स. उधर देखे तो सब सुनसान . एकदम दिल घक्क से किया. कहीं आज छुट्टी तो नहीं. खैर पूछताछ के लिए आगे ही बढ़े थे कि एक लाइन दिखी. दुनिया लाइन से घबराती है. मैं लाइन देख आज खुश हो गया. लाइन का आख़िरी सिरा पकड़ में आ गया. और आगे का मुंह नजर भी आ गया. परंतु लोग चलते ही जाएं, लेकिन लाइन खत्म होने का नाम ही ना ले. वहीं पीछे खड़ा इंसान मेरे हौसले को खत्म करने पर उतारू था. भाई साहब एक साल हो गए यहां आते हुए. आजतक इतनी लंबी लाइन नहीं देखी. मैं अपना हौसला बनाने के लिए हंस पड़ा. और बोला,' भाई साहब हिम्मत रखो. अंदर जाकर लोग बंट जाएंगे. कोई किसी OPD में जाएगा और कोई किसी OPD में. लेकिन वो मेरी बात पर हां तो कर गए लेकिन जाते-जाते वही बात कहने से नहीं माने कि 'भाई साहब एक साल हो गए यहां आते हुए. आजतक इतनी लंबी लाइन नहीं देखी.'

खैर आधे घंटा या 35 मिनट में हम अपनी ENT OPD में पहुंचे. वहां भी लाइन लेकिन इतनी नहीं. होंगे करीब 60 एक मरीज. अपना हौसला बना हुआ था. अपना शुरू से मानना रहा है कि सरकारी अस्पताल में आए हो तो समझो 2 तो बजेंगे ही. हमारा हौसला उस आदमी के टूटे से भी नहीं टूटा था. कुछ देर में एक पीली जैकेट पहने एक आदमी पास आए और बोले कि मोबाइल से स्कैन करके टोकन ले लो. हम बोले, 'सर जी हम स्मार्ट फोन नहीं रखते. आप ही स्कैन करके टोकन नंबर दे दो.' उन्होंने टोकन नंबर तो नहीं दिया लेकिन कार्ड पर कुछ लिख दिया. लेकिन मुझे आज तक ये समझ नहीं आया कि इस टोकन नंबर होता किसलिए है. टोकन नंबर लो या ना लो. काउंटर से जाकर ही सबको कार्ड बनवाना होता है. ना ही आपके नंबर पर कुछ इसका फर्क पड़ता है. पता नहीं एम्स वालों ने ये सिस्टम क्यों बना रखा है. होगा कुछ. आपां तो लाइन में लगकर काउंटर पर जाकर कार्ड बनवाते हैं. और बन जाता है.
और फिर 8.35-40 तक कार्ड बन चुका था. 9.30 बजे के बाद डॉक्टर आए. शायद पांचवा नंबर था हमारा. डॉक्टर ने देखा और बोलीं कि एक महीने की दवा लिख दी है. सीटी करवाके एक महीने बाद दिखाना है. सीटी की तारीख लेने काउंटर पर गए तो काउंटर वाले बोले कि '15 जनवरी से पहले की डेट नहीं है. 15 जनवरी की चाहिए तो बोलिए.'
करीब तीन महीने बाद सीटी की डेट. सोचिए-सोचिए. एक बार जरुर सोचिए. सरकार के भक्त ना बनिए. इसलिए कहता हूं सरकारों से मांग कीजिए कि वो स्वस्थ सेवाओं पर ध्यान दे. खैर 15 जनवरी के डेट ले ली. हम तो जैसे तैसे कहीं बाहर से सीटी करवाके अगले महीने दिखा देंगे. लेकिन जो बाहर यानी प्राइवेट सीटी नहीं करवा सकते उनका क्या! सोचना चाहिए सरकारों को भी. और इस तरह 10.30 बजे फ़ारिग. 3 घंटे में एम्स में डॉक्टर को दिखाकर OPD से बाहर. सोचना एक बार. कहीं अच्छे प्राइवेट हॉस्पिटल में जाएँ तो वहां भी लगभग इतना टाइम लग जाता है. वैसे ऐसे एम्स हर राज्य में होने चाहिए. ध्यान दीजिए मेरे शब्दों पर 'ऐसे ही एम्स'. एक शख्स राजस्थान के मिले थे. हमने पूछा कि आपके राज्य में एम्स नहीं है. वो बोले कि वो बस नाम का एम्स हैं. ऐसा एम्स नहीं जैसा ये है. समझ रहे हैं ना मैं क्या कहना चाह रहा हूं...
नोट- दरअसल मेरी नाक में दोनों तरफ मांस बढ़ गया है. करीब दो एक साल से नाक से सांस लेने में दिक्कत हो रही थी. फिर भी मैं ऑपरेशन से बच रहा था लेकिन अब दिक्कत कुछ ज्यादा ही होने लगी तो एम्स की याद हो आई 😍 देखते हैं एम्स पहले की तरह साथ देता है या फिर ऑपरेशन के लिए थोड़ा टाइम लगाता है. पिछली बार 2016 के पहले ही दिन गए थे. और पहले ही दिन फरवरी 3 की ऑपरेशन की डेट मिल गई थी और तीन फरवरी को ऑपरेशन हो भी गया था. देखते हैं अबकी बार क्या होता है!

Friday, October 3, 2025

सुनो... हां आई...

 6.

सुनो

आज फिर आई थीं तुम 

सपने में 

जैसे हर बार आती हो.


लेकिन आज 

तुम हिम्मत का दुपट्टा ओढ़े थीं 

मैं डर का कुर्ता पहने था.


तुम मेरे नजदीक आ-आकर
बातें किए जा रही थीं 

बार-बार 

मेरा हाथ पकड़े जा रही थीं 

मैं दुनिया से डरा-सहमा 

बार-बार ही 

अपना हाथ छुड़ाए जा रहा था 

तुमसे फासले बनाए जा रहा था.

 

ठीक वैसे ही फासले 

जैसे पहले तुम बनाया करती थीं 

लेकिन आज मैं बेहद खुश था 

क्योंकि 

तुमने अब लोगों की परवाह करना छोड़ दिया था

अपने ख़्वाबों को प्यार करना शुरू कर दिया था.


7.


सुनो 

कभी-कभी सुबह 

सपने में सिर्फ तुम्हारा आना ही याद रहता है 

बाकी कुछ भी नहीं. 


याद करने पर भी

कुछ याद नहीं आता.


बस तुम्हारे आने का अहसास होता है 

अहसास भी ऐसा 

जैसे अभी-अभी तुम 

मुझसे मिलकर चली तो गई हो 

लेकिन 

अपनी खुशबू यहीं छोड़ गई हो

मेरे पास.


8.


सुनो 

पता है 

आज मेरे सपने में 

कौन आया?


अरे बाबा तुम नहीं

भोले बाबा.


वे कह रहे थे 

मेरे से पहले तुम 

'राम' का नाम लिया करो

बस ये कहकर वे चले.

 

क्यूं आया ऐसा सपना 

मुझे कुछ पता नहीं 

तुम्हें कुछ पता हो 

तो बताना.


9.


सुनो 

आज सपने में 

मैं कहीं अकेला 

उदास-सा बैठा था.


तुम मेरे पीछे से आईं 

और पूछने लगीं 

यूं अकेले क्यों बैठे हो?


मैं चौंका 

तुम्हारी आवाज सुनकर 

पीछे मुड़कर तुम्हें देखा 

बस एकटक देखता रहा 

और फिर 

रो पड़ा. 


ऐसे-जैसे कोई बच्चा 

जब तकलीफ में होता है तो 

मां को देखकर रो पड़ता है.


10.


'सुनो'

'हां, आई.' 

आखिर बार 

कब कहे गए थे 

ये तीन शब्द 

हम दोनों के बीच 

कुछ याद है तुम्हें!


Sunday, September 14, 2025

आलथी-पालथी और शादी का किस्सा...

आज सुबह काजल जी ने उकडू बैठने से संबधित पोस्ट लगाई. तो हमें अपना कुछ याद हो आया. वैसे तो हम बचपन से उकडू बैठते रहे हैं. वो अलग बात है कि अब शायद ही बैठ पाएं क्योंकि याद नहीं आख़िरी बार उकडू कब बैठा था. बचपन में हम सुबह-सुबह खेत (यमुना खादर के खेत) में ही जंगल होने ( जंगल होने मतलब दिशा मैदान यानि हल्के होने 😄 ) जाते थे. फिर बाद में घर में देसी टॉयलेट बनवा ली. लेकिन ये आलथी-पालथी वाला काम हमसे नहीं हो पाता था. दरअसल बचपन से ही दीवार से पीठ लगाकर ही खाना खाते थे और फिर पढ़ाई भी ऐसे ही दीवार से पीठ लगाकर ही कर लेते थे. फिर बाद में पढ़ाई के लिए कुर्सी मेज आ गए. फिर बाद में जब घर में नए कमरे बने तो हमने अपने बाथरूम में अपने लिए वेस्टन टॉयलेट बनवा ली. बस फिर क्या था हम उकडू बैठना भूल गए 😄 जिंदगी अपनी रफ्तार से चल ही रही थी. हम बड़े हुए. इतने बड़े कि शादी की चर्चा होने लगी. लेकिन जब शादी की बातचीत शुरू हुई तो घर-कुनबे में चर्चा शुरू हुई कि ये फेरों पर कैसे करेगा. फेरों में तो काफी देर तक आलथी-पालथी मारकर बैठना पड़ता है. खैर आपां ने ज्यादा परवाह नहीं की. लेकिन जब रिश्ता तय हो गया तो हमें भी लगा बेटा कुछ तो करना पड़ेगा. लेकिन फिर जो कुछ भी किया धरा गया. उससे बात नहीं बनी. बननी भी नहीं थी. जो आदमी बचपन से आलथी-पालथी लगाकर ना बैठता हो, वो चार दिन में कैसे आलथी-पालथी मारकर बैठने लगता. पैरों की स्टिफ़नेस बनी रही. जोकि आज भी बनी हुई है. खैर किस्सा तो अब शुरू होता है. वहीं फिर एक दिन लड़की वाले सगाई करने आ गए. छोटा सा कार्यक्रम था. हम आलथी-पालथी मारकर बैठ गए. दोनों टांगे ऐसे उठी हुईं थी कि जैसे किसी चारपाई को उलटा कर दो तो उसके पाए खड़े हो जाते हैं 😄 सिर पर रुमाल रखा हुआ था. कुछ देर बाद कंधे पर रखे तोलिये की झोली बनवा दी गई, जिसमें लड़की वालों की तरफ से कुछ सामान दिया गया था. फिर जब उठने का इशारा हुआ तो आपां ने एक हाथ से तौलिए की झोली पकड़ी और एक हाथ फर्श पर लगाकर उठ गए. कार्यक्रम खत्म होने से कुछ देर पहले ही कहानी में हमारी वाइफ के फूफा जी प्रकट हुए. आप समझ ही गए होंगे. फूफा जी मतलब. ये बात मुझे बाद में पता चली लेकिन हो उसी दिन गई थी कि फूफा जी कह रहे हैं कि लड़के के पैर ठीक नहीं हैं. खैर हमारे ससुर जी उन पर नाराज हुए. इतने नाराज कि उस दिन के बाद सिर्फ शादी के दिन ही फूफा जी ससुराल वाले घर में नजर आए.

खैर जब इस प्रकार की घटना हो जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है. हम परेशान कि क्या किया जाए. होना जाना तो कुछ नहीं था. आपां के वश में नहीं था कि पैरों की स्टिफ़नेस को इतनी जल्दी दूर कर दें. जब शादी का दिन नजदीक आया तो चिंता और बढ़ गई. खैर शादी के दिन फेरों के समय पिताजी ने कह कर मेरे बैठने की जगह को दूतई (चारपाई पर बिछाने वाला कपड़ा.) से थोड़ा ऊंचा-सा करवा दिया. हम उस पर बैठ गए. उधर हमारे जाट दोस्त चिंतित. वो पंडित जी से बार-बार कहे कि पंडित जी जल्दी करो जल्दी 😄 फिर पता नहीं हमें क्या सूझा हमने अपने एक पैर का घुटना वाइफ के एक पैर पर रख दिया. बहुत सहारा मिला 😍 तब से ही वे हमारा सहारा बनी हुई हैं 😍 खैर दोस्त को कह दिया कि वो चिंता ना करें मतलब कि पंडित जी को बार-बार जल्दी-जल्दी करने को ना कहे और ऐसे हमारे फेरे हो गए. वो भी सहारे वाली आलथी-पालथी मारकर 😄

Monday, September 8, 2025

सुनो...आ जाती हो अक्सर तुम मेरे सपनों में...

1.

सुनो 

आ जाती हो अक्सर तुम मेरे सपनों में

इसका क्या मतलब है?

मैं ज्यादा याद करता हूं तुम्हें 

या फिर 

मैं ज्यादा याद आता हूं तुम्हें?


2.


सुनो 

जब सपने में आया करो 

कम से कम इनमें तो 

पल दो पल ही सही

बातें कर लिया करो 

सच बिना तुमसे बात किए  

ये सपने भी अच्छे नहीं लगते हैं.


3.


सुनो 

तमाम परेशानियों के बावजूद

‘कैसी हो तुम?’

पूछने पर

‘अच्छी हूं.’

क्या तुम आज भी कहती हो!


4.


सुनो 

रात सपने में 

मैंने तुमसे चाय मांगी थी

देखो ना तुम 

सपने में भी 

मैं तुम्हारे हाथों की 

चाय ना पी सका. 


5.


सुनो 

अच्छा एक बात तो बताओ 

क्या बारिशों में तुम आज भी 

अपना पसंदीदा गीत 

'मौसम है आशिकाना

ऐ दिल कहीं से उनको 

ऐसे में ढूंढ लाना....'

गुनगुनाती हो ?

Tuesday, August 26, 2025

प्यार के फूल किताबों में

एक दिन अस्पताल में अपनी बाईं गाल बार-बार दबा रहा था. उसने (गीता ने) पूछा: क्या हुआ? मैंने कहा : दांत दर्द. जो गीता तीन बार मेरे नरक-प्रवेश की कोशिश से नहीं डरी, जो गीता मेरे चालीस परसेंट जलने के कारण मुझे नहलाने से नहीं डरी, क्योंकि जले हुए शरीर से घिन आती है, दांत-दर्द की बात सुन उसके कंधे झुक गए. यह शायद उसकी अंतिम पराजय का एक अस्थायी क्षण था. मुझसे कहा: ओ दीपक, मैं क्या-क्या करूँ तुम्हारे लिए!

~'स्वदेश दीपक' के लिखे 'मैंने मांडू नहीं देखा' से  



अगले सप्ताह दफ्तर के पते पर 'कला' का पत्र मिला. बिना किसी संबोधन के उसने लिखा था. मैं ठीक-ठाक पहुंच गई थी. इजा को मैंने आपके सारे उधार के बारे में बतला दिया है. टिकट से लेकर हाथ-खर्च तक. और हाँ, आपका शाल आपके आदेशानुसार पहुंचा दिया है. मुझे बुरा लगा. 


मैं धीरे-धीरे पत्र मोड़ रहा था कि पिछली ओर कुछ लिखे पर नजर पड़ी. लिखा था, ‘बुरा लगा! नहीं रे! शाल उसने रख लिया है, जिसके लिए था. थैंक्यू! 


~'पंकज बिष्ट' के लिखे उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ से.

Saturday, August 23, 2025

'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' और हम बाप-बेटी

कल कनॉट प्लेस (सीपी) किसी काम से जाना हुआ. काम खत्म होने के बाद बेटी कहने लगी कि चलो पापाजी 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' चलते हैं. और हम उधर की ओर चल दिए. सालों के बाद जाना हुआ 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर'. पहले की अपेक्षा यह अब थोड़ा खुला-खुला सा लग रहा था.घुसते ही बेटी चहक-सी गई. फिर इसके बाद इसने ना जाने कितनी किताबों और लेखकों से परिचय कराया,जिनके बारे में मुझे पता नहीं था.सबके सब विदेशी लेखक थे. 

दो-चार नाम जो याद रह गए. 'Fredrik Backman', 'Haruki Murakami', 'Khalid Hoosseini', 'Kristin Hannah' आदि आदि.

बल्कि बेटी 'Before the Coffee Gets Cold-Toshikazu Kawaguch (आजकल इसी किताब को पढ़ रही है.) किताब को उठाकर मुझे दिखाते हुए बोली,'पापाजी देखो मेरी किताब भी यहां है.' 

मैं बीच ही में बोल उठा,' ये किताब आप ऐसे दिखा रही है जैसे आप ही की लिखी  हो.' 

वो कहां रुकने वाली थी झट से बोलीं,' ओ हो पापाजी! पता है जब आप किसी चीज या आदमी को पसंद करने लगते हैं तो वो चीज अपनी और इंसान अपना ही लगने लगता है.' 

'हां ये बात तो है. जैसे शाहरुख खान मुझे अपना-सा लगता है. उनकी फिल्म हीट हो जाए तो अच्छा लगता है. बेशक वो फिल्म आपने देखी हो या ना देखी हो.'

फिर वो बीच-बीच में अपनी पसंद की किताबें दिखाती रही. फिर एक जगह रुकी और बोली,' पापाजी ये देखो 'Rom-Com Books'.' 

'Rom-Com Books' मतलब.' मैं बोला. ' सच आपको 'Rom-Com Books' का नहीं पता. 'Rom-Com Books' मतलब 'रोमांटिक कॉमेडी' वाली किताबें.' वो बोली. 

सच मुझे आज से पहले 'Rom-Com' किताबों के बारे में नहीं पता था.और सच बताऊं तो मैंने विदेशी लेखकों की ज्यादा किताबें नहीं पढ़ी हैं, जिन्हें पढ़ा है उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है. लेकिन हां हिंदी के लेखकों को तो खूब पढ़ा है. और उनका परिचय बेटी से भी कराया था. उनके किस्से बेटी को सुनाएं भी थे. लेकिन तब जब उसे इतनी समझ नहीं थी,जितनी आज अब है. इसे यूं ही भी कह सकते हैं, मैंने पहले बेटी को हिंदी के लेखकों से मिलवाया था. बेटी कल विदेशी लेखकों से परिचय करवा रही थी.

बाद में जब हम 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' से निकलने लगे तो मैंने 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर'वालों के नोटिस में अपनी यह बात डाली कि यहां हिंदी की किताबें कम है.अगर हो सके इनकी संख्या को बढ़ा जाए. वहां के कर्मचारी ने यह विश्वास दिलाया कि आपकी बात को प्रबंधकों तक पहुंचा दिया जाएगा. सच में 'ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर' में हिंदी किताबों की संख्या कम थी. बल्कि  यूं कहूं कि उससे ज्यादा हिंदी की किताबें तो मेरे कमरे में हैं. ये कहना ज्यादा सही होगा. 

Wednesday, June 25, 2025

पिता

1.
हांफती सांसों से
कांपते हाथों से
एक बुजुर्ग पिता
सुबह से शाम तक
लगा रहता है
एक मजदूर की तरह
कुछ पुराना तोड़ता हुआ
कुछ नया रचता हुआ
वहीं मैं बस
खड़ा रहता हूं
एक गिल्ट के सहारे.


















2.
बहुत से पिता अपनी जरूरतों के बारे में नहीं बताते. दरअसल उन्होंने शुरू से घर चलाने के चक्कर में अपनी जरूरतों को कम करके जीना सीख लिया होता है.  उनकी जरूरतों को समझने के लिए आपको उन्हें समय देना होता है.  उनसे बात करनी होती है. फिर बातों में से बातें निकालकर थोड़ा-थोड़ा समझना पड़ता है. फिर उनके लिए उन चीजों को बिना बताए लाना होता है. क्योंकि पूछने पर वे मना कर देते हैं. कहते हैं  'इसकी क्या जरूरत है.'  लेकिन एक बार चीज आ जाती है तो वे खुशी-खुशी उसका उपयोग करने लग जाते हैं. वरना तो वे समझते हैं कि बुढ़ापा है, बुढ़ापे में क्या ही करना इन सब चीजों का. बुढ़ापा है धीरे-धीरे कट जाएगा. [ तस्वीर प्रतीकात्मक है.]

Monday, April 14, 2025

यादें ननिहाल की

ये जो सुंदर तस्वीर आप देख रहे हैं. ये मैंने नहीं बनाई! ये तो अमिताभ श्रीवास्तव जी ने बनाई है. वे आजकल अपने बचपन के शौक को फिर से ज़िंदा करने में लगे हैं. मैंने सोचा क्यों ना मैं भी इस बहाने अपने बचपन के ननिहाल की  खूबसूरत यादों को फिर से ज़िंदा कर लूं. बस फिर क्या था मैंने उन्हें एक तस्वीर भेजकर निवेदन किया कि अगर हो सके तो इसकी पेंटिंग बना दें. जिसके परिणाम स्वरूप यह आर्ट वर्क सामने आया. 


ये मेरे ननिहाल का एक कुआं है. बचपन की बहुत सारी यादें इसके साथ जुड़ी हुई हैं. दरअसल बचपन में जब भी गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां आती थीं. तो साथ में मामा को भी बुला लाती थीं. मैं उनके साथ बस में बैठकर अपनी नानी-नाना के गांव जाता था. दो-तीन घंटे के इस सफ़र में मीठी-मीठी संतरे की गोलियां मेरा अच्छा साथ निभाती थीं. फिर गांव से थोड़ा पहले हम बस से उतर जाते थे. तब यहां से ही गांव के लिए तांगे मिला करते थे. तांगा सड़क के दोनों तरफ किकर के दरख्तों से बनी छाया में टक-टक करता हुआ गांव की ओर दौड़ता जाता था. रास्ते में कई गांव आते थे. सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक बस खेत ही खेत नजर आते थे. वहीं कहीं-कहीं सड़क के किनारे भेड़ों और बकरियों के झुंड भी देखने को मिल जाते थे. कोई पांच-एक किलोमीटर की दूर तय करके तांगा गांव के अड्डे पर रुक जाता था. मैं और मामा तांगे से उतरकर खेतों के बीच से होते हुए अपने नानी के घर की ओर चलते जाते थे. रास्ते में गांव की औरतें मुझे देख मामा से पूछा करती थीं कि ' यो छोरा किसका स.' 

मामा उनसे कहते कि 'यो क्रीशो को छोरा है. दिल्ली रह स.' 

तो फिर वे औरतें कहा करती थीं 'अच्छा दलवाली है.' यानि दिल्ली का है. 

(बातचीत में बिल्कुल यही शब्द तो नहीं हुआ करते थे. लेकिन भाव यही हुआ करता.) 

ऐसे हम अपनी मां के गांव पहुंच जाते थे. 


नानी-मामी मुझे घर के काम करती हुई मिलती थी. मैं उन्हें नमस्ते कहता था. वे मुझे प्यार से पुचकारने लग जाती थीं. दो नानी, तीन मामी के पुचकारने से सिर के बाल अस्त-व्यस्त हो जाते थे!  मैं फिर या तो हाथों से बालों को ठीक कर लिया करता था. या फिर घर की दीवारों में जगह-जगह लगे छोटे-छोटे शीशों के सामने कंघी कर लिया करता था! फिर थोड़ी ही देर में मुझे भूख लग जाती थी. मैं रोटी-रोटी करने लग जाता था. तब मामी झट से चूल्हा सुलगाकर गर्म-गर्म रोटी बना दिया करती थीं. वहीं नानी उस पर नूनी घी रख दिया करती थीं. साथ में एक कटोरी दही भी दे दिया करती थीं. सब्जी तब के समय गांव के घरों में रोज नहीं बनती थी. सब्जी केवल तब बनती थी, जब कोई मेहमान आया करता था. वरना तो दही-दूध या चटनी से ही रोटी खा ली जाती थी. गांव की दही बिल्कुल सफेद नहीं हुआ करती थी. उसका रंग पके हुए दूध की तरह हल्का-सा पीला होता था. लेकिन स्वाद ऐसा कि दिल खुश हो जाया करता था. 


कुछ देर बाद सब अपने-अपने कामों से इधर-उधर निकल जाते थे. मैं अकेला रह जाया करता था. तब घर की बेहद याद आती थी. वहीं गर्मी अपना जलवा भी दिखाने लग जाती थी. तब मेरे नाना के यहां बिजली नहीं हुआ करती थी. उन दिनों बैठक के बाहर एक 'जाल' का पेड़ हुआ करता था. मैं बस उसके नीचे खाट डालकर बैठ जाया करता था. एक पक्षी होता है, कबूतर के जैसा. शायद उसे  'घूघी' कहते हैं. दोपहरी में वह उसी जाल के पेड़ पर बैठा मिलता था. उसकी आवाजें कानों में पड़ती रहती थीं. मैं उसे ही सुनता रहता था. मुझे उसकी आवाज प्यारी लगती थी. कभी-कभी ननिहाल में लगे नीम के पेड़ से 'मोर' भी नीचे उतरकर, मेरे आजू-बाजू टहलते रहते थे. यूं तो सामने ही मुख्य सड़क थी लेकिन दोपहरी में एक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते नजर आते थे. सच में दोपहरी में समय काटना मुश्किल हो जाया करता था. लेकिन बाद के दिनों में मेरा दूसरे घरों की बैठकों में आना जाना शुरू हो गया था. जहां दोपहरी में 'ताश' के पत्तों की महफ़िल सजा करती थीं. एक तरफ लोग 'ताश' खेल रहे होते थे. वहीं दूसरी ओर टेप रिकॉर्डर पर 'रागनियां' बज रही होती थीं. कभी-कभी यूं भी होता था. मैं ट्रेक्टर पर घूमने की चाह में भरी दोपहरी में ट्रेक्टर से खेतों में चला जाया करता था. 


लेकिन फिर जैसे-जैसे घूप कम होती थी. गांव में कुछ रौनक-सी होने लगती थी. गांव के लोग अपने पशुओं को पानी पिलाने ले जाते दिखाई देने लग जाते थे. कोई अपनी भैंसों को ले जा रहा होता था. कोई अपने बैलों को ले जा रहा होता था. तब दिल लगने लगता था. तब तक दोपहर में गायब रहने वाले नाना-मामा भी घर आ जाया करते थे. आते ही पशुओं की सेवा-पानी में लग जाया करते थे. एक मामा नाना के साथ पशुओं का चारा कटवा रहे होते थे. दूसरे मामा पशुओं को पानी पिलाने ले जा रहे होते थे. कभी-कभी मैं भी मामा के साथ बैलों को पानी पिलाने ले जाता था. 


फिर जैसे-जैसे शाम होने को होती थी. घरों की औरतें भी कुएं से पानी लेने के लिए निकल पड़ती थी. अक्सर मामी मुझसे हंसते हुए कहती थी कि चल मेरे साथ, एक घड़ा पानी का तू भी उठाकर लाइयो. अक्सर मैं उनके साथ चला जाता था. वे कुएं से पानी लेने के लिए साफ़-सुथरे, नए-से कपड़े पहनकर जाती थीं. वे कपड़ों में 'घाघरा', 'कमीज','चुंदडी' पहना करती थीं. लेकिन जो 'घाघरा' होता था, वो घाघरा नहीं कुछ-कुछ 'पेटिकोट' टाइप होता था. वे उसके ऊपर हमेशा सफेद रंग की कमीज पहनती थीं. कालर वाली कमीज में दोनों तरफ बंद दो जेब हुआ करती थीं. वहीं सबसे ऊपर चुंदडी होती थी, जिस पर खूब सारे कांच या प्लास्टिक के गोल-गोल सितारे से लगे होते थे. जोकि चमकते थे. चुंदडी हर रोज अलग रंग,अलग डिजाइन की हुआ करती थीं. सिर पर गोल सुंदर रंगबिरंगी-सी एक चीज हुआ करती थी, जिस पर घड़ा रखा जाता था. अभी उसका नाम याद नहीं आ रहा. वहीं पैरों में घुंघरु वाली पाजेब होती थी. कभी-कभी मामी चांदी का कमरबंद भी पहना करती थीं. गले में भी कुछ-न-कुछ पहना होता था. अब याद नहीं कि मामी गले में क्या पहनती थीं. लेकिन इतना याद है वो सोने का हुआ करता था. जब वे घर से निकलती थीं तो गले तक घूंघट होता था. सिर पर कभी एक घड़ा, कभी दो घड़े होते थे. वहीं एक हाथ में एक और घड़ा और दूसरे हाथ में खाली पानी की बाल्टी होती थी, जिस पर रस्सी बंधी होती थी. इसी बाल्टी से कुएं से पानी निकाला जाता था. जब वे चलती थीं, तब पाजेब छम-छम करती थी. ऐसा नहीं कि मेरी मामी ही साफ़-सुथरे नए-से कपड़े पहन कर आती थीं. उस कुएं पर आई अधिकतर औरतें नए-से कपड़े पहनकर आती थीं. 


कुआं थोड़ा ऊंचाई पर था. काफी सीढियां चढ़कर ही उस तक पहुंचा जाता था. कुएं पर मेरे पहले दिन पहुंचने पर मैं ही चर्चा के केंद्र में होता था. हर कोई मेरे से ही सवाल पूछता था. कौन हूं मैं? क्या नाम है मेरा? कहां से आया हूं? ऐसे ही अनेक सवाल. फिर दूसरे दिन औरतों की चर्चाओं में दुनिया जहान की बातें आ जाती थीं. कुएं से पानी भरती जातीं और बातें करती जातीं. मैं एक कोने में खड़ा जोहड़ को देखता रहता था. उस कुएं से पूरा जोहड़ नजर आता था. जिसमें पशु डुबकी लगा रहे होते थे. कुछ पशु पानी पी रहे होते थे. कुछ लोग अपने पशुओं को जोहड़ में घुसकर निकाल रहे होते थे. कुछ बच्चे जोहड़ में उछलकूद मचा रहे होते थे. बगल में ही एक पीपल का विशाल पेड़ था. उससे अच्छी-खासी हवा आती थी. कुएं के बगल में एक मंदिर भी था. कभी-कभी बीच में उधर से घंटी के बजने की आवाजें भी आती थीं. जब मामी अपने पानी के सारे घड़े भर लेती थीं तो खाली बाल्टी, जिसमें रस्सी बंधी होती थी उसे मुझे दे देती थीं. इस तरह मैं और मामी कुएं से अक्सर पानी लाया करते थे. 


फिर कुछ ही देर में सूरज ढल जाता था. घर में दीपक जल उठता था. नानी रसोई के बाहर वाला चूल्हा सुलगा लिया करती थीं. कुछ देर में ही हम सबके के लिए मोटी-मोटी रोटियां बननी शुरू हो जाती थीं. हम सब के सब चूल्हे के पास बैठकर गर्म-गर्म दूध-रोटी खाते थे. आखिर में नाना आते थे, अपनी तांबे की लुटिया लेकर. वे दो रोटी और लुटिया भरकर दूध ले जाते थे. फिर बैठक में जाकर खाया करते थे. समय का तो पता नहीं लेकिन एक तह वक्त पर सब सोने चले जाया करते थे. मेरी खाट बैठक के बाहर जाल के पेड़ के पास नाना की खाट के बिल्कुल बगल में डली होती थी. अक्सर नाना ही मेरी खाट बिछाया करते थे, जिस पर एक तकिया, एक पतली चादर रखी हुआ करती थी. नाना ज्यादा बातें नहीं करते थे. बस थोड़ी बहुत बातों के बाद वे सो जाया करते थे. मैं लेटा-लेटा आसमान में चमकते चांद-तारों को देखा करता था. इतने तारे दिल्ली वाले घर में कभी नजर नहीं आते थे. कभी-कभी बीच में दूर कहीं से ट्रेक्टर की आवाजें भी आया करती थीं. कभी-कभी इक्का-दुक्का मोर भी रात को अपनी प्यारी आवाज निकाला करते थे. वहीं रात को बीच-बीच में सड़क पर कुत्ते भौंका करते थे. फिर नाना उन्हें गाली देकर भगाया करते थे! इन्हीं आवाजों के बीच कब नींद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था. फिर आंखें सुबह ही चिड़ियों की चहचहाहटों से खुला करती थीं.


Monday, April 7, 2025

पिताजी और इनका कबाड़खाना

दरअसल अभी काजल जी ने कबाड़खाने की बात की. और उनका मानना है कि इस कबाड़ में से कुछ ना कुछ काम का जरुर निकल जाता है, जोकि सच बात है. और कबाड़खाने की बात पढ़कर मुझे भी बहुत कुछ याद आने लगा.

अंकलजी, कोई छोटा-सा लकड़ी का गुटका है.
क्या करना है. 
बस यहां सपोर्ट के लिए चाहिए.
अच्छा देखता हूं.
ये लो. 
ऐसा ही तो चाहिए था.
***

चाचा एक तीन एक फुट का पाइप है क्या? 
क्या करना है?
यहां जोड़ना है.
देखता हूं. 
ये लो. 
***
अंकलजी.
हां. 
एक तार चाहिए. 
कितना बड़ा?
हो कोई तीन-एक मीटर का. 
देखता हूं.वैसे करना क्या है?
कम पड़ गया तार.
अच्छा देखता हूं. 
ये लो.

***

अंकलजी.
हां 
एक नट चाहिए था. एक-दो इंच का. 
देखता हूं. 
ये देखो. इससे काम बन जाएगा. 
हां बन जाएगा. 

जब भी कोई मिस्त्री हमारे घर आता है. तब इस प्रकार की बातचीत हमारे घर में सुनने को जरुर मिल जाती है.  वैसे हर घर की तरह एक कबाड़खाना हमारे घर में भी है, जिसके इंचार्ज हमारे पिताजी हैं. मजाल है कि कोई भी सामान बाहर फैंकने दें. उनका मानना है कि हर बेकार चीज का इस्तेमाल हो सकता है. बस फर्क इतना सा है कि उसका इस्तेमाल आज नहीं लेकिन एक ना एक दिन तो जरुर होगा. और यह बात सच है. और एक बार मुझे भी महसूस हुई. 

शायद कोरोना के समय 2020 के आखिर दिनों की बात है. घर में एक नई रसोई का निर्माण होना था.और उसकी जगह बननी थी हमारे कमरे में से, जिसकी वजह से हमारा कमरा छोटा होना था.  इसी वजह से हमारी किताबों की अलमारी को हटाना पड़ा था. तब मुझे ख्याल आया कि इस अलमारी को कबाड़ी को देने से अच्छा है कि इसे बेटी के स्कूल को दे दिया जाए. और इसके साथ कुछ किताबें भी. पिताजी कहते रह गए कि इसे स्टोर रूम में रख दो. बाद में काम आ जाएगी. माना करो मेरी बात.वे कहते रहे.लेकिन मैं नहीं माना. मुझे लगा कि स्कूल में अलमारी और किताबें जाएंगी तो ज्यादा अच्छा होगा. खैर अलमारी और किताबें स्कूल को दे दी गईं. लेकिन पिछले साल की बात है. जब किसी काम के लिए एक अलमारी की बेहद आवश्यकता हुई तो मुझे उस अलमारी की बहुत याद आई. नई अलमारी के लिए पैसे नहीं थे. तब पिताजी की कही बात भी याद आई कि इसे स्टोर रूम में रख दो. बाद में काम आ जाएगी. खैर! 

बल्कि एक बात और नमूने के तौर बताता हूँ कि एक लोहे का बहुत मजबूत, बड़ा पाइप था, जो हमारे घर तब आया था जब हमारे घर पहली बार बिजली आई थी. तब इस लोहे के पाइप के अंदर से बिजली के केबल के तार गए थे खंभे तक. ये पाइप इतना मजूबत है कि दो दिन पहले ही सबसे नीचे के लेंटर के सपोर्ट में काम आया है. सोचकर देखूं तो ये पाइप 45 साल से भी ज्यादा पुराना है, जोकि आजतक केवल पिताजी के कारण घर में रखा हुआ था.हमने कितनी बार कहा कि इसे बेच दो. इसे किसी को दे दो. लेकिन वे नहीं माने और आज ये घर के सपोर्ट में काम आया. ऐसे ही ना जाने कितने उदाहरण होंगे मेरे पास.बाकी आप तस्वीरों से भी अंदाजा लगा सकते हैं. वैसे तो पिताजी और इनके कबाड़ख़ाने पर लिखने के लिए बहुत कुछ है और बहुत मन भी है लेकिन फिलहाल इतना ही. बाकी फिर कभी.

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